Monday, July 30, 2018

(१०१) चर्चाएं ...भाग - 20

(१) गौ हत्या के नाम पर आज इंसानों को मारना कहाँ तक तर्क संगत है...?? धर्म की राजनीति इंसान को कहाँ तक गिरा सकती है...आज देश में हो रही घटनाओं का दृश्य अति चिंताजनक है....इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
यहाँ राजा और मंत्री अपनी प्रजा को भलीभांति सुशिक्षित और सभ्य बनाने के बजाय सामंतशाही कानूनों और भाषणों से उसे उन्मादी और असभ्य बना रहे हैं; और इन सब के पीछे सत्ता का लालच है. गाय कितनी भी पूजनीय क्यों न हो पर क्या वह एक इन्सान से अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है??? गाय तो गाय, खुले में घूम रहे उनके वंश के उपद्रवी सांडों, और यहाँ तक कि आवारा कुत्तों (स्ट्रीट डॉग्स) को भी इंसानी जीवन से ऊपर का दर्जा दिया जा रहा है. उनकी जनसंख्या दिनोंदिन बढती जा रही है, रोज वे अनेक लोगों को दौड़ाते हैं, घायल करते हैं, काटते हैं, प्राणघातक हमला करते हैं. लखनऊ सहित सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में आवारा पशुओं का भीषण आतंक है. यहाँ तो रेलवे स्टेशन के भीड़भाड़ वाले प्लेटफ़ॉर्मों पर भी इनको आतंक फैलाते कभी भी देखा जा सकता है. लेकिन 'पशु संरक्षण' के नाम पर 'इंसानी संरक्षण' की उपेक्षा समझ से बिलकुल परे है!!! ...विचित्र नगरी और विचित्र राजा हैं यहाँ!!! लगता है सत्तालोलुप राजा और कुंद-दिमाग जनता भांग पीकर बस उन्माद में ही मस्त हैं! असली विकास कहीं बहुत पीछे छूट गया है. मेरे विचार से आज जो भी विकास दिखाई पड़ रहा है उसे हम आभासी विकास या विकास की सूजन मात्र कह सकते हैं.

(२) जीवन को आनंदमय कैसे बनाया जाये? क्या मन हमेशा पवित्र रखने से ही यह संभव है?
'आनंद', प्रसन्नता के चरम की एक दिव्य अनुभूति है. और सही कहा आपने कि मन को हमेशा पवित्र बनाये रखने से ही यह संभव है. मन पवित्र रहेगा तो विचार भी पवित्र होंगे; विचार पवित्र होंगे तो कर्म भी उसी के अनुरूप श्रेष्ठ गुणवत्ता के ही होंगे. ..और नेक व न्यायसंगत कर्म करने के पश्चात् ही खरे 'आनंद' की अनुभूति होती है. ...लेकिन हमारे संघ में व्याप्त वर्तमान प्रदूषित वैचारिक वातावरण के चलते आज के समाज में खरी आनंदानुभूति के दर्शन दुर्लभ ही हैं! ..आपके मूल प्रश्न, "जीवन को आनंदमय कैसे बनाया जाये?" का व्यावहारिक या प्रैक्टिकल जवाब यह होगा कि, "आज के राजा और मंत्रियों (सलाहकारों) यानी देश के वैचारिक और कर्म-सम्बन्धी नीति-नियंताओं को सर्वप्रथम अपने मन में पवित्रता का भाव लाना होगा. पहले वे नेक, न्यायसंगत बन जायें और नैतिक मूल्यों व पर्यावरण का ध्यान रखते हुए इंसानी हितों की रक्षा का बीड़ा उठाएं, स्वयं सुशिक्षित व सभ्य हों तथा प्रजा को भी इसके लिए प्रेरित करें; ..तो उनका और शेष प्रजा का जीवन अवश्य ही आनंदमय होगा. साथ ही धर्म से जुड़े महानुभाव भी यदि लोकेषणा, जागतिक मोह, रूढ़ियों आदि को त्यागकर अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं भी प्रगति करें और अपने अनुयायियों के विचारों को भी प्रगतिशील बनाएं तो प्रजा का जीवन और भी अधिक आनंदमय होगा.

(३) सात्विक विचार क्या सात्विक भोजन से ही आते हैं?
हमारे समाज में व्याप्त धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार बोलूं तो सात्विक भोजन से तात्पर्य केवल शाकाहारी भोजन से ही होता है, तथा मांस-मछली, अंडा, प्याज, लहसुन, तम्बाकू (धूम्र), मदिरा आदि तामसिक (वर्ज्य) खाद्य माने गए हैं. ..और रूढ़िवादी प्रचलित धारणाओं के अनुसार इन वर्ज्य खाद्यों से परहेज रखने वाला ही सात्विक है और उसी के विचार सात्विक होते हैं!! ...कुछ ज्यादा नहीं हो गया यह!!! इस विषय पर इस मंच पर मैं पहले भी अनेक चर्चाओं में इस विषय पर अपना मत रख चुका हूँ, जोकि इन प्रचलित धारणाओं से काफी अलग हैं! ..लेकिन मेरे विचार से भोजन का महत्त्व मूलतः शरीर के पोषण हेतु ही है, तथा देश-काल-परिस्थिति-संस्कृति अनुसार भोज्य पदार्थों में भिन्नताएं होती हैं, आ सकती हैं; यह एक साधारण स्वाभाविक सी बात है. ..बड़ी बात यह है कि जो भी भोज्य पदार्थ हम ले रहे हैं, यदि वह हम पूरे विश्वास से ले रहे हैं, मन में कोई चोर नहीं है, भोजन चोरी या लूट का नहीं है, वह हमने गलत या भ्रष्टाचारी कमाई से नहीं खरीदा, उससे हम किसी अन्य व्यक्ति को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं; ...तो उसका सेवन हमारे लिए उपयुक्त और सात्विक है, वह नकारात्मक या तामसिक विचार कतई उत्पन्न नहीं कर सकता! ...यदि हम रूढ़िवादी प्रचलित धारणा के अनुसार ही चलते हैं तो हमें भारत के कुछ भूभाग या जनसंख्या को छोडकर लगभग शेष विश्व को अधर्मी घोषित करना पड़ेगा, और यदि हम ऐसा करते हैं तो हमसे अधिक पिछड़ा व अहंकारी और कोई न होगा! शेष विचार विस्तार से '(१९) खान-पान और धर्म', इस लेख में पढ़ें.

(४) एक व्यक्ति जन्म से पैसा वाला और सुखी होता है, और एक जन्म से दुखी गरीब और अनाथ होता है, क्यों?
अपने भाग्य (प्रारब्ध/अकाउंट बैलेंस) के कारण!!! ..और प्रारब्ध का निर्माण हमारे अपने कर्मों से ही होता है. जैसे बैंक में अकाउंट खोलने पर, लॉकर आदि लेने पर हम हमारी अर्जित धन-संपत्ति उसमें जमा करते हैं. हमारा कहीं बाहर ट्रांसफर हो जाने पर वह सब अकाउंट, धन आदि भी वहां ट्रांसफर हो जाता है. वक्त के साथ बैंक की बिल्डिंग, कर्मचारी आदि बदलते रहते हैं, गुणाभाग के तरीके बदलते रहते हैं पर हमारा जमा धन-संपत्ति हमारा ही कहलाता है और वह बरकरार रहता है! वह सब हमें ही मिलता है. वह हमें फायदा या नुकसान दोनों पहुंचा सकता है! नेकी का हुआ तो बल्ले-बल्ले, अन्यथा चोरी या भ्रष्टाचार का पाए जाने पर वह हमें सजा भी दिला सकता है! ...अब पते की बात यह कि, बैंक तो मानव निर्मित, मानव संचालित है फिर भी हिसाब-किताब, नफे-नुकसान में कोई गड़बड़ी नहीं! ..फिर कर्म का खाता तो ईश्वर अथवा सृष्टि या प्रकृति देखती है; क्या उनसे गड़बड़ी की गुंजाइश की कल्पना कोई कर सकता है?!
ऐसी प्रत्येक घटना जिसमें हमारा अभी का कोई कर्म सम्मिलित नहीं, निश्चित ही वह घटना हमारे किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप पैदा हुई है.

(५) मनुष्य जन्म के बाद के जन्म का निर्णय वह स्वयं करता है?! मनुष्य यहाँ से मुक्त भी हो सकता है, भक्त भी हो सकता है और चैरासी लाख योनियों में भी जा सकता है!
जी नहीं! मनुष्य के जीवन में उसके द्वारा संपादित कर्मों और मृत्यु के समय उसके अंतिम (शेष बचे) संस्कारों व सोच आदि के आधार पर, प्रकृति के नियमानुसार उसके सूक्ष्म देह की आगामी गति (नियति) स्वतः ही तय होती है. ये नियम ना तो कोई जान पाया है और ना ही किसी विधि-अनुष्ठान से कोई कभी जान पाएगा!!! प्रकृति के अनेक नियम अभी भी मानवीय बुद्धि से कोसों दूर हैं! विज्ञान व अध्यात्म, दोनों के नियमों-सिद्धांतों द्वारा पहुंचे हुए मनीषियों को भी बस इतना ही ज्ञान हो पाया है कि प्रकृति-सम्मत क्रियाएं (कर्म-संस्कार-सोच) कुछ अच्छा रंग लायेंगे, और शेष बुरा! कर्म के फलस्वरूप अगले जन्मों में अच्छा या बुरा कब और किसी रूप-अवस्था में आएगा, इसकी अटकलें मात्र ही लगाते हैं लोग! इस जन्म पश्चात् किसी अमुक के मुक्त होने की बात भी दृढ़ता से कहना मेरी समझ से दुस्साहस ही है! शब्दजाल के अधिक पचड़े में ना पड़ते हुए बेहतर तो यही होगा कि जितना हम जान पाए हैं, मात्र उसी के अनुसार खुद को सचेत रखकर उत्कृष्ट सोच बनाने और न्यायसंगत (प्रकृति-सम्मत) कर्म करने पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया जाये, ...फल अपनेआप उसी अनुसार उचित समय पर, उचित अवस्था में प्रकट हो जायेगा! घूमफिर कर 'गीता' का सन्देश भी तो यही कहता है!

(६) स्वभाव में सहजता कैसे आती है?
बहुधा भीतर की आवाज सुनकर ही कोई फैसला लेना (या कर्म करना), ज्यादा ऊहापोह में न पड़कर प्रकृति-सम्मत जीवनशैली अपनाना, प्रकृति या कुदरत के नियम-सिद्धांतों को समझना व उनका अनुपालन करना, दूसरों की भावनाओं का भी आदर करना, आदि जैसे कुछ गुण-आदतें यदि हम डाल लें तो स्वभाव में सहजता खुदबखुद ही आ जाएगी! यह सब होना इस बात का भी परिचायक है कि आप अध्यात्म से अपनेआप ही जुड़ चुके हैं. अध्यात्म कोई किताबी या प्रवचनी ज्ञान थोड़े ही है!

(७) धन्यवाद का भाव बहुत ही कम देखने को मिलता है!?
अहं (अहंकार) का तत्त्व बहुत अधिक होने के कारण इस काल में आदर, धन्यवाद, कृतज्ञता आदि का भाव बहुत कम हो गया है. अधिकांश लोग प्रकृति, प्रकृति के नियमों-सिद्धांतों, प्राकृतिक जीवनशैली आदि से बहुत दूरी बना चुके हैं, तो नैसर्गिक व श्रेष्ठ नैतिक गुणों से भी हीन होते जा रहे हैं. अध्यात्म से दूर होना इसी को कहते हैं!! केवल सत्संगों, प्रवचनों, आश्रमों-मठों आदि में जाना व वहां प्रवास करना तो अध्यात्म से जुड़ना नहीं है!

(८) अनुशासन कभी सिखाया नहीं जाता बल्कि अंदर से खुद होता है...आत्म अनुशासन से चरित्र सुदृढ़ बनता है...?? आज अनुशासनहीनता के बढ़ने का यही प्रमुख कारण है की बाहरी अनुशासन थोप कर हम सब को केवल गुलाम बना रहे हैं!
यह बात बिलकुल ठीक है कि अनुशासन भीतर से स्वमेव होता है! भले और बुरे के ज्ञान से उपजा कुदरती अनुशासन हम सबके भीतर विद्यमान है. यानी ज्ञान-ज्योति (ओरिजिनल सॉफ्टवेयर) सबके भीतर प्री-इनस्टॉल्ड है. लेकिन यह मत भूलिए कि प्रत्येक जन्मोपरांत निर्मित जागतिक संस्कार व उनसे उपजे विचार-केंद्र भी हमारे मन-मस्तिष्क पर कब्ज़ा किये हुए हैं! ये सांसारिक संस्कार हमारे ओरिजिनल सॉफ्टवेयर का हिस्सा कदापि नहीं हैं, ये तो आगंतुक व जबरन घुस आए तत्त्व हैं. इनके कारण हम मनुष्य अनुशासनहीन हो जाते हैं. और इस अनुशासनहीनता को रोकने के लिए ही विभिन्न सरकारें व न्यायपालिकाएं (ऊपर का बुद्धिमान वर्ग) कुछ नियम-कानून बनाकर उन्हें हम पर लागू करते हैं (आपके शब्दों में- 'थोपते हैं'). मैं भी मानता हूँ कि मनुष्य को नियंत्रित करने के लिए यह एक वैकल्पित व्यवस्था है. ...असली व्यवस्था तो भगवान् ने हमारे भीतर लिखी ही हुई है! पुनः, ...वह असली व्यवस्था, हमारे ऊलजलूल संस्कारों (अविद्या) के तले दबी हुई है, इसलिए वाह्य व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है. ...दरअसल 'अध्यात्म' विषय (यानी प्राकृतिक नियम-सिद्धांत) और 'आध्यात्मिक साधना' (प्राकृतिक नियम-सिद्धांतों का दैनंदिन जीवन में अनुपालन यानी रोजमर्रा के जीवन में लागू करना), ये हमारी जड़ीले संस्कारों का नाश करते हैं और प्राकृतिक व्यवस्था खुदबखुद प्रकट हो जाती है. हमारे समाज में बहुतायत की प्राकृतिक व्यवस्था दबी और निष्क्रिय होने के कारण बाहरी अनुशासन व्यवस्था लागू करना या थोपना कोई गलत बात नहीं! वह अनाचार को किसी सीमा तक तो रोक ही सकती है! ..परन्तु निश्चित रूप से स्थाई समाधान यही है कि अंदरूनी अनुशासन व्यवस्था को मुक्त कर ऊपर लाया जाये. यह केवल सिद्धांत आधारित विशुद्ध आध्यात्मिक साधना से ही सध सकता है, यह कोई अतिशयोक्तिपूर्ण वाक्य नहीं!

Monday, July 23, 2018

(१००) चर्चाएं ...भाग - 19

(१) समस्या का निदान सिर्फ साधना से ही होता है?
जी हाँ....! 'साधना' का अर्थ आखिर है क्या??? 'साधना' शब्द हमें बहुत सुनने में आता है, जैसे-- संगीत साधना, नृत्य साधना, कला साधना, योग साधना, आध्यात्मिक साधना, आदि आदि. ..तो 'साधना' शब्द से तात्पर्य निकला-- "अभ्यास", "प्रयास", "एकाग्र हो कर की गयी कोशिश"!!! ..किसी भी अभीष्ट को पाने के लिए तल्लीनता के साथ किया गया पुरुषार्थ 'साधना' ही तो हुआ! ..वह 'अभीष्ट' किसी समस्या का निदान भी तो हो सकता है. ..अर्थात् तल्लीनता एवं एकाग्रता से किये गए प्रासंगिक प्रयासों से हम किसी भी समस्या का निदान, हल आदि बखूबी कर सकते हैं. 'साधना' का अर्थ केवल नामजप, पूजा-पाठ, कर्मकांड आदि कदापि नहीं है. 'साधना' (प्रयास) जब धर्म या अध्यात्म के क्षेत्र में किया जाता है केवल तब उस क्रिया को हम धार्मिक या आध्यात्मिक साधना कह सकते हैं.

(२) धन्यवाद का भाव कितना जरूरी है?
धन्यवाद, कृतज्ञता आदि का भाव होना बहुत ही जरूरी है. यह व्यक्ति के अहंकार को बढ़ने नहीं देता (कम भी करता है) और उसकी नम्रता को दर्शाता है. अच्छेपन, जिज्ञासा और ज्ञानप्राप्ति की भूख को बनाये रखने के लिए भी प्रत्येक सार्थक प्रसंग के दौरान एवं पश्चात् मन में कृतज्ञता का भाव होना बहुत जरूरी है. इस मंच पर कुछ सार्थक प्रश्नों को उठाने और उनपर चर्चा करने के लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ.

(३) आज लोग आपसी संबंधों को लेकर संजीदा क्यों नहीं हैं?? आज स्वार्थवश हर व्यक्ति केवल अपने बारे में ही सोचता रहता है.
आपका विचार सर्वथा सही है. मनुष्य दिन-प्रतिदिन और अधिक स्वार्थी होता चला जा रहा है. इस क्रम में अब वह केवल मतलब (स्वार्थ) से सम्बन्ध जोड़ता और कायम रखता है. वह यह नहीं समझ रहा कि इस क्रम में वह आत्मीय संबंधों की दृष्टि से एकाकी (अकेला) होता चला जा रहा है! ...बुनियादी तौर पर मनुष्य एक सामजिक प्राणी है, उसे समाज से सरोकार होता है; समाज और व्यक्ति में एका ना हो तो व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ता है! ..नागरिक-शास्त्र के इसी नियम के अनुसार, हमारे इर्दगिर्द के समाज के व्यक्तियों के स्वार्थ बढ़ने और एकाकी होते जाने के कारण समाज की जीवनशैली दिनोंदिन विकृत, अव्यवस्थित और भंगुर होती जा रही है. क्षति व टूटन साफ तौर पर जाहिर हो रही है. यह सब परस्पर निःस्वार्थ आत्मीय संबंधों के मरने से हो रहा है! क्या इस मंच के प्रबुद्ध लोग आपस में आत्मीय मेलजोल बढ़ाकर एक नया अध्याय आरंभ नहीं कर सकते? ...यदि हमारे पास इसको शुरू न कर पाने के अनेकों कारण (बहाने) हैं तो सोचिए सामान्य समाज की दशा कितनी शोचनीय होगी! इस सरीखे संवेदनशील मुद्दों पर सिर्फ बहस या चर्चा करके कुछ हासिल नहीं हो सकता. वास्तव में कुछ करने की भी आवश्यकता होती है. मत भूलें कि शुरुआत एक से ही होती है, फिर कड़ियाँ जुडती चली जाती हैं. लेकिन हम और हमारे समाज के व्यक्ति किसी भी सार्थक क्षेत्र में पहल करने के साहस से पीछे हटते हैं!

(४) मनुष्य आंतरिक कलह के कारण सदा दुःख भोगता रहता है ...क्या यह सत्य है? आज के मानव के दुःख का कारण है उसका चंचल मन जो उसे शान्ति से जीने नहीं दे रहा ...मन में निरंतर द्वंद्व से वह सदा परेशान ही रहता है!
अच्छी बात कही आपने. मैं भी इससे सहमत हूँ. ..एक बात और.., कि विभिन्न स्वार्थों, आकांक्षाओं के कारण लोगों के मन में जो चंचलता बढ़ गयी है, वह उनकी अशांति का कारण तो है ही; साथ में बाई-प्रोडक्ट के रूप में इस चंचलता (मन के भटकाव) के चलते विभिन्न कार्यक्षेत्रों में उनसे बहुत से चूकें (गलतियाँ) भी होती हैं, जिसका खामियाजा बहुत से कुछ अन्य लोगों को भी उठाना पड़ता है, उनके मन में भी अशांति उत्पन्न होती है, विभिन्न परेशानियों व दुःख का सामना करना पड़ता है!!! यानी संक्षेप में कि मन की आन्तरिक कलह के कारण न केवल वह व्यक्ति प्रभावित होता है अपितु उस द्वंद्व से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उससे या उसके द्वारा किये गए व्यवसायिक कार्य के संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति भी किसी न किसी प्रकार प्रभावित (दुखी) होता है.

(५) ईश्वर हमारे अंदर है तो हम उसे बाहर क्यों खोजते हैं?
निःसंदेह 'ईश्वर' यानी वह 'ऊर्जा' (जिसे आध्यात्मिक भाषा में 'आत्मा' या 'ईश्वरीय तत्त्व' कहा जाता है) और उस आत्मा के स्वाभाविक या नैसर्गिक गुणधर्म यानी प्रॉपर्टीज (जिन्हें आध्यात्मिक भाषा में 'ईश्वरीय गुण' कहा जाता है), हमारे भीतर ही विद्यमान हैं! ..यह हमारी बेवकूफी, नादानी, अज्ञान, या लगातार गलत संस्कार मिलने व दिए जाने का परिणाम ही है कि हम पागलों समान उसे बाहर दूंढ़ते फिरते हैं! प्रचुरता से फैली और फैलाई जा रही अनाप-शनाप भ्रांतियों के चलते ईश्वर सम्बन्धी हमारे संस्कार विकृत से हो गए हैं! हम उसे पता नहीं क्या-क्या समझने लग गए हैं?! ...और पता नहीं कैसे-कैसे उसे रिझाने और संतुष्ट करने में लगे रहते हैं?! ..उस अनदेखे-अनजाने ईश्वर को कोई बाहरी व्यक्ति या महादिव्य राजा या मोटी बुद्धि वाली महान शक्ति समझकर हम कभी मासूम, कभी अंध-भक्त, कभी गुलाम, कभी चापलूस, तो कभी चालाक बनकर उससे पता नहीं कैसे-कैसे और क्या-क्या मांगते रहते हैं?! ..और तो और, हमारे अनुसार वह ईश्वर तो भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लिए भिन्न-भिन्न है; उसके नाम, रूप, शिक्षाएं, उसे रिझाने के तरीके (पूजन पद्धतियाँ/अनुष्ठान) भी भिन्न-भिन्न हैं!!! ऐसा भी नहीं कि हम यह समझते हों कि यह सब भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के चलते है; क्योंकि यदि हम ऐसा समझते होते तो सभी संस्कृतियों के तहत ईश्वर (!) व शिक्षाओं की विभिन्नताओं का सम्मान करते. ..ऐसा आज बिलकुल भी नहीं है! अपने-अपने ईश्वर, विश्वास व पद्धति को श्रेष्ठतम कहना और अन्य की आलोचना करना एक आम बात है आज! ...यानी एक तो करेला, ..ऊपर से नीम चढ़ा!!! ...ऐसे में भीतर की मिठास (नैसर्गिक ईश्वरत्व) देखने की फुर्सत ही किसे है!!! सब मनुष्यों के भीतर मौजूद सार्वभौमिक प्राकृतिक (अथवा ईश्वरीय) गुण, नैसर्गिक रूप से विद्यमान अच्छे-बुरे की पहचान की शक्ति, केवल सही और न्यायपूर्ण व्यवहार के लिए नैसर्गिक दिव्य प्रेरणा आदि ये सब विशेषताएं आज भी हैं, परन्तु उनके ऊपर व्याप्त गलत या विकृत धारणाओं और कुसंस्कारों का ढेर लग गया है, वे विशेषताएं उनके तले दब गई हैं. इसी कारण इतना पाप, अत्याचार और भ्रष्टाचार बढ़ गया है; धर्म एवं अध्यात्म के क्षेत्र में भी इसी कारण सब ऊपर-ऊपर ही तैर रहे हैं.

Monday, July 16, 2018

(९९) चर्चाएं ...भाग - 18

(१) आध्यात्मिक गुरु ही यदि अध्यात्म पथ से भटक जाए, तो शिष्य कहाँ जाएँ...?? आज के आध्यात्मिक गुरुओं को देखकर कुछ समझ नहीं आ रहा, ....कुछ अनैतिक हो चले हैं और कुछ अपनी ही व्यक्तिगत परेशानियों के कारण आत्महत्या तक कर बैठते हैं!
बाइबिल में यीशु मसीह ने लोगों को संबोधित करते हुए कुछ बातें बहुत पते की बताई हैं- "झूठे पैगम्बरों (स्वयंभू सिद्ध व्यक्तियों) से सावधान रहो, जो बड़ी सीधी 'भेड़ों' के रूप में तुम्हारे सामने आते हैं, लेकिन असल में फाड़नेवाले 'भेड़िये' हैं. ....इसलिए वे तुमसे जो कुछ (सही बातें) कहें, वह करना, और मानना; परन्तु उनके से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं (आपको कुछ कहते हैं और उनके खुद के काम कुछ और होते हैं). ....कभी 'स्वामी' भी न कहलाना, क्योंकि सबका एक ही स्वामी है. ....जो कोई अपनेआप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो कोई अपनेआप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा. ....बहुत से झूठे सिद्ध उठ खड़े होंगे और बहुतों को भरमाएंगे. और अधर्म के बढ़ने से बहुतों का प्रेम ठंडा हो जाएगा. परन्तु जो अंत तक धीरज धरे रहेगा, उसी का उद्धार होगा. ....सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिए अपने धर्म के काम न करो, नहीं तो परमेश्वर से कुछ भी फल न पाओगे. ....और जब तुम प्रार्थना करो, तो कपटियों के समान न हो (लोगों को दिखाने के लिए सभाओं में और सड़क के मोड़ों पर खड़े होकर). ....द्वार बंद करके अपने पिता से जो गुप्त में है प्रार्थना कर; और तेरा पिता जो तुझे गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा." ...........आखिरकार हम देखा-देखी और व्यग्र हो कर सम्पूर्ण रूप से अंधे अनुयायी बनते ही क्यों हैं वह भी किसी मानव के???? क्यों हम किसी मनुष्य को इतनी आसानी से अवतार या भगवान् का दर्जा दे देते हैं????

(२) महाभारत में पांडव धर्म की तरफ और कौरव अधर्म की तरफ फिर भी सबसे बड़ा अधर्म पांडव अपनी आँखों के सामने देखते रहे (चीरहरण)! सब के सब पांडव महान योद्धा पर समय पर सब के सब चुप, यह क्या दर्शाता है? कहीं न कहीं धर्म कृष्ण के साथ होने की बात करता है और अध्यात्म खुद को कृष्ण बनाने की बात करता है, अगर एक भी पांडव अध्यात्म में लीन होता तो ये सब नहीं होता!?
महाभारत और रामायण आदि ऐसे महान पौराणिक दृष्टान्त हैं जो मानव जीवन के लगभग सभी अच्छे-बुरे पहलुओं को छूते हैं, टटोलते हैं, उनको सामने लाते हैं. सीखने की दृष्टि से ये लाजवाब हैं. ...और आलोचना से भला कौन बच पाया है?! हम हैं ही ऐसे कि बिना आगे-पीछे का संदर्भ या मंतव्य जाने बगैर सबसे बुरा छांटकर पहले उसे ही इंगित करते हैं! कृपया सकारात्मक भाव रखकर कुछ सीखने की दृष्टि से इनका 'सम्पूर्ण' पठन करें, अंत में निश्चित रूप से दिल और दिमाग खुलेगा, व्यापकता आएगी और इन ग्रंथों के प्रति कृतज्ञता व प्रशंसा के भाव उपजेंगे. वैसे इस चर्चा में आपकी बात के समर्थन में या विरोध में मैं भी अनेकों तर्क दे सकता हूँ, पर वह लेखन व बहस व्यर्थ के ही होंगे- बिल्कुल अप्रयोज्य!

(३) जीवन में इतना दुःख क्यों?
कुछ दुःख हमें अपने कर्मों के कारण होते हैं और कुछ दुःख दूसरों के कर्मों के द्वारा! समाज के विभिन्न घटकों अथवा स्वयं, के द्वारा विषाक्त सोच के साथ किये गए कर्मों के कारण ही तरह-तरह के दुखों की उत्पत्ति होती है. आदर्श सुखद स्थिति के लिए मेरे सहित मेरे आसपास के संघ की सोच में शुद्धता आना आवश्यक! ...केवल मेरे अथवा केवल बाकी के समाज के उत्थान से बात नहीं बनेगी! ..दोनों को समानांतर रूप से अपनी सोच में उत्कृष्टता लानी होगी. इसीलिए किसी बंद कमरे अथवा परिसर में नहीं, बल्कि व्यष्टि और समष्टि, दोनों को ध्यान में रखकर की जाने वाली साधना (प्रयास) ही खरी आध्यात्मिक साधना है.

(४) ज़िंदगी में बहुत ज्यादा तकलीफ है अब मैं क्या करूं परेशान हो गया हूँ!?
कोशिश, कोशिश, कोशिश, ....और अच्छी सोच से की गयी सिर्फ अनवरत कोशिश ही तकलीफ को दूर करने में मदद करेगी! मन में मजबूती के साथ धारण कर लें कि कोई भी समस्या मुश्किल, ...बहुत-बहुत मुश्किल हो सकती है पर असंभव नहीं! ..और यह भी, ...कि जरूरी नहीं कि हमारी नेक कोशिशों का प्रत्युत्तर तुरन्त ही मिले! न्यूटन जी की थ्योरी के अनुसार भी किसी क्रिया का जवाब आना निश्चित है पर यह जवाब या प्रतिक्रिया तुरंत भी आ सकता है और अनिश्चितकालीन देरी से भी!!! ..जवाब कुछ अलग स्वरूप में भी आ सकता है!!! ....लेकिन यह तो निश्चित है कि हमारी क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया कभी तो अवश्य आयेगी और वह प्रतिक्रिया हमारी क्रिया की गुणवत्ता व शुद्धता अथवा अशुद्धता के अनुसार / अनुरूप ही आयेगी! इसलिए ध्यान रहे कि हमारी कोशिशें नेक हों, अच्छी सोच के साथ की जायें. धैर्य रखें, ..परेशानियाँ अवश्य जायेंगी या इन प्रयासों से वे परेशानियाँ असह्य दुःख का कारण नहीं बनने पायेंगी.

(५) क्या हमारे अंदर ऐसी शक्ति मौजूद है कि हम हमारे मन की जो काम भावना है उसे शांत कर सके जिससे मनुष्य गलत कदम ना उठाये!?
यदि हमारे घर में प्रकाश का कोई स्रोत (मोमबत्ती, लालटेन, बिजली बल्ब) मौजूद है, तो साँझ ढलने पर हम उसे प्रज्जवलित करते हैं. हमारी इस क्रिया से घर में उजियारा बरकरार रहता है, अँधेरा अपने पांव नहीं पसारने पाता. ...इसी प्रकार यदि हम अपने मन में नेकनीयति, अच्छेपन, इंसानियत आदि (अर्थात् अच्छी सोच) का चिराग सतत जलाये रखते हैं तो अवांछित बुरे विचारों रूपी अँधेरे से हमेशा बचे रहते हैं. यही एक मात्र तरीका है मन से बुराई को दूर रखने का! ...अँधेरे का एक ही कारण है-- प्रकाशस्रोत का अभाव!!! नकारात्मक विचारों का भी एक ही कारण है-- मन में अच्छे विचारों का अभाव!!!

(६) माता पिता अपनी सन्तानों को जितनी मात्रा में प्रेम करती है, संतान माता पिता को उसी मात्रा में प्रेम क्यों नहीं कर पाते हैं?
जिन्दगी के सभी प्रसंगों का निर्माण 'क्रिया-प्रतिक्रिया' से होता है. ...हमेशा क्रिया पहले होती है और प्रतिक्रिया बाद में!! हमारे प्रेम में यदि अपेक्षा होगी तो हमारी संतान भी तो हमेशा अपेक्षा ही करेगी हमसे! ..संतान के लिए कुछ करते समय हमारे मन में यदि अहसान करने का भाव होगा, तो उसके मन में भी बाद में हमारे लिए यही भाव तो आएगा! हम ज्यादा गुणा-भाग करने वाले होंगे तो हमारी संतान हमसे भी शायद चार कदम आगे होगी!!! ..इसके अतिरिक्त बहुत से लोगों का मानना होता है कि पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण से बच्चे बड़े होने पर अपने माँ-पिता को नहीं पूछते!!! मैं उनको इतना ही कहूँगा कि उनका यह कथन अपनी कमजोरियों और अकर्मण्यता पर पर्दा डालने के समान है! धिक्कार है हमें और अपनी संतानों को दिए गए संस्कारों को, यदि वे संतान को इतना बलिष्ठ ना बना पाए कि वह बाहर के किसी वैचारिक प्रदूषण का सामना कर पाए!!! यदि बड़े होकर संतान अच्छे-बुरे के ढेर में से अच्छा चुनने में असमर्थ है या हमारे प्रति उदासीन हो रही है तो दोष कहीं न कहीं हमारे वैचारिक वैक्सीनेशन में है; या कहीं न कहीं, कभी न कभी, हम स्वयं स्वार्थी रहे हैं.

(७) भले लोगों के साथ ही बुरा क्यों होता है?
मुझे तो लगता है कि अच्छा और बुरा दोनों लगभग सभी के साथ होता रहता है परन्तु अपेक्षाकृत अधिक संवदनशील होने के कारण भले लोगों को इसकी अनुभूति अधिक होती है! ठीक उसी प्रकार जैसे-- गन्दगी में आकंठ लिप्त जीव को गंदगी या बदबू से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता, कभी-कभी उसे इसका एहसास तक नहीं होता; जबकि किसी स्वच्छ संवेदनशील जीव को गंदगी या बदबू परेशान कर डालती है!

(८) अध्यात्म पैदाइशी होता है कि जीवन की मुश्किलें देखने के बाद पैदा होता है?
'अध्यात्म' अर्थात् 'आत्मा के विषय में'. 'आत्मा के विषय में' अर्थात् "स्वयं के मूल के विषय में". सरल शब्दों में कहें तो, खुद को और प्राकृतिक सिस्टम को भीतर से, जड़ से, भलीभांति समझना ही अध्यात्म है बस! ...यह विषय तो अनादिकाल से मौजूद है और आगे भी सदैव रहेगा- बिलकुल परिवर्तित!!! ...हाँ इसकी ओर हमारा ध्यान तब ही जाता है जब कभी हम अंतर्मुखता की ओर जाते हैं. जीवन की मुश्किलों अथवा दुःख से इसका कोई सम्बन्ध नहीं! ..सच तो यह है कि किसी दुःख या मुश्किल आने के बाद जो इसकी ओर मुड़ते हैं वे यथार्थ साधक ही नहीं; वे तो आर्त, परेशान, रोते हुए ही हैं; वे तो बस इसमें दुखों-परेशानियों का इलाज ढूंढ रहे होते हैं, अर्थात् स्वार्थ से आए हैं! वे जीवन भर कोरी बातों और शाब्दिक तत्त्वज्ञान में उलझकर अपनेआप को सांत्वना देते रहते हैं कि अब वे प्रसन्न हैं!!!! सच्चा साधक कभी भी आर्त, परेशान होकर साधक नहीं बनता बल्कि कौतूहल और जिज्ञासावश साधना आरंभ करता है. उसकी साधना शब्दों से कम, कर्मों से अधिक जुड़ी होती है. किसी के जीवन में जितनी जल्दी यह पल आ जाये उतना उत्तम.

(९) अध्यात्म मतलब स्वयं को जानना और स्वयं में ही उलझ जाना क्या इसका मतलब हम इतने मतलबी हो जाए कि इंसानियत भूल जाएं?
आध्यात्मिक साधना का मतलब केवल स्वयं के मूलभूत गुणों और प्राकृतिक दैवीय सिस्टम को जानना भर नहीं, केवल उसपर शास्त्रार्थ करना भर नहीं, मात्र शाब्दिक जाल में उलझना भर नहीं; अपितु जानकर, समझकर उनपर 'अमल' करना है. अध्यात्म केवल सुनने और कहने का शास्त्र नहीं अपितु करने का शास्त्र है. इसकी पूर्णता और सार्थकता रोजमर्रा की जिन्दगी में इसे लागू करने में निहित है.

(१०) हम हमेशा अपने आप को समाज के बंधनो में जकड़ा पाते हैं, कभी कभी हम खुद से रूबरू होते है, जैसे ही रूबरू होते हैं अपने को या अपनी ख्वाहिश जानते ही हम खुद को ही बहकाने लगते हैं, कभी धर्म के नाम पर कभी अध्यात्म के नाम पर, आपको ऐसा लगता है क्या? अगर लगता है तो हम ऐसा क्यों करते हैं!?
ऐसा वो लोग करते हैं जो 'शौकिया' ही या किसी 'भावुकता' के कारण अध्यात्म से जुड़े हैं. उनकी साधना, ज्ञान आदि में गहराई नहीं आ पाती. वे ऊपर ही तैरते रह जाते हैं और अध्यात्म को कुछ विशिष्ट रंगों, झंडों, प्रतीकों, परिधानों, धार्मिक क्रियाकलापों (अनुष्ठानों) आदि का खेल मात्र समझते हैं! जबकि असली अध्यात्म तो वर्ण, जाति, पंथ, समुदाय, संस्कृति, देश, काल आदि से बहुत परे है. यह सार्वभौमिक सिद्धांत स्वरूप है और सिद्धांत किसी की बपौती नहीं! उदाहरण के लिए गुरुत्वाकर्षण का नियम एक सार्वभौमिक सिद्धांत ही है; क्या किसी विशिष्ट जाति, पंथ, संस्कृति आदि से इसका कोई लेना-देना है? क्या आत्मा या दिखाई देने वाले मानवीय अंगों, रक्त की लालिमा, प्रकृति के नियमों आदि का किसी पंथ विशेष या समुदाय से कोई सम्बन्ध है?? ऐसे ही आध्यात्मिक नियम-सिद्धांत भी सार्वभौमिक एवं सर्वमान्य हैं, इन पर किसी धर्म-पंथ का ठप्पा लगाना बेवकूफी ही है! ये हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई अर्थात् किसी परिधि विशेष में बंधे हुए कैसे हो सकते हैं? हाँ, बहुत छूट देते हुए इन सब संस्कृतियों के अनुसार जीवनचर्या और धार्मिक क्रियाकलापों को इस (अध्यात्म) तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग घोषित किया जा सकता है! परन्तु ज्ञान के शिखर पर पहुँचने पर हमें इन सब को तिलांजलि देना अनिवार्य हो जाता है. इनसे अभी भी चिपके रहने का अर्थ यही होगा कि हम कहीं बीच के पड़ाव पर ही हैं. तब यह स्वीकार करने में शर्म कैसी कि हम अभी तक अपनेआप से पूर्णतया परिचित नहीं हुए, हमें सिद्धांतों के बारे में बहुत कुछ जानना अभी शेष है!