Monday, July 16, 2018

(९९) चर्चाएं ...भाग - 18

(१) आध्यात्मिक गुरु ही यदि अध्यात्म पथ से भटक जाए, तो शिष्य कहाँ जाएँ...?? आज के आध्यात्मिक गुरुओं को देखकर कुछ समझ नहीं आ रहा, ....कुछ अनैतिक हो चले हैं और कुछ अपनी ही व्यक्तिगत परेशानियों के कारण आत्महत्या तक कर बैठते हैं!
बाइबिल में यीशु मसीह ने लोगों को संबोधित करते हुए कुछ बातें बहुत पते की बताई हैं- "झूठे पैगम्बरों (स्वयंभू सिद्ध व्यक्तियों) से सावधान रहो, जो बड़ी सीधी 'भेड़ों' के रूप में तुम्हारे सामने आते हैं, लेकिन असल में फाड़नेवाले 'भेड़िये' हैं. ....इसलिए वे तुमसे जो कुछ (सही बातें) कहें, वह करना, और मानना; परन्तु उनके से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं (आपको कुछ कहते हैं और उनके खुद के काम कुछ और होते हैं). ....कभी 'स्वामी' भी न कहलाना, क्योंकि सबका एक ही स्वामी है. ....जो कोई अपनेआप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो कोई अपनेआप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा. ....बहुत से झूठे सिद्ध उठ खड़े होंगे और बहुतों को भरमाएंगे. और अधर्म के बढ़ने से बहुतों का प्रेम ठंडा हो जाएगा. परन्तु जो अंत तक धीरज धरे रहेगा, उसी का उद्धार होगा. ....सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिए अपने धर्म के काम न करो, नहीं तो परमेश्वर से कुछ भी फल न पाओगे. ....और जब तुम प्रार्थना करो, तो कपटियों के समान न हो (लोगों को दिखाने के लिए सभाओं में और सड़क के मोड़ों पर खड़े होकर). ....द्वार बंद करके अपने पिता से जो गुप्त में है प्रार्थना कर; और तेरा पिता जो तुझे गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा." ...........आखिरकार हम देखा-देखी और व्यग्र हो कर सम्पूर्ण रूप से अंधे अनुयायी बनते ही क्यों हैं वह भी किसी मानव के???? क्यों हम किसी मनुष्य को इतनी आसानी से अवतार या भगवान् का दर्जा दे देते हैं????

(२) महाभारत में पांडव धर्म की तरफ और कौरव अधर्म की तरफ फिर भी सबसे बड़ा अधर्म पांडव अपनी आँखों के सामने देखते रहे (चीरहरण)! सब के सब पांडव महान योद्धा पर समय पर सब के सब चुप, यह क्या दर्शाता है? कहीं न कहीं धर्म कृष्ण के साथ होने की बात करता है और अध्यात्म खुद को कृष्ण बनाने की बात करता है, अगर एक भी पांडव अध्यात्म में लीन होता तो ये सब नहीं होता!?
महाभारत और रामायण आदि ऐसे महान पौराणिक दृष्टान्त हैं जो मानव जीवन के लगभग सभी अच्छे-बुरे पहलुओं को छूते हैं, टटोलते हैं, उनको सामने लाते हैं. सीखने की दृष्टि से ये लाजवाब हैं. ...और आलोचना से भला कौन बच पाया है?! हम हैं ही ऐसे कि बिना आगे-पीछे का संदर्भ या मंतव्य जाने बगैर सबसे बुरा छांटकर पहले उसे ही इंगित करते हैं! कृपया सकारात्मक भाव रखकर कुछ सीखने की दृष्टि से इनका 'सम्पूर्ण' पठन करें, अंत में निश्चित रूप से दिल और दिमाग खुलेगा, व्यापकता आएगी और इन ग्रंथों के प्रति कृतज्ञता व प्रशंसा के भाव उपजेंगे. वैसे इस चर्चा में आपकी बात के समर्थन में या विरोध में मैं भी अनेकों तर्क दे सकता हूँ, पर वह लेखन व बहस व्यर्थ के ही होंगे- बिल्कुल अप्रयोज्य!

(३) जीवन में इतना दुःख क्यों?
कुछ दुःख हमें अपने कर्मों के कारण होते हैं और कुछ दुःख दूसरों के कर्मों के द्वारा! समाज के विभिन्न घटकों अथवा स्वयं, के द्वारा विषाक्त सोच के साथ किये गए कर्मों के कारण ही तरह-तरह के दुखों की उत्पत्ति होती है. आदर्श सुखद स्थिति के लिए मेरे सहित मेरे आसपास के संघ की सोच में शुद्धता आना आवश्यक! ...केवल मेरे अथवा केवल बाकी के समाज के उत्थान से बात नहीं बनेगी! ..दोनों को समानांतर रूप से अपनी सोच में उत्कृष्टता लानी होगी. इसीलिए किसी बंद कमरे अथवा परिसर में नहीं, बल्कि व्यष्टि और समष्टि, दोनों को ध्यान में रखकर की जाने वाली साधना (प्रयास) ही खरी आध्यात्मिक साधना है.

(४) ज़िंदगी में बहुत ज्यादा तकलीफ है अब मैं क्या करूं परेशान हो गया हूँ!?
कोशिश, कोशिश, कोशिश, ....और अच्छी सोच से की गयी सिर्फ अनवरत कोशिश ही तकलीफ को दूर करने में मदद करेगी! मन में मजबूती के साथ धारण कर लें कि कोई भी समस्या मुश्किल, ...बहुत-बहुत मुश्किल हो सकती है पर असंभव नहीं! ..और यह भी, ...कि जरूरी नहीं कि हमारी नेक कोशिशों का प्रत्युत्तर तुरन्त ही मिले! न्यूटन जी की थ्योरी के अनुसार भी किसी क्रिया का जवाब आना निश्चित है पर यह जवाब या प्रतिक्रिया तुरंत भी आ सकता है और अनिश्चितकालीन देरी से भी!!! ..जवाब कुछ अलग स्वरूप में भी आ सकता है!!! ....लेकिन यह तो निश्चित है कि हमारी क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया कभी तो अवश्य आयेगी और वह प्रतिक्रिया हमारी क्रिया की गुणवत्ता व शुद्धता अथवा अशुद्धता के अनुसार / अनुरूप ही आयेगी! इसलिए ध्यान रहे कि हमारी कोशिशें नेक हों, अच्छी सोच के साथ की जायें. धैर्य रखें, ..परेशानियाँ अवश्य जायेंगी या इन प्रयासों से वे परेशानियाँ असह्य दुःख का कारण नहीं बनने पायेंगी.

(५) क्या हमारे अंदर ऐसी शक्ति मौजूद है कि हम हमारे मन की जो काम भावना है उसे शांत कर सके जिससे मनुष्य गलत कदम ना उठाये!?
यदि हमारे घर में प्रकाश का कोई स्रोत (मोमबत्ती, लालटेन, बिजली बल्ब) मौजूद है, तो साँझ ढलने पर हम उसे प्रज्जवलित करते हैं. हमारी इस क्रिया से घर में उजियारा बरकरार रहता है, अँधेरा अपने पांव नहीं पसारने पाता. ...इसी प्रकार यदि हम अपने मन में नेकनीयति, अच्छेपन, इंसानियत आदि (अर्थात् अच्छी सोच) का चिराग सतत जलाये रखते हैं तो अवांछित बुरे विचारों रूपी अँधेरे से हमेशा बचे रहते हैं. यही एक मात्र तरीका है मन से बुराई को दूर रखने का! ...अँधेरे का एक ही कारण है-- प्रकाशस्रोत का अभाव!!! नकारात्मक विचारों का भी एक ही कारण है-- मन में अच्छे विचारों का अभाव!!!

(६) माता पिता अपनी सन्तानों को जितनी मात्रा में प्रेम करती है, संतान माता पिता को उसी मात्रा में प्रेम क्यों नहीं कर पाते हैं?
जिन्दगी के सभी प्रसंगों का निर्माण 'क्रिया-प्रतिक्रिया' से होता है. ...हमेशा क्रिया पहले होती है और प्रतिक्रिया बाद में!! हमारे प्रेम में यदि अपेक्षा होगी तो हमारी संतान भी तो हमेशा अपेक्षा ही करेगी हमसे! ..संतान के लिए कुछ करते समय हमारे मन में यदि अहसान करने का भाव होगा, तो उसके मन में भी बाद में हमारे लिए यही भाव तो आएगा! हम ज्यादा गुणा-भाग करने वाले होंगे तो हमारी संतान हमसे भी शायद चार कदम आगे होगी!!! ..इसके अतिरिक्त बहुत से लोगों का मानना होता है कि पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण से बच्चे बड़े होने पर अपने माँ-पिता को नहीं पूछते!!! मैं उनको इतना ही कहूँगा कि उनका यह कथन अपनी कमजोरियों और अकर्मण्यता पर पर्दा डालने के समान है! धिक्कार है हमें और अपनी संतानों को दिए गए संस्कारों को, यदि वे संतान को इतना बलिष्ठ ना बना पाए कि वह बाहर के किसी वैचारिक प्रदूषण का सामना कर पाए!!! यदि बड़े होकर संतान अच्छे-बुरे के ढेर में से अच्छा चुनने में असमर्थ है या हमारे प्रति उदासीन हो रही है तो दोष कहीं न कहीं हमारे वैचारिक वैक्सीनेशन में है; या कहीं न कहीं, कभी न कभी, हम स्वयं स्वार्थी रहे हैं.

(७) भले लोगों के साथ ही बुरा क्यों होता है?
मुझे तो लगता है कि अच्छा और बुरा दोनों लगभग सभी के साथ होता रहता है परन्तु अपेक्षाकृत अधिक संवदनशील होने के कारण भले लोगों को इसकी अनुभूति अधिक होती है! ठीक उसी प्रकार जैसे-- गन्दगी में आकंठ लिप्त जीव को गंदगी या बदबू से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता, कभी-कभी उसे इसका एहसास तक नहीं होता; जबकि किसी स्वच्छ संवेदनशील जीव को गंदगी या बदबू परेशान कर डालती है!

(८) अध्यात्म पैदाइशी होता है कि जीवन की मुश्किलें देखने के बाद पैदा होता है?
'अध्यात्म' अर्थात् 'आत्मा के विषय में'. 'आत्मा के विषय में' अर्थात् "स्वयं के मूल के विषय में". सरल शब्दों में कहें तो, खुद को और प्राकृतिक सिस्टम को भीतर से, जड़ से, भलीभांति समझना ही अध्यात्म है बस! ...यह विषय तो अनादिकाल से मौजूद है और आगे भी सदैव रहेगा- बिलकुल परिवर्तित!!! ...हाँ इसकी ओर हमारा ध्यान तब ही जाता है जब कभी हम अंतर्मुखता की ओर जाते हैं. जीवन की मुश्किलों अथवा दुःख से इसका कोई सम्बन्ध नहीं! ..सच तो यह है कि किसी दुःख या मुश्किल आने के बाद जो इसकी ओर मुड़ते हैं वे यथार्थ साधक ही नहीं; वे तो आर्त, परेशान, रोते हुए ही हैं; वे तो बस इसमें दुखों-परेशानियों का इलाज ढूंढ रहे होते हैं, अर्थात् स्वार्थ से आए हैं! वे जीवन भर कोरी बातों और शाब्दिक तत्त्वज्ञान में उलझकर अपनेआप को सांत्वना देते रहते हैं कि अब वे प्रसन्न हैं!!!! सच्चा साधक कभी भी आर्त, परेशान होकर साधक नहीं बनता बल्कि कौतूहल और जिज्ञासावश साधना आरंभ करता है. उसकी साधना शब्दों से कम, कर्मों से अधिक जुड़ी होती है. किसी के जीवन में जितनी जल्दी यह पल आ जाये उतना उत्तम.

(९) अध्यात्म मतलब स्वयं को जानना और स्वयं में ही उलझ जाना क्या इसका मतलब हम इतने मतलबी हो जाए कि इंसानियत भूल जाएं?
आध्यात्मिक साधना का मतलब केवल स्वयं के मूलभूत गुणों और प्राकृतिक दैवीय सिस्टम को जानना भर नहीं, केवल उसपर शास्त्रार्थ करना भर नहीं, मात्र शाब्दिक जाल में उलझना भर नहीं; अपितु जानकर, समझकर उनपर 'अमल' करना है. अध्यात्म केवल सुनने और कहने का शास्त्र नहीं अपितु करने का शास्त्र है. इसकी पूर्णता और सार्थकता रोजमर्रा की जिन्दगी में इसे लागू करने में निहित है.

(१०) हम हमेशा अपने आप को समाज के बंधनो में जकड़ा पाते हैं, कभी कभी हम खुद से रूबरू होते है, जैसे ही रूबरू होते हैं अपने को या अपनी ख्वाहिश जानते ही हम खुद को ही बहकाने लगते हैं, कभी धर्म के नाम पर कभी अध्यात्म के नाम पर, आपको ऐसा लगता है क्या? अगर लगता है तो हम ऐसा क्यों करते हैं!?
ऐसा वो लोग करते हैं जो 'शौकिया' ही या किसी 'भावुकता' के कारण अध्यात्म से जुड़े हैं. उनकी साधना, ज्ञान आदि में गहराई नहीं आ पाती. वे ऊपर ही तैरते रह जाते हैं और अध्यात्म को कुछ विशिष्ट रंगों, झंडों, प्रतीकों, परिधानों, धार्मिक क्रियाकलापों (अनुष्ठानों) आदि का खेल मात्र समझते हैं! जबकि असली अध्यात्म तो वर्ण, जाति, पंथ, समुदाय, संस्कृति, देश, काल आदि से बहुत परे है. यह सार्वभौमिक सिद्धांत स्वरूप है और सिद्धांत किसी की बपौती नहीं! उदाहरण के लिए गुरुत्वाकर्षण का नियम एक सार्वभौमिक सिद्धांत ही है; क्या किसी विशिष्ट जाति, पंथ, संस्कृति आदि से इसका कोई लेना-देना है? क्या आत्मा या दिखाई देने वाले मानवीय अंगों, रक्त की लालिमा, प्रकृति के नियमों आदि का किसी पंथ विशेष या समुदाय से कोई सम्बन्ध है?? ऐसे ही आध्यात्मिक नियम-सिद्धांत भी सार्वभौमिक एवं सर्वमान्य हैं, इन पर किसी धर्म-पंथ का ठप्पा लगाना बेवकूफी ही है! ये हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई अर्थात् किसी परिधि विशेष में बंधे हुए कैसे हो सकते हैं? हाँ, बहुत छूट देते हुए इन सब संस्कृतियों के अनुसार जीवनचर्या और धार्मिक क्रियाकलापों को इस (अध्यात्म) तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग घोषित किया जा सकता है! परन्तु ज्ञान के शिखर पर पहुँचने पर हमें इन सब को तिलांजलि देना अनिवार्य हो जाता है. इनसे अभी भी चिपके रहने का अर्थ यही होगा कि हम कहीं बीच के पड़ाव पर ही हैं. तब यह स्वीकार करने में शर्म कैसी कि हम अभी तक अपनेआप से पूर्णतया परिचित नहीं हुए, हमें सिद्धांतों के बारे में बहुत कुछ जानना अभी शेष है!