(२८) आलोचनाओं पर अवश्य ध्यान दें
- हम सदैव आलोचनाओं से बचना चाहते हैं जबकि वास्तव में हमारी सफलता में सबसे बड़ा हाथ हमारे आलोचकों का ही होता है। आलोचना का अर्थ मात्र निंदा नहीं होता। यह तो मात्र हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हम उसे किस प्रकार से ले रहे हैं।
- आलोचना सुनने पर उदास होने के बजाए उससे कुछ सीखने का प्रयास करना चाहिए। आलोचक को कोसने के बजाए यह बेहतर होगा कि इस पर ध्यान दें कि हमने क्या किया और क्या नहीं किया, जिससे हमें आलोचना का सामना करना पड़ा।
- यदि हमें सामने वाले व्यक्ति द्वारा की जा रही आलोचना या गुस्से का कारण समझ में न आ रहा हो तो बजाए उससे बहस करने के यह अच्छा रहेगा कि शांतिपूर्वक ढंग से बात करके आलोचना की जड़ में जाया जाए। और उसके नकारात्मक शब्दों से भी सीखने योग्य कुछ न कुछ निकाल लिया जाए।
- आलोचक ही हमें बताते हैं कि हमारे अंदर क्या कमियां हैं। उन कमियों को दूर करके ही हम सफलता की राह पर अग्रसर हो सकते हैं। जीवन में हमें बहुत से प्रशंसक मिलते हैं और वे हमारी झूठी प्रशंसा करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। ऐसे लोग आलोचक से कहीं अधिक खतरनाक होते हैं। लेकिन हमारे सामने ही हमारी कमी बताने वाले बहुत कम मिलेंगे। तभी कहते हैं -- निंदक नियरे राखिये ....!
- प्रशंसा, मान, स्तुति आदि करने का मुख्य कारण अधिकांशतः चाटुकारिता या फिर लोगों का भोलापन होता है। दोषों का बखान न कर केवल स्तुति-मान कर वे दोषों को और बढ़ा देते हैं।
- जिन लोगों के दोष बताने वाले कम और प्रशंसा करने वाले अधिक होते हैं, वे बहुत जल्दी आवेश में आ जाते हैं, शीघ्र उत्तेजित हो जाते हैं; क्योंकि वे आलोचना सुनने के अभ्यस्त ही नहीं।
- हममें से कोई भी सम्पूर्ण नहीं हो सकता। अतः यह सोचना भी गलत होगा कि हमारे अंदर कोई कमी नहीं हो सकती या हम कभी गलती नहीं कर सकते। इसलिए यदि कोई हमें हमारे कार्य या सोच की कमियां बता रहा है तो हमें उसकी बातों को ध्यान से सुन कर उन्हें सुधारना चाहिए।
- आलोचना पर सच्चा ध्यान देकर ही हम अपने दोषों को एक-एक करके निकालने में सक्षम होंगे, मान-प्रशंसा की महिमा सुनने की इच्छा मिट जायेगी तथा वास्तविक नम्रता प्रकट होगी।
- कोई हमारी कितनी ही कमी क्यों न निकाले, उसपर अपनी झुंझलाहट निकालने से अच्छा होगा कि हम अपनी उस कमी को समझ कर उसे दूर करने का प्रयास करें। झुंझलाहट हमें और अधिक बुराई की ओर ही ले जाती है।
- जो निर्भीकता से सतत हमारी आलोचना करता रहता है, अवश्य ही वह हमारा हितैषी होता है। क्योंकि आमतौर पर बिना किसी आत्मीय सम्बन्ध के कोई भी हमारे सामने हमारी बुराई बताने में रुचि नहीं रखता।
- श्रेष्ठ पुरुष की यदि कोई आलोचना या निंदा आदि करे तो वे प्रसन्न ही होते हैं; क्योंकि वे मानते हैं कि आलोचना करने वालों की दृष्टि बहुत सूक्ष्म है, जिससे इन्हें हमारे भीतर छिपे हुए सूक्ष्म दोष भी स्पष्ट रूप से दीखते हैं और कदाचित् ये हमको सर्वथा निर्दोष बनाना चाहते हैं, इसलिए हमारी आलोचना करके हमारा हित करते हैं।
- यदि आलोचनाएं सुनने से हमें लाभ हो रहा हो तो उन आलोचनाओं पर अवश्य गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए। यदि सामने वाला व्यक्ति आलोचना के बहाने हमारा उपहास कर रहा हो या आलोचना अहंवश की जा रही हो तो उस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अपने गंतव्य पर आगे बढ़ते हुए ऐसे लोगों को अनदेखा कर देना ही अधिक श्रेयस्कर होगा।