Tuesday, December 1, 2015

(५६) साईंबाबा बनाम शंकराचार्य

विवाद के मूल को समझने के लिए पिछले कुछ लेखों के अंश

आजकल साधना के नाम पर विभिन्न कर्मकाण्डों, व्रत, पूजापाठ, मंत्रजप आदि को करना; नियमित या किसी दिन-विशेष आराधनालय, सत्संग या प्रवचन में जाना, खानपान में अनेकों विधि-निषेध अपनाना, किसी सम्प्रदाय या संस्था-विशेष का सदस्य बनना जैसे कृत्य आम प्रचलन में हैं। सम्बंधित लोगों से यदि ये सब कृत्य करने का 'वास्तविक' कारण जाना जाए तो यह तथ्य प्रकाश में आता है कि अधिकतर मामलों में लोग किसी न किसी सांसारिक अभिलाषा की पूर्ति हेतु ही ये सब कृत्य करते हैं। कुछ लोग इन कृत्यों के माध्यम से ईश्वर से अपने पापों के लिए क्षमायाचना करते हैं। वास्तव में उनका असली मंतव्य यही होता है कि ईश्वर उनके पापों को अनदेखा कर दें। पिछले पापों को धोने के लिए गंगा में डुबकी लगाना या तीर्थयात्रा करना तो आम प्रचलन में है ही, यह सब जानते हैं। कुछ मामलों में मोक्ष अर्थात् जन्म-मृत्यु के फेरों से मुक्ति हेतु विभिन्न धार्मिक कृत्य किये जाते हैं। ...तो देखने में यही आता है कि विभिन्न धार्मिक कृत्यों के पीछे कुछ न कुछ स्वार्थ छिपा रहता है। भौतिक सुख-संपत्ति और सांसारिक अभिलाषाएं ही आज साधना का प्रमुख लक्ष्य हैं। ...यह भी देखने में आता है कि जब दो राष्ट्रों का परस्पर युद्ध होता है, तो उनके देश के धर्मगुरु ईश्वर से अपने-अपने देश की विजय हेतु कामना-प्रार्थना करते हैं। अब ईश्वर किसे सही मानेगा?

यह प्रचलन भी आम है कि लोग संतान, व्यापार, नौकरी, धन, अधिक मुनाफे, सुख-सम्पदा और विलासिता की चाहत में ईश्वर के मानव-निर्मित छद्म दरबारों में हाजिरी देते हैं, पागलों समान पूजा-अर्चना करते-करवाते हैं। स्पष्ट है कि आज लोगों ने ईश्वर को एक भ्रष्ट और चापलूसी पसंद करने वाला राजा मान लिया है तथा साधना रूपी कृत्यों को रिश्वत में दी जाने वाली भेंट समझ लिया है। साधना करने का मूल उद्देश्य ही पलट गया है। ईश्वर व साधना की इससे बड़ी विडम्बना (उपहास) कदाचित् संभव नहीं। जब धार्मिक कृत्यों को करने-करवाने का उद्देश्य बिलकुल पलट चुका है तो फिर लोगों के अन्य कृत्यों का उद्देश्य पलट जाना तो स्वाभाविक ही है। विरला ही कोई मिलता है जो मात्र भजन के लिए ही भजन कर रहा हो अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति हेतु अर्थात् सच्चे ईश्वरीय गुणों को अपने आचरण में आत्मसात् करने हेतु साधना कर रहा हो।

सर्वत्र झूठ व दिखावा देखने को मिल रहा है। आडम्बर का बोलबाला है। पाखंडी लोग, धर्मगुरु आदि खूब लाभ में हैं। कदाचित् धन की अभिलाषा एक बार को न भी हो, तदपि जागतिक यश की अभिलाषा कमोवेश सभी वर्तमान धर्मगुरुओं में कूट-कूट कर भरी है। प्रवचन देते समय या भक्तों से मिलते समय उनके नेत्रों, भावभंगिमाओं और शारीरिक भाषा से इसका पूरा-पूरा भान होता है। अधिकांश मार्गदर्शकों में यथार्थ सहिष्णुता का पुट नहीं मिलता। लोगों, अनुयायियों आदि के खोखले विश्वास को और अधिक खोखलेपन के साथ सुदृढ़ करने हेतु उनके सम्प्रदाय के धर्मगुरु उनके मन में अन्य सम्प्रदायों के प्रति नफरत, द्वेष आदि की भावना भरते हैं। अन्य पंथों की सोच या सिद्धांतों को यदि वे धर्मगुरु किसी कारणवश समर्थन भी देते हैं तो स्पष्ट रूप से वह झूठा व बनावटी प्रतीत होता है। परिणामतः आज प्रत्येक समूह यही जानता और मानता है कि केवल उसी का समूह व उसकी पूजा पद्धति तथा उसके देवता सर्वश्रेष्ठ हैं, अन्यों के निकृष्ट!

व्यर्थ के दिखावों और व्यर्थ की मूर्तिपूजा के घनघोर आलोचक तथा जीवनपर्यंत सादगी से रहने वाले अनेक महानुभावों के आज विशाल मंदिर बन गए हैं। बड़े दिखावे के साथ उनकी प्रतिमाओं की भव्य पूजा-अर्चना होती है। चढ़ावे का कोई अंत नहीं! यह देख आत्मा विलाप करती होगी उन महापुरुषों की! ...अहिंसा के घनघोर समर्थक एक प्राचीन मुनि के वर्तमान धर्मगुरु अनेक बंदूकधारी अंगरक्षकों से घिरे हुए प्रवचन देते देखे जाते हैं। बड़ा हास्यास्पद लगता है यह! कोई उनसे यह पूछे कि अहिंसा के पुजारी के इर्दगिर्द इन बंदूकों का क्या काम? परन्तु आज यह पूछने का साहस किसी में नहीं और न ही समझने का!

आज कोई सम्प्रदाय कुछ बता रहा है तो कोई कुछ और! सब बहलाने-फुसलाने और विभिन्न स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं। अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग! बस एक ही समानता है सबमें कि भव्यता और दिखावा आदि चरम पर हैं। अंधविश्वास बढ़ाने की तो कोई थाह ही नहीं! समय के साथ सिद्धांत और मूल्य बदल चुके हैं। ढोंगियों का राज है। धन और सांसारिक यश उन पर बरस रहा है। पाँचों अंगुलियाँ घी में... और सर कड़ाही में है! अध्यात्म के अन्तरंग में उतरने व उतारने वाले धार्मिक गुरुओं का मिलना आज अति दुष्कर है। आज प्रवचन देने वालों के आंतरिक जीवन में यदि झाँका जाए तो वहां सुनने वालों से भी अधिक गंदगी पाई जाती है। परन्तु लोग यह सब देखकर, जानकर भी आंखें मूंदे हुए हैं। भेड़चाल चल रही है। कारण है-- लोभ, अभिलाषा, लालसा तथा त्वरित सांसारिक लाभ की आकांक्षा। आज के कर्म की कल क्या प्रतिक्रिया आने वाली है इससे अनभिज्ञ भारत की आबादी का एक बड़ा प्रतिशत आज फंतासी अर्थात् कल्पना लोक में मग्न है। विज्ञानवादी भी आज अपना ही 'क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया' का सिद्धांत भुला बैठे हैं।

उथली (सतही) सकाम-भक्तियुक्त भक्तों (तीव्र-आसक्त भक्तों) की भीड़ से धार्मिकता की सूजन निरंतर बढ़ती जा रही है। ..कारण हैं- तीव्र आसक्तियुक्त आज के अधिकाँश धर्मगुरु! ..मेरे विचार से धर्म बिकाऊ नहीं होता। धर्म-शिक्षा में दिया ही जाता है, लिया नहीं जाता। खरा गुरु जीवन-यापन हेतु धर्म का व्यापार नहीं करता। जीवनयापन हेतु न्यूनतम आवश्यक वस्तुएं स्वतः ही बिना किसी विशेष प्रयास के प्राप्त हो जाती हैं, यदि ऐसा नहीं भी होता है तो खरा धर्म-शिक्षक कबीर की भांति जुलाहे का, ईसा मसीह की भांति बढ़ई का, जैसे कार्य करने में कोई संकोच नहीं करेगा। जन-कल्याण हेतु धर्म-शिक्षा अर्थात् 'धर्म' हेतु ही धर्म-शिक्षा तथा भौतिक शरीर की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किसी व्यवसाय / नौकरी आदि के बीच किसी प्रकार का कोई टकराव नहीं होता। हाँ इतना निश्चित है कि सच्चा धर्म-शिक्षक सांसारिक यश व धन का भूखा नहीं होता और अनावश्यक संग्रह व खर्च में उसकी कोई रुचि नहीं होती। उसकी आवश्यकताएं सीमित होती हैं और वह दिखावों से बिलकुल परे रहता है।

सभी जागरूक लोग इस बात से सहमत होंगे कि भारत का विकास ठोस रूप से नहीं हो रहा है, इसमें भी सूजन ही अधिक है!! और ये अंधविश्वासी कृत्य अर्थात् रिद्धि-सिद्धि प्राप्ति (shortcut) का लॉलीपॉप हमें और अधिक अकर्मण्य बनाएगा। आज इन कर्मकांडों की ओर अधिक जन-झुकाव के दो मुख्य कारण हैं-- पहला यह कि, साधारणतया लोग सरलता अर्थात् किसी शार्टकट के माध्यम से अपनी इच्छापूर्ति करना चाहते हैं; और दूसरा कारण मनोवैज्ञानिक है कि, व्यक्ति को अपने प्रत्येक कृत्य का परिणाम ज्ञात नहीं होता है, सफलता भी मिलती है व असफलता भी। जब व्यक्ति इन रिद्धि-सिद्धि प्राप्ति के अनुष्ठानों के चक्कर में फंस जाता है, तो सफलताओं का श्रेय वह इन अनुष्ठानों को देता है, निहाल हो जाता है तथा असफलता के लिए उसे समझाया जाता है कि अनिष्ट शक्तियों के बहुत प्रभावी (भारी) होने के कारण ऐसा हुआ! ...व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है, ...मार्गदर्शकों की रोटियां सिकती रहती हैं।

यद्यपि विभिन्न मनोवैज्ञानिक एवं मानसिक कारणों से आज समाज में धार्मिकता की सूजन बहुत बढ़ी हुई दिखती है पर समानान्तर रूप से यह भी कटु सत्य है कि कर्मकाण्डों के प्रति लोगों की आस्था कम हुई है या कम से कम अनिश्चय की स्थिति तो निरंतर बढ़ ही रही है। 'धार्मिकता की सूजन' कहा, इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक कृत्य तो अब बहुत हैं पर वे प्राणहीन हैं।

हमें यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि ईश्वर हमसे केवल अपने नामस्मरण या पूजा-अर्चना की चाहत नहीं रखता, वह केवल अच्छे विचारों व कार्यों की अपेक्षा रखता है। पूजा-अर्चना तो हम अपना भाव-निर्माण करने व मानसिक रूप से मजबूत बनने के लिए करते हैं। वस्तुतः ईश्वर कोई तानाशाह, अहंकारी, और अपनी ही प्रशंसा या गुणगान सुनने का आदी राजा नहीं है। वह तो कोमल हृदय, निष्पक्ष राजा है, जो अपनी प्रजा को भी ऐसा ही देखना चाहता है। अतः साधना में नामजप या पूजा-अर्चना का प्रयोजन केवल ईश्वर को प्रसन्न करना नहीं, वरन भाव-निर्माण, भाव-वृद्धि, इच्छा-शक्ति एवं मानसिक बलिष्ठता बढ़ाने हेतु है। प्राप्त बलिष्ठता से ही हम ईश्वर के गुणधर्मों (properties) को आत्मसात् कर पायेंगे, आचरण से प्रकट कर पायेंगे। ईश्वरीय गुण अर्थात् सर्वमान्य नैतिक गुण! जब ऐसे गुण होंगे तो साधना सफल हुई, ऐसा समझ सकते हैं! तब हमारी क्रियाएं (कृत्य) उच्चकोटि की होंगी, फलतः मिलने वाली प्रतिक्रियाएं (फल) भी उच्चकोटि की होंगी, स्वतः ही!

वेदान्त एवं अन्य कुछ उच्च प्राचीन साहित्यों में उल्लेखित ब्रह्मांड एवं ईश्वर के 'विज्ञानसम्मत' नियमों-सिद्धांतों की ओर से नेत्रों को मूंद लेने से सच्चाई नहीं बदल जाएगी। आज आवश्यकता है कि अध्यात्म पर से जो विश्वास मर गया है या विकृत हो गया है, उसे जिज्ञासापूर्ण वैज्ञानिक दृष्टि से देखकर तत्पश्चात् अनुभूत कर पुनः जीवित अथवा स्वस्थ किया जाए। ...जैसे विद्यालय में हम उत्तरोत्तर आगे की कक्षाओं में जाते रहते हैं, एक ही कक्षा में रुकना या पीछे की कक्षा में लौटना किसी को नहीं भाता है। ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान व साधना के क्षेत्र में भी हमें निरन्तर आगे की ओर जाने की आवश्यकता है। आइये... झूठे दिखावे, फरेब और दंभ को तिलांजलि देकर, बेड़ियों को काट कर, हम अपने अंतर्मन में झांकें। दिल तक.., आत्मा तक.. जाएं। उससे पूछें, मार्गदर्शन लें और स्वयं को परिष्कृत एवं परिमार्जित करें, वहां से ज्ञान का प्रकाश लेकर निरन्तर आगे की कक्षाओं में जाएं, तथा अन्यों को भी इसी के लिए प्रेरित करें। आज यही प्रासंगिक होगा। इति।