तत्त्व यानी सिद्धांत (real or divine substance, principle)। हम ईश्वर का नामजप, पूजा-उपासना, कर्मकाण्ड आदि तो किया करते हैं, परन्तु यह जानने का प्रयास नहीं करते कि आखिर यह सब हम क्यों करते हैं? अधिकांश जनों का यह विश्वास होता है कि यह सब करने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं और उनकी आशीषें सदैव हमारे साथ रहती हैं। कोई भी मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिद या चर्च आदि मार्ग में पड़ते हैं तो लोग सिर झुका कर नमन करते हुए आगे बढ़ते हैं। यह सब हम ईश्वर या अपने इष्ट को सम्मान देने एवं उनकी कृपादृष्टि बने रहने के लिए करते हैं। सप्ताह के कुछ विशेष दिनों में लोग आराधनालय जाते हैं और विशेष पूजा-अर्चना करते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं, व्रत आदि रखते हैं। धर्माचार्यों का भी आग्रह रहता ही है कि जनसाधारण यह सब नित्यप्रति करे। पर विचार कीजिए कि क्या ईश्वर इन सब कृत्यों से ही क्या प्रसन्न हो जाते हैं और हम पर अपनी आशीषें बरसाते हैं? उदाहरण के लिए - अधिकांश ईसाई समुदायों में इस बात पर विश्वास करने को अत्यधिक बल दिया जाता है कि यीशु मसीह परमेश्वर के इकलौते पुत्र थे, जो सम्पूर्ण मानव जाति के पापों के प्रायश्चित्त के तौर पर बलिदान हो गए। कहा जाता है, जो इस बात पर विश्वास करेगा, केवल वही स्वर्ग अथवा पुनरुत्थान का अधिकारी होगा। परमेश्वर की आशीषें उस पर बरसेंगी। हिदुओं में भी इससे मिलते-जुलते बहुत से मिथक हैं। कई पौराणिक कथाओं व व्रत कथाओं में कुछ विशिष्ट कर्मकाण्डों और विधियों को करने पर बल दिया गया है और न करने पर ईश्वर द्वारा क्रोधित हो जाने एवं दण्ड देने का भय भी दिखाया गया है। अर्थात् लगभग प्रत्येक संप्रदाय के धर्मग्रंथों एवं धर्मगुरुओं द्वारा ईश्वर को एक ऐसे शक्तिशाली राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो बहुत बलशाली है, हम सब उसकी प्रजा हैं और उसकी प्रजा यदि उसके बल और नाम को मानेगी तथा उसकी जय-जयकार करती रहेगी, तो वह ईश्वरीय राजा प्रजा से प्रसन्न होकर उसपर अपनी कृपावर्षा करता रहेगा; विपरीत करने पर वह रुष्ट होकर दण्ड देगा।
अब हम अपने विवेक से एक अच्छे मानवीय राजा के विषय में सोचें, इतिहास को भी उलटें-पलटें, तो पाएंगे कि मनुष्य जाति में भी ऐसे राजा लोकप्रिय हुए जिन्होंने न्याय का अवलंबन लिया, व्यर्थ के बल प्रदर्शन का नहीं। हमेशा से ऐसे राजा को ही प्रजा ने चाहा है, जो न्यायप्रिय हो, जिसके सिद्धांत अच्छे हों, उन सिद्धांतों के अनुरूप ही राज्य के नियम-कानून हों। साथ ही एक अच्छे और न्यायप्रिय मानवीय राजा की अपनी प्रजा से सदैव यह अपेक्षा रहती है कि उसकी प्रजा उसके बनाए सिद्धांतवादी नियमों का भली-भांति पालन करे। वह चापलूसी या मात्र अपनी जय-जयकार से प्रसन्न नहीं होता वरन प्रजा जनों की नेकनीयती व सिद्धांतानुसार कर्तव्यपालन से प्रसन्न होता है। अर्थात् वह अपनी पूजा से नहीं बल्कि अपने सिद्धांतों की पूजा से संतुष्ट होता है। और जो कोई भी उसके सिद्धांतों की अवहेलना करता है पर उसके समक्ष सदैव उसकी जय-जयकार करता है, उसे वह एक नंबर का चापलूस समझता है और उससे अप्रसन्न ही रहता है, समय आने पर उसे दण्ड भी देता है।
अब तनिक यह विचार कीजिए कि एक अच्छे मानवीय राजा के ये लक्षण हैं, ये गुण हैं, तो ईश्वर की तो बात ही निराली होगी, क्योंकि सभी मान्यताओं के अनुसार निर्विवादित रूप से वह ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च न्यायप्रिय शक्ति है। वह है, इस बात को लगभग हर कोई मानता है। उसके सिद्धांतों व गुणों के विषय में भी लगभग सभी संप्रदायों में एक सी अवधारणा है। फिर हम यह कैसे मान सकते हैं कि ईश्वर मात्र अपनी जय-जयकार सुनने का आदी राजा है! एक तरफ हम विश्वास करते हैं कि वह हमारे दिल या मन में चल रही बात भी समझ सकता है, हमारे सब छुपे कार्यों पर उसकी दृष्टि है, कर्म के अनुसार हमें दण्ड या परितोष मिलता है; और दूसरी तरफ हम कोई प्रसंग आने पर मात्र कुछ समय उसको याद कर लेते हैं, उसकी जय-जयकार कर लेते हैं, परन्तु शेष समय उसके सिद्धांतों पर चलने से आंख चुराते हैं! अधिकांशतः अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ही उससे मदद मांगते हैं। और जहां व्यवहार में ईश्वरीय सिद्धांतों के अनुसरण की बात आती है, वहां हम बहाने गढ़ लेते हैं। प्रत्येक परिपक्व व धर्मभीरू व्यक्ति ईश्वर के सिद्धांतों से भली-भांति परिचित है, कर्म-आधारित परितोष व दण्ड व्यवस्था से भी परिचित है, पर जब उन्हें अपनाने व आचरण से प्रकट का समय आता है, तब उन सिद्धांतों से अनभिज्ञ बन जाता है या भीतर ही भीतर उन पर अविश्वास करता है; फिर भी नियमपूर्वक जप-तप व कर्मकाण्ड आदि करता है! यह तो दोहरा आचरण हुआ। यह लगभग वही बात हुई कि हम कोरी चापलूसी पर उतर आए।
फिर भी कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें नामजप, पूजा-अर्चना, कर्मकाण्ड आदि से अच्छा लगता है, शांति मिलती है, तो ऐसे लोगों के लिए यह सब करना सही भी है। क्योंकि महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनको अच्छा लग रहा है, शांति मिल रही है अर्थात् उनमें ईश्वर व ईश्वरीय गुणों के प्रति श्रद्धा-भाव कुछ तो पहले से है और कुछ इन कृत्यों को करने से बढ़ रहा है। यह श्रद्धा व भाव ही व्यक्ति को ईश्वरीय सिद्धांतों व गुणों के समीप लाता है और व्यक्ति उन सिद्धांतों के अनुरूप आचरण करने लगता है। बच्चा विद्यालय में पढ़ने जाता है, अध्यापकों के प्रति आस्था और सम्मान की भावना होती है तो शीघ्र उनके बताए सिद्धांतों को पकड़ता है। पर यदि वह केवल अध्यापकों के पांव ही पकड़ता रहे और सोचे कि वे मुझसे प्रसन्न होकर उत्तीर्ण कर देंगे, तो यह गलत बात है। मेहनत तो करनी ही पड़ेगी, और मेहनत करने वाले बच्चे को ही अच्छे अंक मिलते हैं, केवल चरण पकड़ने वाले को नहीं। यह बात भी ठीक है कि यदि अध्यापकों के प्रति आदरभाव कम होगा तो उनके सिद्धांतों को भी पकड़ने में बच्चा पीछे रहेगा। पर श्रेष्ठ अध्यापकों को शिष्यों का सिद्धांतों का पालन करते देखना अच्छा लगता है, कोरी चापलूसी करना नहीं। फिर जो सिद्धांत पर चलता है, वह सम्मान देता ही है।
बच्चा जब छोटी कक्षा में होता है, तब अध्यापक के पढाने का ढंग कुछ और ही होता है। वह शिष्य को कड़े अनुशासन में रखता है, बार-बार रटाता है। बाद में अगली कक्षाओं में क्रमशः रटाने की अपेक्षा समझाने का क्रम अधिक होता जाता है। शिष्य भी कम में ही अधिक समझने की योग्यता अर्जित करने लगता है। पढ़ने और पढ़ाने दोनों की पद्धति सूक्ष्मतर होती जाती है। अंत में उच्चतम कक्षाओं में अध्यापक शिष्य से बिलकुल मित्रवत हो जाते हैं, समकक्ष सा मानने लगते हैं। शिष्य तब भी उनका सम्मान करता है। इस पूरी बात में उल्लेखनीय यह है कि बच्चे का ज्ञान पाने का सफर बहुत नीचे से आरंभ होता है और क्रमशः ऊपर की ओर जाता है। इस क्रम में कभी यह नहीं होता कि उत्तीर्ण होने के बाद भी बच्चा उसी कक्षा में पुनः-पुनः पढ़ता रहे। न यह बच्चा चाहता है और न ही अध्यापक। फिर हम शिष्य या भक्त और हमारे वर्तमान गुरुजन ऐसा क्यों कर रहे हैं? बहुत समय हमने स्थूल कृत्यों में व्यतीत कर लिया। वह घड़ी कब आयेगी जब हम प्रौढ़ होकर ज्ञान की अगली कक्षाओं में जाएंगे? कब हम ईश्वर रूपी सर्वोच्च गुरु से मित्रवत होंगे? निचली कक्षाओं में तो ब्रह्मज्ञानी स्थूल देहधारी ही हमारे गुरु होते हैं पर ज्ञान की ऊपरी कक्षाओं में तो गुरु के रूप में हमें साक्षात् ब्रह्म मिलते हैं! और वह सूक्ष्म ब्रह्म हमसे सिद्धांतों के खरे पालन की अपेक्षा करते हैं, रटी-रटाई बातों की नहीं। वह अपनी प्रशंसा सुनने के आदी राजा समान नहीं हैं। वह ऐसे न्यायप्रिय राजा हैं जो स्वयं अपने बनाए सिद्धांतों से बद्ध है। इति।