Friday, July 24, 2009

(१८) हमारी जड़ता के कारण

हमने पिछले कई लेखों में भारतीयों, विशेषकर उत्तर भारत की अवनति के विषय में काफी चर्चा की। अब हम भारत की इस वर्तमान दुःखद परिस्थिति को कुछ अन्य बिन्दुओं या कोणों से समझने का प्रयत्न करते हैं।

जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा राष्ट्र बहुत वर्षों तक परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। परतंत्रता के कारणों में भी झांकें तो हम पायेंगे कि हमारी परतंत्रता का मुख्य कारण हमारी ही बहुत सी कमजोरियां थीं। इंग्लैंड से ईस्ट इंडिया कम्पनी अपना व्यापार बढ़ाने ही तो सर्वप्रथम भारत में आयी थी। उनका मुख्य लक्ष्य तब मात्र व्यापार ही था और 'व्यापार' कभी भी दांव-पेंच रहित नहीं होता, यह तत्कालीन भारतीय भी अच्छी तरह से जानते ही होंगे। हमने ही उन्हें आश्रय दिया। उनकी धन-संपदा से, व्यापार करने के ढंग से हम शीघ्र मोहित हो गए। शीघ्र धनी हो जाने के लालच में हमने ही उनकी मदद की, हमने ही उनका माल बेचा। व्यापार करते-करते अंग्रेज हमारी तमाम कमजोरियों से परिचित होते गए। उस समय हम एक नहीं थे, हमारा शासक-वर्ग सत्ता-लोलुपता व विलासिता में डूबा था, पड़ोसी राज्यों में आपस में बनती नहीं थी, सभी निज राज्य-विस्तार के विषय में ही सोचा करते थे, अनेक राजाओं के चारित्रिक रूप से कमजोर होने के कारण राज्य की सेनाओं में भी एकता व स्वामिभक्ति की कमी थी, मंत्रियों या परिवारजनों द्वारा विद्रोह आदि आम बात थे। अंग्रेजों से पहले भी कई बार विदेशी आक्रमणों से आहत भारत की निज-संस्कृति का स्वरूप भी बिगड़ चुका था। विभिन्न जन-जातियों के बीच फूट पड़ी हुई थी, यहाँ तक कि हिन्दू भी एक नहीं थे, वर्णभेद, अस्पृश्यता व तदनुरूप राग-द्वेष अपने चरम पर था। हमारे अगुआ लगातार श्रेष्ठ नीतियों से परे जा रहे थे और फिर विभिन्न आपदाओं से घिर जाने के बाद कठिनाई से उबरने हेतु अंग्रेजों से ही मदद मांगते थे। अक्सर आपसी अनबन व फूट के मामलों में भी हम अंग्रेजी कम्पनी से सहायता माँगा करते थे। फिर अंग्रेज कूटनीति के माध्यम से हमारी समस्याओं को सुलझाते थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी व सम्बंधित अंग्रेजों ने हमारी इन्हीं सब कमजोरियों का लाभ उठा कर अपने व्यापार की जड़ें मजबूती से फैलाने के अतिरिक्त धीरे-धीरे हमारे राज्यों पर कब्जा किया, हमें गुलाम बना हमारे शासक बन बैठे।

कुल मिला कर हमने ही ऐसे संयोग उत्पन्न किये कि अंग्रेज व्यापारियों को भारत पर आधिपत्य जमाने का अवसर प्राप्त हुआ। वे संख्या में हमसे बहुत कम थे पर सुसंगठित थे और हम संख्या में उनसे कई गुना अधिक होने पर भी असंगठित थे, राग-द्वेष में डूबे थे, अशिक्षा व अविद्या की बेड़ियों में जकड़े थे। राम और कृष्ण की धरती के लोग उनके ही उपदेश भूल गए थे। आध्यात्मिक ज्ञान तो बहुत था, पर मात्र शब्दों या यंत्रवत कर्मकांडों तक ही सीमित था। गीता का ज्ञान तो बहुत बघारते थे, कंठस्थ भी थी, पर श्री कृष्ण के प्रवृत्ति व निवृत्ति के उपदेश व्यवहार में न लाते थे। यदि ऐसा न होता तो हमारी भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति इतने लम्बे समय थमी न रहती। अध्यात्म के क्षेत्र में विपुल वाद-विवाद व मंत्रणायें होते रहने के बावजूद हम अध्यात्म का व्यावहारीकरण करने में अक्षम सिद्ध हुए। इन्हीं सब कमजोरियों के कारण पिछले काफी वर्षों से न तो हमने अपने भौतिक विकास पर ध्यान दिया था और न ही आध्यात्मिक विकास पर। हम जड़ व स्थिर थे। ... बहुत दिनों से एक स्थान पर रुका हुआ स्वच्छ पानी भी सड़ने लगता है, बदबू मारने लगता है। पर हम उस सड़न, उस बदबू से अनभिज्ञ बने बैठे बस अपने सुनहरे व सुगन्धित अतीत पर ही मुग्ध थे। मुख्यतः यही सब भारतीयों के पराभव के मूल कारण थे।

फिर भी अपनी वर्षों की दासता के लिए हम बारम्बार अंग्रेजों को ही कोसते रहते हैं, अपनी तत्कालीन कमजोरियों को विस्मृत कर देते हैं। ... भले ही अंग्रेजों ने हमें वर्षों गुलाम बनाये रखा, तब भी कुछ मायनों में हमें उनके प्रति आभारी भी होना पड़ेगा, क्योंकि उनके कारण ही हमारी व हमारे देश की भौतिक जड़ता कुछ हद तक समाप्त हुयी। परिवर्तन की दृष्टि से देखें तो उन्होंने ही हमारे देश में वैज्ञानिक युग का पुनः सूत्रपात किया। भौतिक शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में उन्होंने हमारी बहुत मदद की। आधुनिक भारत का निर्माण उसी काल में आरम्भ हुआ। हमारे देश में मैदानी व विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में रास्तों व सड़कों का निर्माण, रेलपथ का निर्माण, विभिन्न कल-कारखानों का निर्माण उन्हीं के काल में व उन्हीं के सौजन्य से सम्भव हो पाया। आज भी हम उस काल में संपन्न हुए जटिल उपयोगी कार्यों को अपने समक्ष पाते हैं, उनकी उपयोगिता गुणवत्ता के साथ आज भी हमारे सामने है, जैसे कालका-शिमला पहाड़ी रेलपथ। देखा जाये तो स्वतंत्रता के वर्षों बाद भी इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद हम उस स्तर की 'गुणवत्ता' व उपयोगिता के अन्य कार्य करने में अत्यंत मंद रहे हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल के उपयोगी कार्य या निर्माण के रख-रखाव में भी हम अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। हम कुछ भी कहें पर इतना तो मानेंगे ही कि लाख बुराइयों के बाद भी अंग्रेज मेहनती व अनुशासित थे। उन्होंने अपने ये गुण हमें देने की भरपूर कोशिश की, परन्तु हमने उनके कुछ और बुरे गुण तो अपना लिए पर मेहनत व अनुशासन से अभी भी मुँह चुराते हैं।

हम अपने समाज की नैतिक अवनति व भौतिक अपरिपक्वता के कारणों पर पुनः दृष्टिपात करें तो यह पाते हैं कि -- अंग्रेजों के भारत आने से पूर्व हमारा भौतिक विकास लगभग थमा हुआ था। शारीरिक रूप से हम आलसी व सुस्त थे, बस विभिन्न धार्मिक विचार-विमर्शों तक ही सीमित थे। जबकि उस समय अन्य विकासशील व विकसित देश निरन्तर चलायमान थे, वे समय के साथ-साथ क्रमबद्ध भौतिक प्रगति व परिवर्तनों के प्रति जागरूक थे। भारत में जब अंग्रेजों का आधिपत्य हो रहा था, उसी समय यहाँ पर भी भौतिक परिवर्तन का दौर आरम्भ हुआ। पहले बाहर के देशों के उत्पाद यहाँ आने शुरू हुए, तदुपरांत अपने यहाँ भी आधुनिक कल-कारखाने लगने शुरू हुए। हम उन उत्पादों से पहले से अधिक परिचित नहीं थे या परिचित संभवतः हों भी पर प्रयोग करने के अभ्यस्त नहीं थे। अचानक ही इतनी सुख-सुविधाओं के सामान आ गए कि हम उनकी चकाचौंध में खो से गए। अन्य राष्ट्रों ने तो अपना भौतिक विकास कई वर्षों में धीरे-धीरे निज श्रम से किया था; प्रगति, अनुसंधानों, खोजों व उत्पादों के सम्पर्क में धीरे-धीरे आये थे, अतः वे तो संतुलित थे। परन्तु हमें वह सब अनायास ही बिना किसी विशेष श्रम के एकदम से यूं ही मिल रहा था। हम मदमस्त हो गए। ठीक वैसे ही जैसे कई दिन के भूखे को अचानक ही खाद्य-सामग्री बहुतायत से उपलब्ध हो जाये तो उसको यह होश नहीं रहता कि कितना उसके लिए पर्याप्त व उचित रहेगा, ... बस खाने में जुट जाता है जंगलियों की भांति। ... कमोवेश आज भी हमारी वही दशा है। आज भी हमारा वही असंतुलन जारी है, हम प्रवृत्तियों में ही, भोगने में ही डूबे हैं। आज भी अनेकों भौतिक उपलब्धियाँ हमें अपने सामर्थ्य से नहीं वरन अन्य राष्ट्रों की कृपा से प्राप्त हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर मोबाइल फोन, विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों, स्वास्थ्य से सम्बंधित नवीनतम उपकरणों आदि को ही देख लें तो अत्यधिक उच्च गुणवत्ता का सामान आज भी विदेशों से ही आता है या उनकी तकनीक बाहर से आती है, बस उत्पादन ही यहाँ होता है और उस पर भी यह संशय बना रहता है कि उत्पाद पूरी तरह से मानकों के अनुरूप है अथवा नहीं। आज हमारा लक्ष्य बेहतर गुणवत्ता का सामान बनाना नहीं वरन केवल मुनाफा देने वाला सामान बनाना है। जैसे निर्माण करने में, वैसे ही प्रयोग करने में भी हम नीतिहीन ही हैं। अन्य विकसित राष्ट्रों के वर्तमान स्थिर संतुलन और हमारे असंतुलन का ठोस कारण हम फिर से वही पाते हैं कि उन्होंने भौतिक प्रगति को अपने प्रयासों व मेहनत से चरण दर चरण पाया और हमें वह सब एक झटके में ही मिल गया बिना किसी विशेष प्रयास के। हमने अधिक मेहनत तो की नहीं तो फिर हम उसका मूल्य क्या जानें। साधारण सी बात है जो सब जानते ही हैं कि परिश्रम से बनायी हुई या मेहनत की कमाई से लायी हुई वस्तु की कदर लोग बहुत करते हैं, दुरुपयोग नहीं करते। वही वस्तु यदि किसी को यूं ही मिल जाये बिना परिश्रम के, तो व्यक्ति उस वस्तु का अनियंत्रित उपयोग करता है, उसके दुरुपयोग की संभावनाएं बहुत प्रबल हो जाती हैं। भारत में आजादी के कुछ समय पहले से लेकर आज की दिनांक तक यही हो रहा है अर्थात् संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है।

चूँकि पूर्व में हमने कोई खास मेहनत नहीं की थी, अतः पहली बात तो यह कि हम विज्ञान के विभिन्न पहलुओं की जड़ों से अनभिज्ञ हैं या बहुत कम जानते हैं। अधिकांशतः हमारा ज्ञान सतही है। विदेशियों के सौजन्य से हमारा थोड़ा-बहुत वैज्ञानिक व भौतिक विकास तब शुरू हुआ था जब शेष विश्व अनुसंधानों के कई चरणों को पार कर चुका था। अतः हमें नक़ल का अवसर ही प्राप्त हुआ, सो विषयों को जड़ से जानने की हमारी जिज्ञासा ही लगभग समाप्त हो गयी या आज भी आलसी वृत्ति के होने के कारण हम उनको ठीक से समझना ही नहीं चाहते हैं। संचार माध्यमों का आज बहुत विस्तार हो जाने से सम्पूर्ण विश्व एक गाँव के समान ही हो गया है, हम निरन्तर एक-दूसरे के सम्पर्क में बने रहते हैं, अन्य देशों में हो रहे अन्वेषणों व आविष्कारों से निरन्तर परिचित रहते हैं, फिर भी आज भी हम चेत नहीं रहे हैं। आज भी हम अनियंत्रित ढंग से अंधों की भांति केवल भोगने में ही व्यस्त हैं। प्रवृत्ति में इतना डूब गए हैं कि निवृत्ति का ध्यान ही नहीं है। जबकि अन्य उन्नत राष्ट्र उनके सीमित धर्मग्रंथों में दी गयी नीतियों व स्वयं की सहज बुद्धि से से बहुत कुछ सीख चुके हैं। हमारे यहाँ तो इतना सुघड़ आध्यात्मिक ज्ञान सहजता से उपलब्ध है फिर भी निज-स्वार्थ में डूबे हुए हमारे वर्तमान धर्मगुरु उन्हें दूसरों को देने व दूसरों से उन पर अमल करवा पाने में अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। यहाँ तक कि वे अन्यों को प्रेरित करने में भी असफल सिद्ध हुए हैं। हाँ अंधविश्वासों को बढ़ाने व निज-पूजा करवाने में वे अवश्य सफल रहे हैं। इस विषय पर विस्तार से चर्चा इससे पहले के अनेक लेखों में हम कर ही चुके हैं। अंग्रेजी सभ्यता लालच की थी पर उन्होंने अपने आप को परिष्कृत व परिमार्जित कर नीतिमान व धर्मभीरु बना लिया। उनकी सोच व कार्यों की गुणवत्ता पहले की तुलना में और अधिक श्रेष्ठ हो चुकी है। मात्र पैसा ही अब उनका उद्देश्य नहीं है, .. पर हमारा उद्देश्य?? हमारे यहाँ तो आज नैतिक मूल्य इतने रसातल में जा चुके हैं कि उनकी खुल कर व्याख्या करने में भी लज्जा का अनुभव होता है। कहने में संकोच होता है पर सच तो यही है कि न तो हम शिक्षित हैं और न ही सुसंस्कृत। हमारे अभिजात वर्ग के विषय में आप इसी ब्लॉग के एक अन्य लेख 'अभिजात वर्ग' में पढ़ ही चुके होंगे। इसके अतिरिक्त आज के विद्यालयों, अस्पतालों, परिवारों और कार्यालयों में भी नैतिकता के बहुत क्षीण चिन्ह दिखाई पड़ते हैं। भारत के कुछ प्रदेशों में आज की युवा पीढ़ी निरंकुश व दिग्भ्रमित है। उनके अभिभावक स्वयं इतनी आसक्ति व धन-यश आदि के मद में चूर हैं कि उन्हें स्थिति की गम्भीरता का भान ही नहीं है। बच्चों को बिना शिक्षित किये, बिना नैतिक गुण सिखाये वे उनको आज का हर वैभव, हर सुख, हर भौतिक शक्ति को दे देना चाहते हैं। अशिक्षित अर्थात् अपरिपक्व बच्चों को जब मल्टीमीडिया मोबाइल फोन, मल्टीमीडिया कंप्यूटर, इन्टरनेट, मोटरसाइकिल, स्कूटी व अन्य शक्तिशाली गैजेट्स मिल जायेंगे, तो उनका दुरुपयोग होना अवश्यम्भावी है। आज अभिभावकों ने सभी उच्च भौतिक संसाधन जुटा तो लिए हैं येनकेनप्रकारेण, और बस इसी में इतिश्री समझ ली है। अपने बच्चों को भी वे सब भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान तो कर रहे हैं पर बिना किसी मार्गदर्शन, बिना किसी सुसंस्कार के। ... बच्चों के लिए तो सर्वप्रथम अपने अभिभावक ही आदर्श होते हैं, उन्हीं को देख कर, उन्हीं से सीख कर वे बड़े होते हैं। और यहाँ के अभिभावक हैं कि वे स्वयं ही परिपक्व नहीं होना चाहते हैं तो फिर अपने बच्चों को इसके लिए प्रेरित करने में वे भला कहाँ समर्थ हो सकते हैं?? ... यह एक पुरातन व शाश्वत सत्य है कि निज क्रियमाण से या प्रारब्धवश शक्ति कोई भी प्राप्त कर सकता है, पर धर्म (righteousness) और शक्ति जब साथ में होंगे तभी शक्ति का सदुपयोग संभव है, अन्यथा रावण या अन्य शक्तिसम्पन्न आततायियों की कथाओं जैसा ही घटित होगा। रावण को धर्म, नीति आदि का शाब्दिक ज्ञान तो बहुत था पर व्यवहार में न लाता था, अमल नहीं करता था; उसके पास शक्तियां भी बहुत सी थीं पर अधर्मी होने के कारण वह शक्तियों का दुरुपयोग ही करता रहा, सदुपयोग का कभी विचार तक नहीं किया। यह ठीक है कि अंततोगत्वा उसका विनाश हुआ, पर विनाश से पूर्व उसने भूलोक व देवलोक को व्यथित करके रख दिया, भारी अव्यवस्था फैला दी। ... हमें सचेत होना होगा और देखना होगा कि कहीं हमारी अगली पीढी या स्वयं हम जाने-अनजाने रावण की नीतियों का अनुसरण तो नहीं कर रहे हैं!

आज के तथाकथित विकसित राष्ट्र भी कभी अपरिपक्व थे, उन्होंने आरम्भ में अपनी शक्तियों का दुरुपयोग भी किया, पर बहुत शीघ्र उनको यह एहसास हो गया कि उनका यह कदम आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। अनुभवों, पुराने श्रेष्ठ संस्कारों व उनके धार्मिक ग्रन्थ में दी गयी नैतिक शिक्षाओं ने उनके नेत्र समय से खोल दिए। अब वे शक्तिसम्पन्न राष्ट्र स्वयं चिंतित हैं कि उनके द्वारा अन्वेषित खोजें व शक्तियां गलत हाथों में न पड़ें व उनका दुरुपयोग न हो। सम्पूर्ण विश्व में विकसित व परिपक्व राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष आज इसी बात के लिए प्रयासरत हैं कि अन्वेषित शक्तियों का अच्छे कार्यों एवं लोकहित में ही प्रयोग हो। उदाहरण के लिए - परमाणु शक्ति। परिपक्व व सुलझे हुए देश इसका प्रयोग अब लोक हित में नाना प्रकार से कर सकते हैं या करते ही हैं, परन्तु यही शक्ति जब किसी अपरिपक्व हाथों में पहुँच जाये तो इसकी भयावहता की कल्पना सहज ही की जा सकती है। बुराई शक्ति में कतई नहीं होती, बुराई प्रयोग करने वाले में हो सकती है यदि वह अपरिपक्व व अधार्मिक हो तो। ... परिपक्वता प्राप्त करने हेतु हमें नीतिमान होना आवश्यक है। ... दृढ़ता से नीतिमान बनने के लिए हमें धार्मिक (righteous) बनना होगा। ... और धार्मिक बनने के लिए हमें अपने सहज स्वरूप को जानना अत्यंत आवश्यक है। स्वयं के सहज व खरे स्वरूप को जानने हेतु हम भारतवासियों के पास आध्यात्मिक ज्ञान का भण्डार पहले से ही है। आवश्यकता है तो बस उससे प्रेरित होने की, दैनंदिन जीवन में अमल में लाने की। ... और यह कार्य हमारे गुरुओं, हमारे अगुआओं व स्वयं हमारे लिए कोई मुश्किल नहीं, यदि हममें पर्याप्त इच्छाशक्ति पैदा हो जाये। इति।