(१) नौकरियों में आजकल एक अच्छी प्रथा है कि "एक व्यक्ति - एक पद"। अर्थात् व्यक्ति केवल एक ही जगह या एक ही पद पर कार्य कर सकता है, क्योंकि एक से अधिक जगह कार्य करने पर निष्ठा एवं हितों का प्रभावित होना संभव होता है।
* अतीत में विवाह संस्कार (प्रथा) का जन्म भी कदाचित् इसी दृष्टिकोण के साथ हुआ होगा!
(२) एक ही समय में एक से अधिक स्थानों पर कार्य करने से या एक से अधिक व्यक्तियों के लिए कार्य करने से परस्पर निष्ठा एवं हितों के टकराव के अतिरिक्त, अनेकों मतभेद भी जन्म लेते हैं, जिनकी परिणति भयंकर कलह और कोर्ट-कचहरी भी हो सकती है। फलतः मन की शांति, सम्मान और साख पर विपरीत असर पड़ सकता है।
* अनेक से दैहिक अन्तरंग सम्बन्ध बनाने का भी यही परिणाम होता है। यहां स्पष्ट कर दूं कि स्वस्थ मित्रता एक चीज है और दैहिक अन्तरंग सम्बन्ध एक दूसरी चीज। स्वस्थ मित्रता छुपानी नहीं पड़ती, जबकि चलन या प्रथा विरुद्ध बनाया गया कोई भी अन्तरंग सम्बन्ध छुपाने की कोशिश रहती है।
(३) किसी नौकरी में व्यक्ति, नियोक्ता को कुछ (श्रम) देता है और बदले में नियोक्ता उस व्यक्ति को कुछ (वेतन) देता है। उस रिश्ते में दोनों के स्वार्थ के साथ उनके हित भी शामिल रहते हैं। कोई व्यक्ति यदि छुपकर चोरी से समानांतर रूप से किसी अन्य नियोक्ता के लिए भी कार्य करता है तो व्यक्ति आवश्यकता से अधिक स्वार्थी, लालची एवं कमजोर चरित्र का माना जाता है।
* जीवनसाथी के अतिरिक्त किसी अन्य से दैहिक अन्तरंग सम्बन्ध रखने के मामले में भी यही बात खरी उतरती है।
(४) किसी नियोक्ता और उसके साथ जुड़े व्यक्ति के आपसी सम्बन्ध तब तक मधुर और स्थाई बने रहते हैं जब तक कि वे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं और आवश्यकताओं की कद्र करते हैं।
* ऐसा ही कुछ ध्यान रखने पर वैवाहिक सम्बन्ध भी अटूट रहते हैं।
(५) नियोक्ता या कर्मचारी में से किसी एक के भी अधिक स्वार्थी या अवसरवादी या लोभी होने पर उनका सम्बन्ध टूटता है।
* वैवाहिक रिश्तों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है।
(६) वेतन एक से और काम किसी अन्य के लिए करना, या किसी से काम लेना और वेतन किसी अन्य को देना; ऐसा बिलकुल भी नहीं चलता। जाहिर (प्रकट और वैध) रिश्ता एक पल में टूट जाता है!
* इसी प्रकार अन्तरंग सम्बन्ध किसी से और विवाह किसी अन्य से, या फिर एक से विवाह और अन्य से अन्तरंग सम्बन्ध; यह बिलकुल भी नहीं चलता। चलेगा तो छुपकर; और भेद खुलने पर उन्हें स्वार्थी, लालची एवं कमजोर चरित्र का माना जायेगा और वैध रिश्ता टूटेगा अथवा उसमें भारी दरार पड़ेगी।
कुछ और मिली-जुली बातें--
दोस्ती और रिश्ता (फ्रेंडशिप और रिलेशन) दोनों अलग-अलग चीजें हैं। दोस्ती माने स्वस्थ मित्रता। खरी दोस्ती सामान्यतः किसी स्वार्थ अथवा भौतिक या दैहिक लालच पर नहीं टिकी होती। इसीलिए दोस्ती से बड़ा कुछ नहीं, इसीलिए दोस्ती अनेकों से की जा सकती है, दोस्ती लिंगभेद से परे होती है।
हम मनुष्य इतने विशाल हृदयी नहीं कि स्वार्थों से परे रह पाएं, और इतने समर्थ भी नहीं कि आवश्यकताएं ही न हों। तो विभिन्न भौतिक स्वार्थों और आवश्यकताओं की गरिमापूर्ण ढंग से पूर्ति के लिए हमारे पूर्व नीति-नियंताओं ने अतीत में कुछ सामाजिक व्यवस्था बनाई। इसी व्यवस्था के अंतर्गत रिश्तों का जन्म हुआ, उन्हें कुछ नाम दिए गए, जैसे माँ, पिता, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, पति, पत्नी आदि-आदि।
प्रेमी-प्रेमिका भी एक प्रकार का रिश्ता ही है, किन्तु अतीत के उदाहरण उठाकर देखें तो यह रिश्ता अस्थाई ही माना गया है। भविष्य में इसकी परिणति विवाह-सम्बन्ध के रूप में हुई है या तो यह टूटा है। और यदि आगे चला है तो छुपकर ही, एक अवैध सम्बन्ध के रूप में!
समाज-व्यवस्था बनाये रखने के निमित्त निर्मित किये गए इन रिश्तों के बीच दोस्ती या स्वस्थ मित्रता सदा से अस्तित्व में रही है। इसको सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, तभी तो ऐसे कहा जाता है-- "मैं तुम्हारा पिता हूँ, लेकिन इससे पहले मैं तुम्हारा दोस्त हूँ"; "मैं आपकी पत्नी हूँ लेकिन इससे पहले एक अच्छी दोस्त हूँ"; "तुम मेरी माँ कम और दोस्त ज्यादा हो"। दोस्ती की महिमा का बखान करने वाले ऐसे वाक्य अक्सर सभी रिश्तों के मध्य नजर आते हैं।
कोई वेतनभोगी कर्मचारी भी अपने किसी निहायत खाली समय में, नियोक्ता के प्रति बिना किसी निष्ठा या हित के टकराव की कीमत पर, बिना किसी स्वार्थ या लालच के किसी अन्य को कोई सलाह देता है या किसी अन्य के काम में कोई मदद करता है तो इसमें उसके नियोक्ता को कोई भी आपत्ति नहीं होती।
ठीक इसी प्रकार का संतुलन हमें रिश्तों और दोस्ती के बीच भी बनाना चाहिए। अर्थात् किसी रिश्ते को किसी अन्य की दोस्ती से अधिक वरीयता देनी चाहिए। दोस्ती करें लेकिन रिश्ते की कीमत पर नहीं; क्योंकि प्रत्येक रिश्ता एक विशेष उद्देश्य से बना है, उसमें कुछ करार (नियम, शर्तें, अनुबंध) है।
क्या ही अच्छा हो कि हम प्रत्येक रिश्ते में दोस्ती को भी घोल दें। लेकिन हम मानव हैं, ऐसा कर न पायेंगे! यदि ऐसा संभव हो गया तो फिर जरूरत पड़ने पर कोई भी व्यक्ति किसी भी नियोक्ता का कोई भी काम कभी भी कर दिया करेगा; और आवश्यकता पड़ने पर किसी भी नियोक्ता से अपनी जरूरतों के लिए कितना भी धन ईमानदारी से ले लेगा!! ऐसा होना तो असंभव ही दीखता है! परस्पर सम्पूर्ण निःस्वार्थता और ईमानदारी स्थापित होना बहुत दूर की कोड़ी है! इसीलिए हमारे पूर्वजों ने कुछ समाज-व्यवस्था बनाई और उसके अंतर्गत रिश्ते-नाते बने; जिसके कारण लोग परस्पर एक सभ्य, गरिमामय और सौहार्दपूर्ण वातावरण में रह पाते हैं, अन्यथा अनाचार फैलते देर न लगती!
फिर भी देखा जाता रहा है कि इस सब सामाजिक व्यवस्था के बावजूद भी अनाचार अपना सिर उठाता रहा है। आज के दौर में लिव-इन कल्चर एवं विवाहेत्तर अन्तरंग सम्बन्ध पनप रहे हैं। बहुधा ये सम्बन्ध चोरी-छुपे ही बनाये जाते हैं। छुपकर वही काम किया जाता है, जो गलत हो! कुछ तथाकथित बोल्ड लोग खुलेआम इन संबंधों का प्रदर्शन करते हैं और इन संबंधों में कोई बुराई नहीं समझते। लेकिन तटस्थ और गहरी समझ से इन संबंधों को निहारा जाये तो पायेंगे कि इनके पीछे स्वार्थ, वासना, लोभ आदि संलग्न रहते ही हैं। रिश्तों की प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के विपरीत इन संबंधों में कोई गहरा आत्मीय करार नहीं होता है। अतः कुछ ही आगे चलकर निष्ठा एवं हितों का जबरदस्त टकराव सामने आता है; फलस्वरूप अवसाद, लड़ाई-झगडा, जग-हंसाई आदि के साथ-साथ चरित्र की दुर्बलता उजागर होती है। सम्बंधित स्त्री-पुरुष या तो पशुवत तामसिक प्रवृत्ति का हो जाता है या फिर अवसादग्रस्त! लगभग असंभव ही है कि किसी के हितों का नुकसान हुए बगैर, निःस्वार्थ और विशुद्ध दोस्ती के वातावरण में लिव-इन या विवाहेत्तर सम्बन्ध खुलेआम 'चिरकाल' के लिए बने रह सकें! इति।