भारत की प्राचीन संस्कृति एवं समाज-व्यवस्था के अनुसार पहले परिवार के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने का कार्य मुख्यतः पुरुषों के कंधों पर ही होता था, अतः उनके शैक्षिक विकास पर अधिक जोर दिया जाता था; महिलाओं को मुख्यतः घरेलू कार्यों तक सीमित रखा जाता था। ... तो कार्यों के अनुसार ही उनका लालन-पोषण होता था। चूँकि एक लंबे समय से अनेक कारणों से हमारा देश गरीब था और विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार हमारे समाज में व्याप्त थे, अतः पुरुष-वर्ग में तदनुसार चालाकी अधिक थी; चलन के अनुसार दंद-फंद में भी वे लगे ही रहते थे। वहीं दूसरी ओर स्त्रियों को अपेक्षाकृत बहुत अच्छे संस्कार प्राप्त होते थे, क्योंकि वे आर्थिक और व्यापारिक मामलों से परे साफ-सुथरे धार्मिक माहौल में रह कर विकसित होती थीं। व्यस्क होने पर उनका विवाह कर दिया जाता था, और संस्कारवान होने के कारण विवाह पश्चात् वे सही मायनों में पतिव्रता, ससुराल-पक्ष के प्रति निष्ठावान और बच्चों की अच्छी परवरिश के प्रति निरंतर सचेत रहती थी। यद्यपि उनके पतियों में ऐसे गुण पर्याप्त मात्रा में नहीं होते थे, तदपि स्त्रियों के तेज के बल पर स्थितियां काफी हद तक संतुलित हो जाती थीं। बहुत से विद्वानों का भी यह प्रबल मत है कि अपने यहाँ की स्त्रियों के सतीत्व एवं तेज के कारण ही इतने भ्रष्टाचारी झंझावातों के बावजूद भारत का अस्तित्व बना हुआ है।
पहले भारत में लड़के और लड़कियों की अलग-अलग शिक्षा का प्रावधान या चलन था, सह-शिक्षा का चलन नहीं था। परन्तु धीरे-धीरे स्थितियों में परिवर्तन हुआ और स्त्रियों की सहभागिता क्रमशः पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों में बढ़ी। लड़कियों और लड़कों में सामाजिक भेद-भाव कम होता गया और पश्चिम की भांति भारत में भी सह-शिक्षा आरंभ हो गयी। भौतिक विकास एवं प्रगति की दृष्टि से यह बहुत उत्तम था। प्राचीन भारतीय इतिहास में भी अनेकों उदाहरण मिलते हैं जब पुरुषों के कमजोर या कम पड़ने पर उनकी स्त्रियों ने उनके कंधे के साथ कंधा मिलाकर परिस्थितियों का सामना किया और उन पर विजय प्राप्त की; हमारी धार्मिक संस्कृति में तो स्त्री को शक्ति-स्वरूप माना ही गया है। तो फिर यह बात तो मान्य करने योग्य है कि देश को बहुमुखी विकास के लिए स्त्री-शक्ति की आवश्यकता थी, और समय ने स्त्रियों को यह अवसर प्रदान किया।
परन्तु वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में इस पद्धति के कारण सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की अनेक क्षतियाँ भी दृष्टिगोचर हो रही हैं। संभवतः वे इसलिए हैं क्योंकि हमारा देश मानसिक रूप से अभी भी परिपक्व एवं संतुलित नहीं है, बल्कि असंतुलन पहले की अपेक्षा बढ़ गया प्रतीत होता है। विकसित देशों ने अपने कठोर परिश्रम से जो कुछ धीरे-धीरे कई वर्षों में प्राप्त किया, वह हमें वैश्वीकरण के कारण एकाएक प्राप्त हो गया। हमारा देश विश्व के व्यापार-जगत के लिए एक बड़ी मंडी बन गया। चूँकि भारत में अनेक कारणों से भ्रष्टाचार पहले से ही बहुत अधिक था, अतः अब इस अचानक आयी विकास की आँधी में दुनिया भर का कूड़ा-करकट हमारे यहाँ बिकने व खपने लगा, उपभोक्ता वस्तुओं में नित नए-नए ऊटपटांग वैशिष्ट्यों (features) की मांग हमारे यहाँ ही सर्वाधिक है। हमारे देश में व्याप्त गरीबी, अपेक्षाकृत सस्ती दर पर उपलब्ध कर्मचारी, भ्रष्टाचार, चालाकी आदि का लाभ अनेक कंपनियों ने अपना व्यापार बढ़ाने के लिए लिया। इन्हीं सब कारणों से हमारे देश का युवा-वर्ग पिछले कुछ वर्षों में और अधिक दिग्भ्रमित व भ्रष्ट हुआ है, खासतौर पर पुरुष युवा-वर्ग! इसी को हम मानसिक असंतुलन कह सकते हैं। विडम्बना एवं दुर्भाग्य की बात है कि भारत में स्त्री-जाति में भी कुछ ने भी पुरुषों में व्याप्त अनैतिक मूल्यों का अनुसरण करना आरंभ कर दिया है; यह भारत की वर्तमान तस्वीर का सबसे नकारात्मक पहलू है।
आत्मा तो सबमें एक समान है, परन्तु हममें से अधिकांश अभी तक आत्मिक स्तर तक नहीं पहुंचे हैं, शारीरिक व मानसिक स्तर पर ही हैं; अतः उसी के अनुसार देखें तो ईश्वर या प्रकृति ने स्त्री व पुरुष देह को शारीरिक व मानसिक भिन्नताएं प्रदान की हैं। इनमें से अधिकांश भिन्नताओं से हम परिचित हैं, कुछ की हमने ऊपर चर्चा भी की है। मानसिक व आध्यात्मिक रूप से अधिक सुदृढ़ होने के अतिरिक्त स्त्री में एक अन्य विलक्षण योग्यता गर्भ-धारण की है। यद्यपि पुरुष की भूमिका भी उसमें रहती है, परन्तु नवजीवन का संवर्धन नारी-देह में ही संभव है और इस प्रक्रिया का भार एवं कष्ट उठाना उसी के बस का है। शारीरिक सम्बन्ध स्थापित होने पर पुरुष-देह में न कोई परिवर्तन होता है और न ही उसे कोई कष्ट होता है, इसी बात का लाभ भ्रष्ट मनःस्थिति में पहुंचा पुरुष कभी भी उठा सकता है। प्राचीनकाल में जब समय अपेक्षाकृत बेहतर था तो भी स्त्रियों को विवाह से पूर्व अपने कौमार्य को सहेज कर रखने की शिक्षा दी जाती थी, इसके परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जो अनेकों लाभ होते थे उनसे सभी परिचित एवं सहमत होंगे; परन्तु आज अपरिपक्व मानसिक व शारीरिक अवस्था ही में सह-शिक्षा आरंभ हो जाने से स्त्री-पुरुष मित्रता कब दिग्भ्रमित हो जाये इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता और वह भी तब जब नैतिक मूल्य इतने निम्न स्तर पर पहुँच चुके हों। गिरे हुए नैतिक माहौल और मानसिक अपरिपक्वता के चलते अधिकांशतः युवा-वर्ग स्वच्छ व स्वस्थ मित्रता को अधिक समय तक अक्षुण्ण नहीं बनाए रख पाता और विशेषकर पुरुष युवा में कभी भी नैतिक गिरावट आ सकती है। इस नैतिक पतन से पुरुष की तो कुछ खास क्षति नहीं होती, परन्तु स्त्री को अत्यधिक शारीरिक या/और मानसिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है। नैतिक मूल्यों की रक्षा के मामले में स्वाभाविक रूप से समाज की अपेक्षाएं भी स्त्रियों से ही अधिक होती हैं, क्योंकि परोक्ष पशुवत-वृत्ति के कारण पुरुष-जाति से तो पहले से ही कोई अच्छी उम्मीद नहीं होती; ... वैसे अपवाद कहीं भी संभव हैं!
अतः मित्रता विशेषकर युवा-वर्ग की मित्रता के मामले में स्त्री को बहुत ही सतर्क रहने की आवश्यकता है। युवावस्था में वैसे ही मन-मस्तिष्क अपरिपक्व होता है, ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि इस समय सामाजिक नैतिक स्तर भी न्यूनतम गहराइयों को छू रहा है और युवा पुरुष के मन में बैठा शैतान कब जाग जाये, कोई भरोसा नहीं! आजकल तो कितने पवित्र रिश्ते भी पतित होने के समाचार नित मिल रहे हैं। इस प्रकार गर्त में चले जाने से पुरुषों को तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, परन्तु स्त्रियों पर उनकी शारीरिक संरचना, कोमल मानसिकता, अच्छे संस्कारों एवं समाज की अपेक्षाओं के कारण बहुत अधिक दबाव पड़ता है और वे अवसाद की स्थिति में जा सकती हैं। यह भयावह स्थिति है और निःसंदेह हमारे रोगग्रस्त पुरुष-प्रधान समाज की देन है। इस कठिन समय की माँग यही है कि स्त्रियां स्वयं ही सचेत रहें, विशेषकर युवावस्था में बहुत ही सचेत रहने की आवश्यकता है; पुरुष मित्र कितना ही भला क्यों न लगे, उससे एक सीमा तक ही सम्बन्ध रखने चाहियें। आज का मन का अच्छा भाव सदा बने रहने में भी संदेह है। अतः संवेदनशीलता तो रहे, परन्तु 'कोरी भावुकता' से परे रहने में ही भलाई है (स्त्रियां मूलतः बहुत नम्र व सरल स्वभाव की होती हैं, एक बार उनका विश्वास जीतकर उनकी कोमल भावनाओं से खेलना बहुत आसान होता है)। फोन नंबर और ईमेल पता देने तथा फोन, SMS एवं ईमेल आदि करने में पीछे ही रहें; एक तो इन सब में उलझने से समय बहुत नष्ट होता है साथ ही दूसरे द्वारा इनके गलत प्रयोग की संभावनाएं प्रबल रहती हैं, दुधारी तलवार के समान हैं ये - लाभ भी पहुंचाते हैं और हानि भी! अतः आधुनिक गैजेट्स का प्रयोग बहुत सोच-समझकर करें। एकांत में मिलने से परहेज करें, तथाकथित गुरुपद के पुरुषों तक का ईमान भी एकांत में डोल जाता है। व्यर्थ के दिखावों और भेड़चाल में कदापि न फंसें; अपनी मूलभूत आवश्यकताओं, अधिकारों एवं लक्ष्यों को भली-भांति पहचानें और उन्हें सर्वप्रथम प्राथमिकता देकर एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर पाने का प्रयास करें। अतः पुरुष-वर्ग की कमियों को ध्यान में रखते हुए उससे 'निरंतर' सतर्क रहने में ही समझदारी है, भले ही आपको लगता हो कि समाज में अपवाद भी मौजूद हैं और आपके पुरुष मित्र उनमें से एक हैं! बाद में जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, जागरूक स्त्रियों के व्यवहार में परिपक्वता स्वयं ही आती जाती है। बस केवल कुछ वर्षों के ही संयमित अभ्यास की आवश्यकता होती है फिर स्थाई मानसिक मजबूती आ जाती है, तब हम शारीरिक स्तर से ऊपर उठकर क्रमशः मानसिक व आत्मिक स्तर तक पहुँच जाते हैं। यह परिपक्वता सभी भयों को समाप्त कर देती है। इति।