आइंस्टीन ने उपरोक्त कथन (शीर्षक) बहुत ही नेक इरादे और सकारात्मक प्रगति के आह्वान-स्वरूप कहा था। उनका मूल आशय यही था कि, 'जो बुद्धिमान होगा वह अपने उचित (righteous) विवेक से अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करके जीवन के सभी (भौतिक एवं आध्यात्मिक) पहलुओं में निरंतर 'सकारात्मक' बदलाव अवश्य लाता रहेगा। ...और जो ऐसा करने में असमर्थ रहता है, उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिह्न् तो लगाया ही जायेगा!' सबसे पहले हम 'बदलने', बदलाव', या 'परिवर्तन' शब्द पर ही चिंतन करें, तो कहीं इसका अर्थ, नवनिर्माण द्वारा पूर्वनिर्मित के प्रतिस्थापन, से निकलता है; तो कहीं इसका आशय पूर्वनिर्मित में ही किसी परिवर्तन से होता है! इसी निमित्त सभी राष्ट्रों द्वारा नित्य नवीन अन्वेषण किये जा रहे हैं। पहले से उपलब्ध वस्तुओं में भी नित नए-नए सुधार कर उनमें और अधिक वैशिष्ट्य डालने का निरंतर प्रयास किया जा रहा है। बदलाव अथवा नवनिर्माण की प्रक्रिया में प्रत्येक राष्ट्र या समूह का अपना-अपना नजरिया है। जो नवनिर्माण और बदलाव को सकारात्मक उद्देश्य से करते हैं वे वास्तव में विकसित, सुसभ्य, शांतिप्रिय, न्यायप्रिय, खुशहाल हैं, और शेष पिछड़े या विकासशील की श्रेणी में हैं। अर्थात् उनकी बुद्धिमत्ता, विवेक और नजरिये आदि पर प्रश्नचिह्न् हैं! हम भी तो सालों-साल से 'विकासशील' के तमगे के साथ ही हैं! अब अपने यहाँ की कुछ चर्चा...
आज विभिन्न सेवा-प्रदाताओं और उनके प्रबंधकों का एक ही नारा है कि - "नित नवीन परिवर्तन करो, अन्यथा मिट जाओगे"; अर्थात् आज सभी कम्पनियाँ अपने उत्पादों में रोज ही कुछ न कुछ परिवर्तन करने हेतु प्रयासरत हैं और उनको लगता है कि यदि वे कुछ नया नहीं देंगे तो उनकी प्रतिद्वन्दी कम्पनी उनसे बाजी मार ले जायेगी। प्रतिद्वंदिता का भय निरंतर सताता रहता है, इसीलिए वे अपने उत्पादों या सेवाओं में नित नए बदलाव करते रहते हैं। अर्थात् नित नवीन परिवर्तन का कारण समाज-सहाय्य से अधिक निज-सहाय्य है!
आज भौतिक प्रगति या बारम्बार त्वरित परिवर्तन के पीछे यही तर्क दिया जाता है कि यह सब लोगों के सुखों में बढ़ोत्तरी करने के लिए किया जा रहा है और इसी से हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं। यद्यपि इसमें कोई संदेह भी नहीं कि बहुत सी खोजों, अन्वेषणों एवं परिवर्तनों ने मानव जीवन को बहुत आराम और सुविधाएं प्रदान की हैं; परन्तु साथ ही मेरा यह भी मानना है कि प्रत्येक भौतिक वस्तु के विकास, खपत, प्रयोग एवं उपयोगिता का एक संतृप्ति बिंदु होता है। उस बिंदु पर पहुँचने के पश्चात् या तो ठहराव आ जाता है या फिर विकास की गति बहुत मंथर हो जाती है। किसी वस्तु के विकासक्रम में कभी न कभी हम उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं। उस स्थिति तक पहुँचने के बाद भी यदि हम स्वार्थवश एवं लाभ कमाने हेतु जबरदस्ती उसमें और अधिक परिवर्तन कर उसे 'दोहते' रहते हैं तो बजाय सुख देने के वह वस्तु दुःखों का कारण बन जाती है!
यदि किसी वस्तु में कुछ सुधार या परिवर्तन करने पर वास्तव में उस वस्तु का परिष्कार होता हो और उसके जरिये मानव को वास्तव में पहले से अधिक सुविधा-सहायता मिलती हो, उसकी ऊर्जा वास्तव में बचती हो, तो उन परिवर्तनों एवं सुधारों का स्वागत होना चाहिए; परन्तु परिवर्तन के पश्चात् यदि एक सुख देकर वह वस्तु दो दुःख बढ़ा रही हो या ऊर्जा व समय की खपत बढ़ा रही हो तो ऐसे परिवर्तन से तो बचना ही बेहतर! ... परन्तु आज हम इतना तेज भाग रहे हैं कि नकारात्मक पक्षों को बहुधा अनदेखा कर जाते हैं, और परिवर्तन को ही उत्तरजीविता (survival) का 'एकमात्र' आधार मानते हैं; जबकि हम देखते हैं कि समय के साथ प्राकृतिक वस्तुओं में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है और यदि कोई आया भी है तो नकारात्मक दिशा में ही, वह भी जबरन मानवीय हस्तक्षेप के कारण! .... यदि हम एक कुशल चित्रकार हैं तो किसी चित्र को बनाकर उसमें एक हद तक ही सुधार करते हैं अन्यथा बजाय सुधरने के वह बिगड़ सकता है! बारम्बार सुधारों के बजाय हम नित नए-नए चित्र तैयार करते हैं। हमारी हर रचना अपने आप में अनूठी होती है।
आजकल अधिक माल खपाने की वृत्ति भी व्यापार-जगत में खूब है। विडम्बना ही है कि किसी राष्ट्र की उन्नति या विकसित होने का पैमाना (मापदंड) भी आज यही है कि उस देश में कितना अधिक सामान उपभोग किया जाता है। अरे, ... कोई एक सीमा तक ही अपने मनपसंद लड्डू खा सकता है, या एक हद तक ही पानी पी सकता है; सीमा से परे उपभोग करने से अस्वस्थ होना निश्चित ही होता है।
अब थोड़ा अतीत से ....
अंग्रेजों के भारत आने से पूर्व हमारा भौतिक विकास लगभग थमा हुआ था। शारीरिक रूप से हम आलसी व सुस्त थे, बस विभिन्न धार्मिक विचार-विमर्शों तक ही सीमित थे। जबकि उस समय अन्य विकासशील व विकसित देश निरन्तर चलायमान थे, वे समय के साथ-साथ क्रमबद्ध भौतिक प्रगति व परिवर्तनों के प्रति जागरूक थे। भारत में जब अंग्रेजों का आधिपत्य हो रहा था, उसी समय यहाँ पर भी भौतिक परिवर्तन का दौर आरम्भ हुआ। पहले बाहर के देशों के उत्पाद यहाँ आने शुरू हुए, तदुपरांत अपने यहाँ भी आधुनिक कल-कारखाने लगने शुरू हुए। हम उन उत्पादों से पहले से अधिक परिचित नहीं थे। या परिचित संभवतः हों भी पर प्रयोग करने के अभ्यस्त नहीं थे। अचानक ही इतनी सुख-सुविधाओं के सामान आ गए कि हम उनकी चकाचौंध में खो से गए। अन्य राष्ट्रों ने तो अपना भौतिक विकास कई वर्षों में धीरे-धीरे निज श्रम से किया था; प्रगति, अनुसंधानों, खोजों व उत्पादों के सम्पर्क में धीरे-धीरे आये थे, अतः वे तो संतुलित थे। परन्तु हमें वह सब अनायास ही बिना किसी विशेष श्रम के एकदम से यूं ही मिल रहा था। हम मदमस्त हो गए।
वैसे हमने ही ऐसे संयोग उत्पन्न किये कि अंग्रेज व्यापारियों को भारत पर आधिपत्य जमाने का अवसर प्राप्त हुआ। वे संख्या में हमसे बहुत कम थे पर सुसंगठित थे और हम संख्या में उनसे कई गुना अधिक होने पर भी असंगठित थे, राग-द्वेष में डूबे थे, अशिक्षा व अविद्या की बेड़ियों में जकड़े थे। यदि ऐसा न होता तो हमारी भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति इतने लम्बे समय थमी न रहती। अध्यात्म के क्षेत्र में विपुल वाद-विवाद व मंत्रणायें होते रहने के बावजूद हम अध्यात्म का व्यावहारीकरण करने में अक्षम सिद्ध हुए। इन्हीं सब कमजोरियों के कारण पिछले काफी वर्षों से न तो हमने अपने भौतिक विकास पर ध्यान दिया था और न ही आध्यात्मिक विकास पर। हम जड़ व स्थिर थे।
भले ही अंग्रेजों ने हमें वर्षों गुलाम बनाये रखा, तब भी कुछ मायनों में हमें उनके प्रति आभारी भी होना पड़ेगा, क्योंकि उनके कारण ही हमारी व हमारे देश की भौतिक जड़ता कुछ हद तक समाप्त हुयी। परिवर्तन की दृष्टि से देखें तो उन्होंने ही हमारे देश में वैज्ञानिक युग का पुनः सूत्रपात किया। भौतिक शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में उन्होंने हमारी बहुत मदद की। आधुनिक भारत का निर्माण उसी काल में आरम्भ हुआ। हमारे देश में मैदानी व विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में रास्तों व सड़कों का निर्माण, रेलपथ का निर्माण, विभिन्न कल-कारखानों का निर्माण उन्हीं के काल में व उन्हीं के सौजन्य से सम्भव हो पाया। आज भी हम उस काल में संपन्न हुए जटिल उपयोगी कार्यों को अपने समक्ष पाते हैं, उनकी उपयोगिता गुणवत्ता के साथ आज भी हमारे सामने है, जैसे कालका-शिमला पहाड़ी रेलपथ। देखा जाये तो स्वतंत्रता के वर्षों बाद भी इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद हम उस स्तर की 'गुणवत्ता' व उपयोगिता के अन्य कार्य करने में अत्यंत मंद रहे हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल के उपयोगी कार्य या निर्माण के रख-रखाव में भी हम अक्षम सिद्ध हो रहे हैं!
आज भी हमारा वही असंतुलन जारी है, हम प्रवृत्तियों में ही, भोगने में ही डूबे हैं। आज भी अनेकों भौतिक उपलब्धियाँ हमें अपने सामर्थ्य से नहीं वरन अन्य राष्ट्रों की कृपा से प्राप्त हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर मोबाइल फोन, विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों, स्वास्थ्य से सम्बंधित नवीनतम उपकरणों आदि को ही देख लें तो अत्यधिक उच्च गुणवत्ता का सामान आज भी विदेशों से ही आता है या उनकी तकनीक बाहर से आती है, बस उत्पादन ही यहाँ होता है और उस पर भी यह संशय बना रहता है कि उत्पाद पूरी तरह से मानकों के अनुरूप है अथवा नहीं। आज हमारा लक्ष्य बेहतर गुणवत्ता का सामान बनाना नहीं वरन केवल मुनाफा देने वाला सामान बनाना है। जैसे निर्माण करने में, वैसे ही प्रयोग करने में भी हम नीतिहीन ही हैं।
हम विज्ञान के विभिन्न पहलुओं की जड़ों से अनभिज्ञ हैं या बहुत कम जानते हैं। अधिकांशतः हमारा ज्ञान सतही है। विदेशियों के सौजन्य से हमारा थोड़ा-बहुत वैज्ञानिक व भौतिक विकास तब शुरू हुआ था जब शेष विश्व अनुसंधानों के कई चरणों को पार कर चुका था। अतः हमें नकल का अवसर ही प्राप्त हुआ, सो विषयों को जड़ से जानने की हमारी जिज्ञासा ही लगभग समाप्त हो गयी या आज भी आलसी वृत्ति के होने के कारण हम उनको ठीक से समझना ही नहीं चाहते हैं।
अंग्रेजी सभ्यता लालच की थी पर उन्होंने अपने आप को परिष्कृत व परिमार्जित कर नीतिमान व धर्मभीरु बना लिया। उनकी सोच व कार्यों की गुणवत्ता पहले की तुलना में और अधिक श्रेष्ठ हो चुकी है। मात्र पैसा ही अब उनका उद्देश्य नहीं है, .. पर हमारा उद्देश्य?? हमारे यहाँ तो आज नैतिक मूल्य इतने रसातल में जा चुके हैं कि उनकी खुल कर व्याख्या करने में भी लज्जा का अनुभव होता है।
लाख बुराइयों के बाद भी अंग्रेज मेहनती व अनुशासित थे। उन्होंने अपने ये गुण हमें देने की भरपूर कोशिश की, परन्तु हमने उनके कुछ और बुरे गुण तो अपना लिए, पर मेहनत व अनुशासन से अभी भी मुँह चुराते हैं।
जब हम सीखने की या आगे बढ़ने की प्रक्रिया में होते हैं तो हमें स्वयं की तुलना सदैव अपने से उच्च अर्थात् उन्नत व श्रेष्ठ लोगों से करनी चाहिए, निचली अवस्था के लोगों से नहीं! हम बारम्बार अपनी तुलना पाकिस्तान जैसे छोटे, कमजोर व अपरिपक्व देश से करते रहते हैं एवं खुश होते रहते हैं। परन्तु जहाँ चीन जैसे विकसित या अपेक्षाकृत उन्नत विकासशील देशों से तुलना की बात होती है, वहाँ हम उनकी समृद्धि के अनेकों अन्य कारण गिना देते हैं!
दुःख की बात है कि हमारे भारत में आज लगभग प्रत्येक क्षेत्र के अगुवाओं की यही दशा है - न्यूनतम प्रयास कर येनकेन-प्रकारेण अधिकतम प्राप्त करने की वृत्ति! जब अगुआ ऐसे तो फिर अनुगामी तो तदनुसार होंगे ही! कागजों पर, आंकड़ों में निश्चित रूप से हम अपने राष्ट्र को काफी आगे दिखाने में सफल हो गए हैं परन्तु अपने सामने हम अनावृत हैं। प्रगति की आपाधापी में हम संतुलन खोते जा रहे हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति जैसे शब्दों और उनके अर्थों को भुला बैठे हैं। अनर्गल विकास और प्रगति की दौड़ ने हमें क्रमशः आत्मिक प्राणी से शारीरिक प्राणी और फिर शारीरिक प्राणी से संवेदनहीन मशीन में परिवर्तित कर दिया! देखा जाये तो यह भी एक प्रकार का परिवर्तन ही है, और लोग तर्क देते हुए यह चिरपरिचित पंक्ति पुनः कहेंगे कि 'परिवर्तन ही शाश्वत सत्य है'!!
प्रकृति में, मानव देह में, उसकी मूलभूत आवश्यकताओं में, गुणधर्मों में तो विगत हजारों वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं आया है, फिर हम क्यों अपने जीवन में नित इतना अधिक परिवर्तन करने की चाहत रखते हैं?? यह अत्यधिक चाहत ही हमें बीमार बना रही है। स्वयं भी एक प्राकृतिक वस्तु होने के कारण हमारा प्रथम कर्तव्य बनता है कि प्रकृति ने जिस मूल रूप में एवं उद्देश्य से हमें बनाया, हम उसे जानने और खोजने की चेष्टा करें तथा उसे बनाये रखने का प्रयत्न करें। मेरा विचार है कि प्राकृतिक सिस्टम अपरिवर्तनीय है! हम जबरन उसे हिलाने का प्रयास करेंगे तो खुद ही हिल जायेंगे! क्या नित ऐसा होते नहीं देख रहे हैं हम??
ऐसी खोजों, परिवर्तनों आदि का स्वागत होना चाहिए जो हमें प्राकृतिक रूप से उन्नत होने में मदद करें। प्राकृतिक रूप से तात्पर्य है कि बिना हमारे मूल रूप, गुणधर्म और स्वभाव को छेड़े; बिना हमारे दिलों पर स्वाभाविक रूप से अंकित नैतिकता को छेड़े। अर्थात् हम भौतिक रूप से उन्नत अवश्य हों पर बिना राक्षस या असुर बने। जो भौतिक प्रगति हमें इंसान से देवता बनाने के बजाए आसुरी वृत्ति की ओर ले कर जाये उसे फिर से जांचना अति आवश्यक!
समाज बदल रहा है या बुराइयों की गर्त में जा रहा है...? ..परिवर्तन ही जीवन का नियम है तो अपनी सोच में परिवर्तन क्यों नहीं कर पाते सभी? प्रत्येक व्यक्ति आज कुछ अपने कुछ विशिष्ट संस्कारों (इम्प्रेशंस) और धारणाओं के अधीन है। इनके चलते उसकी सोच इतनी दृढ़ सी हो गयी है कि अचानक किसी परिवर्तन की बात पर वह भड़कता है, आसानी से राजी नहीं होता, या चाह कर भी खुद को बदल नहीं पाता। मेरे विचार से किसी को 'परिवर्तित' होने के लिए कहना उसे उसकी पूर्वस्थापित सोच और अहं के विरुद्ध लगता है। ...'परिवर्तन' के स्थान पर यदि 'शोधन', 'परिष्करण', 'निखारना' (रिफाइनमेंट) आदि के लिए कहा जाये तो व्यक्ति के अहंकार पर कोई चोट नहीं होती! ..सत्य भी तो यही है कि हम यदि व्यक्तित्व और सोच आदि में 'निखार' लाने की कोशिश करें तो इस क्रम में जरूरी परिवर्तन भी स्वतः हो ही जाते हैं! व्यक्ति, समाज या सोच की असली उन्नति के लिए 'परिवर्तन' की नहीं, बल्कि 'रिफाइनमेंट' या 'निखारने' की आवश्यकता है। 'परिवर्तन' शब्द में शायद आलोचना का पुट लगता है जबकि 'रिफाइनमेंट' या 'बेटरमेंट/इम्प्रूवमेंट' (और ज्यादा अच्छा बनो) शब्द जोश पैदा करते हैं। जरा सोचकर देखिये कि स्वयं की या अपने किसी करीबी की सोच को बदलने के लिए इनमें से कौन से शब्द मनोवैज्ञानिक तौर पर अधिक कारगर हैं?! इति।