'गुरु' शब्द का सबसे सरल अर्थ है कि जो भी हमें कुछ सीख दे वो गुरु है। जिस पल हमें जिससे भी कोई सीख मिलती है, उस पल वह हमारा गुरु है। माता-पिता, भाई-बहन, नाते-रिश्तेदार, समाज, अध्यापक, ये सभी हमारे लिए गुरु ही हैं। जीवन में घटने वाले प्रसंग भी हमें कुछ सिखाते हैं, तो वे भी एक प्रकार से हमारे गुरु ही हुए।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हम मूलतः एक सूक्ष्म तत्त्व (आत्मा) हैं, जो एक स्थूल देह (भौतिक शरीर) में प्रवास करता है। वैसे तो प्रत्येक आत्मा सम्पूर्ण ज्ञान से सराबोर है या यूं कहें कि पहले से ही सीखी-सिखाई है, फिर भी इस पर 'अविद्या' का आवरण चढ़ा होता है जिसके कारण उसके ज्ञान से व्यक्ति वंचित ही रहता है। 'अविद्या' मात्र एक शब्द है समझने के लिए। 'अविद्या' अर्थात् उस मनुष्य का मन, चित्त (अंतर्मन), बुद्धि और अहंकार। व्यक्ति के अंतर्मन में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार, तीव्र इच्छाएं, रूचि-अरूचि केंद्र, स्वभाव केंद्र, विशेषताओं के केंद्र, लेन-देन केंद्र आदि इस जन्म के आरंभ से ही विद्यमान रहते हैं। जन्म पश्चात् ये सब चीजें आत्मा के इर्दगिर्द अपना मकड़जाल पहले से ही फैलाए होती हैं, भले ही आरंभ में ये सब सुप्तावस्था में ही होती हैं! इस आवरण के कारण हमारी इन्द्रियों को आत्मा रूपी ज्ञान-स्रोत से ज्ञान का प्रकाश बहुत कम (लगभग नगण्य) ही मिलता है। बाद में शिशु के बड़ा होते-होते उसके मन पर इस जन्म के संस्कार (सीखें) भी अंकित होना शुरू होते हैं। कुछ वर्तमान कारणों से और कुछ प्रारब्ध के कारण इस समय जैसी परिस्थितियां समक्ष आती हैं या बनती हैं, वे सोये हुए पूर्व संस्कारों के लिए पोषक वातावरण उपलब्ध कराती हैं, फलतः वे संस्कार भी आयु बढ़ने के साथ-साथ शनैः शनैः जाग्रत होना आरंभ कर देते हैं। इस जन्म में निर्मित संस्कार और पूर्वजन्मों के संस्कार दोनों मिलकर व्यक्ति के वर्तमान व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
इस दौरान व्यक्ति को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में बहुत से माध्यमों से वह सीख प्राप्त करता है। जिससे भी वह सीख प्राप्त करता है, शाब्दिक रूप से उसे 'गुरु' की संज्ञा दी गयी है।
जैसे मनुष्य मूलतः एक सूक्ष्म तत्त्व है, ठीक वैसे ही 'गुरु' भी मूलतः एक सूक्ष्म तत्त्व ही है। कभी वह अदृश्य सूक्ष्म ज्ञान स्पंदनों के रूप में कार्य करता है, तो कभी वह स्थूल देह (जीव, मनुष्य अथवा प्रसंग) से आने वाले मार्गदर्शन के रूप में कार्य करता है। जब हममें जिज्ञासा अपने चरम पर होती है तो गुरु-तत्त्व सूक्ष्म रूप से कार्य करता है और बहुत शीघ्र सिखाता है। इसका एक रोचक उदाहरण-- विद्यालय की परीक्षाओं के दिनों में जब घर में पढ़ते समय किसी प्रश्न का अर्थ या गणित के किसी सवाल का जवाब नहीं सूझ रहा होता है, तो उसके हल के लिए हम बहुत व्यग्र हो जाते हैं; फिर अचानक शौच या स्नान या निद्रा (अर्धनिद्रा) के समय अनायास ही हमें उसका हल मिल जाता है। किसी व्यक्ति ने तो आकर हमें उसका हल बताया नहीं, फिर कैसे मिल गया अचानक?! हमारी तीव्र जिज्ञासा के कारण ऊपर लिखी अवस्थाओं में हम वाह्य जगत से कट गए और उस प्रश्न पर पूरी तरह से केन्द्रित हो गए, तो हमारे लिए उपलब्ध आन्तरिक एवं वाह्य, सभी सूक्ष्म ज्ञान-स्रोत सक्रिय हो गए और हमें हल मिल गया! अब यह कहना बहुत मुश्किल कि हल भीतर के ज्ञान-स्रोत (आत्मा) से मिला या फिर बाहरी किसी सूक्ष्म ज्ञान-केंद्र से! प्रत्यक्ष में सिद्ध न हो सकने वाली वास्तविकता तो यह है कि सभी आत्माएं सूक्ष्म रूप से एक ही हैं या परस्पर सम्बद्ध हैं; आवश्यकतानुसार या परिस्थिति-अनुसार हमें योग्य स्थान से योग्य मार्गदर्शन (सूक्ष्म अथवा स्थूल में) मिल जाता है, शर्त यह कि हम पूरी तरह से जिज्ञासु हों!
यूं तो मान्यता यही है कि इसी गुरुतत्त्व को पूजने हेतु, कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु गुरुपूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है, पर इसमें इतना अवश्य जोड़ना चाहूंगा कि प्राचीन गणनाओं के अनुसार गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु-तत्त्व अत्यधिक सक्रिय होता है (विशेषकर सूक्ष्म स्तर पर)। अतः इस दिन गुरुतत्त्व के प्रति पूरी तरह से समर्पित होकर सम्पूर्ण श्रद्धाभाव से जब हम दिन व्यतीत करते हैं (ऊपर से दिखने में रोजाना की तरह ही, पर भीतरी रूप से भाव से ओतप्रोत), तो गुरुतत्त्व अन्य दिनों की अपेक्षा इस दिन सूक्ष्म अथवा स्थूल रूप से हमारी कई गुना अधिक मदद करता है। हमारा भाव एवं समर्पण, सक्रिय गुरुतत्त्व के हमतक सुगम संचरण के लिए पोषक वातावरण तैयार करता है। गुरुतत्त्व से मिलने वाली मदद या सीख का सबसे बड़ा परिणाम यह होता है कि हमारे आत्मा पर ढका आवरण धीरे-धीरे नष्ट होता है, और इसके कारण अब हमारी ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों को धीरे-धीरे अविद्या के स्थान पर आत्मा से शुद्ध ज्ञान-प्रकाश मिलना आरंभ होता है। हम आध्यात्मिक रूप से उन्नत होते जाते हैं। भौतिक जगत अब हमारे लिए पहेली नहीं रह जाता और न ही अपनी चकाचौंध से हमें हैरान कर पाता है। पर्याप्त सीख हासिल करने के पश्चात् हम एक सहज और खुशनुमा जीवन जीते हैं, हमारे अधिकतर निर्णय भले और न्यायोचित होते हैं। हमें जीवन का अर्थ बखूबी समझ में आ जाता है। विभिन्न धर्म (पंथ) और धर्म-संस्कृति सम्बन्धी वाद-विवाद हमारे लिए गौण हो जाते हैं। पश्चात् हम भगवा चोला पहनकर साधू-सन्यासी नहीं बन जाते बल्कि औरों की तरह सामाजिक जीवन ही जीते हैं। कमाते भी हैं, खर्च भी करते हैं, बचाते भी हैं; वैवाहिक जीवन भी व्यतीत करते हैं; माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी भी बनते हैं; लेकिन इन सब क्रियाओं के दौरान भीतरी रूप से हम कुछ अलग से होते हैं- बिलकुल सहज और मस्त! भविष्य की चिंता व प्रारब्ध से शिकायतें भी न्यूनतम हो जाती हैं। क्योंकि हम यथार्थ रूप से धर्म-ज्ञान (right knowledge) और धार्मिकता (righteousness) को प्राप्त कर लेते हैं। इति।