आज गाँधी जयंती है। सुबह उठते ही समाचारपत्र में गाँधी जी से सम्बंधित अनेक लेखों के दर्शन हुए। कल गाँधी जी से सम्बंधित कुछ पुस्तकें भी फिर से पढ़ रहा था। सो मन में विचार आया कि आज उन्हीं सब में से कुछ संकलित कर लिखूं। सबसे पहले मैं गाँधी जी से सम्बंधित वह बात लिखना चाहूँगा जिससे मिलता-जुलता उल्लेख मैंने अपने पिछले लेख 'मार्गदर्शकों का आचरण' में भी किया था।
व्यक्ति-पूजा के तीव्र विरोधी
महात्मा गाँधी व्यक्ति-पूजा के तीव्र विरोधी थे और बहुत सजग रहते थे कि कहीं लोग उन्हें भी भगवान की तरह न पूजने लगें। अहमदाबाद में साबरमती आश्रम एवं गाँधी स्मारक संग्रहालय की देखरेख कर रहे श्री अमृत मोदी जी ने बताया कि कुछ लोगों द्वारा १९२७-२८ में तत्कालीन मद्रास व सौराष्ट्र में गाँधी जी की पूजा के लिए दो मंदिर बनाये गए। लेकिन गाँधी जी ने कड़ा विरोध कर अपने सामने उन मंदिरों को तुड़वा दिया। इसी प्रकार एक बार कस्तूरबा ने गाँधी जी के प्रवास के दौरान उनकी मंगलकामना के लिए उनके चित्र के सामने दीपक जला कर प्रार्थना कर ली। जब गाँधी जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने कस्तूरबा को डांटा-डपटा और उन्हें आगे से ऐसा कोई कार्य नहीं करने का कड़ा निर्देश दिया जिससे व्यक्ति-पूजा को बढ़ावा मिलता हो।
श्री मोदी ने आगे कहा कि महात्मा गाँधी इस बात से भली-भांति परिचित थे कि भारत की जनता व्यक्ति-पूजा की आदी है और अपने जीवन में कोई न कोई आदर्श ढूंढती रहती है। वह बहुत सरलता से किसी को अपना नायक बना कर भावनावश उसकी पूजा आरंभ कर देती है।
महात्मा गाँधी संभवतः देश के एकमात्र ऐसे नेता थे जिनके पास अपने नाम पर कोई संपत्ति नहीं थी। वह सही अर्थों में अपरिग्रह के सिद्धांत का पालन करते थे। इस सिद्धांत का पालन करने में वह किस सीमा तक जा सकते थे इसका एक दृष्टान्त है कि जब ब्रिटिश सरकार ने डांडी यात्रा के बाद स्वतंत्रता सेनानियों की संपत्ति जब्त करनी आरंभ कर दी तो उन्होंने सरकार से कहा कि वह साबरमती आश्रम भी जब्त कर ले, परन्तु ब्रिटिश सरकार ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकी। बाद में गाँधी जी ने स्वयं आश्रम बंद करने का निर्णय लिया और इसे हरिजन सेवक संघ को सौंप दिया।
गाँधीवादी सच्चाई की ओर सबको लौटना ही होगा
गाँधीवादी विचारक चुनी भाई वैद्य के अनुसार महात्मा गाँधी के विचार पत्थर की लकीर जैसे हैं। कोई कुछ भी कह ले, उन्हें गालियाँ देने में अपनी शान समझे या देश की बर्बादी के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने का अनुचित दुस्साहस करे, पर सत्य यही है कि आज पहले से भी कहीं अधिक दुनिया को बापू के सिद्धांतों पर अमल करना आवश्यक लगने लगा है। यदि सही अर्थ में विश्व में सुख-शांति की आवश्यकता है तो गाँधीवादी सच्चाई की ओर सबको लौटना ही होगा। आतंकवाद का सामना व समाप्ति हेतु शांति, प्रेम और अहिंसा की नींव दृढ करनी ही होगी। यदि आज आतंकवाद व साम्प्रदायिकता जैसी समस्याएं सर उठा रही हैं तो उसके मूल में यही है कि गाँधीवादी शक्तियां दुर्बल पड़ गयीं हैं।
खेद की बात है कि आज बापू का नाम लेने वाले और उनकी पूजा करने वाले लोग तो बहुत दृष्टिगत हो रहे हैं परन्तु उनकी नीतियों व शिक्षाओं का वास्तविक अनुसरण करने वाले घटते चले जा रहे हैं। गाँधी के कार्य को आगे बढाने हेतु खादी और चरखा ही पर्याप्त नहीं है वरन इस मूल भावना से जुड़ना होगा कि प्रत्येक समस्या का समाधान गाँधीवादी सिद्धांतों के आधार पर संभव है।
सत्य एवं अहिंसा का मार्ग अपनाना आवश्यक
८५ वर्षीय श्री नारायण देसाई जो लगभग २३ वर्षों तक बापू के सान्निध्य में रहे, कहते हैं कि आतंकवाद और भष्टाचार के इस दौर में गाँधी जी के बताये सत्य और अहिंसा के मार्ग को गंभीरता से समझने व अपनाने की सबसे अधिक आवश्यकता है। आज भी सत्य, अहिंसा और प्रेम प्रासंगिक हैं। इनसे ही सुखद और विकसित भविष्य की आशा की जा सकती है। लोगों को बापू के बताये इन रास्तों पर चलना अत्यधिक कठिन व चुनौती भरा लग सकता है, पर जो इस मार्ग पर चलते हैं उन्हें कोई भय नहीं सताता और वे हर प्रकार के तनावों व बीमारियों से मुक्त रहते हैं। सादा जीवन उच्च विचार रखने से झूठे लालच आपको जीवन में गिरने, झुकने या कमजोर नहीं पड़ने देते। यह भौतिक सुख-साधनों से अधिक संतोष प्रदान करने वाली जीवन पद्धति है। अपनाकर तो देखिये।
ईमानदारी और सच्चाई से ही मिलती है संतुष्टि
श्री तुषार गाँधी के शब्दों का सार कुछ इस प्रकार है कि - जीवन प्रासंगिक है तो बापू अप्रासंगिक नहीं हो सकते। यदि आज सत्य व अहिंसा की आवश्यकता है तो बापू आज भी प्रासंगिक हैं। आज की परिस्थितियों में बापू को याद करना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उनके बताये रास्तों पर चलना भी आवश्यक है। हिंसा और आतंक निरंतर बढ़ रहे हैं। परिवार, समाज, गाँव, शहर, राज्य और देश में एकता का अभाव है। रोजगार कम व मंहगाई अधिक है। भाषावाद और प्रांतवाद को लेकर झगडे हो रहे हैं। प्रकृति का शोषण हो रहा है। अमीरी-गरीबी का फासला बढ़ रहा है। गाँवों का वास्तविक विकास थमा हुआ है। ऐसे में आवश्यकता है कि हम बापू के विचारों के अनुसार चलें, तभी हमारे देश का भी विकास होगा।
हर किसी का लक्ष्य संतुष्टि है। ईमानदारी व सच्चाई के साथ काम किया जाये तो संतुष्टि मिलती है। जीवन में हार-जीत तो होती ही रहती है। ऐसा नहीं है कि मात्र लक्ष्य को प्राप्त करना ही महत्त्वपूर्ण है, बल्कि महत्त्व इसका है कि बापू के श्रेष्ठ विचारों व शिक्षाओं के अनुरूप कितना चलते हैं। उनके विचारों के साथ चलने में कष्ट नहीं है, बल्कि एक अलग आनंद व संतुष्टि की अनुभूति मिलती है।
उपरोक्त सर्व उद्धरणों का आधार लखनऊ से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र 'हिंदुस्तान' का ०२ अक्टूबर २००९ का अंक था। उनके प्रति आभार!
.... अब मैं कुछ वैयक्तिक विचार प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँ, जो मैं समझता हूँ कि अधिकांश जनों के भीतरी विचार होने चाहियें। ऐसा नहीं है कि मैं पूर्णतया अहिंसावादी व पाक-साफ़ हूँ। मेरे को भी बहुत क्रोध आता था, जब कुछ गलत होते देखता था। अति होने पर मन में कभी-कभी यह भी विचार आता था कि अमुक किसी प्रकार से मर जाये या मारा जाये या उसका कोई बड़ा नुकसान हो जाये अर्थात् दुष्ट को उसके किये की सजा मिल जाये। पर विचार कीजिये कि यदि वह कोई अपना निकट होता है, परिवार का सदस्य होता है तो हम उसके विषय में इतना कड़ाई से नहीं सोचते। तब हम मुलायम रास्ता खोजते हैं। पहले उसे हर प्रकार से बचाते हैं, उसके दोष को छुपाते हैं; फिर अगले चरण में हम अथक प्रयास कर उसे समझाते हैं कि वह दुष्टता को छोड़ दे। उसे यह ढाढ़स देते हैं कि भूतकाल को वह भूल जाये व नए सिरे से एक नया अध्याय आरंभ करे। हो सकता है कि वह हमारी बात न माने और हमारे प्रयासों के प्रत्युत्तर में हमें ही घात करे, क्षति पहुंचाए। तब पर भी हम एक सीमा तक उसका प्रतिघात सहते हैं और उसे प्रेमपूर्वक मनाते रहते हैं। अंत में या तो वह सुधर जाता है या फिर अपने कुकर्मों का फल भोगता है जैसे प्राचीनकाल में भी अतिवादियों ने भोगे थे।
आप यह भली-भांति समझ ही गए होंगे कि हम बहुत कष्ट सह कर भी उस व्यक्ति को बचाने व सुधारने का अथक प्रयास क्यों करते रहे? क्योंकि वह 'अपनों' की श्रेणी में आता था। हमारा 'अपनों' का दायरा कितना बड़ा है? यह बहुत छोटा सा ही है। क्यों? क्योंकि हम व्यापक नहीं हैं! हम व्यापक क्यों नहीं हैं? क्योंकि हम अपने आप को दूसरों के कारण असुरक्षित महसूस करते हैं। हमें लगता है कि हर वह व्यक्ति जो 'अपनों' की श्रेणी में नहीं है, स्वार्थी हो सकता है और हमें क्षति पहुंचा सकता है। यह स्वार्थ क्या है और यह कहाँ से आया? स्वार्थ यानी केवल अपने या 'अपनों' के विषय में ही विचार करना, अन्यों की परवाह न करना व उनके प्रति सशंकित रहना। यह अस्तित्व में आया है हमारी संग्रह करने एवं बेतहाशा भोग करने की वृत्ति से। हमारा संग्रह व भोग 'अपनों' तक ही सीमित होता है। 'पैसा' या 'धन' रूपी शक्ति भी एक बड़ा कारक है स्वार्थ के अस्तित्व व पोषण हेतु।
आज हम प्राकृतिक संसाधनों का जम कर दोहन कर रहे हैं। हमारा लोभ बहुत बढ़ गया है। हमारी अधिकांश गतिविधियों का केंद्र 'धन' की 'खेती' करना ही होता है। कोई भी काम करवाते या करते समय हम सतत यह विचार करते रहते हैं कि हमें कोई बेवकूफ न बनाने पाए, हमारा हर काम सस्ते में हो जाये पर हमें हमारे काम का अधिक से अधिक मूल्य मिले, मेरा माल महंगे से महंगा बिक जाये किसी प्रकार! अर्थात् अन्यों को निर्धन व स्वयं को धनी बनाने की वृत्ति बहुत बढ़ गयी है। इसीसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढती जा रही है। या कम से कम परस्पर कटुता व प्रतिस्पर्धा तो बढती ही जा रही है। अपना माल अधिक मुनाफे पर बेचने के लिए व्यापारी अब कहाँ-कहाँ नहीं चला जाता। आधुनिक यातायात संसाधनों व अन्य संचार माध्यमों ने इस वृत्ति की बड़ी मदद की है!
गाँधी जी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' पढिये। १९०९ में लिखी थी शायद उन्होंने, पर आज भी प्रासंगिक है। क्या गलत कहा था उन्होंने जो लोग भड़कते हैं। यथार्थ तो यह है कि आज कोई बेनकाब नहीं होना चाहता। सत्य का सामना करने से बड़ी तकलीफ होती है। ग्रंथों में पढेंगे, भाषण देंगे कि - सम्पूर्ण विश्व मेरा घर है, पर यथार्थ में होंगे अति सीमित। हमारा 'अपनों' का दायरा बहुत छोटा सा है, गाँधी जी का बहुत बड़ा था। गाँधी जी ने अहिंसा व प्रेम के माध्यम से इसी बात को कृत्य के स्तर पर लागू किया अर्थात् व्यापकत्व को चरितार्थ किया, तो सब लोग उन्हें अप्रासंगिक ठहराते हैं।
हम जानते हैं और हमारे वैज्ञानिक भी बराबर चेताते रहते हैं कि प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं, फिर भी हम उन संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपभोग कर रहे हैं। यहाँ तक कि अब किसी देश के विकसित होने का प्रमाण व पैमाना वहां पर हो रहे सामग्री-उपभोग पर आधारित है। कितनी हास्यास्पद बात है! सब जानते हैं; पर वही बात सत्यता व शुद्धता से गाँधी जी ने कही कि - प्रकृति के पास सब की आवश्यकताओं के लिए तो भरपूर है पर लोभ के लिए नहीं, तो सब लोग उन्हें अप्रासंगिक ठहराते हैं! रेलों, डॉक्टरों, वकीलों, मशीनों आदि को यदि बापू ने कोसा, तो उसके पीछे ठोस आध्यात्मिक कारण थे। क्योंकि तब भारतीय इतने परिपक्व नहीं थे कि इन सब विधाओं और शक्तियों का उपयोग सर्वहित में कर सकें। सच तो यह है कि तब से आज तक भारत में नैतिकता की स्थिति पहले की अपेक्षा बदतर ही हुयी है। परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इसका कारण धन व यश की पिपासा ही है। आज विशिष्ट योग्यता, सामर्थ्य व बल का प्रयोग मात्र इसी उद्देश्य से ही होता दीख रहा है।
उपरोक्त-वर्णित यह सब कार्य मनुष्य की प्राकृतिक जीवन शैली के बिलकुल विपरीत है। तभी गाँधी जी स्वराज्य पर बल देते थे। स्वराज्य माने स्व का, आत्मा का; आत्मिक राज्य, नैसर्गिक कानूनों व सिद्धांतों पर आधारित राज्य। यह बात समझनी थोडी कठिन है, परन्तु इस ब्लॉग के अन्य लेख पढ़ कर आप इसे कुछ-कुछ समझ सकते हैं। गाँधी जी ने भी प्राकृतिक रूप से जीवन जीने पर जोर दिया, यह अलग बात है कि लोग उनके मंतव्य व व्यापकत्व को ठीक से समझ नहीं पाए। आज जो समझते हैं, वे उनको योग्य सम्मान देते हैं, उन्हें सराहते हैं, उनके आदर्शों पर चलने का प्रयास करते हैं। विदेशों में उनके प्रशंसकों की संख्या बहुत बढ़ रही है। क्योंकि जो धीरे-धीरे सही अर्थों में विकसित हो रहे हैं, वे सत्य से नहीं भागते, ... और गाँधी जी के विचार कालजयी हैं और सर्वकाल उपयोगी हैं, अतः सत्य का सामना व समर्थन करने वालों को उनका दृष्टिकोण मान्य होगा ही।
एक बात और कि गाँधी जी ने स्वयं को कभी भी संत या महापुरुष घोषित नहीं किया और न ही मेरा भी ऐसा कोई आग्रह है। कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो, गलतियाँ तो होती ही हैं। फिर जब हम सीखने वाले के स्थान पर होते हैं तो हमें शुद्ध मन से केवल सत्त्व को ग्रहण करना आना चाहिए। और व्यक्ति के देह त्याग के पश्चात् उसके कुछ गलत कृत्यों को कोसते रहना मूर्खता ही है, उससे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं। संभवतः उन्होंने कई वैयक्तिक गलतियाँ की हों पर उन्होंने कोई गलत शिक्षा कभी भी नहीं दी। उनके समस्त कृत्यों पर यदि हम दृष्टिपात करें तो संभवतः अयोग्य कृत्यों का प्रतिशत योग्य की तुलना में बहुत ही कम होगा। ... ऐसे ही पूरा विश्व उनका प्रशंसक नहीं है! यदि हम सकारात्मक दृष्टिकोण रख कर निहारें तो निश्चित रूप से यह पायेंगे कि उनकी तथाकथित गलतियाँ भी उनके व्यापकत्व एवं निरपेक्ष प्रेम के गुण को ही दर्शाती हैं। इति।