मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला
(१)
दरअसल मनुष्य अपेक्षाकृत एक विकसित मस्तिष्क वाला जीव है, इसलिए वह हर चीज में हिसाब-किताब कुछ ज्यादा ही लगाता है. उसमें एक तरफ संतान अथवा अभिभावक के प्रति राग, अनुराग, ममता, व आसक्ति है तो दूसरी तरफ सांसारिक वस्तुओं का बेहिसाब लोभ, स्वार्थ, अहंकार व असुरक्षा की भावना भी है और इन सब से कपट और पारस्परिक असंख्य अपेक्षाओं का जन्म होता है. यही सब पारिवारिक कलह की जड़ है.
जबकि पशु मनुष्य की तुलना में सरल स्वभाव के होते हैं, ज्यादा गुणा-भाग नहीं करते. इसलिए वे संतान के प्रति तब तक आसक्त रहते हैं जबतक कि वह पर्याप्त रूप से विकसित न हो जाए, उनके द्वारा संतान का पोषण सहज, स्वतःस्फूर्त, स्वतःप्रवर्तित, स्वतःप्रसूत अर्थात् नैसर्गिक रूप से कर्तव्य-स्वरूप होता है; और उसके बाद वे अनासक्ति की ओर बढ़ चलते हैं, एहसान जताने का कोई विचार मन में नहीं आता, संतान से अपेक्षाएं न्यूनतम रखते हैं.
सहजता और सरलता का अन्य कोई विकल्प नहीं. कुछ निरीह पशुओं से मनुष्य यह गुण सीख सकता है.
(२)
बिलकुल ठीक कहा आपने कि सामान्यतः "अपराध एक व्याधिकृत पथ-भ्रष्टता है." ...और अधिकतर मामलों में इस व्याधिकृत पथ-भ्रष्टता का इलाज़ पुनः संस्कृतिकरण अर्थात् सोच को सही दिशा देकर किया जा सकता है. आज के दौर में कुशल मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक इस कार्य को बखूबी अंजाम दे सकते हैं, ...'बहुसंख्य' रोगी ठीक हो सकते हैं, परन्तु ये दोनों ऐसा भी मानते हैं कि अपवाद स्वरूप कुछ रोगी ऐसे भी होते हैं जो किसी प्रकार से ठीक नहीं हो सकते और समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं, जैसे खूंखार आतंकवादी. उन्हें शरीर के सड़े अंग की तरह काट कर अलग करना ही पड़ता है; कुछ की मनोवृत्ति ऐसी होती है कि वे लाख समझाने पर भी बारम्बार अपराध करते हैं, कारावास की कड़ी सजा ही उन्हें कुछ सबक सिखा सकती है! इसलिए रोगी या अपराधी की मानसिकता को सुधारने के प्रयास होने चाहियें, उन प्रयासों के पश्चात् अब उसकी वर्तमान मानसिकता के अनुसार ही उसका दंड तय होना चाहिए.
शब्दों में यह बात बहुत सरल और न्यायपूर्ण लगती है परन्तु आज के परिपेक्ष्य में व्यावहारिक भी नहीं है और संभव भी नहीं, क्योंकि आज वास्तव में विद्वान, नेक और सुलझे हुए सुधारकर्ताओं का भारत में सर्वथा अभाव है और दूसरी बात यह कि देश के सबसे शीर्ष स्थानों पर भी घनघोर अपराधिक मानसिकता का प्रभुत्व है!
(३)
विज्ञापन में "टेढ़ा है पर मेरा है" - यह पंक्ति क्या सन्देश देती है, वह यह कि "ऊपरी आकार या रंग-रूप पर न जाओ दोस्तों! चखकर, खाकर भीतर से महसूस करो कि कैसा लगता है, स्वादिष्ट और पौष्टिक लगा न! जब ऐसा है तो यह टेढ़ा होते हुए भी मुझे प्रिय है."
हमारा भी बाहरी ढांचा, रूप-रंग-आकार, केशविन्यास, वस्त्र इत्यादि भले ही कुरूप हों, ..सब चलेगा, ..परन्तु तब ही, जब हम भीतर से अच्छे हों अर्थात् मन में सुविचार हों, हम कर्मठ हों, ईमानदार हों, सत्यनिष्ठ हों, बोलने में कम और करने में अधिक विश्वास करते हों.
ऐसे ऊपरी रूप से टेढ़े, पर भीतर से सुन्दर देशवासियों पर किसे न गर्व होगा. ...परन्तु अभी ऐसा है क्या??
वर्तमानकाल में हम ऊपर से तो सीधे, परन्तु भीतर से अत्यंत टेढ़े हैं. तो प्रथमतः क्या लेखों और चर्चा के रूप में ऐसा आईना देखना आवश्यक नहीं, जो हमें हमारा भीतरी स्वरूप दिखा सके?
परन्तु साथ ही ब्लॉगर्स सहित समस्त पाठकों को ध्यान रहे कि बारम्बार दर्पण देखने भर से दाग नहीं जायेंगे, ठोस व्यावहारिक प्रयत्न करके उन्हें निरंतरता से साफ़ भी करना पड़ेगा.
(४)
"अगर रातों को जाग कर बच्चे के स्वास्थ्य की चिंता करती है, या उसकी पढाई लिखाई और देख भाल के लिए अपनी किसी महत्वाकांक्षा का बलिदान करती है तो ये उसकी अपनी ख़ुशी, अपना चयन है….बच्चे को दुनिया में लाने से पहले ही माँ को ये पता होता है कि आने वाले दिन उससे ये सब बलिदान माँगेंगे.., ..माँ को उन से अपनी सेवाओ के बदले में कोई हिस्सा नहीं लेना होता है..."
आप द्वारा उपरोक्तलिखित पंक्तियाँ किसी भी माँ को परिपक्व सोच हेतु प्रेरित कर सकतीं हैं, ..पिता को भी..
और एक परिपक्व माँ-पिता की संतानें भी परिपक्व बनेंगी ही.
और तब देश का स्वरूप कुछ सुधेरगा अवश्य.
इस सुखद आशा और विश्वास के साथ आपका आभार.
(५)
जो मुझे आज पसंद नहीं,
जो मेरे दिल को गवारा नहीं...
जरूर उसे कोसूं,
जी भर के गुबार निकालूं...
समाज में दहकन है,
दिलों में प्रतिशोध...
पर क्या यह उचित है,
कि मैं भी चलूं उसी ओर?
..रूकती हूँ सोचती हूँ,
फिर इरादा बनाती हूँ...
कि कोशिश करके डालूंगी,
बीज दिलों में प्यार का...
प्यार का सद्भाव का,
नैतिकता के उत्थान का...
वो ठीक करूंगी मनोवृत्तियां,
जो इस कविता का आधार हैं.
विनम्र प्रार्थना- पद्यात्मक शैली में कमेंट देने का मेरा यह प्रथम दुस्साहस है, अतः शब्दविन्यास अथवा शैली में शास्त्रीयता को मत खोजें.