Tuesday, July 18, 2017

(८१) नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों और वैवाहिक संबंधों में सादृश्यता

(१) नौकरियों में आजकल एक अच्छी प्रथा है कि "एक व्यक्ति - एक पद"। अर्थात् व्यक्ति केवल एक ही जगह या एक ही पद पर कार्य कर सकता है, क्योंकि एक से अधिक जगह कार्य करने पर निष्ठा एवं हितों का प्रभावित होना संभव होता है।
* अतीत में विवाह संस्कार (प्रथा) का जन्म भी कदाचित् इसी दृष्टिकोण के साथ हुआ होगा!

(२) एक ही समय में एक से अधिक स्थानों पर कार्य करने से या एक से अधिक व्यक्तियों के लिए कार्य करने से परस्पर निष्ठा एवं हितों के टकराव के अतिरिक्त, अनेकों मतभेद भी जन्म लेते हैं, जिनकी परिणति भयंकर कलह और कोर्ट-कचहरी भी हो सकती है। फलतः मन की शांति, सम्मान और साख पर विपरीत असर पड़ सकता है।
* अनेक से दैहिक अन्तरंग सम्बन्ध बनाने का भी यही परिणाम होता है। यहां स्पष्ट कर दूं कि स्वस्थ मित्रता एक चीज है और दैहिक अन्तरंग सम्बन्ध एक दूसरी चीज। स्वस्थ मित्रता छुपानी नहीं पड़ती, जबकि चलन या प्रथा विरुद्ध बनाया गया कोई भी अन्तरंग सम्बन्ध छुपाने की कोशिश रहती है।

(३) किसी नौकरी में व्यक्ति, नियोक्ता को कुछ (श्रम) देता है और बदले में नियोक्ता उस व्यक्ति को कुछ (वेतन) देता है। उस रिश्ते में दोनों के स्वार्थ के साथ उनके हित भी शामिल रहते हैं। कोई व्यक्ति यदि छुपकर चोरी से समानांतर रूप से किसी अन्य नियोक्ता के लिए भी कार्य करता है तो व्यक्ति आवश्यकता से अधिक स्वार्थी, लालची एवं कमजोर चरित्र का माना जाता है।
* जीवनसाथी के अतिरिक्त किसी अन्य से दैहिक अन्तरंग सम्बन्ध रखने के मामले में भी यही बात खरी उतरती है।

(४) किसी नियोक्ता और उसके साथ जुड़े व्यक्ति के आपसी सम्बन्ध तब तक मधुर और स्थाई बने रहते हैं जब तक कि वे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं और आवश्यकताओं की कद्र करते हैं।
* ऐसा ही कुछ ध्यान रखने पर वैवाहिक सम्बन्ध भी अटूट रहते हैं।

(५) नियोक्ता या कर्मचारी में से किसी एक के भी अधिक स्वार्थी या अवसरवादी या लोभी होने पर उनका सम्बन्ध टूटता है।
* वैवाहिक रिश्तों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है।

(६) वेतन एक से और काम किसी अन्य के लिए करना, या किसी से काम लेना और वेतन किसी अन्य को देना; ऐसा बिलकुल भी नहीं चलता। जाहिर (प्रकट और वैध) रिश्ता एक पल में टूट जाता है!
* इसी प्रकार अन्तरंग सम्बन्ध किसी से और विवाह किसी अन्य से, या फिर एक से विवाह और अन्य से अन्तरंग सम्बन्ध; यह बिलकुल भी नहीं चलता। चलेगा तो छुपकर; और भेद खुलने पर उन्हें स्वार्थी, लालची एवं कमजोर चरित्र का माना जायेगा और वैध रिश्ता टूटेगा अथवा उसमें भारी दरार पड़ेगी।

कुछ और मिली-जुली बातें--
दोस्ती और रिश्ता (फ्रेंडशिप और रिलेशन) दोनों अलग-अलग चीजें हैं। दोस्ती माने स्वस्थ मित्रता। खरी दोस्ती सामान्यतः किसी स्वार्थ अथवा भौतिक या दैहिक लालच पर नहीं टिकी होती। इसीलिए दोस्ती से बड़ा कुछ नहीं, इसीलिए दोस्ती अनेकों से की जा सकती है, दोस्ती लिंगभेद से परे होती है।
हम मनुष्य इतने विशाल हृदयी नहीं कि स्वार्थों से परे रह पाएं, और इतने समर्थ भी नहीं कि आवश्यकताएं ही न हों। तो विभिन्न भौतिक स्वार्थों और आवश्यकताओं की गरिमापूर्ण ढंग से पूर्ति के लिए हमारे पूर्व नीति-नियंताओं ने अतीत में कुछ सामाजिक व्यवस्था बनाई। इसी व्यवस्था के अंतर्गत रिश्तों का जन्म हुआ, उन्हें कुछ नाम दिए गए, जैसे माँ, पिता, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, पति, पत्नी आदि-आदि।
प्रेमी-प्रेमिका भी एक प्रकार का रिश्ता ही है, किन्तु अतीत के उदाहरण उठाकर देखें तो यह रिश्ता अस्थाई ही माना गया है। भविष्य में इसकी परिणति विवाह-सम्बन्ध के रूप में हुई है या तो यह टूटा है। और यदि आगे चला है तो छुपकर ही, एक अवैध सम्बन्ध के रूप में!
समाज-व्यवस्था बनाये रखने के निमित्त निर्मित किये गए इन रिश्तों के बीच दोस्ती या स्वस्थ मित्रता सदा से अस्तित्व में रही है। इसको सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, तभी तो ऐसे कहा जाता है-- "मैं तुम्हारा पिता हूँ, लेकिन इससे पहले मैं तुम्हारा दोस्त हूँ"; "मैं आपकी पत्नी हूँ लेकिन इससे पहले एक अच्छी दोस्त हूँ"; "तुम मेरी माँ कम और दोस्त ज्यादा हो"। दोस्ती की महिमा का बखान करने वाले ऐसे वाक्य अक्सर सभी रिश्तों के मध्य नजर आते हैं।

कोई वेतनभोगी कर्मचारी भी अपने किसी निहायत खाली समय में, नियोक्ता के प्रति बिना किसी निष्ठा या हित के टकराव की कीमत पर, बिना किसी स्वार्थ या लालच के किसी अन्य को कोई सलाह देता है या किसी अन्य के काम में कोई मदद करता है तो इसमें उसके नियोक्ता को कोई भी आपत्ति नहीं होती।
ठीक इसी प्रकार का संतुलन हमें रिश्तों और दोस्ती के बीच भी बनाना चाहिए। अर्थात् किसी रिश्ते को किसी अन्य की दोस्ती से अधिक वरीयता देनी चाहिए। दोस्ती करें लेकिन रिश्ते की कीमत पर नहीं; क्योंकि प्रत्येक रिश्ता एक विशेष उद्देश्य से बना है, उसमें कुछ करार (नियम, शर्तें, अनुबंध) है।

क्या ही अच्छा हो कि हम प्रत्येक रिश्ते में दोस्ती को भी घोल दें। लेकिन हम मानव हैं, ऐसा कर न पायेंगे! यदि ऐसा संभव हो गया तो फिर जरूरत पड़ने पर कोई भी व्यक्ति किसी भी नियोक्ता का कोई भी काम कभी भी कर दिया करेगा; और आवश्यकता पड़ने पर किसी भी नियोक्ता से अपनी जरूरतों के लिए कितना भी धन ईमानदारी से ले लेगा!! ऐसा होना तो असंभव ही दीखता है! परस्पर सम्पूर्ण निःस्वार्थता और ईमानदारी स्थापित होना बहुत दूर की कोड़ी है! इसीलिए हमारे पूर्वजों ने कुछ समाज-व्यवस्था बनाई और उसके अंतर्गत रिश्ते-नाते बने; जिसके कारण लोग परस्पर एक सभ्य, गरिमामय और सौहार्दपूर्ण वातावरण में रह पाते हैं, अन्यथा अनाचार फैलते देर न लगती!
फिर भी देखा जाता रहा है कि इस सब सामाजिक व्यवस्था के बावजूद भी अनाचार अपना सिर उठाता रहा है। आज के दौर में लिव-इन कल्चर एवं विवाहेत्तर अन्तरंग सम्बन्ध पनप रहे हैं। बहुधा ये सम्बन्ध चोरी-छुपे ही बनाये जाते हैं। छुपकर वही काम किया जाता है, जो गलत हो! कुछ तथाकथित बोल्ड लोग खुलेआम इन संबंधों का प्रदर्शन करते हैं और इन संबंधों में कोई बुराई नहीं समझते। लेकिन तटस्थ और गहरी समझ से इन संबंधों को निहारा जाये तो पायेंगे कि इनके पीछे स्वार्थ, वासना, लोभ आदि संलग्न रहते ही हैं। रिश्तों की प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के विपरीत इन संबंधों में कोई गहरा आत्मीय करार नहीं होता है। अतः कुछ ही आगे चलकर निष्ठा एवं हितों का जबरदस्त टकराव सामने आता है; फलस्वरूप अवसाद, लड़ाई-झगडा, जग-हंसाई आदि के साथ-साथ चरित्र की दुर्बलता उजागर होती है। सम्बंधित स्त्री-पुरुष या तो पशुवत तामसिक प्रवृत्ति का हो जाता है या फिर अवसादग्रस्त! लगभग असंभव ही है कि किसी के हितों का नुकसान हुए बगैर, निःस्वार्थ और विशुद्ध दोस्ती के वातावरण में लिव-इन या विवाहेत्तर सम्बन्ध खुलेआम 'चिरकाल' के लिए बने रह सकें! इति।

Thursday, July 6, 2017

(८०) गुरुपूर्णिमा विशेष

'गुरु' शब्द का सबसे सरल अर्थ है कि जो भी हमें कुछ सीख दे वो गुरु है। जिस पल हमें जिससे भी कोई सीख मिलती है, उस पल वह हमारा गुरु है। माता-पिता, भाई-बहन, नाते-रिश्तेदार, समाज, अध्यापक, ये सभी हमारे लिए गुरु ही हैं। जीवन में घटने वाले प्रसंग भी हमें कुछ सिखाते हैं, तो वे भी एक प्रकार से हमारे गुरु ही हुए।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हम मूलतः एक सूक्ष्म तत्त्व (आत्मा) हैं, जो एक स्थूल देह (भौतिक शरीर) में प्रवास करता है। वैसे तो प्रत्येक आत्मा सम्पूर्ण ज्ञान से सराबोर है या यूं कहें कि पहले से ही सीखी-सिखाई है, फिर भी इस पर 'अविद्या' का आवरण चढ़ा होता है जिसके कारण उसके ज्ञान से व्यक्ति वंचित ही रहता है। 'अविद्या' मात्र एक शब्द है समझने के लिए। 'अविद्या' अर्थात् उस मनुष्य का मन, चित्त (अंतर्मन), बुद्धि और अहंकार। व्यक्ति के अंतर्मन में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार, तीव्र इच्छाएं, रूचि-अरूचि केंद्र, स्वभाव केंद्र, विशेषताओं के केंद्र, लेन-देन केंद्र आदि इस जन्म के आरंभ से ही विद्यमान रहते हैं। जन्म पश्चात् ये सब चीजें आत्मा के इर्दगिर्द अपना मकड़जाल पहले से ही फैलाए होती हैं, भले ही आरंभ में ये सब सुप्तावस्था में ही होती हैं! इस आवरण के कारण हमारी इन्द्रियों को आत्मा रूपी ज्ञान-स्रोत से ज्ञान का प्रकाश बहुत कम (लगभग नगण्य) ही मिलता है। बाद में शिशु के बड़ा होते-होते उसके मन पर इस जन्म के संस्कार (सीखें) भी अंकित होना शुरू होते हैं। कुछ वर्तमान कारणों से और कुछ प्रारब्ध के कारण इस समय जैसी परिस्थितियां समक्ष आती हैं या बनती हैं, वे सोये हुए पूर्व संस्कारों के लिए पोषक वातावरण उपलब्ध कराती हैं, फलतः वे संस्कार भी आयु बढ़ने के साथ-साथ शनैः शनैः जाग्रत होना आरंभ कर देते हैं। इस जन्म में निर्मित संस्कार और पूर्वजन्मों के संस्कार दोनों मिलकर व्यक्ति के वर्तमान व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
इस दौरान व्यक्ति को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में बहुत से माध्यमों से वह सीख प्राप्त करता है। जिससे भी वह सीख प्राप्त करता है, शाब्दिक रूप से उसे 'गुरु' की संज्ञा दी गयी है।
जैसे मनुष्य मूलतः एक सूक्ष्म तत्त्व है, ठीक वैसे ही 'गुरु' भी मूलतः एक सूक्ष्म तत्त्व ही है। कभी वह अदृश्य सूक्ष्म ज्ञान स्पंदनों के रूप में कार्य करता है, तो कभी वह स्थूल देह (जीव, मनुष्य अथवा प्रसंग) से आने वाले मार्गदर्शन के रूप में कार्य करता है। जब हममें जिज्ञासा अपने चरम पर होती है तो गुरु-तत्त्व सूक्ष्म रूप से कार्य करता है और बहुत शीघ्र सिखाता है। इसका एक रोचक उदाहरण-- विद्यालय की परीक्षाओं के दिनों में जब घर में पढ़ते समय किसी प्रश्न का अर्थ या गणित के किसी सवाल का जवाब नहीं सूझ रहा होता है, तो उसके हल के लिए हम बहुत व्यग्र हो जाते हैं; फिर अचानक शौच या स्नान या निद्रा (अर्धनिद्रा) के समय अनायास ही हमें उसका हल मिल जाता है। किसी व्यक्ति ने तो आकर हमें उसका हल बताया नहीं, फिर कैसे मिल गया अचानक?! हमारी तीव्र जिज्ञासा के कारण ऊपर लिखी अवस्थाओं में हम वाह्य जगत से कट गए और उस प्रश्न पर पूरी तरह से केन्द्रित हो गए, तो हमारे लिए उपलब्ध आन्तरिक एवं वाह्य, सभी सूक्ष्म ज्ञान-स्रोत सक्रिय हो गए और हमें हल मिल गया! अब यह कहना बहुत मुश्किल कि हल भीतर के ज्ञान-स्रोत (आत्मा) से मिला या फिर बाहरी किसी सूक्ष्म ज्ञान-केंद्र से! प्रत्यक्ष में सिद्ध न हो सकने वाली वास्तविकता तो यह है कि सभी आत्माएं सूक्ष्म रूप से एक ही हैं या परस्पर सम्बद्ध हैं; आवश्यकतानुसार या परिस्थिति-अनुसार हमें योग्य स्थान से योग्य मार्गदर्शन (सूक्ष्म अथवा स्थूल में) मिल जाता है, शर्त यह कि हम पूरी तरह से जिज्ञासु हों!
यूं तो मान्यता यही है कि इसी गुरुतत्त्व को पूजने हेतु, कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु गुरुपूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है, पर इसमें इतना अवश्य जोड़ना चाहूंगा कि प्राचीन गणनाओं के अनुसार गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु-तत्त्व अत्यधिक सक्रिय होता है (विशेषकर सूक्ष्म स्तर पर)। अतः इस दिन गुरुतत्त्व के प्रति पूरी तरह से समर्पित होकर सम्पूर्ण श्रद्धाभाव से जब हम दिन व्यतीत करते हैं (ऊपर से दिखने में रोजाना की तरह ही, पर भीतरी रूप से भाव से ओतप्रोत), तो गुरुतत्त्व अन्य दिनों की अपेक्षा इस दिन सूक्ष्म अथवा स्थूल रूप से हमारी कई गुना अधिक मदद करता है। हमारा भाव एवं समर्पण, सक्रिय गुरुतत्त्व के हमतक सुगम संचरण के लिए पोषक वातावरण तैयार करता है। गुरुतत्त्व से मिलने वाली मदद या सीख का सबसे बड़ा परिणाम यह होता है कि हमारे आत्मा पर ढका आवरण धीरे-धीरे नष्ट होता है, और इसके कारण अब हमारी ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों को धीरे-धीरे अविद्या के स्थान पर आत्मा से शुद्ध ज्ञान-प्रकाश मिलना आरंभ होता है। हम आध्यात्मिक रूप से उन्नत होते जाते हैं। भौतिक जगत अब हमारे लिए पहेली नहीं रह जाता और न ही अपनी चकाचौंध से हमें हैरान कर पाता है। पर्याप्त सीख हासिल करने के पश्चात् हम एक सहज और खुशनुमा जीवन जीते हैं, हमारे अधिकतर निर्णय भले और न्यायोचित होते हैं। हमें जीवन का अर्थ बखूबी समझ में आ जाता है। विभिन्न धर्म (पंथ) और धर्म-संस्कृति सम्बन्धी वाद-विवाद हमारे लिए गौण हो जाते हैं। पश्चात् हम भगवा चोला पहनकर साधू-सन्यासी नहीं बन जाते बल्कि औरों की तरह सामाजिक जीवन ही जीते हैं। कमाते भी हैं, खर्च भी करते हैं, बचाते भी हैं; वैवाहिक जीवन भी व्यतीत करते हैं; माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी भी बनते हैं; लेकिन इन सब क्रियाओं के दौरान भीतरी रूप से हम कुछ अलग से होते हैं- बिलकुल सहज और मस्त! भविष्य की चिंता व प्रारब्ध से शिकायतें भी न्यूनतम हो जाती हैं। क्योंकि हम यथार्थ रूप से धर्म-ज्ञान (right knowledge) और धार्मिकता (righteousness) को प्राप्त कर लेते हैं। इति।

Wednesday, July 5, 2017

(७९) एक पोस्ट पर की गई टिप्पणी

आपने लिखा, "...मोदी सरकार की कमियां गिनाने वाले ऐसे भी हैं जिन्हें ये भी पता नहीं कि भारतीय संविधान में कितनी विसंगतियां और पेचीदगियां हैं जिनका लाभ लेकर अब तक भारतीय प्रजातन्त्र और प्रजा दोनों से सिर्फ खिलवाड़ ही हुआ है और कुछ संवैधानिक संशोधनों के बिना देश हित के सभी कार्य कर पाना वह भी शीघ्रता से, एक प्रधान के लिए सम्भव ही नहीं है!"

इस पर मेरा विचार यह है कि व्यवस्था संबंधी जितने भी संवैधानिक नियम-कानून अभी अस्तित्व में हैं, ..यदि उनमें से 50% पर भी शासन-प्रशासन द्वारा ईमानदारी और बुद्धिमत्ता से अमल हो जाये, तो आम जनता के लिए यह बहुत राहत की बात होगी। ..और यदि मौजूदा कानून-नियमों पर 100% अमल ईमानदारी से हो जाये तो फिर तो जनता ईश्वरीय-राज्य में होने का अनुभव करेगी।
हमारे नियम-कानून इतने भी कमजोर नहीं कि वर्तमान अव्यवस्था का समस्त ठीकरा हम उन पर फोड़ें, ..या उनके कमजोर होने का हवाला देकर अपनी नाकामयाबियों को छुपाएं!
वास्तव में सच तो यह है कि प्रधान और उनके मुख्य सलाहकार लोकहित की दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं रखते, येनकेन-प्रकारेण सत्ता को लंबे समय तक कायम रखने की महत्त्वाकांक्षा पाले हुए हैं, अपनी व्यक्तिगत सोच को ही सर्वोपरि मानते हैं, जब दूसरों को सुनने-समझने की वृत्ति ही नहीं तो फिर कल्पनाशीलता का भी अभाव है, ...और इन सब कमियों के कारण अच्छे शिल्पकार बनने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं (एक प्रधान, देश और समाज को गढ़ता ही है और उसकी भूमिका एक शिल्पकार की ही होती है)।
इच्छाशक्ति और कौशल के परिणाम का एक उदाहरण देता हूं--
आपने पुरानी प्रसिद्ध इमारतें जैसे ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, विभिन्न प्राचीन महल और किले, अंग्रेजों के शासनकाल में दुर्गम पहाड़ियों पर बना कालका से शिमला का रेलपथ, इत्यादि को देखा होगा।
बारीकी से इनका निरीक्षण, तत्पश्चात तटस्थ चिंतन करें तो पाएंगे कि उस काल में आज सरीखी तकनीक, क्रेन, बुलडोजर, लिफ्ट, जेसीबी मशीन आदि न होते हुए भी तत्कालीन शिल्पियों ने अपनी इच्छशक्ति, कल्पनाशीलता और ईमानदारी से किये गए श्रम की बदौलत ऐसे निर्माण कर दिखाए, जो आज सभी निर्माण-सुविधाओं के होते हुए भी संभव नहीं हैं। आज के भारतीय आर्किटेक्ट या इंजीनियरों को यदि वैसे निर्माणकार्य की चुनौती दी जाए तो वे किसी न किसी कमी या अभाव का बहाना बनाकर उस बीड़े को नहीं उठाएंगे! क्योंकि अक्षम व्यक्ति ही कार्य से बचने के लिए विभिन्न बहाने या कारण खोजता है।
अपने ही शहर में देखता हूं कि हाल ही के कुछ सालों में बनी सरकारी इमारतें अनेकों तकनीकी कमियां रखती हैं और उनका क्षय होना भी आरम्भ हो चुका है!
तो बहाने तो कमजोर व अक्षम लोग ही बनाते हैं। कर्मठ तो उपलब्ध साधनों-संसाधनों के साथ ही सामंजस्य बैठाकर मंजिल पा लेते हैं (वीर अब्दुल हमीद की कहानी यदि याद न हो तो इंटरनेट पर ढूंढ कर पढियेगा)।
एक बात और कि साहसी, विवेकवान और न्याय-पसंद प्रधान, लोकहित में संशोधित या नए कानून भी शीघ्र बना सकते हैं। शीघ्र बना सकने के सामर्थ्य के दो मूल कारण-- 1. संसद में प्रचंड बहुमत होना, 2. लोकहित यदि वास्तव में निहित हो तो फिर समाज और प्रजा से भी प्रचंड सहमति, सहयोग और समर्थन मिलना।
जब यह दोनों साथ में हैं तो फिर क्या गड़बड़ है कि आपने प्रधान के हाथ बंधे होने का हवाला दिया। किसी निज स्वार्थसिद्धि की तमन्ना हो तभी असली कर्म व राष्ट्र का विकास बाधित होता है, और अनेकों एक्सक्यूज़ देता है फिर व्यक्ति।
जितने कानून-नियम हैं अभी, और जितना बहुमत है सदन में, और जितना विशाल जनसमर्थन है अभी..., ऐसा सौभाग्य दोबारा मिलना अत्यंत मुश्किल! तो शिकायतों और कमियों और बेबसी को दर्शाना बंद कीजिये, और लग जाइये भ्रष्टाचार को ढहाने में, सुराज की स्थापना करने में।
ऐसी सुखद स्थिति में भी आपने यदि स्वार्थों के चलते कुछ ठोस न किया तो यह बहुत दुखद होगा।
आपके पास इस समय सबकुछ है। आवश्यकता है तो इच्छाशक्ति और ईमानदारी की।