Thursday, July 18, 2019

(१११) आखिर हम कहाँ जा रहे हैं...

वर्तमान में मैं ५६ वर्ष का हूँ. ..बचपन से आज तक के विभिन्न दृश्य व प्रसंग मेरे मनमस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं. इनमें से अधिकांश को अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवं आत्मा के द्वारा अनुभव-अनुभूत किया है, और कुछएक सुने-सुनाए और कुछ लेखों के माध्यम से ज्ञात हुए हैं.

निःसंदेह सम्पूर्ण विश्व प्रगति एवं उत्कृष्टता की चाह रखता है, ..हम भारतवासी भी रखते हैं! लेकिन हमारी प्रगति बहुत ही विचित्र ढंग से और विचित्र मार्गों द्वारा हो रही है. प्रगति की दौड़ और होड़ में हम भी भाग तो रहे हैं पर अस्तव्यस्त से! इस क्रम में हमारी सामान्य नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठा, सादगी, सरलता, सहजता, उपलब्धता एवं निश्छलता आदि का ग्राफ निरंतर नीचे को गिरता जा रहा है. निश्चित रूप से यही वे मूल कारण हैं जो हमें ठोस प्रगति से रोक रहे हैं और भारत की गणना अभी तक एक 'विकासशील' राष्ट्र के रूप में होती है (५० वर्ष पूर्व मेरे बचपन की किताबों में भी मैंने अपने राष्ट्र के विषय में यही 'विकासशील' शब्द ही पढ़ा था)!

बहुत गहरे इतिहास में न जा कर गाँधी जी से ही आरंभ करते हैं. उस समय अंग्रेज आक्रांताओं का बहुत जुल्म और बर्बरता थी. उनके लिए किसी को मृत्युदंड देना तक भी बहुत सरल था. किन्तु फिर भी अंग्रजों के घनघोर विरोधी होने के बावजूद अंग्रेजों ने गाँधी जी की हत्या नहीं की, और न ही कभी ऐसा कोई षड्यंत्र किया. हाँ, उन्हें जेल में बहुत डाला! देश-विदेश में इतने प्रख्यात होने एवं संत का दर्जा तक मिलने के बावजूद भी उनकी जीवनशैली में एक निष्कपट सरलता थी. सभी को वह सहज भाव से मिलते थे और सर्वसाधारण के लिए उनकी वैयक्तिक उपलब्धता बहुत सरल थी. ...क्या आजकल के बड़े मार्गदर्शकों, गुरुओं, संतों, स्वामियों और साध्वियों आदि से सामान्य जन की प्रत्यक्ष भेंट सरल व सहज रह गयी है?? अहिंसा और सादगी का पाठ पढ़ने-पढ़ाने वाले बड़े लोग आज अपने घर पर भी और बाहर भी सशस्त्र अंगरक्षकों के घेरे में कैद हैं. कभी-कभार सामान्यजन हेतु वे प्रकट होते हैं, लेकिन उनका संवाद बहुधा एकपक्षीय (one way) ही होता है. किसी सामान्य जन को उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलना हो तो सचिवों के इतने घेरे हैं कि उनको पार करना किसी चाटुकार के बस की ही बात है! हाँ, यदि भौतिक जगत में आप कुछ ख़ास साख रखते हैं तो फिर तो मिलना बहुत ही आसान है!

विगत अनेक वर्षों से अभी चार-पांच वर्ष पूर्व तक भी सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा सामान्य जन को जब कोई क्षति पहुंचती थी या कोई धोखा होता था, तो शिकायतों के निवारण हेतु अनेक सरकारी पटल थे, जैसे-- National Consumer Helpline (NCH), Centralized Public Grievance Redress And Monitoring System (CPGRAMS), Directorate of Public Grievances (DPG). जिन पर आप ऑनलाइन या ऑफलाइन शिकायत दर्ज कर सकते थे. और यदि आपका केस सच्चा और प्रमाण-युक्त है, तो तयशुदा समयावधि के भीतर आपको खरा न्याय मिल जाता था. ये पोर्टल अब भी हैं, लेकिन बेअसर हो चुके हैं. मैंने स्वयं अतीत में इनकी सहायता ली थी और न्याय का प्रतिशत सौ फीसदी रहा था, जबकि वर्तमान (निकट-अतीत) में यह आंकड़ा शून्य का आ गया! क्यों?? क्योंकि रसूखदारों के प्रति सत्ता की भी खुशामद अब बहुत बढ़ गयी है. सनद रहे कि ये उपरोक्त पोर्टल विभिन्न मंत्रालयों व विभागों से सम्बद्ध हैं.

आध्यात्मिक संस्थाओं में धुआंधार सुनाया व रटाया जा रहा है. किन्तु सर्व शिक्षा मन व बुद्धि के स्तर पर सीमित है! ...गहरे विवेक अथवा आत्मा के स्तर पर कोई भी कार्य नहीं हो रहा है. राजनीतिक संस्थाएं आमजन को डराने और दहशत में डालने और बड़ी व चाटुकार प्रभावशाली कारोबारी हस्तियों को उठाने में लगी हैं. व्यावसायिक संस्थाएं केवल बड़े मुनाफे के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं, गुणवत्ता व ईमानदारी कम होती चली जा रही है. विज्ञापनों, पैकिंग्स और लुभावने वादों, आमंत्रण आदि में महीन अक्षरों में छुपी हुई पेचीदा 'टर्म्स एंड कंडीशन्स' निरंतर बढ़ती जा रही हैं. इससे व्यवसाय में पारदर्शिता व भरोसा कम होता जा रहा है. नोटबंदी के बाद से अंधाधुंध किये गए बेतरतीब डिजिटलीकरण ने हमारे देश की शिक्षा संस्थाओं व वैज्ञानिक संस्थाओं के गिरते चरित्र को भी उजागर कर दिया है. देश के शीर्षस्थ शिक्षा संस्थानों से निकली बिजनेस मैनेजमेंट स्नातकों और सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की नयी पौध ने व्यवसाय व उपभोक्ता जगत में ऐसी-ऐसी नयी स्कीमों, मोबाइल एप्लीकेशन्स का संजाल खड़ा कर दिया है, जिससे समय की अनावश्यक बर्बादी के साथ ही जोड़-तोड़ की बिक्री-खरीदी का जोर निरंतर बढ़ रहा है. ईमानदारी से यदि कहूं तो इस अजीबोगरीब डिजिटलीकरण से बजाय सरलता होने के, कठिनाईयां व जटिलताएं ही बढ़ी हैं. छोटे व्यवसाई/दुकानदार समाप्त हो रहे हैं, स्वरोजगार के स्थान पर वे अब छोटी-मोटी नौकरी ढूढ़ रहे हैं; ..पेमेंट करना व पाना तो अवश्य सरल हुआ है, पर इसके साथ ही विभिन्न मोबाइल एप्लीकेशन्स से निजता का हनन, असुरक्षित वेबसाइट्स के अलावा सुरक्षित माने जाने वाले एप्लीकेशन्स एवं साइट्स से असंख्य पॉपअप्स उभरना, उनसे प्रविष्ट होते खतरनाक वायरस और चोर सॉफ्टवेयर, सिस्टम की हैकिंग, बैंक खाता सम्बन्धी गोपनीय जानकारी का लीक होना, एटीएम कार्ड क्लोनिंग, आदि ये कुछ ऐसी नकारात्मक चीजें बढ़ी हैं जिनसे साधारण मानवीय मूल्यों का अस्तित्व आज संकट में है. इस अंधाधुंध डिजिटलीकरण के बाद, बिग बाज़ार जैसे किसी भी बड़े स्टोर से खरीदारी की प्रक्रिया में समय की बर्बादी और मानसिक जोड़तोड़ से उपजी मानसिक थकावट बहुत बढ़ गयी है. उदाहरण के लिए-- एक लेने पर ५०० का, दो लेने पर ८०० का और तीन लेने पर १००० का, तीन या चार के साथ एक फ्री, ....फ्री वो जो सबसे कम दाम का होगा, चुनिन्दा सामानों पर कुछ छूट आपके फ्यूचर पे डिजिटल वॉलेट में कुछ-कुछ रुपए प्रति माह जाएगी, उसी माह में उसे प्रयोग करना होगा अन्यथा वॉलेट में आया पैसा जब्त हो जायेगा, इसके अलावा आपके मोबाइल नंबर पर कूपन कोड आते रहते हैं, उनकी भी कुछ दिनों की एक्सपायरी डेट होती है. इनकी टर्म्स एंड कंडीशन्स इतनी छुपी होती हैं कि आप धोखे और लालच में आकर स्टोर चले जाते हो, असली तथ्य आपको वहां बिलिंग के समय पता चलते हैं, जिनसे आप तनाव में आ सकते हो. इसके अतिरिक्त पे-बेक पॉइंट्स कार्ड, प्रॉफिट क्लब कार्ड, और न जाने कितने ही पेचीदा प्रलोभन....., ये सभी की उस पिपासा को बढ़ा रहे हैं, जो अंत में आपको साधारण मानवीय नैतिक मूल्यों और नैसर्गिक जीवनशैली से दूर ले जाती है, और समय की बर्बादी व मानसिक तनाव बोनस में अलग से मिलते हैं. ...वैसे अनेक आध्यात्मिक संस्थाओं के व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी अब इसी राह पर अग्रसर हो चुके हैं!!!

इसके अतिरिक्त देश की सुरक्षा से जुड़े आयुध निर्माण जैसे कि एक विवादित युद्धक विमान के निर्माण जैसे कार्यों का अनुबंध अब सरकारी सुस्थापित कंपनी को छोड़कर ऐसी निजी कंपनियों को दिया जा रहा है जो पहले से ही दिवालियेपन की कगार पर हैं! डॉक्टरी व इंजिनीयरिंग जैसी मानव-हित से जुड़ी विधाएं तेजी से मुनाफे वाली व्यावसायिकता की ओर अग्रसर हैं. हवाई यात्रा के उपरांत अब आमजन की रेल यात्रा की सीटों का भी अब मांग बढ़ने व उपलब्धता घटने के साथ किराया बढ़ जाता है. किसी की गरीबी, इमरजेंसी या विवशता का ध्यान किसे है भाई, ..सारा जोर मुनाफे पर है अब! देशी सामान व सेवा की गुणवत्ता हाशिये पर जाती जा रही है.

११वीं कक्षा में आने पर सन् १९७८ में जब अपने शहर लखनऊ में ही घर से दूर कॉलेज में साइकिल से जाना शुरू किया तो तब यहाँ के केंद्रीय चौराहे पर पैदल सड़क पार करने वालों के लिए बाकायदा रोड सिग्नल लाइट्स होती थीं. पैदल वालों की लाइट हरी होते ही उस छोर के वाहन रुक जाते थे और पैदल सड़क पार करने वाले जेब्रा लाइन्स पर से आराम से सड़क पार कर लेते थे. दक्षिण भारत में यह अब भी है. लेकिन हमारे यहाँ अब जेब्रा लाइन्स तो हैं पर मात्र दिखावट के लिए! उनपर वाहनों का अधिक्रमण रहता है. और पैदल पार करने वालों के लिए न तो कोई लाइट्स हैं, न अंडर पास, न ही ओवर ब्रिज और न ही कोई सहानुभूति! समय के साथ हम आगे को गए या पीछे को, कोई तो समझा दे!

पूर्व में हम साधारण सरकारी स्कूलों में पढ़कर ही कुछ बन गए, अस्वस्थ होने पर साधारण सरकारी चिकित्सालयों में ही जा कर स्वस्थ हो गए; लेकिन अब क्या ऐसा है?? हम आगे को बढ़े या नीचे गिर गए? ...पहले उधार का खाना हमारी आम संस्कृति नहीं थी. लेकिन आगे बढ़ने के क्रम में हम शहरी लोग तो चतुर-चालाक हुए ही, साथ ही अब भोले ग्रामीण व खेतिहर भी चुस्त हो गए हैं! जिसे पहले कहने या प्रकट करने में सकुचाहट होती थी, उस कर्ज को लेना अब आम बात हो गयी है! उस पर भी तुर्रा यह कि चुकाने से पहले सरकारी माफी या एक-मुश्त समाधान योजना की प्रतीक्षा रहती है! यह जीवनशैली तो हमारी पहचान न थी कभी!

यहाँ आज लगभग सभी काम करने वाले अब डिजिटल क्रांति (मोबाइल एप्स) के जबरदस्त शिकंजे में हैं. इससे भी कार्य के प्रति समर्पण, सेवाभाव, गुणवत्ता आदि बहुत प्रभावित हुए हैं. कारण यह कि इसकी खोज, बनाने आदि में हमारा कोई भी योगदान नहीं रहा, अन्यथा इसकी असल कीमत व महत्त्व हम जानते! बाजार के वैश्वीकरण के दौर में हमें तो यह अनायास मिल गया! जब रोटी, दाल, सब्जी हम कमाकर खुद बनाते हैं तो उसकी कीमत जानते हैं, उसकी इज्जत करते हैं; लेकिन येनकेनप्रकारेण वह हमें अनायास मिल जाये तो हम आधा खाते हैं, आधा बर्बाद करते हैं. मुझे तो नहीं लगता कि उपग्रह प्रक्षेपण व अन्तरिक्ष विज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य वैज्ञानिकी क्षेत्र में हमने कोई ठोस व अभिनव प्रयास कर कोई उपलब्धि हासिल की हो! यहाँ तक कि हमारी अकूत आध्यात्मिक विरासत में भी हमने कोई ठोस प्रगति की चाह कभी भी नहीं दिखाई! हमारे सनातन वेद, उपनिषद् आदि जहाँ हमें उनसे भी आगे जाने को प्रेरित करते हैं, वहीं हम उनको लेकर बगल में दबाये अभी भी उन्हें श्रवण, कंठस्थ आदि करने के स्तर पर ही हैं! वेदों ने तो हमें क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर व आगे सूक्ष्मतम होने को प्रेरित किया, परन्तु हम अभी तक असंख्य स्थूल विधि-निषेधों में ही उलझे हैं! हम क्रमशः मन के, विवेक के, हृदय के, आत्मा के स्तर पर आखिर कब जायेंगे? यहाँ एक धर्मग्रन्थ में लिखी बड़े पते की बात बताना चाहता हूँ, अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए वहां लिखा था, "तुम सब इस धर्मग्रन्थ को पढ़ो, इसे याद करो, इसे धारण करो, इसके अनुसार वर्तन करो; ..लेकिन कभी तुम ऐसा भी पाओगे कि, कभी तुम किसी अन्य भूभाग के अपरिचित से व्यक्तियों से मिलोगे, जो इस धर्मग्रन्थ को बिलकुल भी नहीं जानते, फिर भी उनके आचरण से तुम्हें ऐसा महसूस होगा कि वे इस धर्मग्रन्थ में लिखी शिक्षा के अनुसार ही चल रहे हैं! अजीब सा है न यह!! क्योंकि परमेश्वर ने सभी को वह विद्या दी है हमेशा से ही, ...कोई पढ़कर, कंठस्थ करके 'शायद' वहां तक पहुँचता है, और कोई अनपढ़ होते हुये भी! शब्द महत्वपूर्ण नहीं बल्कि आचरण महत्वपूर्ण है, संवेदनाएं महत्वपूर्ण हैं, मन/अंतर् में चलने वाले विचार/भाव महत्वपूर्ण हैं!"

अब अंत में मेरे मन को विचलित कर देने वाली एक बात, ...मैं जीवन में अब तक सदैव सत्य का समर्थन व गलत का शालीन विरोध दर्ज करता रहा. उम्र बीतने के साथ-साथ जब मैंने पाया कि हमारे समाज में नैतिकता का ग्राफ लगातार नीचे को गिरता जा रहा है, तो मैंने कुछ वरिष्ठ लोगों से मार्गदर्शन लेना चाहा कि अब क्या कर्तव्य बनता है. अधिकांश ने परामर्श दिया कि, "यहाँ प्रयास करने से कोई लाभ नहीं, भगवान् सबको अपनी करनी का फल समय आने पर अवश्य देंगे!" ...बड़े लोगों की यह सोच निश्चित ही पलायनवादी है! ....क्या निर्गुण परमात्मा के हम छोटे-छोटे मनुष्य रूपी सगुण अवतारों का जन्म इसीलिए हुआ है कि मशीन की भांति यह भूलोक प्रवास मात्र भोगें, जब तक कि देह में हैं! क्या हमारी कोई भूमिका या कर्तव्य नहीं?