- संत ऊपर से दिखने पर साधारण मनुष्यों जैसे ही होते हैं, जल्दी पहचान में नहीं आते; वे केवल आनंद और संतोष की सुगंध से ही पहचाने जाते हैं।
- संत का अस्तित्व उसकी भौतिक देह या वेशभूषा में न होकर केवल उसके वचनों में होता है। कैसी भी थैली में हीरा रखने पर थैली का महत्त्व नगण्य होकर केवल हीरे का महत्त्व रहता है।
- खरे संत की पहचान उसके विशिष्ट वस्त्रों, केश-विन्यास, भाव-भंगिमाओं अथवा वाह्य श्रृंगार (make-up) से नहीं, वरन उसके नैसर्गिक प्रभामंडल से होती है।
- संतों का उद्देश्य अपने उपदेशों या वचनों द्वारा सुनने वालों को मात्र रिझाना नहीं होता, वरन उनके वास्तविक कल्याण की दृष्टि से वे उपदेश देते हैं।
- जिसकी संगति से हमारे अंतर्मन में भगवत्-प्रेम प्रकट हो और विषयों के प्रति आसक्ति घटे, उसे संत जानें।
- संत के पास जाकर संतोष, शांति व आनंद आदि का वास्तविक अर्थ पता चलता है और इन्हें पाने की रुचि उत्पन्न होती है।
- ईश्वर की सगुण अथवा निर्गुण भक्ति तथा ईश्वरीय गुणधर्मों से ओतप्रोत जीवन जीने के अतिरिक्त कोई भी बात संतों को रुचिकर नहीं लगती।
- अपने व्याख्यानों में जिन सिद्धांतों की संत चर्चा करते हैं, उन्हें वे भली-भांति हृदयंगम कर चुके होते हैं और आचरण द्वारा सतत प्रकट करते हैं।
- संतों के व्याख्यान उनके स्वयं के अनुभवों तथा अनुभूतियों पर आधारित होते हैं, वे व्यर्थ का ढोंग या दिखावा नहीं करते; उपदेश करना उनका व्यवसाय नहीं होता।
- संतों में भी षड्-विकार होते हैं परन्तु उनका रूपांतरण भगवत्-भक्ति के साधन के रूप में हो जाता है; तब ये षड्-रिपु व्यष्टि और समष्टि साधना के लिए उपकरण समान बन जाते हैं।
- संतों को भी पूर्वकर्मजन्य प्रारब्ध को भोगना पड़ता है, शारीरिक कष्ट भी होते हैं, परन्तु देहभान न होने के कारण उन्हें इसके कारण किसी सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता।
- संत हमारे जीवन में आने वाले कष्टों को दूर नहीं करते, वरन वे कष्टों के प्रति हमारे भय को समाप्त कर देते हैं। संकट से अधिक दुःखदाई संकट का भय होता है!
- संत के संसर्ग से नास्तिक भी ईश्वरभक्ति की ओर मुड़ते हैं, फलतः वे पापकर्म से दूर होते हैं तथा दुःखों में आश्वासन, धैर्य और ढाढ़स प्राप्त करते हैं।
- संत की संगति से तर्क क्षीण होते हैं, वृत्ति बदलती है, अनुभव और अनुभूतियाँ बढ़ते हैं, अंततः ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति होती है; क्योंकि ईश्वर को तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता।
- साधारण संत कहता है, "दुष्टों का नाश हो", जबकि खरा संत कहता है, "दुष्टता का नाश हो" अर्थात् दुष्ट व्यक्तियों की दुष्टता मिटे।
- खरे संत की सबसे बड़ी पहचान यह है कि आप किसी सांसारिक अभिलाषा की प्राप्ति के लिए उसके पास जाएंगे और अभिलाषा-रहित होकर लौटेंगे; संत-संग का यह सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम है।
- खरा संत हमें कभी भी सांसारिक विषयों में उलझाएगा नहीं, न ही उन्हें एकदम से त्यागने के लिए कहेगा; बल्कि वह उन विषयों के प्रति हमारी आसक्ति समाप्तप्राय कर देगा।
- खरा संत कभी भी अपने 'संत' होने का प्रचार-प्रसार नहीं करता और न ही किसी के द्वारा 'संत' कहने पर गदगद् होता है।
- संत किसी प्रकार का चमत्कार नहीं करते, चमत्कार जैसा कुछ स्वयमेव हो जाता है! इसके लिए आवश्यकता है सतत संत-संगति की।