Monday, July 30, 2018

(१०१) चर्चाएं ...भाग - 20

(१) गौ हत्या के नाम पर आज इंसानों को मारना कहाँ तक तर्क संगत है...?? धर्म की राजनीति इंसान को कहाँ तक गिरा सकती है...आज देश में हो रही घटनाओं का दृश्य अति चिंताजनक है....इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
यहाँ राजा और मंत्री अपनी प्रजा को भलीभांति सुशिक्षित और सभ्य बनाने के बजाय सामंतशाही कानूनों और भाषणों से उसे उन्मादी और असभ्य बना रहे हैं; और इन सब के पीछे सत्ता का लालच है. गाय कितनी भी पूजनीय क्यों न हो पर क्या वह एक इन्सान से अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है??? गाय तो गाय, खुले में घूम रहे उनके वंश के उपद्रवी सांडों, और यहाँ तक कि आवारा कुत्तों (स्ट्रीट डॉग्स) को भी इंसानी जीवन से ऊपर का दर्जा दिया जा रहा है. उनकी जनसंख्या दिनोंदिन बढती जा रही है, रोज वे अनेक लोगों को दौड़ाते हैं, घायल करते हैं, काटते हैं, प्राणघातक हमला करते हैं. लखनऊ सहित सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में आवारा पशुओं का भीषण आतंक है. यहाँ तो रेलवे स्टेशन के भीड़भाड़ वाले प्लेटफ़ॉर्मों पर भी इनको आतंक फैलाते कभी भी देखा जा सकता है. लेकिन 'पशु संरक्षण' के नाम पर 'इंसानी संरक्षण' की उपेक्षा समझ से बिलकुल परे है!!! ...विचित्र नगरी और विचित्र राजा हैं यहाँ!!! लगता है सत्तालोलुप राजा और कुंद-दिमाग जनता भांग पीकर बस उन्माद में ही मस्त हैं! असली विकास कहीं बहुत पीछे छूट गया है. मेरे विचार से आज जो भी विकास दिखाई पड़ रहा है उसे हम आभासी विकास या विकास की सूजन मात्र कह सकते हैं.

(२) जीवन को आनंदमय कैसे बनाया जाये? क्या मन हमेशा पवित्र रखने से ही यह संभव है?
'आनंद', प्रसन्नता के चरम की एक दिव्य अनुभूति है. और सही कहा आपने कि मन को हमेशा पवित्र बनाये रखने से ही यह संभव है. मन पवित्र रहेगा तो विचार भी पवित्र होंगे; विचार पवित्र होंगे तो कर्म भी उसी के अनुरूप श्रेष्ठ गुणवत्ता के ही होंगे. ..और नेक व न्यायसंगत कर्म करने के पश्चात् ही खरे 'आनंद' की अनुभूति होती है. ...लेकिन हमारे संघ में व्याप्त वर्तमान प्रदूषित वैचारिक वातावरण के चलते आज के समाज में खरी आनंदानुभूति के दर्शन दुर्लभ ही हैं! ..आपके मूल प्रश्न, "जीवन को आनंदमय कैसे बनाया जाये?" का व्यावहारिक या प्रैक्टिकल जवाब यह होगा कि, "आज के राजा और मंत्रियों (सलाहकारों) यानी देश के वैचारिक और कर्म-सम्बन्धी नीति-नियंताओं को सर्वप्रथम अपने मन में पवित्रता का भाव लाना होगा. पहले वे नेक, न्यायसंगत बन जायें और नैतिक मूल्यों व पर्यावरण का ध्यान रखते हुए इंसानी हितों की रक्षा का बीड़ा उठाएं, स्वयं सुशिक्षित व सभ्य हों तथा प्रजा को भी इसके लिए प्रेरित करें; ..तो उनका और शेष प्रजा का जीवन अवश्य ही आनंदमय होगा. साथ ही धर्म से जुड़े महानुभाव भी यदि लोकेषणा, जागतिक मोह, रूढ़ियों आदि को त्यागकर अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं भी प्रगति करें और अपने अनुयायियों के विचारों को भी प्रगतिशील बनाएं तो प्रजा का जीवन और भी अधिक आनंदमय होगा.

(३) सात्विक विचार क्या सात्विक भोजन से ही आते हैं?
हमारे समाज में व्याप्त धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार बोलूं तो सात्विक भोजन से तात्पर्य केवल शाकाहारी भोजन से ही होता है, तथा मांस-मछली, अंडा, प्याज, लहसुन, तम्बाकू (धूम्र), मदिरा आदि तामसिक (वर्ज्य) खाद्य माने गए हैं. ..और रूढ़िवादी प्रचलित धारणाओं के अनुसार इन वर्ज्य खाद्यों से परहेज रखने वाला ही सात्विक है और उसी के विचार सात्विक होते हैं!! ...कुछ ज्यादा नहीं हो गया यह!!! इस विषय पर इस मंच पर मैं पहले भी अनेक चर्चाओं में इस विषय पर अपना मत रख चुका हूँ, जोकि इन प्रचलित धारणाओं से काफी अलग हैं! ..लेकिन मेरे विचार से भोजन का महत्त्व मूलतः शरीर के पोषण हेतु ही है, तथा देश-काल-परिस्थिति-संस्कृति अनुसार भोज्य पदार्थों में भिन्नताएं होती हैं, आ सकती हैं; यह एक साधारण स्वाभाविक सी बात है. ..बड़ी बात यह है कि जो भी भोज्य पदार्थ हम ले रहे हैं, यदि वह हम पूरे विश्वास से ले रहे हैं, मन में कोई चोर नहीं है, भोजन चोरी या लूट का नहीं है, वह हमने गलत या भ्रष्टाचारी कमाई से नहीं खरीदा, उससे हम किसी अन्य व्यक्ति को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं; ...तो उसका सेवन हमारे लिए उपयुक्त और सात्विक है, वह नकारात्मक या तामसिक विचार कतई उत्पन्न नहीं कर सकता! ...यदि हम रूढ़िवादी प्रचलित धारणा के अनुसार ही चलते हैं तो हमें भारत के कुछ भूभाग या जनसंख्या को छोडकर लगभग शेष विश्व को अधर्मी घोषित करना पड़ेगा, और यदि हम ऐसा करते हैं तो हमसे अधिक पिछड़ा व अहंकारी और कोई न होगा! शेष विचार विस्तार से '(१९) खान-पान और धर्म', इस लेख में पढ़ें.

(४) एक व्यक्ति जन्म से पैसा वाला और सुखी होता है, और एक जन्म से दुखी गरीब और अनाथ होता है, क्यों?
अपने भाग्य (प्रारब्ध/अकाउंट बैलेंस) के कारण!!! ..और प्रारब्ध का निर्माण हमारे अपने कर्मों से ही होता है. जैसे बैंक में अकाउंट खोलने पर, लॉकर आदि लेने पर हम हमारी अर्जित धन-संपत्ति उसमें जमा करते हैं. हमारा कहीं बाहर ट्रांसफर हो जाने पर वह सब अकाउंट, धन आदि भी वहां ट्रांसफर हो जाता है. वक्त के साथ बैंक की बिल्डिंग, कर्मचारी आदि बदलते रहते हैं, गुणाभाग के तरीके बदलते रहते हैं पर हमारा जमा धन-संपत्ति हमारा ही कहलाता है और वह बरकरार रहता है! वह सब हमें ही मिलता है. वह हमें फायदा या नुकसान दोनों पहुंचा सकता है! नेकी का हुआ तो बल्ले-बल्ले, अन्यथा चोरी या भ्रष्टाचार का पाए जाने पर वह हमें सजा भी दिला सकता है! ...अब पते की बात यह कि, बैंक तो मानव निर्मित, मानव संचालित है फिर भी हिसाब-किताब, नफे-नुकसान में कोई गड़बड़ी नहीं! ..फिर कर्म का खाता तो ईश्वर अथवा सृष्टि या प्रकृति देखती है; क्या उनसे गड़बड़ी की गुंजाइश की कल्पना कोई कर सकता है?!
ऐसी प्रत्येक घटना जिसमें हमारा अभी का कोई कर्म सम्मिलित नहीं, निश्चित ही वह घटना हमारे किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप पैदा हुई है.

(५) मनुष्य जन्म के बाद के जन्म का निर्णय वह स्वयं करता है?! मनुष्य यहाँ से मुक्त भी हो सकता है, भक्त भी हो सकता है और चैरासी लाख योनियों में भी जा सकता है!
जी नहीं! मनुष्य के जीवन में उसके द्वारा संपादित कर्मों और मृत्यु के समय उसके अंतिम (शेष बचे) संस्कारों व सोच आदि के आधार पर, प्रकृति के नियमानुसार उसके सूक्ष्म देह की आगामी गति (नियति) स्वतः ही तय होती है. ये नियम ना तो कोई जान पाया है और ना ही किसी विधि-अनुष्ठान से कोई कभी जान पाएगा!!! प्रकृति के अनेक नियम अभी भी मानवीय बुद्धि से कोसों दूर हैं! विज्ञान व अध्यात्म, दोनों के नियमों-सिद्धांतों द्वारा पहुंचे हुए मनीषियों को भी बस इतना ही ज्ञान हो पाया है कि प्रकृति-सम्मत क्रियाएं (कर्म-संस्कार-सोच) कुछ अच्छा रंग लायेंगे, और शेष बुरा! कर्म के फलस्वरूप अगले जन्मों में अच्छा या बुरा कब और किसी रूप-अवस्था में आएगा, इसकी अटकलें मात्र ही लगाते हैं लोग! इस जन्म पश्चात् किसी अमुक के मुक्त होने की बात भी दृढ़ता से कहना मेरी समझ से दुस्साहस ही है! शब्दजाल के अधिक पचड़े में ना पड़ते हुए बेहतर तो यही होगा कि जितना हम जान पाए हैं, मात्र उसी के अनुसार खुद को सचेत रखकर उत्कृष्ट सोच बनाने और न्यायसंगत (प्रकृति-सम्मत) कर्म करने पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया जाये, ...फल अपनेआप उसी अनुसार उचित समय पर, उचित अवस्था में प्रकट हो जायेगा! घूमफिर कर 'गीता' का सन्देश भी तो यही कहता है!

(६) स्वभाव में सहजता कैसे आती है?
बहुधा भीतर की आवाज सुनकर ही कोई फैसला लेना (या कर्म करना), ज्यादा ऊहापोह में न पड़कर प्रकृति-सम्मत जीवनशैली अपनाना, प्रकृति या कुदरत के नियम-सिद्धांतों को समझना व उनका अनुपालन करना, दूसरों की भावनाओं का भी आदर करना, आदि जैसे कुछ गुण-आदतें यदि हम डाल लें तो स्वभाव में सहजता खुदबखुद ही आ जाएगी! यह सब होना इस बात का भी परिचायक है कि आप अध्यात्म से अपनेआप ही जुड़ चुके हैं. अध्यात्म कोई किताबी या प्रवचनी ज्ञान थोड़े ही है!

(७) धन्यवाद का भाव बहुत ही कम देखने को मिलता है!?
अहं (अहंकार) का तत्त्व बहुत अधिक होने के कारण इस काल में आदर, धन्यवाद, कृतज्ञता आदि का भाव बहुत कम हो गया है. अधिकांश लोग प्रकृति, प्रकृति के नियमों-सिद्धांतों, प्राकृतिक जीवनशैली आदि से बहुत दूरी बना चुके हैं, तो नैसर्गिक व श्रेष्ठ नैतिक गुणों से भी हीन होते जा रहे हैं. अध्यात्म से दूर होना इसी को कहते हैं!! केवल सत्संगों, प्रवचनों, आश्रमों-मठों आदि में जाना व वहां प्रवास करना तो अध्यात्म से जुड़ना नहीं है!

(८) अनुशासन कभी सिखाया नहीं जाता बल्कि अंदर से खुद होता है...आत्म अनुशासन से चरित्र सुदृढ़ बनता है...?? आज अनुशासनहीनता के बढ़ने का यही प्रमुख कारण है की बाहरी अनुशासन थोप कर हम सब को केवल गुलाम बना रहे हैं!
यह बात बिलकुल ठीक है कि अनुशासन भीतर से स्वमेव होता है! भले और बुरे के ज्ञान से उपजा कुदरती अनुशासन हम सबके भीतर विद्यमान है. यानी ज्ञान-ज्योति (ओरिजिनल सॉफ्टवेयर) सबके भीतर प्री-इनस्टॉल्ड है. लेकिन यह मत भूलिए कि प्रत्येक जन्मोपरांत निर्मित जागतिक संस्कार व उनसे उपजे विचार-केंद्र भी हमारे मन-मस्तिष्क पर कब्ज़ा किये हुए हैं! ये सांसारिक संस्कार हमारे ओरिजिनल सॉफ्टवेयर का हिस्सा कदापि नहीं हैं, ये तो आगंतुक व जबरन घुस आए तत्त्व हैं. इनके कारण हम मनुष्य अनुशासनहीन हो जाते हैं. और इस अनुशासनहीनता को रोकने के लिए ही विभिन्न सरकारें व न्यायपालिकाएं (ऊपर का बुद्धिमान वर्ग) कुछ नियम-कानून बनाकर उन्हें हम पर लागू करते हैं (आपके शब्दों में- 'थोपते हैं'). मैं भी मानता हूँ कि मनुष्य को नियंत्रित करने के लिए यह एक वैकल्पित व्यवस्था है. ...असली व्यवस्था तो भगवान् ने हमारे भीतर लिखी ही हुई है! पुनः, ...वह असली व्यवस्था, हमारे ऊलजलूल संस्कारों (अविद्या) के तले दबी हुई है, इसलिए वाह्य व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है. ...दरअसल 'अध्यात्म' विषय (यानी प्राकृतिक नियम-सिद्धांत) और 'आध्यात्मिक साधना' (प्राकृतिक नियम-सिद्धांतों का दैनंदिन जीवन में अनुपालन यानी रोजमर्रा के जीवन में लागू करना), ये हमारी जड़ीले संस्कारों का नाश करते हैं और प्राकृतिक व्यवस्था खुदबखुद प्रकट हो जाती है. हमारे समाज में बहुतायत की प्राकृतिक व्यवस्था दबी और निष्क्रिय होने के कारण बाहरी अनुशासन व्यवस्था लागू करना या थोपना कोई गलत बात नहीं! वह अनाचार को किसी सीमा तक तो रोक ही सकती है! ..परन्तु निश्चित रूप से स्थाई समाधान यही है कि अंदरूनी अनुशासन व्यवस्था को मुक्त कर ऊपर लाया जाये. यह केवल सिद्धांत आधारित विशुद्ध आध्यात्मिक साधना से ही सध सकता है, यह कोई अतिशयोक्तिपूर्ण वाक्य नहीं!