हमारे अब तक के मनन से हमें यह पता चलता है कि वास्तविक धर्म मूलतः आत्मानुभूति ही है। आत्मानुभूति अर्थात् आत्मा के गुणधर्मों की अनुभूति। विज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार भी ऊर्जा अक्षुण्ण है, उसका स्वरूप बदलता रहता है और यह आवश्यक नहीं कि ऊर्जा के प्रत्येक स्वरूप की या ऊर्जा के स्वरूप-परिवर्तन के प्रत्येक चरण की सम्पूर्णता के साथ शाब्दिक व्याख्या की जा सके। जैसे परमाणु ऊर्जा के या परमाणु की संरचना के सम्बन्ध में समझने-समझाने हेतु विज्ञान अनेकों काल्पनिक अवधारणाओं का या चित्रों का अवलम्ब लेता है। भौतिक जगत् से सम्बंधित अन्य अनेक रहस्यों की व्याख्या हेतु भी विज्ञान अनेकों ऐसी गणनाओं का आलंबन लेता है जिनका औचित्य वह पूरी तरह से सिद्ध नहीं कर सकता, परन्तु उनकी सहायता से सम्बंधित रहस्य अंततः काफी हद तक खुल जाता है और हम उस ऊर्जा को नाना प्रकार से उपयोग करने में काफी हद तक सक्षम हो जाते हैं। यह अलग बात है कि हमारा वह ज्ञान कभी परिपूर्ण नहीं होता व शोधन-संशोधन कार्य अनवरत चलता रहता है।
... ऊर्जा के अनेक रूपों की भाँति आत्मा भी एक प्रकार की अक्षुण्ण ऊर्जा है। इसके विषय में अध्ययन को ही हम अध्यात्मशास्त्र कहते हैं और आत्मा के अति सूक्ष्म होने के कारण या अदृश्य होने के कारण शब्दों में उसकी व्याख्या बहुत दुरूह है। शब्दों में हम इसको समझने-समझाने का प्रयास तो करते हैं, अनेकों कल्पनाओं-संकल्पनाओं आदि का सहारा भी लेते हैं, पर अंततः हम इसे अनुभूतियों द्वारा ही लगभग ठीक-ठीक (?) समझ पाते हैं। पुनः हमें अपनी अनुभूतियाँ किसी अन्य को समझा पाना अत्यन्त दुरूह होता है। यहाँ तक कि अपनी अनुभूतियों का औचित्य भी बहुधा हम ठीक से नहीं सिद्ध कर पाते हैं। ... फिर भी हमने शब्दों के माध्यम से पिछले १५ लेखों में इसी समझने-समझाने का प्रयास करने का साहस किया है और यथासंभव हमारा दृष्टिकोण विज्ञान पर आधारित रहा है, ठोस तथ्यों पर आधारित रहा है। उदाहरणार्थ - क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया का सिद्धांत। यहाँ और अधिक आत्म-स्तुति न करते हुए हम मूल विषय पर आते हैं।
चूँकि आत्मा व धर्म आदि केवल अनुभूतियों से समझ में आने वाले हैं, ... इस बात का गलत लाभ उठा कर वर्तमान में अधिकाँश धार्मिक संगठन, संस्थाएं आदि बहुत से अंधविश्वासों को बढ़ावा देते दीख रहे हैं। पिछले कई वर्षों से भारत में नैतिक मूल्यों का बहुत अधिक पतन हुआ है। धार्मिक संगठन व संस्थाएं भी इससे अछूते नहीं रहे हैं, बल्कि इनमें इस पतन का प्रभाव और अधिक तीव्रता से दिखलाई पड़ रहा है। मेरा मानना है कि धर्मोपदेशक या धर्म-शिक्षक का कार्य बहुत ऊंचे दर्जे का है, विशिष्ट कार्य है, व समाज भी इनके प्रति विशिष्ट आदर-भाव रखता है, थोड़ा लोभ और भय मिश्रित ही सही। तो इन धर्मोपदेशकों का मूल उद्देश्य यही होना चाहिए और यही होता भी था प्राचीन काल में कि सामान्य लोगों को लोभ व भय से परे ले जाकर, दण्ड-परितोष की भावना से मुक्त करा कर, संघ में सच्चे धर्म की स्थापना करना तथा उसकी खराई को अक्षुण्ण रखना; स्वयं के एवं अन्यों के ईश्वर व आत्मा सम्बन्धी ज्ञान अर्थात् अध्यात्मशास्त्रीय ज्ञान में लगातार वृद्धि कर निरंतर ईश्वर या प्रकृति के नियमों के और अधिक समीप पहुँचते जाना; धर्म के वाह्य स्वरूप के अवांछित तत्वों व भय-मिश्रित अंधविश्वासों की बेड़ियों को लगातार काटना, आदि-आदि। सारांश में यह कि ज्ञान की अगली अवस्थाओं या कक्षाओं में अनवरत अग्रसर होते / करते जाना।
परन्तु आज ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। विभिन्न धार्मिक संगठन अध्यात्मशास्त्र को और अधिक जटिल बनाने व दुरूह साबित करने में लगे हैं। बजाय अंधविश्वासों को दूर करने के, वे और अधिक अंधविश्वास बढ़ाने में लगे हैं। कारण स्पष्ट है कि आम लोगों को जब धर्म बहुत जटिल व साथ ही भौतिक लाभ पहुंचाने वाला लगेगा तब वे लोभवश इसकी ओर सहज ही आकृष्ट होंगे तथा दुरुहता जान पड़ने के कारण माध्यम बनेंगे आज के तथाकथित धार्मिक संगठन व उनसे सम्बद्ध व्यवसायिक धर्मगुरु। सच में आज धार्मिक संगठनों व धर्मगुरुओं ने धर्म की ही कुछ विशिष्टताओं (जैसे - धर्म का अनुभूतिजन्य होना) का लाभ उठा कर स्वयं को बहुत अधिक उन्नत यहाँ तक कि साक्षात् ईश्वर प्रचारित करना आरम्भ कर दिया है। आम लोगों को भौतिक व मानसिक लाभ का लालच देकर मन्त्र, दीक्षा व अनेक प्रकार की सामग्रियाँ जैसे - तेल, साबुन, शैंपू, मंजन; गृह-शांति व धन-वृद्धि हेतु अत्यधिक मंहगे तावीज, पत्थर, कवच आदि विक्रय करना आरम्भ कर दिए हैं। किस प्रकार पूरी तरह से व्यवसायिकता पर उतर आये हैं ये तथाकथित धर्मगुरु, यह सब लोग जानते हैं, पर निज लोभवश व सामाजिक लोक-लाज के भयवश लोग अज्ञान के पाश में जकड़े हैं, सम्मोहन की अवस्था में हैं। और तथाकथित धर्मगुरु उनकी इसी अवस्था का लाभ उठा कर स्वयं व अपने संगठन को मालामाल कर रहे हैं। सम्मानीय व्यापार का माध्यम बन गया है धर्म। कदाचित् धर्म व ईश्वर की इससे बड़ी विडम्बना नहीं हो सकती।
वैसे अपवाद तो सदैव होते हैं, पर सामान्यतः पूर्वकाल में धर्मगुरु व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले नहीं होते थे। बहुत अधिक अतीत में न जाकर कुछ पीछे ही देखें तो हमें समर्थ रामदास, स्वामी रामकृष्ण, व आर्य चाणक्य जैसे श्रेष्ठ गुरु दीखते हैं, जिन्हें स्वार्थ, धन-लोलुपता व सांसारिक यश का लोभ छू तक नहीं गया था। इनमें से दो गुरुओं के शिष्य तो महान राजा हुए और वे अपना सर्वस्व अपने गुरु पर न्योछावर करने को सदैव तत्पर थे, परन्तु उनके गुरुओं ने कभी भी भौतिक लोभ को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और राजसी सुख की उपलब्धता होते हुए भी अतिसाधारण जीवन व्यतीत कर श्रेष्ठ गुरु का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया। सच्चा धर्मोपदेशक या गुरु पद का व्यक्ति वास्तव में सभी प्रकार के भौतिक वैभव से सर्वथा परे होता है या किसी सहज वैभव को अपनाते हुए भी वह अन्य आकांक्षाओं, लोलुपताओं आदि से स्वयं व निज संगठन को परे रखता है तथा सुख-सामग्रियों के अभाव से कभी भी तनिक सा भी परेशान नहीं होता है।
परन्तु आज के धर्मगुरुओं को देखिये -- पूरी तरह से व्यावसायिक हो गए हैं। टेलीविजन के कम से कम सात-आठ चैनलों पर २४ घंटे लगातार होने वाला प्रसारण इन्हीं की कृपा से संभव हो पा रहा है। वातानुकूलित स्टूडियो में, सज-धज कर, डिजाइनर परिधान धारण कर, बढ़िया से आसन पर विराजित हो, फूल-माला लगे माइक्रोफोन पर जब ये लच्छेदार भाषा में अपना सम्मोहित कर देने वाला प्रवचन देते हैं तो देखते ही बनता है। मानों देवता पुष्प-वर्षा कर रहे हों। भौतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, वातानुकूलित गाड़ियाँ हैं, वैभवशाली मठ हैं, आश्रम हैं, अधिकांशतः हवाई यात्रा करते हैं। बहुत सी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन भी करते हैं या बाहर किसी से बनवाकर अपना ठप्पा लगा कर विक्रय करते हैं, वह भी बिना किसी उत्पादन-कर के, क्योंकि उत्पाद तो साधकों हेतु ही बनाए जाते हैं, विक्रय हेतु नहीं (?), ऊपर से जो चढ़ावा आता है सो अलग। कुम्भ या अन्य किसी अवसर पर जब प्रयाग, काशी या हरिद्वार में अस्थायी रूप से निवास करना पड़ता है तो इन तथाकथित धर्मगुरुओं के लिए अस्थाई मगर पक्की 'अटैच लैट्रिन-बाथरूम के साथ टाईल युक्त वातानुकूलित कुटियाएँ' बनाई जाती हैं। मात्र कुछ दिन के प्रवास हेतु लाखों रुपया फूंक दिया जाता है। रहन-सहन की प्रणाली में परिवर्तन व साफ़-सफाई से रहना कोई गलत बात नहीं, यह ठीक है, पर इन सब के प्रति आसक्ति भाव के कारण अनावश्यक व्यय व दिखावा निंदनीय है।
यहाँ एक बात मैं अच्छे से स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं मात्र इन सब कृत्यों के विरोध में यह सब नहीं लिख रहा हूँ वरन इन कृत्यों के पीछे का मंतव्य ही विरोध-केंद्र है मेरा। ... और वर्तमान धर्मगुरुओं के असली मंतव्य से आप सब भली-भांति परिचित हैं पर लोभवश, भयवश उसे मानना नहीं चाहते। आपकी इसी मानसिक दुर्बलता व विकलांगिता का लाभ ही वे उठा रहे हैं। विज्ञान व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास का धर्म के क्षेत्र में आज जम कर दुरुपयोग हो रहा है। उथली (सतही) सकाम-भक्तियुक्त भक्तों (तीव्र-आसक्त भक्तों ) की भीड़ से धार्मिकता की सूजन निरंतर बढ़ती जा रही है। ... कारण हैं - तीव्र आसक्तियुक्त आज के अधिकाँश धर्मगुरु। .. मेरे विचार से धर्म बिकाऊ नहीं होता। धर्म-शिक्षा में दिया ही जाता है, लिया नहीं जाता। खरा गुरु जीवन-यापन हेतु धर्म का व्यापार नहीं करता। जीवनयापन हेतु न्यूनतम आवश्यक वस्तुएं स्वतः ही बिना किसी विशेष प्रयास के प्राप्त हो जाती हैं, यदि ऐसा नहीं भी होता है तो खरा धर्म-शिक्षक कबीर की भांति जुलाहे का, ईसा मसीह की भांति बढ़ई का, जैसे कार्य करने में कोई संकोच नहीं करेगा। जन कल्याण हेतु धर्म-शिक्षा अर्थात् 'धर्म' हेतु ही धर्म-शिक्षा तथा भौतिक शरीर की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किसी व्यवसाय / नौकरी आदि के बीच किसी प्रकार का कोई टकराव नहीं होता। हाँ इतना निश्चित है कि सच्चा धर्म-शिक्षक सांसारिक यश व धन का भूखा नहीं होता और अनावश्यक संग्रह व खर्च में उसकी कोई रुचि नहीं होती। उसकी आवश्यकताएं सीमित होती हैं और वह दिखावों से बिलकुल परे रहता है।
क्या वर्तमान में ऐसा कोई प्रसिद्ध गुरु या धर्म-शिक्षक आपकी दृष्टि में है जो इन सब गुणों से संपन्न हो। संभवतः नहीं। क्योंकि आज के धर्म-शिक्षक धर्मशिक्षा को व्यापार व यश का माध्यम या कम से कम वैयक्तिक यश का साधन तो मानते ही हैं। तो सम्बंधित आसक्तिवश वे निज स्वार्थपूर्ति में लिप्त हैं। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं कि उनके कृत्यों से धर्म व स्वयं उनके आध्यात्मिक संचित की कितनी हानि हो रही है। उन्हीं के कृत्यों के कारण आज आम लोग धर्म के खरे स्वरूप से परे जाते जा रहे हैं व धर्म के अन्य छद्म रूपों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। यथार्थ तो यही है कि वर्तमान धर्मगुरुओं के पूर्वकर्मों का यह सुन्दर फल है कि आज उन्हें धर्म-शिक्षक जैसा उच्च पद प्राप्त हुआ है, इतने लोग उनको सुनते हैं, उनके अनुयायी हैं। विरलों को यह सौभाग्य प्राप्त होता है। ... परन्तु कदाचित् उनके वर्तमान कर्म उस सुन्दर फल में वृद्धि करने वाले प्रतीत नहीं हो रहे हैं। ईश्वर उनको सद्-बुद्धि प्रदान करे जिससे वे स्वयं के वर्तमान क्रियमाण को शोधित-संशोधित व परिष्कृत कर वास्तव में ईश्वर के कार्य में सहभागी बनें। उनके श्रेष्ठ संवाहक बनने पर ही हमारे संघ की शीघ्र उन्नति सम्भव होगी व नैतिक मूल्यों का पुनः उत्थान होगा। उदाहरण के लिए ऊपर उल्लेखित तीन खरे गुरुओं के मात्र एक-एक शिष्य (शिवाजी, विवेकानंद व चन्द्रगुप्त) समाज हित में बड़ा कार्य करने में समर्थ हुए थे। उन शिष्यों ने व उनसे भी बढ़कर उनके गुरुओं ने स्वयं को छोटा (नम्र व अनासक्त) बनाये रखा, तब ही ईश्वर ने उनको बड़ा किया अर्थात् उनके माध्यम से बड़ा कार्य करवाया। इति।