स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भारत की वर्तमान अवस्था का यदि अवलोकन किया जाये, तो अधिकांश चिंतकों, अर्थशास्त्रियों एवं अन्य मूल्यांकन करने वालों के यही वक्तव्य प्रकाश में आते हैं कि भारत की प्रगति की गति बहुत अच्छी है। अधिकतर विद्वान प्रगति का मापदंड तय करने के लिए भारत की तुलना पाकिस्तान से करते हैं; क्योंकि उनके अनुसार भारत व पाकिस्तान एक ही समय स्वतंत्र हुए और दोनों की भौगोलिक स्थितियां लगभग समान थीं/हैं; और पाकिस्तान की तुलना में इस समय भारत आर्थिक, सामरिक व औद्योगिक दृष्टि से बहुत आगे है। जब हमारे अगुआ विद्वानों का यह विचार बनता है तो फिर देश का आम नागरिक भी यही सोचने लगता है और सभी का सीना गर्व से थोड़ा और चौड़ा हो जाता है। होना भी चाहिए!
पाकिस्तान ने अनेक बार भारत पर टेढ़ी नजर की और हर बार हमने उसे मुंहतोड़ जवाब दिया, कई युद्धों में अनेक अवसरों पर हमारे मुट्ठी भर जवानों ने बड़ी पाक सेना के छक्के छुड़ा दिए, जब-जब हम पर आतंकवादी हमले हुए हमने उन्हें कुचल दिया, अमरीका से भी अनेक बार पाकिस्तान को डांट पड़वा कर हमने उसके खिलाफ अपना राजनीतिक दबदबा भी कायम किया; ... यह अलग बात है कि अधिकतर अवसरों पर हमें पाकिस्तानी मंसूबों की भनक तक नहीं लगी, ... कारगिल और मुंबई जैसी घटनाएं कोई रोज-रोज थोड़े ही होती हैं!! एकदम से कोई हमारे घर में घुस आए तो निपटने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है! अब हमारे सोने के समय कोई चुपके से घुस आए तो क्या किया जा सकता है?? खैर अंततः हमने उन्हें मार तो गिराया। एक को तो जिंदा भी पकड़ लिया! कारगिल और मुंबई की घटनाओं में हमारा जो नुकसान हुआ, उसकी बात करना फिजूल है, प्यार और जंग में सब जायज़ है, और फिर वह तो एक्सीडेंटल था। अंत भला तो सब भला! भई हमारा मीडिया भी कितना तरक्की कर गया है, पाकिस्तान तो मुकाबले में कहीं नहीं ठहरता!! मुंबई में तो मीडिया ने कमाल ही कर दिया। पल-पल की लाइव खबरें मिलना वास्तव में रोमांचकारी था। और कमाल की बात देखिये कि भले ही हमारे जवानों की अत्याधुनिक, स्वचालित, टेलीस्कोपिक बंदूकों की गोलियाँ आतंकवादियों तक देर में पहुंची मगर मीडिया के कैमरों की पहुँच में वे लगातार बने रहे!! वैसे देखा गया है कि अधिकतर नागरिक (civic) मामलों में मीडिया के कैमरों की नज़र सुरक्षा/जाँच विभाग की नज़रों से तेज होती है। शाबास मेरे देश के वीर मीडिया-कर्मियों!!
युद्ध, लड़ाई, आतंकवाद आदि की बात छोड़ जरा खेलों की दुनिया में आइये। भारत ने कितनी बड़ी-बड़ी खेल स्पर्धाएं पिछले कुछ वर्षों में आयोजित कीं, पाकिस्तान तो हमसे बहुत पीछे है! अभी ताजा खबर तो पूरे विश्व को पता ही होगी कि भारत में राष्ट्रकुल/राष्ट्रमंडल/कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन हो रहा है; तैयारियां अंतिम चरण में हैं। हम यह करवा रहे हैं, पर पाकिस्तान तो फिसड्डी है; पदक वगैरह भी पाकिस्तान से अधिक हमें ही मिलते हैं। यह बात अलग है कि इतने बड़े आयोजन में कुछ गड़बड़ियां तो होती ही हैं! क्या कहा? ...आपको गड़बड़ियां-घोटाले कुछ अधिक ही लग रहे हैं?? अजी, मीडिया वाले तो कुछ भी उल्टा-सीधा बकते रहते हैं!! इसी की तो रोटी खा रहे हैं वे!! एक समाचारपत्र छापता है कि चीन ने इतने बड़े ओलम्पिक का आयोजन इतनी सफलतापूर्वक कर दिखाया कि सारा विश्व हैरान रह गया, कोई गड़बड़ी नहीं, कोई घोटाला नहीं , किसी स्टेडियम की छत टपक नहीं रही थी, कहीं ट्रैफिक-जाम नहीं, सब व्यवस्था चाक-चौबंद, बिलकुल फिट!! अजी सब बकवास है .... दूसरे की बीवी हमेशा अपनी से अच्छी लगती है, ... ऐसे ही सब तारीफ करते रहते हैं चीन की!! अरे, अगर उसने वास्तव में इतना सफल आयोजन कर भी लिया तो इसमें हैरत की बात क्या है भाई!? ... उसकी जनसँख्या देखो, क्षेत्रफल देखो; सब हमसे अधिक है तो फिर हैरानी की बात क्या?! मीडिया वाले तो कुछ समझते ही नहीं हैं! ... हमारा देश गरीब देश है, रोज ऐसे आयोजन थोड़े ही होते हैं, कभी-कभी तो होते हैं; और कभी-कभी तो मौका मिलता है कि दो पैसे अतिरिक्त कमा लिए जायें! इसमें बुरा क्या है? ... जो छत टपक रही थी स्टेडियम की, वह ठीक तो गयी न अंत में; कुर्सियां जो घटिया थीं वे बदलवा दी जायेंगी! जो कुछ कमी रह गयी है, भागते-दौड़ते वह भी आखिर तक पूरी हो ही जायेगी, फिर इतना चीखना-चिल्लाना किसलिए भाई?? ... अब बस करो!! इतना बड़ा देश, इतनी समस्याएं, धरना-प्रदर्शन; सबसे निपटना है हमें, और मीडिया वाले हैं कि बस शोर मचा रखा है! उफ्फ्फ !!
यह थी एक बानगी हमारे देश के आकाओं की, नीति-निर्माताओं की। ..... इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा देश प्रगति के पथ पर है, भले ही रफ़्तार बहुत कम हो या खोखलापन हो! विकास-गति का कम होना या खोखलापन होना इसलिए क्योंकि देश के अधिकांश चिन्तक व नेता यह मूलभूत सूत्र भुला बैठे हैं कि जब हम सीखने की या आगे बढ़ने की प्रक्रिया में होते हैं तो हमें स्वयं की तुलना सदैव अपने से उच्च अर्थात् उन्नत व श्रेष्ठ लोगों से करनी चाहिए, निचली अवस्था के लोगों से नहीं! हम बारम्बार अपनी तुलना पाकिस्तान जैसे छोटे, कमजोर व अपरिपक्व देश से करते रहते हैं एवं खुश होते रहते हैं। परन्तु जहाँ चीन जैसे विकसित या अपेक्षाकृत उन्नत विकासशील देशों से तुलना की बात होती है, वहाँ हम उनकी समृद्धि के अनेकों कारण गिना देते हैं, जैसे वहाँ की भौगोलिक स्थिति हमसे बेहतर है, जनसँख्या कम है, भूमि अधिक है, भूमि उर्वरक है, बहुत पहले से आजाद हैं, आदि-आदि। ये सब बहाने हैं अपनी कमजोरियों को छुपाने के! सत्य यही है कि कोई भी देश हर बात में परिपूर्ण नहीं है, किसी को प्रकृति ने कुछ प्रदान किया है तो किसी को कुछ और!! शेष सब हमारे क्रियमाण (वर्तमान ऐच्छिक कर्म) पर निर्भर करता है कि हम उसके बल पर शेष कमियों की कैसे भरपाई कर पाते हैं! और आज यदि हम मंथर हैं, धीमे हैं तो इसका कारण हमारा कमजोर क्रियमाण है। हमारे प्रयास कमजोर हैं केवल इसी कारण हम पीछे हैं और बहाना करते हैं अपने कमजोर शरीर-सौष्ठव का यानी प्राकृतिक संसाधनों की कमी का। चीन से तुलना होते समय बहुधा हमारे चिन्तक यही बात करते हैं। .... परन्तु मनःस्थिति के विषय में कोई विरला ही बात करता होगा। मैंने पहले के कुछ लेखों में भी इस बात को उठाया है कि उन्नति या अवनति के पीछे असली चीज मनःस्थिति ही होती है। जिसमें जितना जोश है, जिसका दिल जितना साफ है, वही वास्तव में आगे बढ़ सकता है। मनःस्थिति की भिन्नता के कारण ही आज पाकिस्तान हमसे पीछे है और चीन हमसे बहुत आगे है। इस सन्दर्भ में जापान और दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देशों का उदाहरण भी हमारे समक्ष है। मैं यह नहीं कहता कि ये सब राष्ट्र परिपूर्ण हैं , पर यह तो सत्य है कि ये हमसे बहुत आगे हैं।
अर्थात् जिसमें कर्मठता है ईमानदारी के साथ, वह ही वह ठोस उन्नति कर सकता है। वैसे भी देखिये जब हम रेस में दौड़ रहे होते हैं तो हम केवल अपने से आगे के लोगों को देखते हैं पीछे के नहीं; हम पूरी लगन और ईमानदारी से दौड़ लगाते हैं , रेफरी की निगाह भी हम पर होती है, कोई बेईमानी नहीं चल सकती; हम नियमों से बद्ध होकर दौड़ते हैं अन्यथा हम दौड़ से बाहर हो सकते हैं। ईमानदारी से पूरा जोर लगाने पर जिस नंबर पर हम आते हैं उस समय उसी से संतोष करते हैं, पीछे रह जाने वालों को दिलासा देते हैं और आगे निकल जाने वालों को सराहते हैं, ... यही खेल-भावना होती है। सब एक से सामर्थ्यवान नहीं होते फिर भी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार सभी प्रतिभागी अधिकतम एवं ईमानदार क्रियमाण करते हैं और जो फल मिलता है उससे संतुष्ट होते हैं। लेकिन जरा उस प्रतिभागी के बारे में विचार कीजिये, जो ठीक से मेहनत नहीं करता, बेईमानी से जीतने की सोचता है, वह भी अपने प्रयास में कभी-कभी सफल हो जाता है; परन्तु उसकी सफलता प्रायः अस्थाई होती है। किसी न किसी प्रकार वह पकड़ा ही जाता है और उसका जीता हुआ पदक उससे छीन लिया जाता है; और यदि वह इस बार पकड़ा न भी जाये तो अगले खेलों में वह अपना यह कारनामा फिर से दोहरा नहीं पाता है। अतः हमने देखा कि इस प्रकार की सफलता प्रायः अस्थाई ही होती है। हो सकता है कि वह सबको चकमा देने में हर बार सफल हो जाये, परन्तु अपने आप के आगे तो वह बारम्बार बेनकाब होता ही रहता है और कभी न कभी अपराध-बोध से ग्रस्त हो व्यथित व प्रताड़ित हो सकता है।
दुःख की बात है कि हमारे भारत में आज लगभग प्रत्येक क्षेत्र के अगुआओं की यही दशा है - न्यूनतम प्रयास कर येनकेन-प्रकारेण अधिकतम प्राप्त करने की वृत्ति! जब अगुआ ऐसे तो फिर अनुगामी तो तदनुसार होंगे ही! जबकि हमारे ही विश्लेषणों से हम यह जानते हैं कि इस प्रकार प्राप्त की गयी सफलता या तो अस्थाई होती है या फिर बिलकुल खोखली। कागजों पर, आंकड़ों में निश्चित रूप से हम अपने राष्ट्र को काफी आगे दिखाने में सफल हो गए हैं परन्तु अपने सामने हम अनावृत हैं। जब-जब आत्मा रूपी आईने का सामना होता है, तब-तब हम अपने नेत्र बंद कर लेते हैं। आँखें बंद कर लेने से सच्चाई नहीं बदल जाती! हमारे राष्ट्र का आध्यात्मिक अतीत इतना सुन्दर रहा कभी, परन्तु अब वह अतीत ही है। कभी किसी समय चरणबद्ध ढंग से मूर्तिपूजा आदि को लांघते हुए वेदांत ज्ञान तक जा पहुँचने वाले भारतवासी वर्तमान में इतने अधोगामी हो गए हैं कि वे कहीं भी यहाँ तक कि प्रार्थनालय (मंदिर आदि) में भी भ्रष्टाचार करने में संकोच नहीं करते। लेकिन ईश्वर रूपी रेफरी सब देख रहा है, पदक भी वापस छीने जा रहे हैं; किस रूप में यह कोई नहीं जानता ठीक से, और जो कोई जानता भी है वह मानता नहीं। क्रिया के फलस्वरूप एवं तदनुरूप प्रतिक्रिया निश्चित है। आखिर कब तक हम सत्य से भागते रहेंगे? इति।