Monday, May 28, 2018

(९५) चर्चाएं ...भाग - 14

(१) मनुष्य आसान की तरफ नहीं आता है! कोई भी विचार कर्म करते है मेहनत करते है; जिस पर केंद्रित करते है दिमाग को फैलाता है! आप नकारात्मक सोच करते है तो सकारात्मक नहीं होता है!
यद्यपि आपकी चर्चा का विषय व आशय स्पष्टता से समझ नहीं पाया तद्यपि जो समझा तदनुसार उत्तर दे रहा हूँ. ...मानव, खासतौर पर हमारे भूभाग के व्यक्ति जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों का जितना अधिक सरलीकरण करने की चेष्टा कर रहे हैं , वे उतना ही दुष्कर, उलझाव भरे और जटिल होते जा रहे हैं. पीछे का मूल कारण यह है कि कामों को करने का हमारा ढंग यथासंभव शॉर्टकट अपनाने वाला है और अपेक्षित सैद्धांतिक ज्ञान बहुत ही उथला है. उदाहरण के लिए इन्टरनेट से जुड़ी सुविधाओं / वेबसाइट्स / सॉफ्टवेयर्स / उनपर काम करने के ढंग आदि पर ही एक नजर डाल लीजिये, ये सब जितने अंश में हमारा जीवन आसान कर रहे हैं, समानांतर रूप से उससे अधिक अंश में ये हमारा समय, ऊर्जा और सुख-चैन लिए ले रहे हैं!!! हमारे यहाँ प्रयुक्त अधिकांश सॉफ्टवेयर / प्रोग्राम्स बहुत सी तकनीकी खामियां रखते हैं, उन्हें आधे-अधूरे ढंग से अकुशलता के साथ बनाया गया है. कोढ़ में खाज यह कि सॉफ्टवेयर बनने और इंस्टाल करने के बाद कार्य-स्थलियों पर बहुत से कार्य उनपर मैन्युअली (मनुष्य के हाथों द्वारा) किये जाते हैं; यहाँ बहुत सारी फीडिंग मिस्टेक्स (गलतियाँ) कर्मियों द्वारा होती हैं! ...और अंत में उनको ठीक करने / करवाने के लिए बहुत ज्यादा परेशानियाँ होती हैं, दिमाग फटने तक को होता है!!! कई-कई घंटों व दिनों तक महत्वपूर्ण सर्वर बंद रहते हैं या उनके बंद होने की फर्जी बात कही जाती है. इस प्रकार के अधकचरे सैद्धांतिक ज्ञान और अनमनी कार्य-संस्कृति से हमारी जिंदगी आसान हो रही है या जटिल??? सरलता की कोशिश में जटिलता की ओर जाने का यह तो मात्र एक उदाहरण था, सूक्ष्म विश्लेषण करें तो आसपास हजारों अन्य उदाहरण भी मिल जायेंगे! ...चर्चा के विषय के अंत में ऊपर आपने लिखा है कि "आप नकारात्मक सोचते हैं तो सकारात्मक नहीं होता है." इसके उत्तर में मैं यह कहूँगा कि वस्तुतः होता इसका उल्टा है! यानी, "जब हम सकारात्मक नहीं सोचते, सकारात्मक नहीं करते, तो नकारात्मकता हमें घेर लेती है. नकारात्मकता यानी अंधकार का अस्तित्व तभी संभव है जब वहां सकारात्मकता अर्थात् प्रकाश-स्रोत की अनुपथिति हो! घनघोर अंधरे में यदि हम एक दियासिलाई तीली जलाएं तो कुछ प्रकाश हो जाता है, उससे एक-एक करके जितनी मोमबत्तियां जलाते जाते हैं, प्रकाश फैलता जाता है और उसी अनुपात में अंधकार कम होता जाता है!"

(२) ईश्वर प्राप्ति का उपाय क्या है?
संक्षिप्त उत्तर-- "योगः कर्मसु कौशलं." ..चूंकि मानवजीवन कर्म-प्रधान है, अतः प्रत्येक कार्य को कर्तव्य समझकर उसे सम्पूर्ण निष्ठा, न्यायप्रियता, ईमानदारी, अर्थात् एक शब्द में कहें तो, 'कुशलता' से करके ही हम ईश्वर से जुड़ सकते हैं.

(३) कलियुग की वेदना क्या है? समय काल युग कभी दोषी नहीं होते कर्म ही अच्छे-बुरे होते हैं - जो युग का निर्माण करते हैं!
बहुत ही अच्छा कहा आपने कि, "समय, काल, युग कभी दोषी नहीं होते, कर्म ही अच्छे या बुरे होते हैं, जो 'युग' का निर्माण करते हैं." ...इस दृष्टि से आज भी कहीं सतयुग जैसा है, कहीं त्रेता वर्णित जैसा, कहीं द्वापर के माहौल सरीखा और कहीं घनघोर कलियुग! ...जिस भी संघ, प्रदेश या राष्ट्र में 'खरे धर्म' अर्थात् नेकनीयती, ईमानदारी, पारदर्शिता, न्यायप्रियता, सौहार्द आदि का अस्तित्व जितना अधिक है, वह उतना ही उन्नत और सही मायनों में सुखी संघ है अर्थात् वहां अपेक्षाकृत उन्नत युग (परिस्थितियां) है! भारत की बात करते समय भी क्या कभी हम विभिन्न प्रदेशों और वहां की संस्कृतियों का तुलनात्मक विश्लेषण नहीं करते!? ..जी हाँ, हम समझते हैं कि अपने भारत राष्ट्र में ही अलग-अलग स्थानों पर 'वास्तविक धर्म' की स्थिति व अन्य परिस्थितियां यानी युग की अनुभूति भिन्न-भिन्न है!!!

(४) कर्म करते वक़्त मनुष्य क्यों नहीं सोचता?
बंधुवर, कुछ भी करते समय मनुष्य थोड़ा-बहुत सोचता तो अवश्य है, परन्तु सोचने उपरांत विचार या विकल्प कहाँ से आ रहे हैं, उसके कर्म की प्रकृति उसी पर निर्भर करती है! साधारणतया हमारी कर्मेन्द्रियों को कोई भी क्रिया करने का निर्देश हमारे मन के संस्कारों द्वारा और हमारी वृत्ति के अनुमोदन के पश्चात् मिलता है! मन के संस्कारों का निर्माण देखने, सुनने और महसूस करने से होता है; पूर्व जन्मों के बने संस्कार भी इनमें जुड़ जाते हैं. सबके गठजोड़ पश्चात् जिस प्रकार के संस्कारों का वहां प्रभुत्व होता है, उसी प्रकार की हमारी वृत्ति हो जाती है. मन में उपस्थित किसी भी संस्कार से उठा क्रिया-विचार हमारी कर्मेन्द्रियों तक तब ही जा पाता है, जब वृत्ति की सहमति, अनुमोदन आदि भी उसमें जुड़ता है! ..अब यदि किसी के संस्कार, वृत्ति आदि जब उसे कुछ गलत काम करने को उकसाते हैं तो हम यही कहते हैं कि, 'करने से पहले उसने विचार नहीं किया!' यद्यपि उसने विचार किया होता है, पर संस्कार और वृत्ति आदि के दूषित होने के कारण उसकी बुद्धि गलत निर्णय ले बैठती है! क्योंकि बुद्धि भी वृत्ति के ऊपर निर्भर होती है. गलत निर्णय या गलत काम करने वाले को काम करने के पश्चात् कभी ग्लानि होती है और कभी नहीं! यदि ग्लानि होती है तो मन में कुछ योग्य संस्कार अवश्य हैं पर इतने बड़े नहीं कि वे वृत्ति को साध पाएं, और यदि ग्लानि नहीं होती तो इसका अर्थ है कि उसके मन में कोई योग्य संस्कार हैं ही नहीं!

(५) ईश्वर है या नहीं? ईश्वर को कैसे महसूस करें??? क्या सच में ईश्वर है या यह केवल हमारा भ्रम है?
कुछ लोग इसका उत्तर "हाँ" में देते हैं और कुछ "ना" में, ...और कुछ संशय में रहते हैं कि भगवान् 'हैं' या 'नहीं'! ...यद्यपि 'हाँ' कहने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है, और 'ना' कहने वालों की बहुत अल्प; तद्यपि 'हाँ' कहने वालों में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, 'हाँ' पर जिनकी निष्ठा व विश्वास डोलते रहते हैं! आराधनालयों में वे आस्तिक होते हैं परन्तु दुनियावी स्वार्थों की पूर्ति के समय अंदरूनी तौर पर वे घनघोर नास्तिक दिखते हैं. ...और केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वालों के लिए एकदम ठोस प्रमाणिकता से यह कहना कि "भगवान् हैं" अथवा "भगवान् नहीं हैं", बहुत मुश्किल है. दोनों ही बातों का भौतिक या स्थूल प्रमाण देने का प्रयास व्यर्थ के वाद-विवाद को ही जन्म देता है. ..वैसे इस बारे में मेरा निजी मत आप मेरे ब्लॉग "चर्चाएं ...भाग - 1" के २०वें बिंदु में विस्तार से पढ़ सकते हैं.
मेरे आगे के ब्लॉगों में टुकड़ों-टुकड़ों में क्रमशः अनेक बातें हैं जो यदि समग्र रूप से लें तो भगवान् के अस्तित्व होने पर कोई संदेह नहीं रह जाता. हम सब भी अपूर्ण ही सही, फिर भी उसी के छोटे-छोटे सदेह अवतार ही तो हैं! आप जिज्ञासु हैं, अपनी जिज्ञासा को निरंतर बनाए रखिये, फिर आपके भीतर उपजे शुद्ध नैसर्गिक अनुभूतिजन्य ज्ञान को किसी अन्य के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी!
भगवान् के ऊपर 'विश्वास' या 'अविश्वास' से किसी का कुछ 'बनता' या 'बिगड़ता 'नहीं है! ...हाँ, 'सही' या 'गलत' करने से अवश्य ही हमारा कुछ 'बनता' या 'बिगड़ता' है (आधुनिक विज्ञान में क्रिया-प्रतिक्रिया सम्बन्धी न्यूटन का तृतीय नियम भी इसका अनुमोदन करता है)! 'विश्वास' होने से हमारे मन-मस्तिष्क पर कुछ लगाम लगी रहती है, हम 'गलत' करने से डरते हैं, ..जबकि 'अविश्वास' की दशा में हम 'निरंकुश' हो जाते हैं और योग्य कर्मों से विमुख हो जाते हैं.

Friday, May 18, 2018

(९४) चर्चाएं ...भाग - 13

(१) कौन सही है और कौन गलत? अगर एक लड़की को उसका पति शादी के बाद ना मन से ना धन से और ना तन से सुखी रख पता है और वही प्रेम कोई और उस लड़की को देता है एक सच्चे जीवनसाथी की तरह और वह लड़की अपने पति को छोड़कर उस इंसान से शादी कर सकती है जिसने उसका साथ दिया या यह कोई पाप है?
वैवाहिक जीवन में तन, मन और धन इन तीनों के सुख से भी बड़ी चीज है - "वफ़ादारी" अर्थात् "एक-दूसरे के प्रति पूर्ण निष्ठा"! ..इसके अतिरिक्त गहरी मित्रता, समर्पणभाव, एक-दूसरे की सम्पूर्ण केयरिंग आदि भी वैवाहिक जीवन को सुदृढ़ और सफल बनाते हैं. .....यदि ये सब गुण दोनों में हैं तो जीवनसाथी स्वतः ही तन, मन और धन से एक-दूसरे को सुखी रखने की सर्वोत्तम चेष्टा करेंगे ही! एक ही समय में एक से अधिक के प्रति जीवनसाथी समान सम्पूर्ण निष्ठा रखना वो भी बिना छुपाये (खुलेआम), साधारण मानव के लिए यह बिलकुल असंभव है. समाज या सामाजिक नियम भी इसकी स्वीकृति नहीं देते और ना ही हमारी अंतरात्मा ! हाँ, सुखी न रहने की दशा में समाज-सम्मत ढंग से सम्बन्ध विच्छेदन पश्चात् अन्य से विवाह संभव है. ..परन्तु यह गांठ बांध लें कि बिना विवाह किये वैवाहिक जीवन के सुख, निष्ठा आदि 'खुले तौर पर' और 'चिरकाल' के लिए पाना व देना बिल्कुल असंभव है (या दोनों में से कोई तो एक कभी भी सम्बन्ध तोड़ देगा, पलायन कर जायेगा). यदि हम फिर से कोई अन्य साथी ढूंढेंगे तो 'स्थायित्व' तो नहीं मिला न हमें! अतः विवाहेतर सम्बन्ध अथवा लिव-इन रिलेशन हमें "स्थायित्व और गरिमा" नहीं प्रदान कर सकते. ..खानाबदोशों सी जीवनशैली सदा के लिए स्वेच्छा से अपनाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं है; और न ही इसमें चिरस्थाई सुख है. अतः एक असफल विवाह तोड़कर, पुनः सोचसमझकर किसी अन्य योग्य एवं सिंगल व्यक्ति से समाज-सम्मत ढंग से दूसरा विवाह करना कोई पाप नहीं वरन यह सभी तरह के सुखों को स्थाई आमंत्रण है.

(२) एक सच्चे जीवन साथी की पहचान कैसे करें क्योंकि इस दौर में सही इंसान की पहचान करना बहुत मुश्किल है!?
व्यक्ति को स्वयं की अंतःप्रेरणा से ही एक सच्चे जीवनसाथी की पहचान हो सकती है; और योग्य अंतःप्रेरणा जागृत होने के लिए व्यक्ति का मानसिक और आध्यात्मिक रूप से परिपक्व होना बेहद आवश्यक है! मानसिक और आध्यात्मिक परिपक्वता हमें अपने अनुभवों, स्वभावदोषों पर नियंत्रण और मन की शुचिता के प्रयासों से हासिल होती है. इसके लिए हमें निरंतर भौतिक जीवन एवं स्व से ऊपर उठकर अपनी सोच को व्यापक विस्तार देने की आवश्यकता होती है. जब ऐसा वास्तव में हो जाता है तो जीवन में योग्य प्रसंग कुछ कोशिश से और कुछ स्वतः ही घटित होने लगते हैं; ...योग्य समय पर योग्य जीवनसाथी का मिलना भी उनमें से एक होता है. वैसे ज्ञानियों के अनुभवों से एक बात तो सामने आई है कि व्यक्ति के जीवन में तीन घटनाएं प्रारब्धवश घटित होती हैं- जन्म, मृत्यु और विवाह! वैसे देखा जाये तो प्रारब्ध का निर्माण भी तो व्यक्ति के किसी काल के खुद के कर्मों से ही होता है!!!

(३) भगवद् गीता के ज्ञान को अधिकाँश लोग सही तरह समझने में समर्थ क्यों नहीं हो पाते...? गीता का ज्ञान वास्तव में ठीक प्रकार से समझने के लिए जीव को आत्मशुद्धि ज़रूरी है!
गीता का ज्ञान विशुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान है, ..और आध्यात्मिक ज्ञान को समझ पाना उन्हीं के लिए संभव है जो सरल और सहज स्वभाव के होते हैं. स्वभाव में सरलता आना तभी संभव है जब व्यक्ति दुनियावी आसक्ति से कुछ परे हो. आसक्ति (सांसारिक दांवपेंच) और सरलता एक साथ तो होना संभव नहीं है ना! तो सांसारिक आसक्ति के साथ गीता में किसका मन रमेगा!? कोई यदि बलात् गीता को पढ़ ले, कंठस्थ भी कर ले, तब भी वह उसे भलीभांति समझ न पाएगा! यदि कोई समझने में सफल हो भी गया तो मानों उसने ५% प्राप्त कर लिया; शेष ९५% प्रतिशत वह तब हासिल करेगा जब वह उस पर रोजाना के जीवन में निरंतर अमल करेगा! बहुतायत के दुनियावी संस्कार और जीवात्मा पर पड़ा अविद्या का मोटा पर्दा उन्हें गीता को समझने या उसपर अमल करने से रोकते हैं. ...दुनियावी संस्कार और अविद्या के आवरण का नाश केवल यथोचित साधना द्वारा ही संभव है. स्वाध्याय, अच्छा साहित्य और अच्छे लोगों का 'निरंतर' संग, ये सब सम्मिलित रूप से करना एक प्रकार की साधना ही है. इससे हमारी सोच सरल और व्यापक होती है और हम उचित कर्मों की ओर अग्रसर होते हैं; और फिर गीता का ज्ञान अपनेआप उन कर्मों में प्रतिबिंबित होता है.

(४) नैतिकता के अभाव में आज जीवन किस तरह से प्रभावित हो रहा है...?? आज जीवन का हर क्षेत्र निजी से लेकर राजनीति तक बुरी तरह इस के शिकार हो चुके हैं.
हम सभी लोग जो इस प्रकार से प्रभावित हैं वो शायद अपने प्रारब्धवश ही नैतिकता के इस पतन को देखने और भोगने के लिए विश्व के इस भूभाग पर रहने के लिए बाध्य हुए हैं!!! चाहे हम लाख कहते रहें कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान आदि विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं, परन्तु सत्य तो यही है कि ये सब अतीत की बातें हैं. वर्तमान में  तो विश्व के इस भूभाग पर अनैतिकता का दलदल विशाल होता जा रहा है जिसमें हम बुरी तरह फंसते जा रहे हैं, छटपटा रहे हैं! समाज, नौकरशाही और राजनीति के अलावा अपेक्षाकृत शुद्ध कहे जाने वाले धार्मिक / सामाजिक धर्मार्थ ट्रस्टों में भी अनाचार, भ्रष्टाचार और लोकेषणा के लोभ आदि की बेकाबू होती विकट परिस्थितियों के चलते आध्यात्मिक जगत के योग्य मार्गदर्शक भी मौन होकर एकांतवास में पलायन कर रहे हैं!

(५) बुरे समय में लोग ज्ञान को क्यों भूल जाते हैं?
क्योंकि उनका ज्ञान शायद उथला है या उन्हें उस ज्ञान पर विकल्प-रहित विश्वास नहीं! बहुधा लोगों का विश्वास अनुकूल परिस्थितियों में तो कायम रहता है, परन्तु जरा सी प्रतिकूलता आते ही छिन्न-भिन्न हो जाता है. क्योंकि कुछ तो उनके विश्वास में कमी है और कुछ उस ज्ञान में जो उन्हें कहीं से मिला है; ..या ज्ञान देने वाला शायद खुद उसपर अमल नहीं करता तब भी शिष्य (अनुयायी) के साथ ऐसा होता है!!! ..वैसे मेरा मानना है कि स्वयं के अनुभवों और अनुभूतियों से जो ज्ञान सूक्ष्म रूप से आता जाता है केवल वो ही चिरस्थाई होता है. लेकिन पुनः..., वो ज्ञान भीतर आना और उस ज्ञान का चिरस्थाई होना तब ही संभव है जब व्यक्ति अपने जीवन में आने वाले प्रसंगों, अनुभवों, और अनुभूतियों आदि से उत्पन्न ज्ञान को लेने की प्यास रखे और बड़े मनोयोग से उसे धारण करे! किताबी और सुने-सुनाए ज्ञान की आयु बहुत छोटी होती है, चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो!!! हाँ..., किताबी और सुना-सुनाया ज्ञान तब असरदार और स्थाई हो सकता है जब व्यक्ति उस पर निरंतर अमल करके कुछ सुखद अनुभूति ले. पुनः, यह सिद्ध हुआ कि अनुभूत करना तो अनिवार्य है!