Monday, September 13, 2010

(३८) खुशियाँ मनाना

प्रायः हम लोग खुशियाँ मनाने के लिए कोई न कोई कारण, बहाना अथवा विशेष अवसर खोजते हैं, जैसे - त्यौहार, जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ आदि। लोग ऐसे विशेष अवसरों पर अन्यों को न्योता देते हैं एवं स्वयं भी दूसरों के यहाँ जाते हैं अथवा पारिवारिक सदस्यों के साथ ही वह विशेष अवसर मनाते हैं। इसमें तीज-त्यौहारों का औचित्य तो ठीक से समझ में आता है कि समाज के सभी लोग इनके बहाने कम से कम परिवार के स्तर पर इकट्ठा होकर उत्सव मनाते हैं, खुशियाँ बांटते हैं और पूरा समाज रोजमर्रा की जिंदगी से हट कर हर्ष व उत्साह से सराबोर हो जाता है। इन धार्मिक उत्सवों के पीछे निहित पवित्र सन्देश एवं शिक्षा का लाभ भी जाने-अनजाने हमें मिलता ही है। इसमें सबसे अच्छी बात यह है कि रुपए-पैसे या भेंट आदि का लेनदेन न के बराबर ही होता है। वैसे कुछ लोगों ने तीज-त्यौहारों में भी व्यर्थ के दिखावों और लेनदेन की परम्परा डाल दी है परन्तु भारत में त्यौहारों की कुल संख्या को देखते हुए इनका प्रतिशत फ़िलहाल नगण्य ही है। .... लेकिन जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगांठ समारोह आदि जैसे कुछ आयोजन ऐसे हैं जो वर्तमान समय में आपसी प्रेम के स्थान पर औपचारिकताओं को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन आज भारतीय समाज में लोगों को एक-दूसरे से मिलने और खुशियाँ मनाने का कोई दूसरा रास्ता सूझता ही नहीं है। उदाहरण के लिए -- मेरे एक मित्र से मेरी भेंट अक्सर (लगभग हर २०-२५ दिन में) सब्जीमंडी में हो जाती है; सब्जी खरीदते हुए ही हम आपस में कुछ मिनट बात करते हैं और फिर चल देते हैं। चूँकि मेरा घर सब्जीमंडी से बिलकुल समीप ही है अतएव अनेक बार उनसे अनुरोध किया कि 'कभी कुछ समय निकालें, घर पर बैठ कर आराम से कुछ बातें की जाएं, इस बहाने परिवार के अन्य सदस्यों से मिलना भी हो जाएगा'; इस पर उनका जवाब होता है कि 'आप कुछ करिये तो आएं' अर्थात् 'कुछ समारोह जैसा आयोजित कीजिए तो सपरिवार आएं'। .... ऐसा नहीं है कि उनके पास समय का अभाव है या हम दोनों के विचार मेल नहीं खाते। हम दोनों की पटती भी है फिर भी ...., शायद आजकल हर चीज का 'ट्रेंड' बदल गया है; हम लोग संकुचित और औपचारिक होते जा रहे हैं!

पहले जब लोग खाली होते थे अर्थात् काम के समय से निवृत्त होकर जब समय पाते थे तो एक-दूसरे के घर यूँ ही मिलने चले जाया करते थे; फिर तब यदि नाश्ते का समय होता तो नाश्ता आदि कर लेते थे, भोजन का समय होता तो भोजन आदि कर लेते थे, और कुछ नहीं तो ठंडा पानी या चाय आदि ही पी लेते थे और संतुष्ट हो जाते थे। खाली समय की इन बैठकों में खाने-पीने की अपेक्षा प्रमुख लक्ष्य होता था - आपसी आमोद-प्रमोद, ढेर सारी बातें और परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान। आपसी प्रेमभाव बढ़ाने के अतिरिक्त ये बैठकें हमारे सामान्य ज्ञान की वृद्धि में भी बहुत सहायक सिद्ध होती थीं। इस प्रकार की गतिविधि से व्यक्ति सामाजिक रूप से एक-दूसरे के निकट आता था, एक-दूसरे को समझ पाता था, बिना कारण या अवलम्ब के खुशियाँ मना पाता था, स्वस्थ हास-परिहास होता था, मन हल्का और प्रसन्न हो जाता था; क्योंकि रोजमर्रा की व्यावसायिक मशीनी जिंदगी से हटकर ये गतिविधियां पैसा कमाने के उद्देश्य से नहीं वरन जिंदगी को हल्का-फुल्का और खुशनुमा बनाने के लिए होती थीं। जबकि दूसरी ओर हम अन्य औपचारिक समारोहों को देखें तो पाएंगे कि उनको मनाने का कुछ कारण है, वे किसी बात पर अवलम्बित हैं, वे नियत दिनांक पर ही मनाये जा सकते हैं और उनमें औपचारिकताएं भी बहुत सी आ गई हैं तथा नित नवीन औपचारिकताएं बढ़ती ही जा रही हैं। इस प्रकार के आयोजन चाहे पारिवारिक स्तर पर हों अथवा सामाजिक स्तर पर, दोनों ही मामलों में रुपए-पैसे के ऊपर निर्भरता आ ही जाती है, भेंट आदि लेना-देना आवश्यक सा होता है और वह भी अधिकाधिक दिखावे के साथ! भेंट-उपहारों को प्रेम से अधिक कीमत की कसौटी पर कसा जाता है, आपसी लगाव के आंकलन का तरीका बदलता जा रहा है! यदि कोई इससे इन्कार भी करे तो भी इतना तो स्वीकार करेगा ही कि मेहमानों को मेजबान से अधिकतम की अपेक्षा होती है और मेजबान को मेहमान से! समारोह के दौरान या बाद में कभी न कभी मेजबान या मेहमान के आर्थिक स्तर की चर्चा होती अवश्य है और अन्य समारोहों के साथ तुलना भी की जाती है। चर्चाओं में अक्सर इस तरह के वाक्य सुनाई पड़ते हैं - "मैंने तो उनके यहाँ इतना दिया था, उन्होंने तो उसकी तुलना में बहुत कम दिया; मेरा उपहार महंगा था, उन्होंने तो सस्ता सा पकड़ा दिया; वे कंजूसी कर गए; वे मतलबी हैं; लगता है कहीं और से मिला उपहार मुझे पकड़ा गए; अरे हमारा उपहार उनकी औकात के हिसाब से बहुत है!" .... यानी खुशियाँ मनाने से अधिक ध्यान विभिन्न आंकलनों पर रहता है और इस पर भी कि दिखावा कैसे अधिक से अधिक हो!

जबकि वैयक्तिक रूप से बिना वजह यूँ ही एक-दूसरे से मिलते-जुलते और खुशियाँ मनाते समय इन सब बातों का कोई महत्त्व नहीं रहता तथा रूपए-पैसे के दिखावे और उपहार-भेंट आदि की औपचारिकताओं से दूर ही रहते हैं। इस प्रकार के बैठकें या पार्टियां किसी कारण विशेष पर आश्रित नहीं होतीं और ये हमें आपसी भाईचारा बढ़ाने के लिए उकसाती हैं, प्रेरित करती हैं। ये किसी भी खाली समय या छुट्टी के दिन संभव हैं, इनमें स्वार्थ या अपेक्षा जैसा कुछ नहीं होता, ये कार्य-दिवसों में आए तनाव को कम करने में भी विशेष सहायक सिद्ध होती हैं। इस तरह के आयोजन या मिलना-जुलना पूरी तरह से हमारे हाथ में है और इन पर दिनांक या दिवस विशेष का कोई बंधन लागू नहीं होता। .... बिलकुल निराकार साधना जैसी है यह! निराकार उपासना में विधि-निषेध बंधन नहीं है और यह सप्ताह में चौबीस घंटे और सातों दिन संभव है; जबकि साकार उपासना बहुत सी बातों पर आश्रित होती है, कम अवधि के लिए हो पाती है। .... देखा जाए तो हमारे लिए हर दिवस एक उत्सव की तरह होना चाहिए और हममें यह कला होनी चाहिए कि हम हर दिन कहीं न कहीं से, किसी न किसी रूप में अपने दैनिक कार्यों में ही खुशियाँ तलाश लें। यह प्रक्रिया हमें निरंतर उत्साहित रखती है और जीवन्तता बनी रहती है। हम उत्साहित होने, प्रसन्न होने, खुशियाँ मनाने आदि में किसी दिन विशेष पर आश्रित न रहें बल्कि सर्वप्रथम अपने कर्तव्य रूपी कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए, उपरांत खाली होते ही आपसी सामाजिक मनोरंजन को पर्याप्त समय दें; जीवन्तता निरंतरता के साथ बनी रहे इसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है। इति।