Friday, December 11, 2015

(५९) सचेतक टिप्पणी संग्रह- २

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
एक आम व्यक्ति के समस्त कृत्य, जिनमें खानपान भी शामिल है, बहुधा संस्कारों, सभ्यता, संस्कृति आदि के ऊपर निर्भर करते हैं. कहीं एक संस्कृति में जो शुभ है, वह किसी अन्य संस्कृति में अशुभ हो सकता है! माने उसका स्वरूप अनेकों विभिन्नताएं लिए हो सकता है और फिर उसमें विरोधाभास भी हो सकते हैं; परन्तु बुनियादी नैतिक मूल्यों का पैमाना, स्वीकार्यता व पहचान आदि सभी जगह कमोवेश एक से ही हैं. माने खानपान जैसे वाह्य कृत्यों में विभिन्नताएं एवं विरोधाभास होते हुए भी नैतिकता के मामले में सबके सुर व स्वर एक समान हैं, इसमें आपको कोई भी संदेह नहीं होना चाहिए! वैसे तर्कों का तो कोई अंत नहीं!!
यानी नैतिक गुणों को प्रधानता देना प्रथम होना चाहिए. लेकिन भारत के वर्तमान धार्मिक (?) माहौल में ऐसा बिलकुल भी नहीं है! इसी आधार पर मैंने कहा कि आजकल किसी व्यक्ति में नैतिकता का पैमाना उसके खानपान से लगाया जाता है. यह पैमाना सर्वथा गलत है! ...दूसरे शब्दों में नैतिकता की उपस्थिति ही वहां मानवीय धर्म के उपस्थित होने का संकेत है. ..और 'धर्म' को मैं 'मानवीय धर्म' से अलग नहीं समझता. ...आप धर्म का मतलब यदि कुछ अन्य समझते हैं तो यह आपकी अपनी सोच है.
पहले हमें मानव होने के नाते मानव से प्रेम करना तो आये! जब प्रथमतः हम मानव से प्रेम करना सीख जायेंगे तो फिर अगले पायदान पर पशुओं से प्रेम करना भी सीख जायेंगे.
परन्तु पहले पायदान पर हम पशु-प्रेम दिखाएं और मानव-प्रेम से हमारा कोई सरोकार ही न हो, यह तो पागलपन है.
बहुत सी ऐसी सभ्यताएं हैं जो सामिष होने के बावजूद मानव हितार्थ कुछ भी करने को तत्पर रहती हैं और दूसरी तरफ अनेकों निरामिष (बाबा, नेता व आम आदमी भी) एक नंबर के व्याभिचारी व भ्रष्ट होते हैं. इसका उल्टा भी पाया जाता है यानी सामिष अनैतिक व निरामिष नैतिक!
यानी खानपान से हम व्यक्ति के भीतर विद्यमान नैतिकता रूपी धर्म का सटीक अंदाजा नहीं लगा सकते! तो फिर हम खानपान को नैतिक-धर्म का पैमाना क्यों बनाएं?
खानपान भले ही अलग हो, सामिष ही हो, पर दिल के भीतर मानव के प्रति सच्चा प्रेम हो, तो उस व्यक्ति को मैं पहले प्रणाम करूँगा. ..और आप?

(२)
"कोमल भावनाएं बनाये रखने के लिए अभ्यास भी उतना ही जरूरी" -- यह अभ्यास प्रथमतः हम अपनी जाति (मनुष्य) से ही प्रारंभ करेंगे, और ऐसा करना ही ज़रूरी!
"किन्तु प्रत्येक जीवन का आदर करना अवश्य नैतिकता में शुमार है" -- प्रत्येक जीवन का आदर करने से पहले हम प्रत्येक मनुष्य का और उसके विश्वास (वाह्य कृत्य सम्बन्धी) का आदर करना तो पहले सीख लें! वाह्य भिन्नताओं को स्वीकार कर उससे व उसकी नैतिकता (आतंरिक समानताओं) से प्रेम करना जानें!
"लगभग सभी संस्कृतियों में मांसाहार भिन्न भिन्न प्रकार के अपराधबोध, हीनता बोध से ग्रसित है" -- ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति को रूढ़िवादी (संस्कारजन्य) विश्वासों पर तो विश्वास है परन्तु अपने हृदय से उपजे (आन्तरिक) विश्वास पर नहीं! यदि दोनों विश्वासों में एका होता है तो फिर अंतर्द्वंद नहीं होता और कृत्य करते समय व्यक्ति का सिर गर्व से उठा रहता है, अन्यथा अपराधबोध रहता ही है. इस बारे में मैंने बाइबिल से कुछ उदाहरण दिए हैं (वैसे मैं ईसाई नहीं हूँ फिर भी जहां से भी किसी जिज्ञासा का समाधान मिलता है, लेता अवश्य हूँ).
रही बात सामिष के साथ असहजता की, तो ऐसा दूसरे के वाह्य विश्वास से पूर्वाग्रह या असहमति के कारण होता है; वैसे निरामिष के साथ सामिष भी असहज होता ही है, यदि वह (सामिष) विशाल हृदय नहीं है तो! कारण वही है! बात वहीं पर आकर अटक जाती है कि हम दूसरे की अंदरूनी पवित्रता को अनदेखा कर वाह्य-कृत्यों से उसका अपने साथ मिलान करते हैं और जब वह नहीं होता तो दूसरे को निकृष्ट ठहराते हैं.
एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जब हम दूसरे व्यक्ति की आन्तरिक पवित्रता को महसूस कर उसे व उसके वाह्य विश्वास को आदर देते हैं (उसके वाह्य विश्वास अपनाने की बात नहीं कह रहा हूँ), तो हमें दूसरी तरफ से भी सकारात्मक प्रत्युत्तर मिलता है, भले ही उसकी गति मंथर ही क्यों न हो! ..और जब हम दोनों की आन्तरिकता में मिलाप हो जाता है तो हर वह वाह्य कृत्य छूटना आरंभ हो जाता है जो मानवीयता के विरुद्ध है!
उदाहरण के लिए -- दूसरे की, और मानवीयता की पुकार सुन, या आन्तरिक चेतना के कारण सामिष व्यक्ति, निरामिष के साथ खाने पर बैठते हुए बहुधा सामिष को त्याग निरामिष भोजन ग्रहण करता है, जबकि विरले ही इसका विपरीत होता है.
अतः दृष्टिकोण में लचीलापन लाना आवश्यक!