पिछले लेख में पुरुषों, विशेषकर भारतीय पुरुषों की वर्तमान मनःस्थिति पर कुछ तीखे ही प्रहार हो गए। आलोचना के साथ यह परम आवश्यक है कि समस्या के कारण जानने एवं निदान ढूंढने के प्रयत्न भी समानान्तर रूप से किए जाएं। यहाँ यह जानना भी आवश्यक हो जाता है कि आखिर पुरुषोचित आचरण कैसा होना चाहिए, और हमारी सोच में क्या कमियां हैं जिनके कारण हमें आखें झुकानी पड़ जाती हैं! इस लेख में इन्हीं सब बिदुओं पर मनन करने का प्रयास किया गया है।
किसी भी संघ की तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का जबरदस्त प्रभाव उस काल के लोगों के आचरण पर पड़ता है। यद्यपि ऊपर उल्लेखित सभी कारणों का मिलाजुला प्रभाव पड़ता है तद्यपि अच्छे एवं योग्य आचरण को अक्षुण्ण बनाए रखने में सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियों की भूमिका अग्रणी रहती है। यदि इन तीनों के स्तर में कोई गिरावट आती है तो मूल्यों का गिरना भी निश्चित होता है। ... और पुनः इन तीनों में भी यदि तुलना करें तो धार्मिक परिस्थिति की भूमिका सर्वोच्च है; सामाजिक मूल्यों के अधःपतन की दशा में सांस्कृतिक मजबूती उसे संभाल सकती है और सांस्कृतिक दोष आने पर धार्मिक सुदृढता उसे थाम लेती है। धर्म से तात्पर्य यहाँ विभिन्न धार्मिक कृत्यों से उपजे खरे अध्यात्मविषयक ज्ञान से है, सूक्ष्म के ज्ञान से है; ... और इस ज्ञान को अपने भौतिक जीवन के दैनंदिन क्रियाकलापों एवं आचरण में शामिल करना अर्थात् धर्म का निर्वाह करना। धर्म का यथार्थ निर्वाहन सभी प्रकार की बाधाओं-कठिनाइयों को पराजित करने में पूरी तरह से सक्षम है। जब-जब मनुष्य ने धर्म का आश्रय छोड़ा है, तब-तब तनावों एवं विषम परिस्थितियों ने उसे आ घेरा है और वह असंतुलित हो निरंतर नीचे की ओर गया है।
भारत में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। हमारा इतिहास एवं हमारी पौराणिक कथाएँ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उनके अध्ययन से हमें साफ़ तौर पर जानने को मिलता है कि युग दर युग हमारे समाज की मानसिकता, तदनुसार आचरण, आदि में क्या-क्या बदलाव आए। सत्ययुग सर्वश्रेष्ठ था तो त्रेता उससे कुछ निम्न, द्वापर उससे निम्नतर, तथा कलियुग निम्नतम। तुलना सर्वथा तत्कालीन लोगों की मनःस्थिति एवं आचरण पर आधारित थी/है, और पुनः, किसी काल में लोगों की मानसिकता व आचरण तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक ढांचे पर निर्भर हैं। वैसे मेरा वैयक्तिक मत यह है कि वर्तमानकाल में प्रत्येक राष्ट्र या संघ उपरोक्त परिस्थितियों के वर्तमान तत्स्थानिक परिमाण के अनुसार अलग-अलग युग को अनुभव कर रहा है। इस धरा पर कदाचित सत्ययुग कहीं पर है यह तो संदेह की बात हो सकती है परन्तु त्रेता, द्वापर जैसी स्थितियां कई जगह देखने को मिल जाती हैं। हमारे देश के वर्तमान समष्टिगत मानसिक ढांचे एवं आचरण सम्बन्धी पक्षों को देखते हुए जब हम अपनी तुलना कुछ अन्य विकसित देशों से करते हैं तो स्वतः ही हमें इस सच्चाई के दर्शन होते हैं, भले ही हम प्रत्यक्षतः इसे स्वीकार न करें! विशेषकर हमारे यहाँ के पुरुषों के आचरण में समय के साथ बहुत अधिक नैतिक गिरावट आई है।
सब जानते हैं कि भारत का अतीत बहुत उज्ज्वल रहा था, सभी दृष्टियों से हम उत्कृष्ट थे। पर समय ने करवट ली, दुनिया में अनेकों बदलाव हुए; जो पीछे थे उन्होंने भी प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाये। भौतिक जगत सतत परिवर्तनशील होता है परन्तु हम भारतीय यह तथ्य भुलाकर आत्मश्लाघा एवं आत्मस्तुति के भंवर में फंस कर एक स्थान पर ही रुक गए, स्थिर हो गए, जड़ हो गए! उस समय हमारे यहाँ के जगत-विख्यात सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे ने भी हमारी कोई मदद नहीं की, क्योंकि उस समय उसका भी वही हाल था जो हमारी साधारण मानसिकता का था! यहीं से हमारे पतन और पराभव के दिन शुरू हुए। .... धीरे-धीरे हमारा राष्ट्र दासता की बेड़ियों में जकड़ गया, जिसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार थे। बाद में कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुए और हमारे सुप्तप्रायः राष्ट्र में कुछ चेतना का संचार हुआ, फलस्वरूप हम पुनः स्वतंत्र हुए। परन्तु यह यह प्रक्रिया भी इतनी लंबी, अनियोजित और सुस्त थी कि हमारे युवा पुरुषवर्ग को कोई योग्य दिशा देने में असफल रही। परतंत्रता से पूर्व ही हमारे यहाँ की धार्मिक शिक्षाओं के स्तर में गिरावट आ चुकी थी, परतंत्रता के दौरान स्थितियां और अधिक विकट रहीं तथा रही-सही कसर संचार माध्यमों के एकदम से विकसित हो जाने के फलस्वरूप आए वैश्वीकरण ने पूरी कर दी। .... कई दिनों से भूखे को अचानक ढेर सारा खाना मिल गया और वह पशुओं की भांति उस पर टूट पड़ा। पशु तो फिर भी एक सीमा तक विचार कर सकते हैं और शीघ्र तृप्त हो जाते हैं; परन्तु मनुष्य के पास तो मन, बुद्धि, विवेक आदि पशुओं की तुलना में बहुत अधिक है, सो हमने एकदम से ढेर सारा खाने के अतिरिक्त अनाप-शनाप संग्रह करना भी आरंभ कर दिया। इन सब जतनों, क्रियाकलापों में हमारा पुरुषवर्ग नैतिक रूप से भी निरंतर गिरता चला गया। हमारा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक ढांचा वैसे ही जर्जर था, ऊपर से धार्मिक ढांचा तो और भी क्षतिग्रस्त, बिलकुल दिशाविहीन! परिस्थितियां बिलकुल विपरीत थीं/हैं, इसीलिए हम निरंतर और गिरते ही जा रहे हैं। आज जो माध्यम (जैसे- मीडिया, सिनेमा, राजनेता, धर्मगुरु) सशक्त हैं, मजबूत हैं, सामर्थ्यवान हैं, अधिकार रखते हैं, लोग जिनकी सुनते हैं, ... क्या वे माध्यम अपनी कुशलता, योग्यता व सामर्थ्य का ईमानदारी से सदुपयोग कर रहे हैं? बिलकुल नहीं ....; वे भी संग्रह, आत्मस्तुति एवं आत्मश्लाघा बढ़ाने में ही दिन-रात व्यस्त हैं। ऐसे में हमारे समाज के आधार-स्तंभ पुरुषवर्ग का अधःपतन होना निश्चित ही है।
यह बात सही है कि कोई भी अपनी माता के गर्भ से सब कुछ सीख कर जन्म नहीं लेता। प्रथमतः वह कोरे कागज की भांति ही होता है; वह यहीं इसी धरा पर, अपने परिवार, समाज आदि से सब कुछ सीखता है। यहीं उसके चारों ओर उपस्थित वातावरण के अनुरूप ही उसके संस्कार बनते हैं; पिछले जन्मों के संस्कारों में से भी केवल वही संस्कार जागते हैं जिनको स्थानीय वातावरण के अनुसार पोषण मिलता है, शेष सुप्त ही रहते हैं। और सत्य यही है कि हमारे संघ का दूषित वातावरण ही हमारे वर्तमान पुरुषवर्ग के अनैतिक आचरण के लिए दोषी है। स्त्रियों का स्तर अपेक्षाकृत ऊंचा होता है, इसके कारणों पर हमने पिछले लेख में देखा था। कुल मिलाकर वर्तमान भारत के बाहुबली पुरुषवर्ग की दुर्बलताओं के पीछे का मूल कारण मानसिक और आध्यात्मिक रूप से असंतुलित होना है और इस असुंतलन के लिए अभिजात सामाजिक घटक, मीडिया और सरकार जैसे सशक्त माध्यम तथा समाज के धार्मिक मार्गदर्शक प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। इन सब का आचरण नैतिकता के मापदंडों की कसौटी पर अत्यंत निम्नकोटि का था/है, तभी तो आम प्रजा, विशेषकर पुरुषों में इस प्रकार के संस्कार उपजे! .... बचपन से किसी ने कुछ अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया नहीं; झूठ, फरेब, प्रतिद्वंदिता, कपट, लालच, ईर्ष्या और नाना प्रकार के अन्य दंद-फंद अपने आसपास घटित होते देखते व सुनते रहे; तो उन्हीं सब के अनुरूप संस्कार दृढ़ होते चले गए। बचपन में अभिभावकों ने भी सत्संग और पौराणिक कथा साहित्य आदि से दूर ही रखा कि यह सब तो बुढ़ापे के खाली समय के काम हैं और फिर इस क्षेत्र में भी धोखाधड़ी इतनी बढ़ गई है कि किसी पर विश्वास ही नहीं जमता! जवानी या अधेड़ावस्था में जाकर स्वयं से ही कुछ को एहसास हुआ कि कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है, सत्य से सामना हुआ; पर तब यह लगा कि अकेला चना कहाँ भाड़ फोड़ पाएगा, सो मन मसोस कर चुप रह गए। ... कुछ-कुछ ऐसा ही चल रहा है हमारे समाज में।
विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, भाषाओं या संघों से जुड़ा व्यक्ति अपने से सम्बंधित प्रचलित जीवन-प्रणाली से चलते हुए क्रमशः विकसित और परिष्कृत होने का प्रयास करता रहता है। परन्तु यदि कोई जीवन-पद्धति व्यक्ति को सुसंस्कृत, सभ्य, विनम्र एवं भद्र होने में मदद नहीं कर रही तो समझा जाना चाहिए कि निश्चित रूप से उस पद्धति में दोष आ चुके हैं और उस पद्धति के पुनरावलोकन एवं परिष्कार की आवश्यकता है। फसल से अधिकाधिक फल निष्पत्ति सुनिश्चित करने हेतु समय-समय पर फालतू में उग आई झाड़ियाँ और घासफूस साफ करने ही पड़ते हैं। हमारी वर्तमान जीवन पद्धति में भी बहुत अधिक व्यर्थ की झाड़ियाँ उग आई हैं। परन्तु हम सफाई करने से कतरा रहे हैं। जिनको सत्य का पता चला चुका है, कायरतावश वे सत्य का प्रयोग उन पर भी नहीं करते जिन पर उनका वश है, जो उनकी बात मान सकते हैं, जैसे उनकी स्वयं की संतानें। हमारे पूर्वजों ने गलत काम कम किए थे, हम उनसे आगे रहे, और हमारे वंशज गलत आचरण में हमसे भी आगे जा रहे हैं; यह देखते हुए भी हममें जागृति नहीं आती! जहाँ मूक रहना चाहिए वहाँ बहुत बोलते हैं और जहाँ बोलना चाहिए वहाँ मूक रहते हैं!
पहले हम परतंत्र थे, दबे हुए थे; फिर किसी तरह स्वतंत्र हो गए, तो मनमानी और बढ़ गई; उस पर वैश्वीकरण के चलते जब हम समस्त विश्व के बिलकुल निकट आ गए तो हम पहले से भी अधिक पिछलग्गू बन गए। पश्चिम के लोगों का हमने अनुकरण तो किया, पर आधा-अधूरा! हमारे युवाओं ने उनकी सभ्यता के नकारात्मक पक्षों को ही अपनाया और अनेकों सकारात्मक पक्ष अनदेखे कर दिए। हमने उनकी विलासिता तो ग्रहण कर ली, परन्तु उच्च आदर्श ग्रहण नहीं किए। हमने उनके चाय, कॉफी को तो ग्रहण कर लिया परन्तु अपनी मदद स्वयं करने का गुण नहीं अपनाया; सफर के दौरान थोड़ा सा सामान भी स्वयं उठाना हमें कठिन या फिर लज्जाजनक प्रतीत होता है; घर की सफाई आदि स्वयं करना भी अप्रतिष्ठा का विषय लगता है, तीर्थ यात्रा तक भी हम अपने पैरों से नहीं कर पाते हैं! पाश्चात्य दिन में कई बार खाते हैं, परन्तु वे शारीरिक श्रम भी लगनपूर्वक करते हैं, यह हमें दिखाई नहीं पड़ता! हम इतना नाजुक बनते हैं कि थोड़ा सा बीमार पड़ते ही सगे-सम्बन्धियों, मित्रों आदि को तुरंत सूचित करते हैं और अपेक्षा रखते हैं कि हमारा हालचाल पूछने हर कोई पहुंचे; वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य युवक रफ-टफ और मजबूत हैं, जरा-जरा सी बात का रोना नहीं रोते! विदेशी पर्यटकों को देखकर हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि वे किस कदर मेहनती एवं ऊर्जावान होते हैं; अपने घरों में विलासितापूर्ण माहौल में रहने के बावजूद भारत की विषम परिस्थितियों में वे प्रसन्नचित्त भ्रमण करते रहते हैं, स्वावलम्बिता उनका विशिष्ट गुण है। परन्तु हम हैं कि उनकी विलासी वृत्ति को तो अपनाते हैं परन्तु स्थिति-अनुरूप विलासिता को तिलांजलि देने की चेष्टा में उनसे बहुत पीछे रहते हैं। हमारे आधुनिक युवाओं के पास जितने अत्याधुनिक गैजेट्स का भंडार है, हो सकता है पाश्चात्य युवाओं के पास उससे और अधिक हो; परन्तु वे उन गैजेट्स का सदुपयोग करते हैं, उनके गुलाम नहीं हैं, व्यर्थ का दिखावा-प्रदर्शन नहीं करते! ट्रेन या बस में चलते समय गैजेट्स का जोर-शोर से इस्तेमाल नहीं करते और न ही बवाल आदि करते हैं। पाश्चात्य लोग वृद्धजनों, बच्चों एवं स्त्रियों के प्रति विशेष सुहृदय रहते हैं और उनके लिए सीट आदि भी खाली कर देते हैं। स्त्रियों से व्यवहार करते समय वे अत्यधिक संयमित, संकोची एवं शिष्टाचारी रहते हैं एवं उनके संरक्षण के दायित्व का भाव रहता है, परन्तु हम ....? उनकी देखा-देखी हम भी अनेक 'स्त्री मित्र' बनाने में लगे रहते हैं, परन्तु हमारे संबंधों में गहराई, सुहृदयता एवं संरक्षण के दायित्व के भाव आदि के दर्शन नहीं होते; अभी भी हममें से अधिकांश पुरुष स्त्री को भोग्या ही समझते हैं। हम उनके देशों में बनी हुई अश्लील फिल्मों को तो देखते हैं, परन्तु अपेक्षाकृत अधिक संख्या में बनी प्रेरणादायी एवं साफ-सुथरी फिल्में देखने में पीछे रहते हैं। हमारे यहाँ की बहुत बड़े बजट की फिल्म भी अतिनाटकीयता एवं असंख्य तकनीकी दोषों से युक्त रहती है तथा अस्वाभाविक जान पड़ती है, जबकि उनके यहाँ की साधारण व काल्पनिक विषय पर बनी हुई फिल्म भी चुस्त कथानक, कुशल सम्पादन एवं तकनीकी श्रेष्ठता के कारण वास्तविक प्रतीत होती है। हमारे पास संसाधन कम नहीं हैं, हर आधुनिक तकनीकी उपकरण हम खरीद सकते हैं, परन्तु उनको चलाते तो हम ही हैं न; तो फिर अपनी उथली सोच के कारण हम फिल्म में वह गहराई व वास्तविकता पैदा नहीं कर पाते जो वे कर पाते हैं! इसके अतिरिक्त व्यापार आदि में जितने सुस्पष्ट और पारदर्शी नियमों से वे चलते हैं, हमारे व्यापार में उतनी ही मिलावट रहती है; बहुत सी बातें छिपी हुई होती हैं! कुल मिलाकर हमारे प्रत्येक कृत्य में चालाकियां व स्वार्थ छिपा होता है जबकि वे अधिकांशतः सरल-हृदयी होते हैं। वे चालाक और धूर्त भी होते हैं, परन्तु मात्र चालाक एवं धूर्त लोगों के लिए; क्योंकि वे 'जैसे को तैसा' की नीति पर चलते हैं और हम 'सबकी ऐसी की तैसी', इस नियम पर चलते हैं! अधिकांशतः उनका एक ही धार्मिक ग्रन्थ है जैसे - बाइबल, जबकि हमारे पास अनेकों मार्गदर्शक ग्रन्थ हैं; वे एक से ही बहुत कुछ ले लेते हैं और हम अनेकों से कुछ नहीं ले पाते!? वे करते अधिक हैं, बोलते कम हैं; जबकि हम इसकी उलट पद्धति पर चलते हैं! वहाँ कारखानों एवं अन्य उत्पादन इकाइयों में 'बढ़िया' नहीं वरन 'सर्वोत्तम' पर जोर दिया जाता है, जबकि हमारे कामगार एवं मालिक दोनों ही 'चलता है' की नीति एवं वृत्ति से काम करते हैं!
अब हमें सचेत होना ही होगा यदि हम वास्तव में ठोस प्रगति करना चाहते हैं। हमें अपने चिंतन में मानव जीवन के उद्देश्य को समझने का बिंदु सर्वोच्च स्थान पर रखना होगा। यदि हम मानव जीवन का उद्देश्य भली-भांति समझ सके और उसे हृदयंगम करते हुए अपने कार्यों और आचरण के माध्यम से उसे प्रकट कर सके तब ही हम पौरुष दिखाने में सफल हुए, ऐसा मानिये। हमारा गौरव एवं गरिमा किन बातों में है, इस सम्बन्ध में हमारी धारणा सुस्पष्ट होनी चाहिए। हमें हमारे लक्ष्य साफ तौर पर पता होने चाहिएं और उन्हें पाने के लिए योग्य (righteous) मार्ग भी। असली चैन, सुकून, शांति, आनंद आदि हमें 'योग्य एवं न्यायप्रिय' मार्ग पर चल कर ही प्राप्त हो सकते हैं। इसके लिए हमें अपनी मानसिकता का परिष्कार कर उसका स्तर ऊपर उठाना होगा और कर्मों की गुणवत्ता बढ़ानी होगी। मानसिक उत्कृष्टता एवं प्रत्येक कर्म की पराकाष्ठा तक पहुंचना कठिन तो हो सकता है परन्तु असाध्य नहीं। आगे के चरण में हमें उत्कृष्ट मानसिक स्तर से और ऊपर उठकर आत्मिक स्तर तक पहुंचना होगा, वहाँ तक पहुंचकर ही हम मानव जीवन के उद्देश्य को यथार्थतः समझ पायेंगे। फिर 'योग्य एवं न्यायप्रिय' (righteous) पथ पर चलते हुए यदि हम भौतिक रूप से कुछ अभाव या कठिनाई का सामना भी करते हैं, तो विश्वास कीजिए उस स्थिति में भी हम आनंदित ही रहेंगे; यह प्रयोग करने की तत्पश्चात् अनुभूत करने की बात है। .... इसके अतिरिक्त अभी और कुछ कहना मात्र शब्दों का दोहराव होगा। इतना पढ़कर ही जागरूक पाठक यह समझ सकते हैं कि हमारे देश के युवा पुरुषवर्ग को किस प्रकार के यत्नों एवं आचरण की आवश्यकता है, जिनसे उनका पौरुष यथार्थ में प्रकट हो और वे उस पर गर्व कर सकें। इति।