पिछले कई दिनों से दो मिलते-जुलते महत्त्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे समाचारपत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हो रहे हैं। पहला मुद्दा ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे हमलों का है तथा दूसरा मुद्दा मुंबई में हिंदी भाषियों के ऊपर हो रहे हमलों का है। दोनों स्थानों पर विवाद के मूलतः दो मुख्य कारण हैं -- (१) अधिसंख्य प्रवासियों, विशेषकर नए प्रवासियों द्वारा वहां की मूल संस्कृति का अनादर व अवहेलना करना, (२) मूल निवासियों में व्याप्त असुरक्षा की भावना। ऑस्ट्रेलिया में काफी पहले से रह रहे कुछ भारतीय स्वीकार करते हैं कि अब उनमें भारत से ऑस्ट्रेलिया आने वाले नए प्रवासियों के प्रति पहले जैसा लगाव नहीं रहा। ऑस्ट्रेलिया में पुराने बसे भारतीय अब प्रयास करते हैं कि हाल ही में भारत से ऑस्ट्रेलिया आने वालों से दूरी बना कर रखी जाए। इसके अनेक कारण हैं। वे आगे कहते हैं कि भारत से आने वाले युवकों का यहाँ झुण्ड बना कर चलना, रेल यात्रा के दौरान मोबाइल फोन पर ऊँचे स्वर में बात करना, यात्रा के दौरान बुजुर्गों, महिलाओं व बच्चों के लिए सीट न छोड़ना जैसी बातें ऑस्ट्रेलिया के मूल नागरिकों को नहीं भाती। यहाँ तक कि कई भारतीय अपने परिवार की स्त्रियों की सुरक्षा के विषय में चिंतित रहते हैं कि कोई भारतीय ही उन्हें परेशान न कर दे।
न्यूनाधिक लगभग यही हाल मुंबई का है। अंतर केवल इतना है कि इस मुद्दे पर महाराष्ट्र के कुछ राजनीतिक दल आक्रामक एवं सतही राजनीति पर उतर आये हैं। जबकि उधर ऑस्ट्रेलियाई सरकार बहुत संयम से विवेकपूर्ण कदम उठा रही है। मुंबई के राजनेताओं के विरोध का मुद्दा अब भाषा पर केंद्रित है, वे हिंदी भाषियों व राष्ट्रभाषा हिंदी के विरोध पर उतर आये हैं। जबकि उधर ऑस्ट्रेलिया में वहां की सरकार व लोगों के विरोध का मुद्दा नैतिकता से सम्बन्ध रखता है। मूलतः वे भारतीयों के दुर्व्यवहार एवं अनैतिक कार्यों से व्यथित हैं। भूतकाल में ऑस्ट्रेलियाई जो भी रहे हों, जैसे भी रहे हों, पर वर्तमान में वे नैतिकता और अनुशासन की दृष्टि से हम वर्तमान अधिसंख्य भारतीयों से बहुत आगे हैं। विकसित देशों के नागरिकों के इन गुणों की चर्चा विस्तार से पिछले अनेक लेखों में हो चुकी है। वस्तुतः इन गुणों से युक्त आचरण ही उनकी वर्तमान संस्कृति है, जिसे उन्होंने बड़े यत्न से बनाया होगा। नवप्रवेशी भारतीयों का उजड्ड व्यवहार ठहरे हुए शांत पानी में पत्थर फेंकने समान उद्विग्नता फ़ैलाने का कार्य करता है, फलतः वहां के निवासियों में रोष व असुरक्षा की भावना घर कर जाती है और प्रतिक्रियात्मक हिंसा जन्म लेती है।
वैसे कोई भी ये उपरोक्त पंक्तियाँ पढ़े तो यही कहेगा कि मुम्बईया राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया बिलकुल सही व नैसर्गिक है। पर कम से कम मैं इस बात से असहमत हूँ। यह सही बात है कि प्रत्येक प्रवासी नागरिक का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह जिस भी प्रान्त में जाए, वहां की संस्कृति को आत्मसात करे, उसका आदर करे, उसमें घुल-मिल जाए और सबसे बड़ी बात यह कि मूल निवासियों एवं संस्कृति के प्रति उसके हृदय में विनम्रता व कृतज्ञता का भाव हो। यही खरी नैतिकता की मांग है, यही धार्मिकता (righteousness) है। यदि इन सब बातों का प्रत्येक प्रवासी गंभीरता से ध्यान रखे तो मूल निवासी व प्रवासी के मध्य सौहार्द बना रह सकता है। यदि प्रवासी जन उपरोक्त कथित प्रवासी-धर्म का परित्याग करते हैं तो वे मूल निवासियों में परायेपन व असुरक्षा की भावना का बीजारोपण करेंगे, फलतः कभी न कभी कठोर प्रतिक्रिया का सामना अवश्य करेंगे। प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप तदनुरूप प्रतिक्रिया का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक नियम हम सब को ज्ञात है ही। .... परन्तु मुंबई में हिंदी भाषी प्रदेशों के प्रवासियों को अपने व्यवहार के कारण उपजी नैसर्गिक प्रतिक्रिया के साथ-साथ कुछ अप्राकृतिक प्रतिक्रियाओं का भी सामना करना पड़ रहा है। यह अति है और यह हिंदी भाषा व हिंदी भाषी विरोध के रूप में हमारे समक्ष है।
वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत ऑस्ट्रेलिया भारत से अलग एक स्वतंत्र राष्ट्र है, वहां के कुछ अपने नियम व कानून हैं जो वहां सबको मान्य करने ही होते हैं। इसके पालन में कठोरता चलती है। इसके साथ ही वहां की कुछ निजी संस्कृति भी है, व्यवहार के कुछ तौर-तरीके हैं, जिनके पालन में कठोरता तो नहीं चलती पर उनका पालन करना सभ्यता व विनम्रता का सूचक माना जाता है। नवप्रवेशी भारतीयों ने सरकारी नियम व कानून तो कम तोड़े, पर वहां की संस्कृति पर अवश्य कुठाराघात किया होगा, जिसकी प्रतिक्रिया उन्होंने भुगती। परन्तु मुंबई के विषय में यदि बात करें तो वह अविभाज्य स्वतंत्र भारत राष्ट्र का मात्र एक नगर है और भारत के संविधान एवं कानूनों के अंतर्गत आता है। नियमों व कानूनों के अनुसार हिंदी इस राष्ट्र की मातृभाषा व राष्ट्रभाषा है और साथ ही भारत का प्रत्येक नागरिक शिक्षा, रोजगार या अन्य किसी भी कारण से भारत के किसी भी नगर में जाने के लिए स्वतंत्र है। इसलिए नागरिकों के इस अधिकार का हनन व राष्ट्रभाषा का विरोध करना राष्ट्रीय नियमों-कानूनों का सरासर उल्लंघन करना होगा। रही बात मराठी भाषा सीखने के आग्रह की, तो शिष्टाचार के अंतर्गत प्रत्येक प्रवासी को इसकी अवश्य चेष्टा करनी चाहिए, इससे उनके ज्ञान का व समाज का दायरा भी बढ़ेगा। पर यदि वह मराठी सीखने में असफल भी रहता है तो भी राष्ट्रभाषा हिंदी के ज्ञान के चलते उसके किसी भी कार्य में रूकावट आने की कोई संभावना नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रभाषा हिंदी का ज्ञान मुंबई एवं महाराष्ट्र सहित समग्र भारतीयों को होना ही चाहिए, यह उनके लिए गर्व की बात होगी साथ ही राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान का सूचक भी। इति।