प्रकाश और अंधकार
आज समाज में जो इतना तम है या अज्ञान है उसकी जड़ कहां पर है, इस पर एक विचार। अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख, अच्छा-बुरा, कोलाहल-शांति, दिन-रात, प्रकाश-अंधकार आदि एक-दूसरे के कारण ही हमें पता चलते हैं या परस्पर पूरक प्रतीत होते हैं। पर क्या वस्तुतः ऐसा ही है? इस पर विचार किया तो पता चला कि कुछ-कुछ तो ऐसा ही है, पर कुछ हमारा भ्रम भी है। उदाहरण के लिए - प्रकाश-अंधकार के विषय में ही विचार करें तो हम पाएंगे कि हमें वास्तव में पता ही नहीं है कि अंधकार क्यों है और यह कहां विद्यमान है!
अंधकार तो तभी होता है जब प्रकाश या प्रकाश-स्रोत का अभाव होता है, अन्यथा अंधेरे का अस्तित्व ही नहीं! प्रकाश का स्रोत होता है। हम व्यावहारिक जीवन में भी देखते हैं कि बल्ब नहीं जलता या फ्यूज़ हो जाता है तो अंधेरा हो जाता है, बिजली का बटन बंद कर देते हैं तो अंधेरा हो जाता है, सूरज ढल जाता है तो अंधेरा हो जाता है। प्रकाश के कुछ स्रोत या कारण हम दीपक, बल्ब (विद्युत ऊर्जा) या सूर्य के रूप में देखते हैं, पर क्या कोई बता सकता है कि अंधकार का कोई स्रोत या अलग से कोई कारण है क्या? वस्तुतः अंधकार का स्रोत या कारण अलग से कोई है ही नहीं, फिर भी उसका अस्तित्व है! वह तभी जब प्रकाश स्रोत बंद हो जाए, समाप्त हो जाए। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से यदि देखा जाए तो आज तमगुण अधिक इसलिए हैं क्योंकि सर्वत्र सत्त्वगुणों का अभाव है।
आज समाज में तमोगुणों का बोलबाला तथा सत्त्वगुणों का अभाव दीखता है। ... और बहुत से ज्ञानी लोगों द्वारा बताया जाता है कि तमोगुण का स्रोत इस लोक तथा किसी अन्य लोक की कुछ अनिष्ट शक्तियां हैं | ऐसा जान कर हम कर्मकाण्ड, यज्ञ, मंत्रजप, आदि से तम के कारणों या अनिष्ट शक्तियों को मारने-भगाने के प्रयत्न करने में लगे हैं। यह सब थोड़ी मात्रा में करना तो कुछ हद तक समझ में भी आता है, पर पागलों समान अनिष्ट का अस्तित्व समाप्त करने का प्रयास मूर्खता ही प्रतीत होता है। वास्तविकता तो यह है कि सत्त्वगुण यदि बढ़ जाएंगे तो अंधकार रूपी तमगुण स्वयं ही भाग जाएंगे, जैसे सूर्य के निकलते ही अंधेरा गायब हो जाता है।
सत्त्वगुण के मुख्यतः दो स्रोत हैं -- (१) सूक्ष्म रूप से यदि देखा जाए तो ईश्वर, जैसे कि प्रकाश के संदर्भ में प्राकृतिक स्रोत के रूप में सूर्य। और (२) स्थूल रूप से देखा जाए तो हमारा क्रियमाण अर्थात् हमारी स्थूल देह द्वारा किया गया कार्य; जैसे हमने प्रकाश के संदर्भ में बल्ब, ट्यूबलाईट और बिजली आदि का प्रयोग देखा था। प्रकाश-अंधकार के परिपेक्ष्य में जो महत्त्व सूर्य का था यानी प्राकृतिक, सबसे बड़ा एवं सदैव रहने वाला प्रकाशस्रोत, ठीक यही महत्त्व सत्त्व-तम के विवेचन में ईश्वर का है। ईश्वर यानी विश्व बल्कि ब्रह्माण्ड की सबसे प्रधान व बड़ी सत्त्वगुणी शक्ति, जिसके समक्ष अंधकार रूपी तामसिक और अनिष्ट शक्तियां सदैव नतमस्तक रही हैं। ऐसे ईश्वर की यदि हम सच्चे मन से भावपूर्ण साधना करेंगे, तो ईश्वरीय गुण यानी सत्त्वगुण हमारे भीतर स्वयं ही आएंगे। और जब एक बार प्रकाशपुंज जला नहीं कि अंधेरे यानी तम-गुणों का अस्तित्व समाप्त होना शुरू! प्रकाश के सम्बन्ध में जैसे सूर्य के अतिरिक्त हम अन्य भौतिक माध्यमों से भी प्रकाश उत्पन्न करते हैं, ठीक वैसे ही अन्य माध्यम के रूप में क्रियमाण भी जब अच्छे से अच्छा करने की चेष्टा करेंगे तो इससे भी तमोगुण रूपी अंधकार दूर होगा। अर्थात् उपरोक्त अध्ययन के अनुसार, स्वयं भावपूर्ण साधना करेंगे अर्थात् ईश्वर के समीप जाएंगे और स्वयं के क्रियमाण पर भी ध्यान देंगे अर्थात् अच्छे कार्य ही करेंगे, तो इन दो प्रयासों से स्वयं के तमगुण कम होंगे ही। साथ ही समष्टि हेतु भी ऐसा ही प्रयत्न करेंगे। वास्तव में यही आध्यात्मिक साधना व अध्यात्मप्रसार है। वस्तुतः अंधकार हमारे अंतर्मन में है, यह उपर्लिखित दो स्रोतों यानी ईश्वर एवं हमारे क्रियमाण, इन दोनों से ही दूर होने वाला है। अनिष्ट शक्ति जैसी कोई चीज यदि है तो क्या अच्छी शक्तियां नहीं हैं उनसे निपटने के लिए? या हमें अपनी भक्ति और ईश्वर की शक्ति पर कोई संदेह है क्या?
भय और निर्भयता
पिछला अध्ययन जो हमने प्रकाश व अंधकार का किया, ठीक उसी प्रकार से भय का अस्तित्व है। अंधकार के जैसे ही भय का अस्तित्व है। भय का कोई अलग से स्रोत नहीं है। वह तभी होता है जब हममें निर्भयता या आत्मबल की कमी होती है। निर्भयता व आत्मबल की कमी हममें ईश्वरीय गुणों या सत्त्वगुणों की कमी के कारण ही होती है। यदि हमें ईश्वर पर अगाध श्रद्धा है तो हममें सात्त्विक गुण अधिक होंगे, तब आवश्यक निर्भयता व आत्मबल ईश्वर हमें स्वयं ही प्रदान करेंगे। अंधकार के समान ही डर या भय की कोई सीमा नहीं, तभी तो हमें सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों का भय भी सताता रहता है। भय से ही मन में नाना प्रकार के वहम आते हैं, जो वस्तुतः निरर्थक विचार यानी obsession ही हैं। और इस प्रकार के निरर्थक विचारों या भय रूपी जाल में जब हम जकड़ते चले जाते हैं तब हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। जब-जब हम भक्ति से परे जाते हैं या ईश्वर से परे जाते हैं, तब-तब हमें तम या भय का सामना करना पड़ता है। वास्तव में भय अज्ञान का एक ऐसा जाल है जिसमें केवल कमजोर व्यक्ति ही फंस सकता है। कमजोर व्यक्ति अर्थात् आत्मिक रूप से कमजोर व्यक्ति; जिसको स्वयं पर, ईश्वर पर, ईश्वर की शक्ति व न्यायप्रियता पर कोई संदेह हो। अनिष्ट शक्ति जैसे व्यर्थ के प्रपंचों के जाल में फंस कर हम ईश्वर-शक्ति को व निज-क्रियमाण को कमजोर साबित करने में लगे हैं। यह गलत है। आत्मविश्वास प्रबल हो, ईश्वर पर प्रगाढ़ आस्था हो तो भय या अनिष्ट शक्तियों का कोई अस्तित्व ही नहीं। व्यर्थ में ऐसे प्रपंचों में समय गंवाना ठीक नहीं। सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों के अस्तित्व के बारे में एक बार को तो भरोसा किया जा सकता है कि उनका अस्तित्व है पर वे हमारा कुछ बिगाड़ सकती हैं अथवा ऐसा कर रही हैं, यह बताना या ऐसा समझाना भय को बढ़ावा देना ही हुआ, आत्मबल कम करना ही हुआ या ईश्वर की सत्त्वशक्ति पर संदेह करने समान ही हुआ। वस्तुतः जब हमारा आत्मबल कमजोर होता है तब इस प्रकार के व्याख्यानों या सोच से तम का बोलबाला हो जाता है और हमें व्यर्थ के भय सताने लगते हैं। अपने गलत क्रियमाण के फल को भी हम अनिष्ट शक्तियों का प्रभाव मानने लगते हैं। हम क्रियमाण गलत करते हैं और समझते ऐसा हैं कि अनिष्ट शक्तियों के कारण ही यह सब गलत हुआ। या स्थूल के कुछ दोषों के पीछे की नियम-बद्धता को भी भली-भांति देखते नहीं हैं और सूक्ष्म व अनिष्ट शक्तियों को ही इनके पीछे दोषी करार देते हैं। अर्थात् जब बड़े या परिपक्व व्यक्ति के ऊपर इस प्रकार का विपरीत प्रभाव गलत व्याख्यानों के द्वारा पड़ सकता है तो बच्चों की कोमल भावनाओं व उनके मस्तिष्क पर पड़ रहे कुप्रभाव के विषय में भी कुछ विचार कीजिए। व्यर्थ के भय के संस्कारों का कितना भयावह असर हो सकता है, यह कल्पना से परे है। अतः यह कदापि आवश्यक नहीं कि भय उत्पन्न कर समष्टि को साधना के लिए प्रेरित किया जाए; बल्कि आत्मबल बढ़ाने, भक्ति बढ़ाने, भाव बढ़ाने आदि पर ही जोर दिया जाना चाहिए। यही वास्तविक अध्यात्मप्रसार होगा।
ईश्वर हमसे क्या चाहता है? कुछ और विचार ....
ईश्वर ने १००% क्रियमाण के साथ हमें यानी अपने छोटे से अंश यानी आत्मा को मानव रूप में इस पृथ्वी पर प्रथम जन्म के रूप में जब भेजा तो आत्मा को यह शरीर अर्थात् स्थूल देह, मन एवं बुद्धि आदि प्रदान किए, ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां प्रदान कीं। अर्थात् १००% क्रियमाण, प्रारब्ध शून्य, इन्द्रियों सहित मानव देह। इसका सीधा सा अर्थ यही हुआ कि ईश्वर ने प्रथम जन्म के समय यह सब निर्धारित कर हमें कर्मों के लिए इस मृत्युलोक में स्वतंत्र छोड़ दिया। हमारा प्रारब्ध हमारे हवाले ही था। यानी जन्म देने के पश्चात् क्रियमाण में किसी प्रकार का ईश्वरीय हस्तक्षेप नहीं। निष्कर्ष यही निकलता है कि ईश्वर हमसे केवल कर्मों की अपेक्षा रखता है और वह भी केवल अच्छे या सात्त्विक, ईश्वरीय गुणों बल्कि सिद्धांतों के अनुरूप। परन्तु ऐसा नहीं कि यह सब करने के लिए ईश्वर का हम पर कोई दबाव है। लेकिन यह भी तय है कि वह चाहता यही है कि हमारे कार्य सात्त्विक ही हों, तभी तो कार्यों के अनुसार ही संचित का प्रावधान है - धनात्मक या ऋणात्मक; और वही अगले जन्म का प्रारब्ध हो जाता है। अगले जन्म में हम संचित के अनुरूप ही स्वतः कुछ भोगते हैं और शेष क्रियमाण द्वारा। पहले के कुछ लेखों में भी हम अध्ययन कर ही चुके हैं कि प्रकृति के अन्य ज्ञात नियमों की भांति ही ये नियम हैं, इसमें अचरज या संदेह वाली कोई बात नहीं। अर्थात् ईश्वर अपनी प्रशंसा सुनने का आदी राजा नहीं है जो भजन कीर्तन या अन्य कर्मकाण्डों द्वारा आत्ममुग्ध होता रहे। वरन वह तो कुछ अटल नियमों व सिद्धांतों से बद्ध, ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च न्यायिक शक्ति है और उसके संविधान से सब परिचित हैं, चाहे वे स्वीकार करें अथवा नहीं।
हम बहुत से कर्मवादी लोगों को देखते हैं जिनमें अधिकतर विज्ञान को मानते हैं, ईश्वर को भी वे मानते हैं, पर सिद्धांत रूप में, अधिकांशतः निराकार रूप में; और कोई विशेष कर्मकाण्ड या पूजा आदि भी नहीं करते। वे कर्म पर और आत्मबल पर विश्वास रखते हैं और यदि उनका प्रारब्ध भी अच्छा हुआ तो वे वर्तमान जीवन में सफल रहते हैं, साथ ही प्रसन्न भी रहते हैं; शोधकार्यों व नयी खोजों में अपेक्षित सफलता पाते हैं। ऐसे लोगों पर ईश्वर की कृपादृष्टि सदैव रहती है क्योंकि उनके समस्त कार्य सत् के लिए होते हैं, समष्टि के हितार्थ होते हैं; वे गलत कार्य नहीं करते, ईमानदारी जैसे गुण उनमें रहते ही हैं। यही उनकी पूजा-उपासना या साधना है। यही सब तो ईश्वर को अपेक्षित है। परन्तु ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है। बहुतायत के लिए अच्छे कर्म करना कठिन इसलिए होता है क्योंकि उनमें सत्त्वगुणों की कमी होती है। तो सत्त्वगुणों को बढ़ाने के लिए ईश्वरभक्ति व साधना यानी अध्यात्म का मार्ग ही उचित है व सरल है। वास्तव में यह भी एक प्रकार का 'क्रियमाण' ही है। अतः ईश्वर को अपेक्षित है अच्छा क्रियमाण, अच्छे क्रियमाण हेतु आवश्यक हैं सत्त्व गुण, सत्त्वगुणों का आधार है आत्मिक बल और आत्मिक बल बढ़ाने के लिए आवश्यक है आध्यात्मिक साधना। कालानुसार, स्तरानुसार, वर्णानुसार व आश्रमानुसार साधना भिन्न-भिन्न हो सकती है। पुनः यह भी एक प्रकार का 'क्रियमाण' रूपी 'साधन' ही है जो इसलिए अपनाया जाता है जिससे कि ईश्वर को अपेक्षित अन्य सर्व क्रियमाण हमसे संभव हो सकें।
साधना अर्थात् साधन ही। सुप्त पड़े भावों की जाग्रति हेतु अथवा ईश्वरीय गुणों से पुनः साक्षात्कार हेतु ही हम साधना करते हैं। साधना रूपी साधन से हम ईश्वरीय सिद्धांतानुसार चलने के लिए प्रेरित होते हैं। साधना करने का प्रयोजन ईश्वर को प्रसन्न करना नहीं है और न ही ईश्वर केवल साधना से, नामजप से, कर्मकाण्डों आदि से प्रसन्न होने वाला है। वह तो साधना रूपी साधन से उपजे व अपनाए गए ईश्वरीय गुणों से ही प्रसन्न होगा। अर्थात् अंततः वह हमारे सत्त्वगुण आधारित सुन्दर क्रियमाण अर्थात् 'साध्य' से ही प्रसन्न होगा, कोरी साधन-साधनाओं से नहीं।
विचार-मंथन की आवश्यकता
जब हम अध्यात्म-प्रसार के क्षेत्र में कार्य कर रहे होते हैं अर्थात् समष्टि में प्रसार, तब हमें तरह-तरह की विचारधारा के लोग मिलते हैं। साधना के लिए सबके अलग-अलग दृष्टिकोण होते हैं। कोई अन्धविश्वास में जकड़ा मिलता है तो कोई अन्धविश्वास का घनघोर विरोधी, कोई भीतर से अंधविश्वासों या कर्मकाण्डों का विरोधी तो होता है परन्तु फिर भी ऐसा कर रहा होता है क्योंकि उसके गुरु ने उसे बुद्धिलय या मनोलय के विषय में इतनी घुट्टी पिला रखी होती है कि वह निज विवेक से सही-गलत पहचानना ही नहीं चाहता। इस प्रकार श्रद्धावश बुद्धिलय, मनोलय कर व्यक्ति जो साधना कर रहा होता है वह कदाचित उसके लिए तो बिलकुल ठीक हो सकती है पर अन्य कोई उसे गलत भी समझ सकता है, और कभी-कभी वह साधना नियम-सिद्धांतों की दृष्टि से गलत भी हो सकती है या उस साधना से अन्धविश्वास को बढ़ावा मिल रहा होता है। कोई भी क्रिया यदि पूर्वस्थापित शाश्वत नियम या सिद्धांत के विपरीत की जाती है तो वह गलत तो है ही, साथ ही वह क्रिया अन्धविश्वास को भी बढ़ाती है। अन्धविश्वास से ही अनावश्यक भय उपजता है तथा हम अज्ञान रूपी तम के जाल में फंस जाते हैं। अभी-अभी एक बहुत महत्त्वपूर्ण विचार मन में आया है कि कहते हैं कि विज्ञान अन्धविश्वास को रोकने में सहायक है क्योंकि विज्ञानवादी नियमबद्धता व कार्यकारणभाव बता कर बहुत सारे अंधविश्वासों की कलई खोल सकते हैं। और ऐसा भी बहुत कहा जाता है कि वर्तमानकाल में अध्यात्म की दुनिया में अंधविश्वासों की अधिकता है। यह बात किसी हद तक ठीक है। क्योंकि, चूँकि अध्यात्म कृत्य एवं अनुभूति का शास्त्र है; अनुभूति तो शब्दातीत होती है, विज्ञान के नियमों से परे होती है, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता; इसी बात का लाभ उठा कर कुछ साधक ऊटपटांग, गलत, झूठ व भ्रमित करने वाली अनुभूतियों का बखान करते हैं या यह सब उन साधकों के मन के निरर्थक विचार या obsession भी हो सकते हैं! कुल मिलाकर कारण चाहे कुछ भी हो, ऐसी मिथ्या व निरर्थक अनुभूतियों के बखान से अन्धविश्वास या भय ही पनपता है, बहुतों के मन में शुद्ध अध्यात्म के प्रति विश्वसनीयता भी कम हो जाती है।
जिस प्रकार विज्ञान नियमों या कारणभाव का हवाला देकर अंधविश्वासों को रोकने का प्रयास करता है, आध्यात्मिक गुरु भी क्या यही कार्य नहीं कर सकते?? वे कर सकते हैं। वे समाज में फ़ैल रहे या फैलाए जा रहे भ्रामक प्रचार-प्रसार को रोक सकते हैं। वे चाहें तो इसे रोकें व अध्यात्म को सरल, सरस, सुगम व अन्धविश्वासरहित करें। केवल अंधविश्वासों को तिलांजलि दे कर ही अध्यात्म की गूढ़ता कम की जा सकती है। वर्तमान मार्गदर्शकों द्वारा विचार-मंथन करने से ही यह संभव होगा। आलोचनाएं, समालोचनाएं आदि भी धैर्यपूर्वक सुन कर उनपर ठंडे दिमाग से विचार करना होगा। मथने से ही मक्खन प्राप्त होता है और समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से हम सब परिचित हैं ही। विचारों को मथें, अंधकार व भय के आवरण को हटा आध्यात्मिक साधना की गूढ़ता को कम कर इसे सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य बनाएं। गूढ़ता जैसा इसमें कुछ है ही नहीं। अंधविश्वासों की अधिकता के कारण ही अध्यात्म गूढ़ प्रतीत होता है, भ्रामक प्रतीत होता है। कुछ आध्यात्मिक गुरुओं को लगता है कि जब तक अध्यात्म गूढ़ रहेगा, तभी तक उनकी पूछ रहेगी या यश-सम्मान आदि मिलता रहेगा। सर्वप्रथम वे यह सोचें कि सर्वसाधारण का ध्येय क्या है? वह है प्रसन्नता या आनंद। इसकी प्राप्ति के लिए सर्वसाधारण को अंततः तत्त्वनिष्ठ या सिद्धांतनिष्ठ होना पड़ेगा, व्यक्तिनिष्ठ या संस्थानिष्ठ नहीं। गुरुओं द्वारा सर्वसाधारण को इस स्थान पर ले जाने का यत्न करते हुए उन्हें सतत यह भान कराना होगा कि ईश्वरीय तत्त्व के समक्ष तम, भय या किसी अनिष्ट शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं या ये सब प्रभावहीन हैं। जब ऐसा भाव हम सतत रखेंगे तो अध्यात्म की सभी गूढ़ताएं तो कम होंगी ही, साथ ही अंधविश्वासों से भी मुक्ति मिलेगी। आइए गूढ़ता, निरर्थक विचार (obsession) व अन्धविश्वास समाप्त करें; ईश्वर की शक्ति पर संदेह न करें, अपनी भक्ति पर संदेह न करें व ईश्वरीय गुणों के अनुरूप क्रियमाण करने में जुट जाएं।
वस्तुतः ईश्वर की हमसे यही अपेक्षा है कि आत्मा को दी गयी देह का सुन्दर से सुन्दर उपयोग हो मात्र भूलोक के लिए! भुवलोक तो मृत्यु के पश्चात् की बात है। कहा जाता है कि जब कोई कार्य कर रहे हों तो ध्यान मात्र उसी ओर रहना चाहिए, अन्यत्र नहीं जाना चाहिए। अन्यत्र ध्यान भटकने से हमारा वर्तमान कर्म व उसकी गुणवत्ता प्रभावित होते हैं। अतः सर्वप्रथम हमें वर्तमान समय के लिए अर्थात् भूलोक प्रवास के लिए दी गयी आज्ञा व अपेक्षा को ही शिरोधार्य करना है। यही हमारी एकाग्रता व सही दिशा में कार्य करने का सूचक होगा, अन्य बंधन या भय हमें त्यागने होंगे। जब हम व्यर्थ की बातों को त्यागेंगे तभी हम परिपूर्णता की ओर जाएंगे। सर्वसाधारण आज वही अपनाने की चेष्टा करता है जिसमें उसे परिपूर्णता का एहसास होता है। अध्यात्म में भी वह परिपूर्णता चाहता है। कारणभाव जानने पर हमारी आस्था प्रगाढ़ होती है। अकाट्य नियमों, सिद्धांतों व कार्यकारणभाव के आधार पर ही बुद्धि अनेक विकल्पों में से सही का चुनाव करती है। अतः अध्यात्म-प्रसारक के लिए भी यह अति आवश्यक हो जाता है कि उसके द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत, कथन या तर्क में परिपूर्णता हो। उसके कृत्य, व्यवहार आदि शुद्ध व अनुकरणीय हों। हर कोई इतना ज्ञानी नहीं कि वह सिर्फ आपके गुण देखे और अवगुणों को अनदेखा कर दे, ऐसा सामर्थ्य किसी-किसी में ही होता है। सर्वसाधारण को गुरु अथवा मार्गदर्शक में परिपूर्णता चाहिए, वैचारिक परिपूर्णता चाहिए। परिपूर्णता होगी अकाट्यता के साथ, सत्यता के साथ, यथार्थवादिता के साथ, तब ही अधिक से अधिक जनसमुदाय अध्यात्म की ओर उन्मुख होगा। मामूली सा अवगुण भी अन्य बहुत से गुणों का महत्त्व कम या समाप्त कर सकता है। इसी प्रकार एक गलत या मिथ्या वैचारिक अवधारणा शेष सही अवधारणाओं का महत्त्व कम कर देती है। तो फिर प्रसारक परिपूर्णता को क्यों नहीं अपनाते? पारदर्शिता के साथ वैचारिक परिपूर्णता लाने का प्रयास होना चाहिए, समस्त अवधारणाएं सुस्पष्ट व यथार्थवादी होनी चाहिएं।
ईश्वर की अन्य अपेक्षाएं
भूलोक का निर्माण ईश्वर ने अपने उन्हीं अंशों के लिए किया जिन्हें वह देह रूपी स्थूल आवरण देकर यहां भेजता है। ईश्वर ने भूलोक पर नाना प्रकार की वस्तुएं कच्चे पदार्थ के रूप में डाल रखीं हैं। उन कच्चे पदार्थों में अनेक प्रकार के रहस्य छुपे हुए हैं जिन पर शोध कार्य कर हमें कुछ निर्माण करना है। भोग संबंधी वस्तुएं भी उनसे निर्मित हो सकती हैं। वस्तुतः इसी शोध कार्य को आधुनिक युग में हमने विज्ञान का नाम दे दिया है। ज्ञानी लोग इस भूलोक को मायाजाल इसीलिए कहते हैं क्योंकि भूलोक की वस्तुएं आत्मा के लिए मात्र तब तक महत्त्व रखती हैं जब तक आत्मा का भूलोक पर प्रवास है। इसके पश्चात् इनका कोई महत्त्व नहीं रह जाता। अतः यदि हमें बहुत दूर का विचार करना है तो इस माया का कोई भी महत्त्व नहीं। तब तो हमें प्रयास कर यह देह त्याग देनी चाहिए! पर हम ऐसा बिलकुल भी नहीं करते क्योंकि ईश्वर ने हमें इस माया को जानने के लिए ही तो इस भूलोक पर भेजा है। अर्थात् माया का भोग हमें किसी न किसी रूप में करना ही है। पर उसमें आसक्ति नहीं रखनी है, यह भान सतत रहना चाहिए। आसक्ति ही तम की जड़ है। आसक्तिरहित भोग ईश्वर को मान्य है। अच्छे क्रियमाण द्वारा प्राप्त किया गया भोग ईश्वर को मान्य है। पर गलत तरीकों से यदि कोई भोग-विलासिता की चीजें एकत्रित करता है तो यह सब ईश्वरीय गुणों के, सिद्धांतों के विपरीत हुआ; यह गलत होगा। ईश्वर द्वारा प्रदत्त कच्चे पदार्थों से खोज करके, शोध करके नए-नए उपकरण या भोग की वस्तुएं या मानव हित की वस्तुओं का निर्माण करना आत्मा का अभ्यासवर्ग या प्रशिक्षण ही हुआ। प्रकृति के रहस्यों को खोजना, प्रत्येक क्रिया के कारणभाव को पता करना, नियमबद्ध करना, यही सब कार्य तो वैज्ञानिक करते हैं। यह भी साधना का ही एक रूप है क्योंकि ईश्वर यही तो चाहता है कि उसके यानी ईश्वर के सभी छोटे-छोटे अंश अर्थात् आत्माएं उसी ईश्वर की भांति समर्थता व सम्पूर्णता की दिशा में निरन्तर अग्रसर हों। यह आत्मा के अभ्यासवर्ग का ही एक भाग है। यदि मनुष्य वर्तमान हेतु या आगे भविष्य में आने वाले अन्य मनुष्यों हेतु यानी आत्माओं हेतु कोई शोध कार्य कर रहा है, रहस्यों पर से पर्दा उठा रहा है, भोग की भी वस्तुएं जुटा रहा है तो इस कार्य में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इसमें ईश्वर को भी कोई आपत्ति नहीं है। बल्कि यह तो उसकी हमारे से अपेक्षा है।
अतः ईश्वरीय गुणों को आत्मसात करते हुए यानी बेहतर क्रियमाण के द्वारा यदि हम आसक्तिरहित भोग-विलास भी करते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं। दूसरे को किंचित मात्र भी कष्ट न हो, यदि ऐसा हम सदैव ध्यान में रखते हैं तो माया का उपभोग गलत नहीं है; क्योंकि हमें तो ईश्वर प्रदत्त इस भूलोक के समस्त अनुभव लेने ही चाहिएं। पर यह ध्यान हमेशा रखना है कि हमें किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं रखनी है। संभवतः यही बात कलियुग में सब भूल गए हैं, तभी तो सर्वत्र इतना लोभ, कपट और व्यभिचार फैला हुआ है। अर्थात् आसक्ति से ही आज तम की इतनी अधिकता हो गयी है। बल्कि सत्य यह है कि आज सत्त्वगुण कम हो गए हैं। सत्त्वगुण कम हो गए हैं तो सुख, चैन, आनंद सब छिन गया है हमसे। अतः हमें अपना ध्यान सिर्फ इस लक्ष्य पर ही केंद्रित रखना है कि हम अधिक से अधिक सात्त्विक परिणामोन्मुख क्रियमाण कैसे करें! भूलोक का अध्ययन, ईश्वर प्रदत्त कच्चे पदार्थों से नयी-नयी वस्तुओं का निर्माण का अभ्यास, प्रकृति यानी सृष्टि के नियमों व सिद्धांतों का अध्ययन, वर्तमान भूलोक प्रवासियों एवं भविष्य में आने वाली आत्माओं की सुविधा हेतु बेहतर से बेहतर संसाधन जुटाना, समस्त रहस्यों को जानने का प्रयास, प्रत्येक क्रिया के पीछे का कारणभाव खोजना, प्रत्येक क्रिया को नियमबद्ध करना आदि ये कुछ ऐसे कार्य हैं जो हमें समर्थता व सम्पूर्णता की ओर ले जाते हैं। क्या इस प्रकार विकसित होना बुरी बात है? तो फिर बहुत से ज्ञानी लोग ऐसा करने वालों से या विज्ञान से क्यों द्वेष रखते हैं या उनसे प्रतिद्वंदिता क्यों दर्शाते हैं? बार-बार तुलना क्यों करते हैं? क्या किसी के बार-बार तुलना करने से कोई बात सिद्ध हो सकती है? उदाहरण -- हम गुरु को नहीं अपनाते, गुरु हमें अपनाते हैं। अमुक मेरा शिष्य है, जब यह बात कोई गुरु कहेगा तभी यह माना जाएगा कि वास्तव में अमुक उनका शिष्य है। अर्थात् किसी अन्य को यानी सम्बंधित व्यक्ति को भी तो कुछ कहना चाहिए। स्वयं कुछ भी हम कहते रहे उसका कोई भी महत्त्व नहीं!
भुवलोक संबंधी बातें क्या आवश्यक हैं?
पूर्व अध्ययन में हमने देखा कि ईश्वर ने हमें यानी आत्मा को इन्द्रिय सहित स्थूल देह देकर प्रशिक्षण एवं साधना (क्रियमाण) हेतु कुछ वर्षों के लिए इस भूलोक पर भेजा है। अतः हमने उन्हीं बातों का सर्वप्रथम ध्यान रखना है, जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है। हमें विषयवस्तु दी गयी है यह भूलोक। अतः सर्वप्रथम आवश्यक है कि हम केवल हमारे भूलोक प्रवास के कार्यों पर ही पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें, अन्यत्र नहीं। क्योंकि मुख्य विषय से भटकने पर एकाग्रता में कमी आएगी, फलस्वरूप हम अपेक्षित कार्य नहीं कर पाएंगे। फिर हम भुवलोक का इतना क्यों विचार करते हैं? क्या हमें ईश्वर की शक्ति पर एवं उसकी कार्यप्रणाली पर कोई संदेह है? या हमें भुवलोक में उपस्थित अच्छी आत्माओं की क्षमता पर कोई संदेह है? जैसे हम भूलोक की आत्माएं भूलोक के कार्यों पर ही ध्यान केंद्रित कर रही हैं, उसी प्रकार भुवलोक के लिए भी ईश्वर का कुछ न कुछ आदेश या अपेक्षा भुवलोक की आत्माओं से भी होगी ही। हम सर्वशक्तिमान ईश्वर की कार्य-वितरण प्रणाली में क्यों हस्तक्षेप करें? जब हम यह भूलोक छोड़कर भुवलोक में यदि जाएंगे तो वहां का कार्य देखेंगे। हम अभी से भुवलोक का सोचकर अपनी एकाग्रता क्यों भंग कर रहे हैं और क्यों व्यर्थ के जाल एवं प्रपंचों में फंस रहे हैं? हम केवल एक स्थान पर अपना ध्यान केंद्रित करें यही उत्तम होगा अर्थात् अपने इस भूलोक प्रवास की उपयोगिता सिद्ध करें। अतः पहले विचार की गयीं सभी बातों का पुनः अवलोकन अंतिम बार करते हैं -- हम केवल यथार्थ में ही रहें, ईश्वर आज्ञा या अपेक्षा का पुनः स्मरण करें, अपने कुछ समय के ही भूलोक प्रवास के प्रयोजन को भली-भांति समझें, केवल मुख्य विषयवस्तु पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें। भूलोक प्रवास यानी आत्मा का प्रायोगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम; आत्मा की प्रगति, विकास अथवा परिपूर्णता हेतु। ईश्वर की भक्ति, उस पर पूर्ण आस्था एवं सुन्दर क्रियमाण, यही हमारा मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। प्रसारकों के लिए भी यह आवश्यक बात पुनः दोहरा सकते हैं कि किसी भी चीज की कमी या अति घातक हो सकती है, विशेषकर अध्यात्मप्रसार के क्षेत्र में। ठीक इसी सिद्धांत को पकड़ कर हमें अध्यात्मप्रसार हेतु आवश्यक तत्वों की मात्रा का संतुलन ठीक करना ही होगा। हमें समष्टि में संतुलित रूप से अध्यात्मप्रसार कर सत्त्वगुण बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी। अध्यात्मप्रसार जल्दी से हो जाए इसके लिए यह कतई आवश्यक नहीं कि हम व्यर्थ के प्रपंचों या अनावश्यक भय को अध्यात्म में शामिल करें या बारम्बार विज्ञान को निकृष्ट दर्जे का साबित करने की चेष्टा करें। यह अति होगी और प्रसार के लिए घातक भी। केवल सरल, सच्ची, भावपूर्ण व भक्तिपूर्ण साधना से ही हमें अपेक्षित सुन्दर क्रियमाण हेतु आवश्यक आत्मबल प्राप्त हो सकता है। अतः पहले के विवरण को पुनः दो-तीन बार पढ़कर यथार्थ को समझने का प्रयास करें, फिर तदनुसार संतुलित कर्म करें। पहले लोक (भूलोक) सुधारें, फिर परलोक! इति।