१८ नवम्बर २००९ के दैनिक 'हिन्दुस्तान' में पढ़ा कि गत १५ नवम्बर २००९ को दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर एक पाकिस्तानी गुप्तचर सैयद आमिर अली गिरफ्तार हुआ। इस पाकिस्तानी गुप्तचर का लखनऊ में न केवल पासपोर्ट बन गया, बल्कि यहाँ के प्रशासनिक ढांचे ने उसके पूरे परिवार का राशन कार्ड भी बना दिया। उसे यहाँ हाई स्कूल की मार्कशीट, पैन कार्ड, बैंक खाते और ड्राइविंग लाइसेंस तक उपलब्ध करा दिए गए। यही नहीं, स्वयं को भारतीय नागरिक सिद्ध करने हेतु उसने तीन वर्ष तक बाकायदा आयकर रिटर्न भी फाइल किया। आमिर का पासपोर्ट बनवाने और उसे संरक्षण देने के आरोप में गिरफ्तार दो व्यक्तियों से पूछताछ के दौरान जो भेद खुले, उनसे यह पता चलता है कि उत्तर प्रदेश की पूरी व्यवस्था में किस प्रकार से घुन लग गया है। दलालों की मेहरबानी और भ्रष्ट सरकारी तंत्र के चलते उसने जो दस्तावेज बनवाए, उनमें से अधिकांश असली पाए गए। पूरी रिपोर्ट आप १८ और १९ नवम्बर, २००९ के समाचार पत्र में पढ़ सकते हैं।
यह मात्र एक बानगी है हमारे सोते हुए उत्तर भारत की! इसी प्रकार के कुछ अन्य भ्रष्टाचारों के विषय में मैं पहले के लेखों में भी चर्चा कर चुका हूँ। मैंने पिछले एक लेख 'व्यवहार व अध्यात्म' के अंतिम परिच्छेद में इंगित किया था कि उत्तर भारत में जो व्यक्ति क़ानून के दायरे में रह कर चलता है, वही सबसे बड़ा 'भुक्तभोगी' (sufferer) है। और जो गलत तरीके अपना सकता है, उसके लिए यहाँ कुछ भी पाना सरलता से संभव है! कितनी अजीब सी विडम्बना है यह! एक धार्मिक (righteous) व्यक्ति के लिए तो यह बहुत त्रासद है!
अपने विषय में ही कहूं, तो जन्म से लखनऊ में रहा रहा हूँ और मेरे पास मेरी फोटो सहित एक भी परिचय पत्र ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह से त्रुटिहीन हो! घिसा-पिटा कारण वही है कि यहाँ नियम से कार्य करने व नियमानुसार काम चाहने वाले व्यक्ति का कार्य अक्सर बिगड़ा ही करता है। हम तो आवेदन फॉर्म या प्रार्थना पत्र में सब कुछ ठीक-ठीक भर के देते हैं, परन्तु कंप्यूटर या रजिस्टर में फीड करने वाले कर्मचारी बहुधा गलती कर देते हैं। और एक बार कुछ गलत बन गया तो उसको सही करवाना तो नए बनवाने से भी अधिक कष्टदायी है। विशेषकर सरकारी क्षेत्र के विभागों में बिना सिफारिश या बिना 'सुविधा शुल्क' (रिश्वत का सभ्य पर्यायवाची) के कोई नया काम करवाना ही बहुत दुरूह है, और बाद में रिपेयरिंग अर्थात् संशोधन करवाना तो और भी टेढ़ी खीर! आए दिन हम इन्हीं समस्याओं से जूझते रहते हैं। कभी टेलीफोन का बिल तो कभी बिजली का बिल, कभी पानी का बिल तो कभी गृहकर, कभी आर.टी.ओ. सम्बन्धी तो कभी बैंक या बीमा सम्बन्धी!
कहने को तो हम बहुत उन्नत हो गए हैं। हर स्थान पर, हर सेवा में कंप्यूटरीकरण हो गया है, परन्तु कंप्यूटर को संचालित करने वाले हाथ हमारे ही हैं, और उन हाथों को संचालित व नियंत्रित करने वाला तो हमारा मस्तिष्क ही है, तथा मस्तिष्क का रुझान मन पर, मन के संस्कारों पर निर्भर करता है। हम उत्तर भारतीयों की मानसिक स्थिति तो रसातल में पहुँच चुकी है। मानसिकता को नियंत्रित व निर्देशित करने वाली आध्यात्मिकता से तो जैसे अधिकांश का सरोकार ही नहीं रह गया है! तभी तो सब विभागों में बेमन से कार्य होता है, यंत्रवत सा! जब सम्बंधित कर्मचारी को कोई अतिरिक्त निज स्वार्थपूर्ति होती नहीं दिखती, तब कहीं-कहीं कार्य होता ही नहीं है और कहीं त्रुटियों का अम्बार लग जाता है।
ऐसा नहीं कि सबके कार्य गड़बड़ हो जाते हों, पर इतना अवश्य कहूँगा कि वे मात्र भाग्यशाली होते हैं जिनके कार्य सही-सही हो जाते हैं। यह मेरा निजी एवं पक्का अनुभव है। परन्तु इसके विपरीत आप अपने कार्य करवाने के लिए थोड़ा टेढ़ा, थोड़ा अधार्मिक, थोड़ा भ्रष्ट तरीका अपनाते हैं तो न केवल आपके कार्य सरलता से हो जाते हैं, बल्कि कुछ असंभव से दिखने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं, जैसा पाकिस्तानी गुप्तचर सैयद आमिर अली के प्रकरण में हुआ। पाकिस्तानी नागरिक होते हुए भी उसके सब दस्तावेज लगभग ठीक-ठीक बन गए बिलकुल आसानी से! एक-दो दस्तावेजों को छोड़ कर उसके शेष सभी दस्तावेज असली पाए गए। किसी में कोई गलत पता यदि पाया गया तो वह इसलिए क्योंकि वह गुप्तचर ऐसा ही चाहता था। समाचारपत्र के सूत्रों के अनुसार पासपोर्ट कार्यालय व डाक विभाग में ऐसा कोई समझौता है कि पासपोर्ट स्पीड-पोस्ट द्वारा भेजा जाएगा और डाकिया पासपोर्ट का लिफाफा केवल सम्बंधित व्यक्ति को ही सौंपेगा, परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि गलत पता लिखा होने के बावजूद पासपोर्ट उस गुप्तचर तक पहुँच गया! पता गलत होने के बावजूद भी पुलिस वेरीफिकेशन हो गया! बाद में उस गुप्तचर ने उसी पासपोर्ट के आधार पर ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवा लिया।
सच में हमारे समूचे तंत्र में घुन लग गया है। सरकार केवल भौतिक प्रगति के रथ दौड़ाने में लगी है! सुलझी मानसिकता, कर्त्तव्यपरायणता, ईमानदारी, पारदर्शकता दुर्लभ हो गए हैं। मानवीय मूल्यों के उत्थान की छोड़िए, उनके संरक्षण या उनको यथावत बनाए रखने तक का बोध नहीं है! येनकेन-प्रकारेण सब चल रहा है, बल्कि भाग रहा है! सारथी के योग्य या अयोग्य होने पर तो प्रश्न तब उठे जब कोई सारथी रथ पर हो! धार्मिक (righteous) लोग किसी तरह यहाँ जीवन की लड़ाई लड़ रहे हैं और निज कर्म जनित प्रारब्ध को यहाँ भोग रहे हैं।
मुस्कुराइए कि आप उत्तर भारत की राजधानी में हैं! ..... इति।
पुनश्चः -- हाँ, एक काम यहाँ बहुत बढ़िया हो रहा है कि घर-घर पोलियो ड्रॉप पिलाने वाली टीम नियमित रूप से अपना कार्य मुस्तैदी से कर रही है। उनके सदस्य लगभग हर द्वार पर समय से पहुंचते हैं। किसी कारणवश घर पर बच्चे के उस समय न मिल पाने पर वे आपके सुझाए समय पर दोबारा आपके घर आते हैं। उनके पीछे-पीछे एक दूसरी टीम उनकी जांच करती चलती है। मैं सोचता हूँ कि यहाँ घर-घर जा कर मतदाता पहचान पत्र बनाने का या बिल आदि समय से वितरित करने का या अन्य किसी जाँच का अतिरिक्त कार्य भी इसी टीम को सौंप दिया जाए। मेरा दावा है कि इन कार्यों पर इस समय हो रहे खर्च से कहीं कम पर ये सभी कार्य कुशलता से व त्रुटि-रहित संपन्न हो जाएंगे। इस टीम का प्रबंधन वास्तव में प्रशंसा के योग्य है।