मैं कई धार्मिक मार्गदर्शकों से अक्सर मिला करता हूँ, विभिन्न सत्संगों में भी जाता रहता हूँ। वर्तमानकाल में भारत में मैंने लगभग सब धार्मिक दर्शनों (विचारों) में एक समान बात देखी है कि आज किसी व्यक्ति में धार्मिकता विद्यमान होने का पैमाना या मापदण्ड सर्वप्रथम उस व्यक्ति का खान-पान आदि ही माना जाता है। लोग इसी प्रकार से बात करते हैं कि अमुक व्यक्ति बहुत अच्छा व धार्मिक वृत्ति का है, क्योंकि वह तम्बाकू, मद्यपान व सामिष भोजन आदि से बिलकुल परहेज रखता है! धार्मिकता के मापदण्ड की सामान्यतः जब ऐसी सोच समाज में विकसित हो जाती है या हो ही गयी है, तो इन वस्तुओं का यदा-कदा सामयिक सेवन करने वाला व्यक्ति यह विचार करने को बाध्य हो जाता है कि या तो तथाकथित धार्मिक मापदण्ड गलत हैं और सम्बंधित व्यक्ति ढोंगी है, या मैं ही अत्यंत मैला हूँ। तात्पर्य यह कि उसमें खीज, क्रोध या हीन भावना का अंकुरण हो सकता है। होता तो बहुधा यही है कि वह किसी भी तथाकथित धार्मिक सम्प्रदाय या समाज से भलीभांति घुलमिल नहीं पाता। जग-निन्दा से बचने या सामाजिक निर्बन्धों के चलते वह विभिन्न सत्संगों या धार्मिक कृत्यों में सहभागी तो होता है, पर ऊपरी तौर पर ही। मानसिक विरोध या हीन भावना से वह परे नहीं रह पाता। कितनी घोर विडम्बना है कि आज किसी व्यक्ति में धार्मिकता का अनुमान मात्र उसके खान-पान से लगाया जाता है, उसके अन्य अच्छे कृत्यों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है, उसके हृदय की गहराइयों में नहीं झाँका जाता है! उस व्यक्ति के मन में अन्यों के प्रति कैसे विचार चलते हैं, अन्यों के प्रति उसका आचरण कैसा है, वह सत्य और न्याय के पथ पर चलता है कि नहीं, नैतिक गुणों का कितना धनी है अर्थात् यथार्थ सदाचार उसके कृत्यों से परिलक्षित होता है अथवा नहीं, इन सब बातों पर कोई धार्मिक सौदागर गौर नहीं करता है।
जब धर्म के क्षेत्र में तथाकथित मूल्यांकन करने वालों द्वारा सदाचार के उपरोक्त पहलुओं पर ध्यान न देकर केवल खान-पान जैसे सामान्य कृत्यों पर ही प्रथम विचार किया जाता है तो अधिकतर व्यक्ति उनके संसर्ग में आने से पहले ही वाह्य धर्म कृत्यों से किनारा कर लेते हैं। कुछ केवल ऊपरी तौर पर धार्मिक कृत्यों में सहभागी होते हैं व छद्म रूप से स्वयं को परहेजी बताते हैं। और कुछ ऐसे भी होते हैं जो वर्ज्य (?) खान-पान को त्याग कर इन धार्मिक लोगों की संगत ग्रहण करते हैं। पर बहुत शीघ्र ही उनका मोह भंग हो जाता है, जब उनको यह पता चलता है कि ऊपर से कुछ वाह्य कृत्यों से वर्जन रखने वाले ये तथाकथित धार्मिक भीतर से या अन्य कृत्यों की दृष्टि से कितने खोखले व मैले हैं। ... और तब व्यक्ति न केवल उस छद्म सत्संग का परित्याग कर देता है, वरन प्रचलित धर्म के प्रति उसमें निराशा व क्षोभ उत्पन्न हो जाता है, फलस्वरूप वह अन्यों को भी उनके विरुद्ध करने हेतु प्रेरित करता रहता है। ... उधर वे तथाकथित धार्मिक भी उस व्यक्ति के विरुद्ध कुछ ऐसा ही अभियान सर्वदा चलाते रहते हैं, उसकी खान-पान पद्धति को कोस कर, निम्न व हेय ठहरा कर, उसको पापी-दुराचारी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।
मेरे विचार से यदि हम धर्म के लक्षणों में व्यक्ति या समाज की खान-पान संस्कृति को सर्वप्रथम रखते हैं, तो हमें भारत के कुछ भूभाग या जनसंख्या को छोड़ कर लगभग शेष विश्व को अधर्मी घोषित करना पड़ेगा, और यदि हम ऐसा करते हैं तो हमसे बड़ा मूर्ख व अहंकारी और कोई नहीं होगा! लगभग सभी विकसित देशों व उनके भले नागरिकों को केवल खान-पान के आधार पर अधार्मिक घोषित कर हम केवल अपने अहम् का ही पोषण करेंगे, इससे यथार्थ नहीं बदल जायेगा। मेरा दृढ़ता से यह मानना है कि खान-पान सम्बन्धी वाह्य कृत्य मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करते हैं -- (१) जलवायु, (२) कार्य की परिस्थितियां, (३) संस्कृति व धार्मिक विश्वास।
(१) जलवायु और खान-पान पद्धति का परस्पर बहुत गहरा सम्बन्ध है। बहुत से देशों में तापमान बहुत कम (अधिकांशतः ५ डिग्री सेल्सियस से भी कम) और कभी शून्य से भी कम रहता है, बहुत से स्थानों पर वनस्पतियों आदि का उत्पादन अधिक नहीं हो पाता है, वहां के निवासियों के लिए उदर-पूर्ति हेतु सामिष भोजन व शरीर को गर्म रखने हेतु मद्य (liquor, wine, alcohol) का दवा के रूप में नियंत्रित व सुसभ्य सेवन अनिवार्य सा हो जाता है, अन्य सस्ते विकल्प के रूप में कुछ लोग नियंत्रित धूम्रपान भी करते हैं। यह सब उनके जीवित, स्वस्थ व सामान्य रहने के लिए आवश्यक सा होता है। कुछ गर्म परन्तु तटीय क्षेत्रों में, मरुस्थलों में, बंजर भूभागों में व पर्वतीय क्षेत्रों आदि में खेती बहुत दुरूह या असंभव होती है, अतः वहां के निवासियों को अनाज, दालें, खाद्य वनस्पतियाँ सरलता से उपलब्ध नहीं होतीं और वे अधिकतर सामिष भोजन पर ही निर्भर रहते हैं। वैसे यह सब जो मैं लिख रहा हूँ, उन तथ्यों से अधिकांश लोग भली-भांति परिचित ही होंगे, अतः विचार के अगले बिन्दु पर चलते हैं।
(२) कार्य की परिस्थितियां भी खान-पान पर बड़ा असर डालती हैं। जैसे - जो सात्त्विक माहौल में रहते हैं, ब्राह्मण वर्ण का कार्य करते हैं, धर्म-शिक्षण या विद्यादान आदि की सेवा करते हैं, उन्हें शारीरिक श्रम अधिक नहीं करना पड़ता, अतः वे सामान्य निरामिष भोजन पर आश्रित रह अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं। सामिष भोजन व तम्बाकू, मद्य आदि रज-तमात्मक हैं। संभवतः इसीलिए संस्कृति व धर्मानुसार भी ब्राह्मण वर्ण में सामिष भोजन व धूम्र / मद्यपान आदि वर्जित माना गया है! पर जिन लोगों को लगातार रज और तम की परिस्थितियों में रहकर कठोर श्रम करना पड़ता है, उन्हें रज व तम के प्रभाव से जूझने हेतु रज-तमात्मक भोजन की आवश्यकता पड़ती है। पुरानी कहावत है - लोहे को लोहा ही काट सकता है! बहुत अधिक शारीरिक श्रम एवं कठोर व विषम कार्य परिस्थितियों के बीच कार्य करने वाले व्यक्तियों को तुंरत व अधिक बल-उर्जा आदि हेतु सामिष भोजन व अन्य मद्य, तम्बाकू जैसे उत्तेजक पदार्थों का सीमित सेवन करना कभी-कभी अपरिहार्य हो जाता है। पर जागरूक, सुसंस्कृत व सचेत रहने वाले इन पदार्थों के अनिष्टकारी पहलुओं से यथासंभव बचे रहते हैं। इन परिस्थितियों में कार्य करने वालों के उदाहरण के रूप में हम मुख्यतः सैनिकों व अन्य क्षात्र वर्ग तथा कुछ हद तक वैश्य व शूद्र-वर्ग को भी ले सकते हैं।
भारत में रज-तमात्मक परिस्थितियों में कार्य करने वालों में मुख्यतः या केवल भारतीय सेना के लोग ही स्थिति-अनुरूप आवश्यक रज-तमात्मक वस्तुओं का नियमित सेवन करने के बावजूद सुसभ्य व जागरूक हैं; अन्य क्षात्र वर्ग, वैश्य वर्ग या शूद्र वर्ग में सेवन के मामले में अनुशासनहीनता व अति दिखाई पड़ती है। संभवतः यह हमारी संस्कृति की ही कमी है या हम परिपक्व नहीं हैं।
(३) किसी समाज की खान-पान पद्धति पर उस भूभाग की संस्कृति व धार्मिक विश्वास भी बहुत प्रभाव डालते हैं। संस्कृति को ही ले लें तो कहीं खुशियों या कुछ विशेष अवसरों पर मद्य का संतुलित सेवन शुभ व अनिवार्य माना जाता है, तो कहीं पर अन्य कृत्य किये जाते हैं। ऐसे ही संस्कृति दर संस्कृति बहुत से अन्य कृत्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं। कोई कृत्य एक स्थान पर सभ्यता की निशानी माना जाता है, तो किसी अन्य स्थान पर वह असभ्यता का सूचक होता है। पर फिर भी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस कृत्य या किसी भी कृत्य को करते समय हमारे दिल की भावनाएं कैसी हैं, वे स्वच्छ हैं या नहीं स्वयं या अन्यों के प्रति?? कुछ भी करते समय यदि हममें मानसिक व आत्मिक स्वच्छता कायम रहती है, अपने व दूसरों के स्थूल देह को कोई क्षति नहीं पहुंचा रहे होते, यहाँ तक कि भावनाएं भी आहत न हों इस बात का भी पूरा ध्यान रखते हैं, तो माना जा सकता है कि उस समय हम अधार्मिक नहीं हैं; वह तो बस संस्कृति-अंतर्गत शारीरिक व मानसिक प्रसन्नता हेतु कृत्य कर रहे होते हैं।
भारत में पहले धर्म और संस्कृति एक ही थे। पूर्वकाल में लोग बहुत धर्मभीरु थे, धर्म के नाम पर कुछ भी करने को तत्पर रहते थे। अतः उस काल में तत्कालीन प्रबुद्धों व ज्ञानियों को सर्वहित में जो उचित जान पड़ता था, उसे वे धर्म के साथ जोड़ देते थे। इस प्रकार लोग अनुशासित रहते थे, साथ ही सदाचारी रहते थे। पर कालांतर में सर्वसाधारण की मन, बुद्धि आदि का बहुत विकास हो जाने से लोग निरंकुश हो गए व मनमाना आचरण करने लगे। समयानुसार व परिस्थिति-अनुसार योग्य मार्गदर्शन के अभाव में उन्हें लगने लगा कि धर्म के साथ खान-पान का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि हमारे ही धार्मिक ग्रंथों में व विचारकों के वक्तव्यों में कहीं-कहीं बहुत विरोधाभास था। वैज्ञानिक शिक्षा कुछ और ही कहती थी।
पाश्चात्यों और विकसित देशों ने वैज्ञानिक मतानुसार अपनी जीवन-शैली व खान-पान में उचित परिवर्तन किये। अनुचित पर वे विविध प्रतिबन्ध भी लगाते रहते हैं, जैसे सार्वजनिक स्थानों पर धूम्र व मद्यपान पर प्रतिबन्ध; इसके अतिरिक्त फास्ट फ़ूड व कोल्ड-ड्रिंक आदि के सेवन को हतोत्साहित करना, खाद्य-पदार्थों के उच्च-मानक तय करना आदि।
हम भारत के पुरातन धर्मग्रंथों का सूक्ष्म अवलोकन करें तो पायेंगे कि कालानुसार, परिस्थिति-अनुसार हमारे तत्कालीन धर्माप्रमुखों की सोच धीरे-धीरे बदली, फलस्वरूप नए सम्प्रदायों व नए धर्मग्रंथों का सृजन हुआ, क्योंकि उसी सम्प्रदाय में रहते हुए परिवर्तन करना बहुत दुष्कर होता है। भारत में पाए जाने वाले परस्पर विरोधी विभिन्न धार्मिक दर्शन, काल-परिवर्तन की ही उपज हैं। पर फिर बीच में जड़ता का एक बहुत बड़ा काल आ गया; बस वहीं से हम पिछड़ गए, हमारी सोच पिछड़ गयी। पिछड़ने के कारण अब हम बस अन्धानुकरण ही करते हैं, कृत्य के साथ संलग्न अनुशासन व सभ्यता का ध्यान कतई नहीं रखते हैं।
इतने परिवर्तनों के बाद भी भारत में वर्तमान धार्मिक सम्प्रदाय या धर्म-मार्गदर्शक अभी भी खान-पान सम्बन्धी कुछ जड़ मान्यताओं पर ही विश्वास करते-कराते हैं और उन्हें ही धार्मिकता का सबसे बड़ा पैमाना मानते हैं। यह हमारी जड़ता का द्योतक है। यह बात ठीक है कि यदि हमें विश्वास है कि निज-धर्मानुसार सामिष वर्ज्य है, तो उससे परहेज करना चाहिए, पर अन्य कोई अपने वैयक्तिक विश्वास के चलते यदि सामिष ग्रहण कर रहा हो, तो हमें उसके विश्वास को कमजोर या हेय नहीं समझना चाहिए। वाह्य धर्म-कृत्य व विश्वास समुदाय दर समुदाय भिन्नता लिए होते हैं।
बाइबल में इस विषय पर बहुत सुन्दर लिखा है -- "मत्ती" के अध्याय-१५ के वचन संख्या १७ से १९ -- "१७ क्या नहीं समझते, कि जो कुछ मुंह में जाता है, वह पेट में पड़ता है, और सण्डास में निकल जाता है? १८ पर जो कुछ मुंह से निकलता है, वह मन से निकलता है, और वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। १९ क्योंकि कुचिन्ता, हत्या, परस्त्रीगमन, व्याभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा मन से ही निकलती है।" .... इसके अतिरिक्त "रोमियों" के अध्याय-१४ के वचन संख्या -- १ से ३, ६, १४, १५, १९ से २३ में लिखा है -- "१ जो विश्वास में निर्बल है, उसे अपनी संगति में ले लो; परन्तु उसकी शंकाओं पर विवाद करने के लिए नहीं। २ क्योंकि एक को विश्वास है कि सब कुछ खाना उचित है, परन्तु जो विश्वास में निर्बल है, वह साग-पात ही खाता है। ३ और खाने वाला न-खाने वाले को तुच्छ न जाने, और न-खाने वाला खाने वाले पर दोष न लगाये; क्योंकि परमेश्वर ने उसे ग्रहण किया है। ६ जो किसी दिन को मानता है, वह प्रभु के लिए मानता है; जो खाता है, वह प्रभु के लिए खाता है, क्योंकि वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है, और जो नहीं खाता, वह प्रभु के लिए नहीं खाता, और परमेश्वर का धन्यवाद करता है। १४ मैं जानता हूँ, और प्रभु यीशु से मुझे निश्चय हुआ है कि कोई वस्तु अपने आप से अशुद्ध नहीं, परन्तु जो उसे अशुद्ध समझता है, उसके लिए अशुद्ध है। १५ यदि तेरा भाई तेरे भोजन के कारण उदास होता है, तो फिर तू प्रेम की रीति से नहीं चलता : जिसके लिए मसीह मरा उसको अपने भोजन के द्वारा नाश न कर। १९ इसलिए हम उन बातों का प्रयत्न करें, जिनसे मेल-मिलाप और एक-दूसरे का सुधार हो। २० भोजन के लिए परमेश्वर का काम न बिगाड़ : सब कुछ शुद्ध तो है, परन्तु उस मनुष्य के लिए बुरा है, जिसको उसके भोजन करने से ठोकर लगती है। २१ भला तो यह है, कि तू मांस न खाए और न दाख-रस पिए, न और कुछ ऐसा करे, जिससे तेरा भाई ठोकर खाए। २२ तेरा जो विश्वास हो, उसे परमेश्वर के सामने अपने ही मन में रख; धन्य है वह, जो उस बात में, जिसे वह ठीक समझता है, अपने आप को दोषी नहीं ठहराता। २३ परन्तु जो सन्देह करके खाता है, वह दण्ड के योग्य ठहर चुका : क्योंकि वह निश्चित धारणा से नहीं खाता और जो कुछ विश्वास (निश्चय) से नहीं, वह पाप है।।"
अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि आधुनिक विज्ञान व धार्मिक विश्वास दोनों में सामंजस्य बैठाते हुए हमारी जो निश्चित या योग्य धारणा (निश्चय) बने, विश्वास बने, उसी के अनुरूप हमें अपनी खान-पान पद्धति विकसित करनी चाहिए। ... और इस प्रकार विश्वासानुसार बरतते हुए अपने कृत्य को कमजोर या हेय नहीं समझना चाहिए, जग-निन्दा के भय से उसे छुपाना नहीं चाहिए, यह गलत होगा। इसके अतिरिक्त अन्यों के विश्वास को भी कमजोर न समझते हुए हमें उनका उचित आदर करना चाहिए। नम्रता का गुण दिखाते हुए, परेच्छा का ध्यान रखते हुए यदि हम अपना कोई कृत्य अस्थाई रूप से स्थगित कर सकते हैं तो अवश्य करना चाहिए। मैं परेच्छानुसार वर्तन में अन्यों के विश्वासानुसार निज खान-पान में कुछ जोड़ने की बात नहीं कर रहा हूँ, वरन अस्थायी तौर पर कुछ त्यागने की बात कर रहा हूँ। संभवतः यह सबके लिए सरल व अनापत्तिजनक रहेगा। नम्रता के अतिरिक्त यह कृत्य हमारे लचीलेपन व व्यापकता के गुण को प्रकट करेगा।
हाँ, ऊपर एक स्थान पर, मेरे विचार से प्रारम्भ में ही कहीं, मैंने प्रसंगवश रज-तमात्मक परिस्थिति को रज-तम से, या लोहे को लोहे से काटने की बात लिखी है। इसे व्यापक रूप से इस प्रकार समझने का प्रयत्न करें -- शारीरिक, मानसिक या जलवायु-सम्बन्धी कठिन / विषम परिस्थितियां माने रज-तम अर्थात् लोहा; और वह लोहा लकड़ी के एक मेज पर रखा है। लकड़ी का मेज माने हमारे सत्त्व गुण। लोहे (रज-तम) को हम एक और लोहे (रज-तमात्मक पदार्थ जैसे - सामिष भोजन व मद्य आदि) से काटते हैं अर्थात् दूर करते हैं। पर हमें यह अवश्य ध्यान रखना होगा कि काटने वाले लोहे की आरी आवश्यकता से अधिक न चल जाये, अन्यथा लकड़ी की मेज भी कट जायेगी अर्थात् हमारे सत्त्व गुण क्षतिग्रस्त हो जायेंगे। अतः रज-तम को काटने के लिए सन्तुलित रज-तम का ही प्रयोग करना चहिये, अन्यथा सत्त्व को हानि पहुँच सकती है। हमें सत्त्व को हर हाल में बचा कर रखना है। परिस्थिति-अनुसार सब कुछ उचित हो सकता है, पर समतौल के साथ, संतुलन के साथ। ... और जैसे ही हमें यह भान हो कि अमुक वस्तु हमारे स्वयं या अन्यों के लिए अब घातक सिद्ध हो रही है, तुंरत उसका परित्याग कर देना चाहिए। वैसे हमारे वैज्ञानिक और उन्नत देशों की सरकारें इस प्रकार की सोच के लिए अब निरन्तर जागरूक रहते हैं। समय-समय पर वे लोकहित हेतु खान-पान की नयी नीतियाँ प्रतिपादित करते रहते हैं। हमें चाहिए कि हम उनकी सिफारिशों, सलाहों व अनुमोदनों के प्रति सचेत रहे व समय रहते उन्हें अपने व्यवहार में शामिल करें।
... पर पुनः यह अच्छे से ध्यान में रखें कि खरा धर्म हमारे खान-पान से नहीं, वरन दूसरों के प्रति हमारी सोच व हमारे व्यवहार / आचरण आदि से परिलक्षित होता है। इस विषय में संक्षिप्त सारगर्भित विचार आप पहले भी एक लेख 'आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ अर्थात्' में पढ़ चुके हैं। इति।