पहली बात तो यह कि आलोचना की ही क्यों जाती है? आलोचना का मूल कारण 'सत्य (!?) का आग्रह' करना होता है। यहाँ 'सत्य का आग्रह' से तात्पर्य 'आलोचक द्वारा मापदंडित सत्य' से है। यद्यपि जो आलोचक के लिए सत्य व सही है वह किसी अन्य के लिए असत्य व गलत भी हो सकता है, इसकी सम्भावना भी रहती ही है। पर फिर भी एक स्वस्थ आलोचक का मंतव्य यही रहता है कि उचित आलोचना से लोकहित साधा जाये।
मनुष्य एक सांघिक प्राणी है। एक जागरूक सांघिक प्राणी को जब भी उसके संघ में या आसपास के वातावरण में कुछ गलत होते दिखाई पड़ता है तो वह संघ के हितार्थ कुछ न कुछ बोलता अवश्य है। उसका बोलना, आलोचना या सुझाव आदि उसके सामर्थ्य यानी बुद्धि-विवेकानुसार होते हैं।
अब यह आलोचना भी कई प्रकार की होने लग गयी है -- एक तो वह जो स्वतः ही यानी स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की जागरूकतानुसार प्रकट होती है, और दूसरी वह जो कुछ व्यक्ति व्यवसाय या शौक के तौर पर करते हैं। व्यवसाय के तौर पर आलोचना करना अर्थात् जैसे आजकल अधिकांश प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले कर रहे हैं - 24x7. ... आलोचनाएं गढ़ी जाती हैं, किस्से-कहानियों के रूप में! ... कुछ लोग शौक या सनक के कारण भी आलोचना करते हैं, क्योंकि शायद वे अक्सर असंतुष्ट ही रहते हैं या हर बात में विरोधी तर्क देना उनका स्वभाव होता है। ऐसे लोग सत्य के व्यर्थ के ठेकेदार बनकर समाज के लिए नासूर से बन जाते हैं। कोरी शेखी बघारने के अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा काम नहीं होता। अच्छा हो कि हम उपरोक्त वर्णित व्यावसायिक और शौकिया आलोचकों से परे ही रहें एवं उनके प्रभाव में न आयें।
.... अब हम यहाँ स्वस्थ आलोचना के ऊपर ही चर्चा करेंगे। ... जैसे कि हमने ऊपर भी चर्चा की थी - एक स्वस्थ एवं जागरूक सांघिक व्यक्ति असत्य व गलत कृत्यों को होते नहीं देख पाता। वस्तुस्थिति के पता होने पर भी धृतराष्ट्र व गांधारी समान आचरण उसे नहीं भाता है। वह कुछ न कुछ आलोचना या तत्सम्बन्धी क्रिया करने पर बाध्य होता है। शास्त्रों में भी कहा गया है - "सत्य के समान धर्म नहीं है और असत्य के समान पाप नहीं है, इसलिए सत्य का लोप कभी नहीं करना चाहिए।" ... सत्य के सम्बन्ध में यदि शास्त्रों और ज्ञानियों के वाक्य उद्धृत किये जायें तो एक बड़ा सा ग्रन्थ बन जायेगा। परन्तु यहाँ विचारणीय यह है कि सत्य क्या है और इसका प्रयोग कैसे हो सकता है?
जब भी कोई व्यक्ति किसी घटनाक्रम का तटस्थ रूप से, स्वस्थ एवं सरल हृदय से अवलोकन करता है, तब उसे उस घटनाक्रम से जुड़े सत्य व असत्य पहलुओं का अहसास होता है। सत्यप्रिय और जागरूक होने के कारण वह व्यक्ति उस घटनाक्रम के स्वस्थ पहलुओं को तो सराहता है, परन्तु गलत पहलुओं पर अपने हिसाब से विरोध दर्शाता है। वह आलोचना भी करता है और साथ ही सुझाव भी देता है। इस क्रम में गलत के विरुद्ध वह सात्त्विक क्रोध भी प्रकट करता है, जो स्वाभाविक है।
यह बात ठीक है कि सब लोग आपके मनानुसार या सुझावानुसार नहीं चल सकते। जब आप अन्यों के मनानुसार आचरण नहीं कर सकते तो फिर दूसरों से अपने अनुसार कृत्य की अपेक्षा क्यों रखी जाये? .... पर फिर भी मैं यह कहूँगा कि देख कर भी मक्खी निगलना या निगलने देना ठीक नहीं!
यदि कोई इतना सामर्थ्यवान है कि किसी घटनाक्रम को सही-सही भांप पाए और सही या गलत के निष्कर्ष पर ईमानदारी से पहुँच पाए, तो अवश्य ही उसे सत्य का साथ देते हुए अन्यों से भी सत्य के समर्थन का आग्रह करना चाहिए, चाहे आज कोई अच्छा समझे या बुरा! उसकी आलोचना में निर्भीकता के साथ यथासंभव विनम्रता एवं स्वस्थ तार्किक दृष्टिकोण का होना बहुत आवश्यक है। इसी की मदद से हम प्रतिकूल भाव रखने वाले को भी धीरे-धीरे अनुकूल बना सकते हैं। सबसे बड़ी बात जो आलोचक को ध्यान में रखनी चाहिए, वह यह कि उसे गलती पर क्रोध आना चाहिए, गलती करने वाले पर नहीं! गलत बात का विरोध होना चाहिए, व्यक्ति या विशिष्ट संघ का नहीं! अज्ञान का विरोध होना चाहिए, अज्ञानी का नहीं! .... स्वस्थ आलोचक गलत कृत्यों से द्वेष रखता है, कर्ता से नहीं! कर्ता का कृत्य परिवर्तनीय होता है और वह हमारे या उसके क्रियमाण से बदला जा सकता है!
स्वस्थ आलोचक का काम है कि प्रसंग आने पर गलत का विरोध और सत्य का समर्थन किये जाये बिना किसी परिणाम की अपेक्षा के। जब योग्य समय आयेगा तब उसके स्वस्थ आलोचना रूपी बीज में अंकुरण स्वतः ही हो जायेगा। इस प्रकार की आलोचना को हम आलोचना नहीं बल्कि 'सचेतना' कहेंगे। बीज डालना हमारा कार्य है, उसे संरक्षण व पोषण देना भी कुछ हद तक हमारे हाथ में है, .. पर उसके अंकुरण को या अंकुरण के समय को सुनिश्चित करना हमारे हाथ में नहीं!
विपरीत विचारधारा रखने वाले व्यक्ति सरलता से तुरंत हमारी बात मान लेंगे यह कतई संभव नहीं, बल्कि यह आशंका अवश्य संभव है कि वे नाराज होकर आवेश में आ जायें। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोई भी वस्तु अपनी वर्तमान अवस्था में ही रहना चाहती है। उसके स्वभाव में रासायनिक परिवर्तन करना बहुत कठिन होता है। फिर मन के संस्कारों व वृत्ति के विरुद्ध जाना इतना आसान नहीं। अतः आलोचक को उनकी तीष्ण प्रतिक्रिया को सहर्ष सहन करने हेतु तैयार रहना चाहिए। ... ऐसी अवस्था के लिए श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने बहुत सुन्दर मार्गदर्शन किया है -- "ऐसी अवस्था में उचित यह है कि अपनी शुद्ध नीयत के सच्चे विचारों का प्रचार करने वाले उनके (प्रतिकूल भाव रखने वालों के) क्रोध को शांति और सुख के साथ सहन करते हुए उनसे प्रेम करें, उनके क्रोध का बदला क्षमा और सेवा से दें, उनकी गालियों का और मार का बदला परमेश्वर से उनका कल्याण चाहने की प्रार्थना के रूप में दें, वह भी ढोंग या उन्हें चिढ़ाने के लिए नहीं, पर सच्चे हृदय से। यदि ऐसा होगा तो हमारे विचारों का प्रचार होना बड़ी बात नहीं, आज नहीं तो कुछ दिनों बाद होगा।"
अब हम इस विषय के कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर भिन्न कोण से मनन करते हैं -- ... मनुष्य एक सांघिक प्राणी है, उसे समाज से सरोकार होता है। समाज-व्यवस्था उत्तम हो, समाज में धार्मिकता (righteousness) का पलड़ा भारी हो, तो ही वह खरा सुख पा सकता है। अतः सभी को अपने समाज या संघ को परिष्कृत करने का प्रयास करते रहना चाहिए, जिसके भीतर इसका सामर्थ्य हो उसे तो अवश्य ही! अपने परिवार को सुदृढ़ व आनंदित रखने हेतु भी तो हम ऐसा ही करते हैं। हमारे परिवार का मुखिया या अन्य समझदार व्यक्ति भी तो यही करता है कि सभी को प्यार से कुछ न कुछ समझाता रहता है, डांटता भी है, और मौका पड़ने पर विरोध भी दर्शाता है। यह सब वह इसलिए करता है कि परिवार में सुख-शांति बनी रहे, सौहार्दपूर्ण व धार्मिक (righteous) वातावरण बना रहे।
.... ठीक इसी प्रकार यदि कुछ जिम्मेदार व सामर्थ्यवान व्यक्ति 'अपने परिवार' का वर्तुल क्रमशः बड़ा करते हैं अर्थात् निज परिवार की परिधि समुदाय, संघ, देश, विश्व आदि तक विस्तारित करते हैं तो निश्चित ही उनके ऊपर यह दायित्व आ जाता है कि लोकहित या समष्टि हितार्थ कुछ न कुछ कृत्य करते रहें। वे गांधारी व धृतराष्ट्र समान मूक दर्शक न रहें। और कुछ नहीं तो कम से कम स्वस्थ व ईमानदार आलोचना करके वे दिग्भ्रमितों को मानसिक रूप से झिंझोड़ने का कार्य तो कर ही सकते हैं। समाज का एक अंग होने के नाते यह हमारे लिए कर्तव्य समान है। लोकहितार्थ जो भी न्यूनतम करना हमारे वश में है वह तो हमें अवश्य करना होगा, साहसी तो अधिकतम के लिए जायेंगे। इति।