भारतीय परम्परानुसार हम प्रायः आयु में अपने से अधिक बड़े लोगों, साधु-सन्यासियों, संतों, गुरुपद पर आसीत जनों के चरणों की वन्दना (चरण-स्पर्श) करते हैं और बदले में वे हमें आशीर्वाद देते हैं। चरण-स्पर्श करने वाले व्यक्ति में पैर छूते समय यह भाव होना चाहिए कि "मैं आपसे छोटा हूँ, सभी प्रकार से कनिष्ठ हूँ; अतएव स्वयं का अहम् कम करने हेतु तथा आगे की बहुमुखी प्रगति प्राप्त करने हेतु आशीर्वाद चाहता हूँ।" उत्तर में ज्येष्ठ व्यक्ति यही कहता है "कल्याण हो।" अर्थात् चरण-स्पर्श करने वाले व्यक्ति में तुलनात्मक रूप से वास्तव में कनिष्ठता का भाव, कोमलता, नम्रता एवं समर्पणभाव होना चाहिए। स्वयं का अहंभाव कम करने हेतु गम्भीरता होनी चाहिए, एक याचक का भाव होना चाहिए। ऐसे भाव जब होंगे, तब ही ज्येष्ठ व्यक्ति का आशीर्वाद फलीभूत होगा अन्यथा सम्पूर्ण क्रिया मात्र एक दिखावा बन कर रह जायेगी, किसी फल की प्राप्ति नहीं होगी।
श्रेष्ठ या खरे संत किसी साधक के चरण-स्पर्श करने मात्र की क्रिया से अधिक प्रसन्न नहीं होते, बल्कि वे वास्तव में साधक से प्रसन्न तब होते हैं जब वह 'धर्ममार्ग' पर चलता है, धर्माचरण करता है। गुरु की असली ख़ुशी शिष्य या सम्बंधित व्यक्ति के धर्ममार्ग पर चलने में ही निहित है। ऐसे ही ईश्वर को भी मात्र अपने यंत्रवत नामस्मरण, पूजा-पाठ व सम्बंधित विविध कर्मकाण्डों से उतनी प्रसन्नता नहीं मिलती, जितनी तब मिलती है जब उसका भक्त वास्तव में धर्माचरण करता है अर्थात् उसके दैनंदिन क्रियाकलापों में धार्मिकता (righteousness) झलकती है। अतः व्यावहारिक धर्माचरण ही सच्ची आराधना है गुरु अथवा ईश्वर की। फिर भी हम देखते हैं कि गुरु सदैव सभी को यह आशीर्वाद देते हैं कि "कल्याण हो।" यहाँ "कल्याण हो" का तात्पर्य यह है कि "हे याचक, तुम धर्ममार्ग पर चलो।" जब याचक धर्ममार्ग पर चल पड़ेगा तो उसका कल्याण तो सुनिश्चित हो ही जायेगा। अर्थात् खरे गुरु व संत सभी को धर्ममार्ग पर अग्रसर होने का खरा आशीर्वाद सदैव ही देते हैं।
अब कुछ चर्चा विपरीत स्थितियों पर भी ...। समाज में बहुत से अपरिपक्व, अपूर्ण, मायासक्त व ढोंगी साधु-संत भी हैं तथा बहुत से इसी प्रकार के याचक, शिष्य आदि भी। ऐसी अवस्था वाले साधु-संतों का स्वयं का अहं चरण-स्पर्श करवाने व छद्म आशीर्वाद देने से बढ़ता है, ऋणात्मक संचित होता है। अहंभाव के अतिरिक्त उनके इस कृत्य के पीछे अर्थ व यश का लोभ एवं आडम्बर भी छुपा होता है। इसी प्रकार से ढोंगी या स्वार्थी याचकों को भी संतों की चरण-वंदना करने से कोई लाभ नहीं मिलता, भले ही आशीर्वाद देने वाले संत खरे ही क्यों न हों। ऐसे याचकों का भी ऋणात्मक संचित बढ़ता है, वे अधोगति को प्राप्त होते हैं। याचना व आशीर्वाद में किसी प्रकार का ढोंग, स्वार्थ या अहं के जुड़े होने पर सम्बंधित ढोंगी व्यक्ति अंततः अधोगति को ही प्राप्त होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। परन्तु दोनों व्यक्तियों (दाता या याचक) में से कोई एक सही है, खरा है, तो वह सही व्यक्ति अवश्य लाभान्वित होकर स्वच्छ अभीष्ट को प्राप्त करेगा।
अतः चरण-स्पर्श करने वाले व्यक्ति को सदैव याचक की भूमिका में होना चाहिए व उसमें अपने अहं का परित्याग करने की गम्भीरता होनी चाहिए तथा आशीर्वाद देने वाले में भी यही भाव होना चाहिए कि याचक का वास्तविक कल्याण हो, वह धर्ममार्ग पर चल कर अभ्युदय साध्य कर सके। सम्पूर्ण कृत्य में अहं व आडम्बर का किसी भी प्रकार से पोषण नहीं होना चाहिए।
वर्तमान में ऐसे खरे गुरु या खरे शिष्य बहुत ही कम संख्या में हैं, जो वैयक्तिक स्वार्थ, अहं व आडम्बरों से परे हों, तभी तो गुरु-शिष्य परम्परा की गौरवपूर्ण संस्कृति वाले भारत की यह दशा है। संख्या-वृद्धि का एक ही उपाय है -- शेष बचे-खुचे खरे संतों व शिष्यों द्वारा क्रियमाण कर्म का शत-प्रतिशत उपयोग व साथ ही शिक्षा व साधना हेतु समय का भी शत-प्रतिशत उपयोग। इसी प्रकार का गम्भीर व ईश्वर को समर्पित प्रयास ही ईश्वरीय-राज्य की पुनर्स्थापना का आधार होगा। इति।