Monday, November 30, 2015

(५५) फिल्में, फिल्मकार और उनकी भूमिका

हिंदी और अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं की फीचर फिल्मों में आज जिस तरह से फूहड़ संवादों, देहप्रदर्शन, चुम्बन एवं अन्तरंग दृश्यों की भरमार है, उसके विषय में यदि फिल्म-निर्माताओं से बातचीत की जाए तो आज के अग्रणी फिल्मकार यही कहते हैं कि "वे फिल्मों में वही दिखा रहे हैं जो आजकल समाज में घटित हो रहा है, या वो दिखा रहे हैं जो आम दर्शक देखना पसंद करते हैं; इसके अलावा फिल्म बनाना उनका पेशा है, व्यवसाय है, वे केवल मुनाफे के लिए फिल्म बनाते हैं, दिवालिया होने के लिए नहीं!

अर्थात् आज के अधिकांश फिल्मकार यह समझते हैं कि फिल्म बनाना मात्र एक व्यवसाय है और समाज के उत्थान की यानी जनसामान्य की सोच को ऊंचा करने की जिम्मेदारी उनकी कतई नहीं है! मैं यह बात मानता हूँ कि परिपक्व मनों पर इन फिल्मों की अश्लीलता या अभद्र भाषा का कोई असर नहीं पड़ेगा, परन्तु ये फिल्मकार यह विचार बिलकुल भी नहीं करते हैं कि उपरोक्त-कथित फूहड़ता से उन मन-मस्तिष्कों पर क्या विपरीत असर पड़ रहा होगा जो अभी तक कोमल, सरल, स्वच्छ और अपरिपक्व हैं। क्या कोमलता, सरलता और स्वच्छता को नष्ट करके मनों को परिपक्व करने का प्रयास उचित है? क्या एक सुन्दर समाज के निर्माण में फिल्मकारों की कोई भूमिका नहीं है? क्या फिल्में समाज पर कोई भी असर नहीं डाल सकतीं?

यदि हम ऐसा मानते हैं कि फिल्में समाज की मानसिकता पर उल्लेखनीय असर डाल सकती हैं तो इतना तो पक्का है कि आज की अधिकांश फिल्में समाज को हिंसक रूप से कामुक, अश्लील और फूहड़ बनने के लिए उकसाती प्रतीत हो रही हैं। बलात्कार की बढ़ती घटनाएं और भाषाई रूप से भी हमारा फूहड़ता की ओर जाना क्या इस बात का संकेत नहीं है कि हम पुनः जंगली हो रहे हैं? मैं मानता हूँ कि सेक्स भी मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, परन्तु आज फिल्मों में सेक्स का फूहड़ एवं अति कामुक भावभंगिमा के साथ खुला प्रदर्शन उसकी असली गरिमा और सुखद पक्ष को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है।

सेक्स इन्सान की एक जरुरत है परन्तु एक निश्चित समय पर और गरिमामय ढंग से, ..शारीरिक व मानसिक परिपक्वता हासिल करने के बाद। ...सभी फीचर फिल्म निर्माताओं को भी भीतर से पता होगा कि वह व्यवहार क्या है या क्या होना चाहिए, जिससे हमें व हमसे जुड़े व्यक्ति को सुखद अनुभूति हो। परन्तु हमारे फिल्म निर्माता कुछ नया दिखाने तथा अधिक मुनाफा कमाने की चाह में भाषा और सेक्स सम्बन्धी बातों की नित नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं! जबरदस्ती ठूंसी हुई गालियाँ, अभद्र भाषा, उत्तेजक आइटम सॉंग्स, बेवजह लम्बे चुम्बन दृश्य, जायज व नाजायज अन्तरंग दृश्यों का खुला प्रदर्शन और वह भी सनी लियोन जैसी पोर्न-स्टार्स के माध्यम से, ..यह सब क्या है? इन सबकी पब्लिक डिमांड थी या जबरन क्रिएट की गयी?

अंग्रेजों ने आरंभ में हमें फ्री की चाय पिलाई और धीरे-धीरे हम चाय के आदी हो गए। ...यह पक्का है कि केवल मुनाफे, प्रसिद्धि और कुछ अलग दिखने व दिखाने की होड़ में फिल्मकार यह सब कर रहे हैं।

हम बच्चे को अच्छा पाठ पढ़ाएंगे तो वह अच्छाई की ओर जाएगा, बुरा पढ़ाएंगे तो बुराई की तरफ जाएगा ही, वैसे अपवाद कभी भी कहीं भी हो सकते हैं, पर न भूलिए कि अपवाद बहुत कम होते हैं! इस बात पर शायद फिल्मकार हंसकर कहेंगे कि "पब्लिक क्या बच्चा है?" इसका जवाब यह कि "भारत एक विकासशील देश है, एक आम भारतीय व्यक्ति पूर्ण रूप से विकसित या परिपक्व नहीं, वह नित कुछ न कुछ देख रहा है, सुन रहा है और उनसे प्रभावित होकर सीख रहा है। बुद्धिजीवी, फिल्मकार, नेता, अभिनेता, प्रसिद्ध खिलाड़ी यानी अभिजात्य वर्ग को ही हम तुलनात्मक रूप से परिपक्व कह सकते हैं, शेष अविकसित, अशिक्षित या अपरिपक्व ही हैं, तभी तो वे अनुगामी (followers) हैं।"

तो फिर क्या फिल्मकारों का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वे अपनी फिल्मों में वह दिखाएं जिसकी आज हमें सही मायनों में आवश्यकता है! फिल्मकार वह अवश्य दिखाएं जो आज वास्तव में गलत घटित हो रहा है, परन्तु उसे गलत ठहराएं भी; और जो वास्तव में होना चाहिए, उसे अवश्य सुझाएं; तथा प्रत्येक त्याज्य एवं अपनाने योग्य सोच का औचित्य सिद्ध भी करें। अवश्य ही एक दिन लोग इस तरह की फिल्मों की ओर केवल आकृष्ट ही नहीं होंगे वरन उनसे बहुत-कुछ ग्रहण भी करेंगे। फिल्मकारों को आर्थिक लाभ भी होगा, अवार्ड्स भी मिलेंगे और सबसे बढ़कर यह कि उनको स्वयं से एवं अपनी कृति से एक सुखद अनुभूति होगी। इति।

Sunday, November 29, 2015

(५४) दोहरे मापदंड

यद्यपि एक आम आदमी भारत के कानूनों की बारीक़ जानकारी नहीं रखता फिर भी वह कदम-कदम पर दोहरे मापदंडों को अपनाए जाने का अनुभव करता है! उदाहरणार्थ--

वैसे तो समाचारपत्र एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभिन्न मुद्दों पर पोल खोल अभियान या स्टिंग ऑपरेशन चलाता रहता है फिर भी उसी अखबार या चैनल पर उन्हीं विषयों से सम्बंधित विज्ञापन या कार्यक्रम आदि रोज आते रहते हैं और 'उनकी' तह तक जाने या पोल खोलने के लिए अक्सर कोई प्रयास नहीं होता है! कुछ उदाहरण, जैसे- निर्मल बाबा / आशु भाई सरीखे बाबाओं के कार्यक्रम, या रत्न-कवच-लॉकेट से सम्बंधित विभिन्न अन्धविश्वासी विज्ञापन, अख़बारों में 'दोस्त' बनाने और 'मसाज पार्लरों' के भड़कीले विज्ञापन!

अश्लील (पोर्न) फिल्में बनाने और उनकी डीवीडी बेचने वालों के खिलाफ अक्सर छापे मारे जाते हैं, उनकी पोल खोली जाती है, उन्हें बंदी बनाया जाता है, उनके मुंह पर कालिख तक पोती जाती है; परन्तु वही सामग्री इन्टरनेट पर सरलता से उपलब्ध है! और उस पर तुर्रा यह कि उन पोर्न फिल्मों की एक्ट्रेस को यहाँ सम्मानित किया जाता है, उसे आम फिल्मों में भी काम मिलता है, एक 'सेलेब्रिटी' के तौर पर उसकी फोटो छपतीं हैं, उस पर लेख छपते हैं, उसकी प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित होती हैं, उसके इन्टरव्यू आते हैं!

..समझने के लिए उपरोक्त दो उदाहरण ही पर्याप्त हैं, इनको नजर में रखते हुए आप बीसियों अन्य उदाहरण ढूंढ सकते हैं! सोचिए, ऐसा क्यों है अपने यहाँ? क्या यह सही? कानून क्या सिर्फ आम आदमी के लिए ही बना है? नैतिकता की अपेक्षा सिर्फ साधारण जन से ही क्यों? टैक्स हो या किसी सरकारी बिल का भुगतान, मात्र ईमानदार आदमी ही भुक्तभोगी क्यों? आज महंगाई, सरकारी घाटे आदि का मूल क्या एक साधारण आम आदमी, ..या कुछ भ्रष्टों या बड़ों द्वारा हर कदम पर की जा रही चोरियां (चूसना)?

लगभग हर क्षेत्र में 'कानून' केवल कुछ लोगों का गुलाम बन कर रह गया है! एक साधारण व्यक्ति के लिए वह 'धमकी' (threat) है और तिकड़मी या बड़े के लिए वह एक 'अनोखा अभयदान'! एक ही तरह अपराध पर प्रतिक्रिया के अलग-अलग मापदंड स्पष्ट दिखाई देते हैं!

आज हमारे 'अभिजात्यों' की नैतिकता भी केवल वैयक्तिक लोभ, प्रसिद्धि अथवा किसी दबाव में ही जागती है और मीडिया, अखबार, पुलिस, न्यायपालिका, राजनेता, फिल्म निर्माता, आदि भी इसी वर्ग में आते हैं! इति।

Friday, November 27, 2015

(५३) व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच राहुल की मेहनत और बेचारगी

कुछ समय पूर्व एक ब्लॉगर ने राहुल गाँधी के लिए बहुत सही फ़रमाया था कि, "वह दिन-रात कांग्रेस की गाडी को पटरी पर लाने के लिए और रिफोर्म के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं और दूसरी ओर वरिष्ठ कहे जाने वाले कांग्रेसी नेता कांग्रेस के लिए कब्र खोदने पर आमादा हैं।" इसके अतिरिक्त यह भी लिखा था कि, "कुछ साल पहले....शरद पंवार ने एक बयान दिया कि इस बार गन्ने की पैदावार कम हुई है, इसलिए शक्कर के दाम बढ सकते हैं। और उसी रात शक्कर व्यापारियों ने, जमाखोरों ने शक्कर के दाम बढा दिए। ...इस प्रकार बढती महंगाई का विपक्ष को फायदा मिलता है। ...68 सालों में गैर कांग्रेसी राज भी रहा है, भाजपा भी केन्द्रीय सत्ता में रह चुकी है, केंद्र और अनेक राज्यों में तो अभी भी है, लेकिन मंहगाई और भ्रष्टाचार रोकने के लिए किसने क्या किया है? ...दोनों ही केवल मुखौटे हैं या एक ही थैली के चट्टे-बट्टे, असल में सरकार चला रहे हैं अंबानी जैसे औद्योगिक लुटेरे ही।"

...इन्हीं या इनसे मिलते-जुलते मुद्दों पर मेरी सोच यह है कि, ..निश्चित रूप से राहुल गाँधी को हम 'अपरिपक्व बच्चा' कहकर नकार नहीं सकते! मुझे लगता है कि वह एक ऐसा नवयुवक है जो नई व ताजी सोच का है, सुधार की इच्छा रखता है, समझदार भी है, और पर्याप्त रूप से परिपक्व भी हो चुका है। ..परन्तु विडम्बना यह है कि उसे एक ऐसा परिवार, माता-पिता, मंच, साथी (पार्टी), आदि विरासत में मिले हैं जो वर्षों से लोगों की आस, साथ ही विवाद का केंद्र रहे हैं! सुर्ख़ियों में रहे परिवार व माहौल में जन्म लेकर किसी के लिए अपनी एक अलग पहचान बनाना इतना सरल नहीं होता है! ..और जानकार यह जानते ही होंगे कि सोनिया जी के दो बच्चों में से प्रियंका की तुलना में राहुल बचपन व किशोरावस्था में अनेक मायनों में कम परिपक्व थे! ..फिर भी राहुल ने मेहनत करके अपने मानसिक व बौद्धिक स्तर को सराहनीय रूप से ऊपर उठाया, अपनी सोच की स्वस्थता व सपनों की गुणवत्ता को संतुलित रूप से ढालने का लगातार प्रयत्न किया। ये बातें उनके आज के भाषणों व विचारों में परिलक्षित होती ही हैं। ..वो तो हमारी श्रद्धा किसी एक ही (अन्य) पार्टी की ओर होने के कारण हमें यह सब दिखाई नहीं देता, और अन्य दल का होने के नाते हम राहुल को केवल एक विपक्षी या प्रतिपक्षी समझकर मात्र उसकी अंधी आलोचना में लगे रहते हैं! ..जबकि हकीकत यह है कि राहुल ऐसा साहसी बेचारा है जो केवल संयोगवश या भाग्यवश मिली अपनी विवादास्पद विरासती जायदाद की मरम्मत में जोश से लगा हुआ है- पूरी आशा व ऊर्जा से। हम केवल इसलिए उसे नहीं नकार सकते कि वह एक विदेशी महिला का पुत्र है, बल्कि उसकी माँ को भी नकारना या भारतीय सांचे में ढलने के उसके प्रयासों को अनदेखा कर केवल उसे कोसना हमारी सोच की संकीर्णता को ही प्रदर्शित करता है! विपक्षी होने के नाते कभी-कभी हम अंधे होकर सामान्य मानवीयता को भी ताक पर रख देते हैं! हमें व्यक्ति, उसके कुटुंब, विरासत या संस्कृति की आलोचना न कर केवल उसके वर्तमान गलत  आचरण, कार्यों एवं दूषित सोच की आलोचना करनी चाहिए, वह भी अपने गिरहबान में झांकते हुए!

बुरी तरह से व्याप्त भ्रष्टाचार इस समय सबसे बड़ा मुद्दा है और राहुल का वैयक्तिक ध्यान इस ओर बखूबी है, इससे शायद किसी को इंकार न होगा यदि ईमानदारी से सोचना संभव हो सके तब! ...हाँ, इस बात से कतई इनकार नहीं कि कांग्रेस के अधिकांश नेता बुरी, बीमार और भ्रष्ट सोच के शिकार हैं! कमोवेश भाजपा का भी यही हाल है! ..और मीडिया भी इससे अछूता नहीं! महंगाई बढ़ाने में भ्रष्ट नेताओं के अतिरिक्त मीडिया का भी बहुत बड़ा हाथ है! शरद पंवार जी तो एक उदाहरण मात्र हैं, ..यहाँ अधिकांश सत्ताधारियों का यही हाल है चाहे वे किसी भी दल या विधानसभा आदि के हों! मुनाफाखोर व जमाखोर तो अब जैसे तैयार बैठे रहते हैं ..और किसी नेता या फिर मीडिया अथवा समाचारपत्र में किसी संवाददाता की रिपोर्ट आते ही खट से महंगाई बढ़ जाती है! बयानों व खबर मात्र से ही महंगाई बढ़ जाने की परंपरा इधर ४-५ वर्षों से ही देखने में आ रही है! ...व्यापारीवर्ग बहुत चतुर, मौकापरस्त व भ्रष्ट हो गया है अब! उदाहरण के लिए-- डीजल के दाम २ रुपए बढ़ने की संभावना होते ही पेपर में आशंकित व भयभीत करने वाली खबरें छपने लगती हैं और डीजल के दाम बढ़ने से पहले ही चीजें रातोंरात महंगी हो जाती हैं, वह भी बढ़ने वाले भाड़े की तुलना में कई गुना अधिक! ..थोड़ा सा सूखा पड़ते ही या थोड़ी अधिक बारिश होते ही या थोड़ी गर्मी या सर्दी अधिक होते ही आशंकित व भयभीत कर देने वाली मसालेदार खबरें छपने लगती हैं, ..और व्यापारीवर्ग की ओर से जनता पर महंगाई की एक और किश्त फिर से लाद जाती है! अनेक बार बेवजह (?) खबर छपती है कि टमाटर या प्याज का दाम फलानी-फलानी वजह से बढ़ने वाला है, और वो सब्जीवाला जिसने कम दाम पर ही माल उठाया है, अखबार पढ़कर तुरंत सब्जी का दाम बढ़ा देता है; आवश्यकता की चीज है तो लोग बढ़े दामों पर भी खरीदते ही रहते हैं, तो फिर थोक मंडी में भी रेट बढ़ जाता है! बिचौलिए, व्यापारी सब मालामाल हो जाते हैं और पिसती है तो बेचारी आम जनता! बाढ़ आना या सूखा पड़ना पहले भी होता था पर पर्याप्त जमा स्टॉक होने के कारण दामों में चमत्कारी रूप से परिवर्तन नहीं होता था पहले! ..अभी तो भण्डारण अत्याधुनिक हो चुका है फिर एकाएक ऐसा होना समझ में नहीं आता! समझ में अब केवल एक ही बात आती है कि स्वार्थ, मुनाफाखोरी, लालच आदि बढ़ गए हैं और निश्चित रूप से इस अनैतिक लाभ का हिस्सा प्रत्येक वह शख्स खाना चाहता है जो पैनिक फैलाता है! ..निश्चित रूप से उनमें उपरोक्त कथित सफ़ेदपोश हैं ही!

...अंत में थोड़ी सी बात और कर लेते हैं राहुल व राजनीति के बारे में! ..कांग्रेस में राहुल के अलावा नई व साहसी सोच रखने वाले साथी शायद दस से भी कम हैं इसीलिए राहुल को बहुत मेहनत करनी पड़ रही है और इसीलिए नतीजे उस मेहनत की तुलना में बहुत कम आ रहे हैं! ..भाजपा का भी यही हाल है। कांग्रेस की तुलना में वह सत्तासुख कम भोग पाई है इसलिए बहुत भूखे से हैं उसके अधिकांश शूरवीर! दोनों पार्टियों में भ्रष्टाचार सिर चढ़कर बोल रहा है! अधिकांशतः कांग्रेस सत्ता में रही इसलिए वहां भ्रष्टाचार स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है परन्तु भाजपा को अभी ही अधिकार मिला है, फिर भी मानसिकता से सब जाहिर है! आम आदमी पार्टी अभी कुछ अलग सी लग रही है, सबकी तुलना में अधिक स्वस्थ; ..आगे रामजाने!

अफलातूनी सोच ही लगती है पर क्या ऐसा संभव नहीं हो सकता कि राहुल गाँधी और कुछ अन्य समर्पित कांग्रेसी नेता, नरेन्द्र मोदी एवं कुछ अन्य दमदार व नेक भाजपाई नेता, केजरीवाल और परिपक्व सोच वाले उनके कुछ अन्य साथी, .. एवं ऐसे ही कुछ और लोग इस देश की बेहतरी के लिए अपना निजी अहं, स्वार्थ एवं महत्वाकांक्षा त्यागकर एक साथ एक मंच पर आएं और ....!! इति।

(५२) कलियुग का चरम अभी बाकी है?

हर साल, हर महीने, हर दिन, बल्कि हर घड़ी भारत में ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं जिनको देखकर उस पल यह लगता है कि 'बस अब कलियुग (भ्रष्ट समय) ने अपने चरम को छू लिया!' लेकिन फिर कुछ ऐसा प्रसंग घटित हो जाता है जो पहले वाले से भी अधिक भयावह प्रतीत होता है! भारतीय राजनीति के आंगन में ऐसा नित हो रहा है! चाहे वह कतिपय बड़े उद्योगपतियों को दिया गया वरदहस्त हो, या लम्बे समय से लटके फांसी के मामले, या राजनेताओं द्वारा कानून की कमजोरियों का लाभ उठाकर लिए गए हैरतअंगेज निर्णय, या विधानसभाओं या लोकसभा में नेताओं का पशुवत व नंगा व्यवहार!! ...शब्द कम पड़ जाते हैं!

कुछ समय पहले तक इन बातों का रोजाना उठना या इन पर खुल कर चर्चा करना तक असभ्यता का सूचक माना जाता था! लोग शर्म से गड़ जाते थे! पर अब तो हमारे जन प्रतिनिधि ही जब इतने एडवांस हो गए हैं तो मीडिया या जनसाधारण का क्या होगा? सोचकर सिहरन सी होती है। हमारे ही अभिजातवर्ग द्वारा भ्रष्टाचार व नंगई के नित नए कीर्तिमान स्थापित किये जा रहे हैं। रोजाना बुरी चीजों का पिछला रिकॉर्ड ध्वस्त हो रहा है। हमारे सरपरस्त बेशर्मी से हंस कर कहते हैं, 'चलो किसी फील्ड में तो हम तेजी से फर्स्ट रैंकिंग की ओर जा रहे हैं!

पहले चर्चा करने में भी झिझक होती थी अब तो पूरी फिल्में रोज देखने को मिल रही हैं! कहाँ जा रही है हमारी राजनीति? देश तो खोखला हो ही रहा है, डरता हूँ कि देखा-देखी कहीं आमजन की मानसिकता भी पूरी तरह से खोखली न हो जाए!? वैसे काफी अंतर तो आ ही चुका है उसमें! मानसिकता व भाषा के साथ ही हमारी शारीरिक भाषा भी रुग्ण होती जा रही है! फालतू का डर नहीं है यह, ..उत्तर प्रदेश की ही किसी ट्रेन के जनरल डिब्बे में, पान की दुकान पर, सरकारी कॉलेज के परिसर में, खाने के ढाबे पर, क्षेत्रीय लोकल ट्रेन / बस आदि में साधारण लोगों से बात करके देखिये या गौर से उनके परस्पर वार्तालाप को सुनिए, विश्वास हो जाएगा। यह सब हमारे बड़ों, हमारे अगुवों, हमारे आकाओं की ही देन है! इति।

Monday, November 23, 2015

(५१) बेचारी 'हिंदी', ..या बेचारे 'हम'!

बड़ी विडम्बना की बात है कि क्षेत्रीय भाषा, मातृभाषा या राष्ट्रभाषा आदि किसी भी रूप में हिंदी आज बुरी तरह से तिरस्कृत है।

सर्वप्रथम यदि हम हिंदी को एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में लें और इसकी तुलना अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से करें तो हम पाते हैं कि बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल एवं अन्य राज्यों में वहां की कुछ न कुछ क्षेत्रीय भाषाएं (मातृभाषाएं) हैं और वहां के मूल निवासी 'आपसी' सामान्य व्यवहार में उन भाषाओँ को 'अधिकारपूर्वक' एवं 'गर्व' से बोलते हैं, 'बिना किसी तुच्छ भाव के'; जबकि 'मूलतः हिंदी भाषी' राज्यों में हिंदी के साथ आज ऐसा व्यवहार नहीं होता है!

अन्य राज्यों के लोग भी आज विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षाएं प्राप्त कर रहे हैं और सरकारी व गैरसरकारी आंकड़ों के अनुसार आज वे हिन्दीभाषी राज्यों की तुलना में कुछ 'अधिक' शिक्षित हैं। सब जानते हैं कि भारत में बारहवीं कक्षा के बाद शिक्षा का माध्यम अधिकांशतः 'अंग्रेजी' ही होता है। इसका अर्थ है कि वे (विशेषकर दक्षिण भारतीय) अंग्रेजी में भी निपुण होते हैं यह भी सब जानते हैं। इसके बावजूद बोलने-लिखने में अपनी 'मातृभाषा' पर उनका 'अधिकार' क्या कुछ कमतर है? या उसके प्रति 'सम्मान' कुछ कम है क्या? क्या वे उसे 'दोयम दर्जे' का समझते हैं? क्या वे उसका 'उपहास' उड़ाते हैं? क्या 'हीन' समझकर वे उसे 'तिरस्कृत' करते हैं? ...बिलकुल भी नहीं।

लेकिन 'हिन्दीभाषी राज्यों' में 'हिंदी' आज किस हालत तक 'तिरस्कृत' है यह सब जानते हैं, वैसे बात को गलत ठहराने के लिए तर्कों का कोई अंत नहीं होता! वर्तमान पीढ़ी में अधिकांश को उर्दू मिश्रित आसान हिंदी की भी आज कुछ ख़ास समझ नहीं है, क्लिष्ट हिंदी की बात तो जाने दीजिए!

अंग्रेजी जानने व अपनाने के विरुद्ध नहीं हूँ मैं, परन्तु उस प्रक्रिया में अपनी क्षेत्रीय भाषा (हिंदी) के प्रति उनका ऐसा रवैया मेरी तो समझ से परे है! किसी (अंग्रेजी) को सम्मान देने के लिए किसी (हिंदी) को तिरस्कृत व अपमानित करना बुद्धिमत्ता नहीं! यदि हम ऐसा करते हैं तो अवश्य ही हमारी मानसिकता 'गुलामी' की ही कही जाएगी! या हमें निर्लज्ज, पिछड़ा हुआ, संकुचित, संकीर्ण, अहंकारी आदि समझा जाना चाहिए! ...और वास्तव में समझदारों की दृष्टि में आज हम ऐसे ही हैं!

मातृभाषा के रूप में भी हिंदी की अवहेलना व तिरस्कार अपनी माता के अनादर समान ही है! यह एक कड़वी वास्तविकता है कि हिंदी भाषी राज्यों के चुनिन्दा लोग ही वास्तव में अंग्रेजी का गहरा ज्ञान रखते हैं और अंग्रेजी भाषा में सहजता के साथ 'पूरे' अधिकार से लिख-पढ़ सकते हैं, शेष अंग्रेजी-परस्त हैं मात्र! यद्यपि हिंदी को वे आसानी से भली-भांति सीख सकते थे/हैं, परन्तु व्याप्त अंग्रेजी-परस्त मानसिकता के कारण उन्हें समाज से, यहाँ तक कि अपने अभिभावकों से भी इसके लिए कोई प्रेरणा नहीं मिली/मिलती!

तो 'मूलतः हिन्दीभाषी होने के कारण' अपने प्रति विभिन्न 'हीन' भावनाएं रखने, हिंदी के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाने और फालतू में ही अंग्रेजी के पीछे लग जाने से हिंदी लोगों की स्थिति आज त्रिशंकु समान हो गई है! न घर के रहे, न घाट के! 'सहज उपलब्ध' मातृभाषा हिंदी ठीक से सीखी नहीं, और अंग्रेजी ठीक से सीख न पाए! गुलाम मानसिकता व हीन भावना के कारण बौद्धिक क्षमता व इच्छाशक्ति कमजोर होती ही है! ...सो इन कारणों से 'हिंगलिश' का उदय हुआ! इसके साथ हम हिंदी लोग कितना खुश हैं आज! कहते हैं कि संवाद का 'नया' माध्यम ढूंढ निकाला!

वास्तव में यह 'नया' माध्यम हमारी 'कमजोरियों' के फलस्वरूप ही निकला है; और हम लगभग यह स्वीकार कर चुके हैं कि हम अब बलिष्ठ होने से रहे! सो इस 'नाकामी' को एक 'उपलब्धि' के रूप में बता कर फूले नहीं समा रहे हैं!

अब बात आती है राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के स्वरूप की। तो यहाँ भी हिंदी का हाल कुछ अलग नहीं! वैसे तो हम अपने ज्ञान में बढ़ोत्तरी करने हेतु अन्य देशों की राष्ट्रभाषाएं जानने-सीखने आदि का 'गंभीर' प्रयत्न करते रहते हैं, परन्तु घर की मुर्गी दाल बराबर! यदि हम किसी अन्य देश के नागरिक को गर्व से कहें कि हमें उसकी राष्ट्रभाषा का भी ज्ञान है, हम उससे उसकी भाषा में बात करें, और अचानक वह हमसे पूछ ले कि हम अपनी राष्ट्रभाषा का कितना ज्ञान रखते हैं? तो उस समय अवश्य ही हमारी आंखें शर्म से झुक जायेंगी! ...क्या आप चाहते हैं कि ऐसा हो, या अपरोक्ष अथवा परोक्ष रूप से उस तक ऐसा सन्देश जाए?

हमें अपने स्वाभिमान की चिंता बिलकुल भी नहीं! मात्र कहने को पिछले ६७ वर्षों से हम स्वतंत्र हैं मगर हमारी मानसिकता आज भी गुलाम है! क्या है हमारे पास हमारा कुछ 'मौलिक', जिसपर हम 'गर्व' कर सकें, जिसे लेकर हममें 'हीन भावना' न हो? अपने देश के प्रत्येक नागरिक तक अपनी बात पहुँचाने के लिए एक माध्यम रूपी हमारी राष्ट्रभाषा तक तो हमारी अपनी नहीं, हमारा उसपर अधिकार नहीं, हमें उसका ज्ञान नहीं, ..तो अन्य किसी ठोस उपलब्धि की बात हम कैसे कर सकते हैं?

वर्षों से, वर्षों तक, हम अपने 'मालिकों' पर निर्भर रहे, आज भी हैं और पता नहीं कब तक रहेंगे? 'केवल' राष्ट्रीय स्तर पर अपनी संप्रेषित करने हेतु आज हम एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा पर निर्भर हैं और विडम्बना यह कि वो भाषा भी देश के अधिकांश जनसाधारण को ठीक से समझ में नहीं आती! कहने का अर्थ यह कि आज भी एक राष्ट्र के रूप में हम सब एक नहीं, और यह इसलिए कि हम अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति आदरभाव न जुटा सके! इति।