उपरोक्त विषय पर इस ब्लॉग के अनेक लेखों में पहले ही पर्याप्त विवेचन हो चुका है। तद्यपि चूँकि यह हमारे ब्लॉग का प्रमुख विषय है, अतः वर्तमान परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में एक बार पुनः इस पर दृष्टिपात कर लेते हैं।
आजकल साधना के नाम पर विभिन्न कर्मकाण्डों, व्रत, पूजापाठ, मंत्रजप, नामजप आदि को करना; नियमित या किसी दिन-विशेष आराधनालय जाना, सत्संग या प्रवचन में जाना, खानपान में अनेकों विधि-निषेध अपनाना, किसी सम्प्रदाय या संस्था-विशेष का सदस्य बनना जैसे कृत्य आम प्रचलन में हैं। सम्बंधित लोगों से यदि ये सब कृत्य करने का 'वास्तविक' कारण जाना जाए तो यह तथ्य प्रकाश में आता है कि अधिकतर मामलों में लोग ये सब कृत्य किसी न किसी सांसारिक अभिलाषा की पूर्ति हेतु ही करते हैं। कुछ लोग इन कृत्यों के माध्यम से ईश्वर से अपने पापों के लिए क्षमायाचना करते हैं। वास्तव में उनका असली मंतव्य यही होता है कि ईश्वर उनके पापों को अनदेखा कर दें। पिछले पापों को धोने के लिए गंगा में डुबकी लगाना या तीर्थयात्रा करना तो आम प्रचलन में है ही, यह सब जानते हैं। हाँ, कुछ मामलों में मोक्ष अर्थात् जन्म-मृत्यु के फेरों से मुक्ति हेतु विभिन्न धार्मिक कृत्य किये जाते हैं। ... तो देखने में यही आता है कि विभिन्न धार्मिक कृत्यों के पीछे कुछ न कुछ स्वार्थ छिपा रहता है। भौतिक सुख-संपत्ति और सांसारिक अभिलाषाएं ही आज साधना का प्रमुख लक्ष्य हैं। ... यह भी देखने में आता है कि जब दो राष्ट्रों का परस्पर युद्ध होता है, तो उनके देश के धर्मगुरु ईश्वर से अपने-अपने देश की विजय हेतु कामना-प्रार्थना करते हैं। अब ईश्वर किसे सही मानेगा?
यह प्रचलन भी आम है कि लोग संतान, व्यापार, नौकरी, धन, अधिक मुनाफे, सुख-सम्पदा और विलासिता की चाहत में ईश्वर के मानव-निर्मित छद्म दरबारों में हाजिरी देते हैं, पागलों समान पूजा-अर्चना करते-करवाते हैं। स्पष्ट है कि आज लोगों ने ईश्वर को एक भ्रष्ट और चापलूसी पसंद करने वाला राजा मान लिया है तथा साधना रूपी कृत्यों को रिश्वत में दी जाने वाली भेंट समझ लिया है। साधना करने का मूल उद्देश्य ही पलट गया है। ईश्वर व साधना की इससे बड़ी विडम्बना कदाचित् संभव नहीं। जब धार्मिक कृत्यों को करने-करवाने का उद्देश्य बिलकुल पलट चुका है तो फिर लोगों के अन्य कृत्यों का उद्देश्य पलट जाना तो स्वाभाविक ही है। विरला ही कोई मिलता है जो मात्र भजन के लिए ही भजन कर रहा हो अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति हेतु अर्थात् सच्चे ईश्वरीय गुणों को अपने आचरण में आत्मसात् करने हेतु साधना कर रहा हो।
आजकल तो साधना खिलवाड़ सी बन कर रह गई है। कर ली तो ठीक, न करी तो ठीक। बीच में कोई आ गया तो उससे भी मिल लिया, कोई फोन आ गया तो उस पर भी कुछ देर चोंच लड़ा ली। पंडित या पुरोहित का ध्यान इस पर अधिक रहता है कि यजमान किससे-कैसे खुश होगा, और यजमान उसके कृत्य को एक अजब तमाशे के रूप में लेता है! कुछ धार्मिक कृत्य किसी चमत्कार होने की लालसा से किये जाते हैं, परन्तु प्रारब्ध व कर्म की कमी के चलते अभीष्ट सिद्ध न हो पाने के कारण लोगों का वह कच्चा विश्वास भी टूट जाता है। फिर भी कुछ लोग एक लती जुआरी की भांति बारम्बार 'चांस' लेते रहते हैं! जुए में अनेकों बार तुक्के सही भी बैठते हैं! ... ईश्वर के प्रति खरी श्रद्धा या विश्वास कहीं खो गया है, और उसका स्थान एक निम्नस्तरीय नाटक ने ले लिया है। आज की पीढ़ी पुरातन जीर्णशीर्ण परिपाटियों को जैसेतैसे अपने-अपने ढंग से एक नौटंकी के रूप में निभा रही है और ऊपर से तुर्रा यह कि ऐसा न करने वालों की भर्त्सना की जाती है व उन्हें नास्तिक या धर्मविरोधी घोषित किया जाता है, उन्हें समाज से बहिष्कृत तक कर दिया जाता है।
सर्वत्र झूठ व दिखावा देखने को मिल रहा है। आडम्बर का बोलबाला है। पाखंडी लोग, धर्मगुरु आदि खूब लाभ में हैं। कदाचित् धन की अभिलाषा एक बार को न भी हो, तदपि जागतिक यश की अभिलाषा कमोवेश सभी वर्तमान धर्मगुरुओं में कूट-कूट कर भरी है। प्रवचन देते समय या भक्तों से मिलते समय उनके नेत्रों, भावभंगिमाओं और शारीरिक भाषा से इसका पूरा-पूरा भान होता है। अधिकांश मार्गदर्शकों में यथार्थ सहिष्णुता का पुट नहीं मिलता। लोगों, अनुयायियों आदि के खोखले विश्वास को और अधिक खोखलेपन के साथ सुदृढ़ करने हेतु उनके सम्प्रदाय के धर्मगुरु उनके मन में अन्य सम्प्रदायों के प्रति नफरत, द्वेष आदि की भावना भरते हैं। अन्य पंथों की सोच या सिद्धांतों को यदि वे धर्मगुरु किसी कारणवश समर्थन भी देते हैं तो स्पष्ट रूप से वह झूठा व बनावटी प्रतीत होता है। परिणामतः आज प्रत्येक समूह यही जानता और मानता है कि केवल उसी का समूह व उसकी पूजा पद्धति तथा उसके देवता सर्वश्रेष्ठ हैं, अन्यों के निकृष्ट!
व्यर्थ के दिखावों और व्यर्थ की मूर्तिपूजा के घनघोर आलोचक तथा जीवनपर्यंत सादगी से रहने वाले अनेक महानुभावों के आज विशाल मंदिर बन गए हैं। बड़े दिखावे के साथ उनकी प्रतिमाओं की भव्य पूजा-अर्चना होती है। चढ़ावे का कोई अंत नहीं! यह देख आत्मा विलाप करती होगी उन महापुरुषों की! ... अहिंसा के घनघोर समर्थक एक प्राचीन मुनि के वर्तमान धर्मगुरु अनेक बंदूकधारी अंगरक्षकों से घिरे हुए प्रवचन देते देखे जाते हैं। बड़ा हास्यास्पद लगता है यह! कोई उनसे यह पूछे कि अहिंसा के पुजारी के इर्दगिर्द इन बंदूकों का क्या काम? परन्तु आज यह पूछने का साहस किसी में नहीं और न ही समझने का!
आज कोई सम्प्रदाय कुछ बता रहा है तो कोई कुछ और! सब बहलाने-फुसलाने और विभिन्न स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं। अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग! बस एक ही समानता है सबमें कि भव्यता और दिखावा आदि चरम पर हैं। अंधविश्वास बढ़ाने की तो कोई थाह ही नहीं! समय के साथ सिद्धांत और मूल्य बदल चुके हैं। ढोंगियों का राज है। धन और सांसारिक यश उन पर बरस रहा है। पाँचों अंगुलियाँ घी में... और सर कड़ाही में है! यह सब भी प्रारब्ध का खेल है! अध्यात्म के अन्तरंग में उतरने व उतारने वाले धार्मिक गुरुओं का मिलना आज अति दुष्कर है। आज प्रवचन देने वालों के आंतरिक जीवन में यदि झाँका जाए तो वहां सुनने वालों से भी अधिक गंदगी पाई जाती है। परन्तु लोग यह सब देखकर, जानकर भी आंखें मूंदे हुए हैं। भेड़चाल चल रही है। कारण है -- लोभ, अभिलाषा, लालसा तथा त्वरित सांसारिक लाभ की आकांक्षा। आज के कर्म की कल क्या प्रतिक्रिया आने वाली है इससे अनभिज्ञ भारत की आबादी का एक बड़ा प्रतिशत आज फंतासी अर्थात् कल्पना लोक में मग्न है। विज्ञानवादी भी आज अपना ही 'क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया' का सिद्धांत भुला बैठे हैं।
वेदान्त एवं अन्य कुछ उच्च प्राचीन साहित्यों में उल्लेखित ब्रह्मांड एवं ईश्वर के विज्ञानसम्मत नियमों-सिद्धांतों की ओर से नेत्रों को मूंद लेने से सच्चाई नहीं बदल जाएगी। आज आवश्यकता है कि अध्यात्म पर से जो विश्वास मर गया है या विकृत हो गया है, उसे जिज्ञासापूर्ण वैज्ञानिक दृष्टि से देखकर तत्पश्चात् अनुभूत कर पुनः जीवित अथवा स्वस्थ किया जाए। ... जैसे विद्यालय में हम उत्तरोत्तर आगे की कक्षाओं में जाते रहते हैं, एक ही कक्षा में रुकना या पीछे की कक्षा में लौटना किसी को नहीं भाता है। ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान व साधना के क्षेत्र में भी हमें निरन्तर आगे की ओर जाने की आवश्यकता है। आइये... झूठे दिखावे, फरेब और दंभ को तिलांजलि देकर, बेड़ियों को काट कर, हम अपने अंतर्मन में झांकें। दिल तक.., आत्मा तक.. जाएं। उससे पूछें, मार्गदर्शन लें और स्वयं को परिष्कृत एवं परिमार्जित करें, वहां से ज्ञान का प्रकाश लेकर निरन्तर आगे की कक्षाओं में जाएं, तथा अन्यों को भी इसी के लिए प्रेरित करें। आज यही प्रासंगिक होगा। इति।