Monday, July 23, 2018

(१००) चर्चाएं ...भाग - 19

(१) समस्या का निदान सिर्फ साधना से ही होता है?
जी हाँ....! 'साधना' का अर्थ आखिर है क्या??? 'साधना' शब्द हमें बहुत सुनने में आता है, जैसे-- संगीत साधना, नृत्य साधना, कला साधना, योग साधना, आध्यात्मिक साधना, आदि आदि. ..तो 'साधना' शब्द से तात्पर्य निकला-- "अभ्यास", "प्रयास", "एकाग्र हो कर की गयी कोशिश"!!! ..किसी भी अभीष्ट को पाने के लिए तल्लीनता के साथ किया गया पुरुषार्थ 'साधना' ही तो हुआ! ..वह 'अभीष्ट' किसी समस्या का निदान भी तो हो सकता है. ..अर्थात् तल्लीनता एवं एकाग्रता से किये गए प्रासंगिक प्रयासों से हम किसी भी समस्या का निदान, हल आदि बखूबी कर सकते हैं. 'साधना' का अर्थ केवल नामजप, पूजा-पाठ, कर्मकांड आदि कदापि नहीं है. 'साधना' (प्रयास) जब धर्म या अध्यात्म के क्षेत्र में किया जाता है केवल तब उस क्रिया को हम धार्मिक या आध्यात्मिक साधना कह सकते हैं.

(२) धन्यवाद का भाव कितना जरूरी है?
धन्यवाद, कृतज्ञता आदि का भाव होना बहुत ही जरूरी है. यह व्यक्ति के अहंकार को बढ़ने नहीं देता (कम भी करता है) और उसकी नम्रता को दर्शाता है. अच्छेपन, जिज्ञासा और ज्ञानप्राप्ति की भूख को बनाये रखने के लिए भी प्रत्येक सार्थक प्रसंग के दौरान एवं पश्चात् मन में कृतज्ञता का भाव होना बहुत जरूरी है. इस मंच पर कुछ सार्थक प्रश्नों को उठाने और उनपर चर्चा करने के लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ.

(३) आज लोग आपसी संबंधों को लेकर संजीदा क्यों नहीं हैं?? आज स्वार्थवश हर व्यक्ति केवल अपने बारे में ही सोचता रहता है.
आपका विचार सर्वथा सही है. मनुष्य दिन-प्रतिदिन और अधिक स्वार्थी होता चला जा रहा है. इस क्रम में अब वह केवल मतलब (स्वार्थ) से सम्बन्ध जोड़ता और कायम रखता है. वह यह नहीं समझ रहा कि इस क्रम में वह आत्मीय संबंधों की दृष्टि से एकाकी (अकेला) होता चला जा रहा है! ...बुनियादी तौर पर मनुष्य एक सामजिक प्राणी है, उसे समाज से सरोकार होता है; समाज और व्यक्ति में एका ना हो तो व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ता है! ..नागरिक-शास्त्र के इसी नियम के अनुसार, हमारे इर्दगिर्द के समाज के व्यक्तियों के स्वार्थ बढ़ने और एकाकी होते जाने के कारण समाज की जीवनशैली दिनोंदिन विकृत, अव्यवस्थित और भंगुर होती जा रही है. क्षति व टूटन साफ तौर पर जाहिर हो रही है. यह सब परस्पर निःस्वार्थ आत्मीय संबंधों के मरने से हो रहा है! क्या इस मंच के प्रबुद्ध लोग आपस में आत्मीय मेलजोल बढ़ाकर एक नया अध्याय आरंभ नहीं कर सकते? ...यदि हमारे पास इसको शुरू न कर पाने के अनेकों कारण (बहाने) हैं तो सोचिए सामान्य समाज की दशा कितनी शोचनीय होगी! इस सरीखे संवेदनशील मुद्दों पर सिर्फ बहस या चर्चा करके कुछ हासिल नहीं हो सकता. वास्तव में कुछ करने की भी आवश्यकता होती है. मत भूलें कि शुरुआत एक से ही होती है, फिर कड़ियाँ जुडती चली जाती हैं. लेकिन हम और हमारे समाज के व्यक्ति किसी भी सार्थक क्षेत्र में पहल करने के साहस से पीछे हटते हैं!

(४) मनुष्य आंतरिक कलह के कारण सदा दुःख भोगता रहता है ...क्या यह सत्य है? आज के मानव के दुःख का कारण है उसका चंचल मन जो उसे शान्ति से जीने नहीं दे रहा ...मन में निरंतर द्वंद्व से वह सदा परेशान ही रहता है!
अच्छी बात कही आपने. मैं भी इससे सहमत हूँ. ..एक बात और.., कि विभिन्न स्वार्थों, आकांक्षाओं के कारण लोगों के मन में जो चंचलता बढ़ गयी है, वह उनकी अशांति का कारण तो है ही; साथ में बाई-प्रोडक्ट के रूप में इस चंचलता (मन के भटकाव) के चलते विभिन्न कार्यक्षेत्रों में उनसे बहुत से चूकें (गलतियाँ) भी होती हैं, जिसका खामियाजा बहुत से कुछ अन्य लोगों को भी उठाना पड़ता है, उनके मन में भी अशांति उत्पन्न होती है, विभिन्न परेशानियों व दुःख का सामना करना पड़ता है!!! यानी संक्षेप में कि मन की आन्तरिक कलह के कारण न केवल वह व्यक्ति प्रभावित होता है अपितु उस द्वंद्व से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उससे या उसके द्वारा किये गए व्यवसायिक कार्य के संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति भी किसी न किसी प्रकार प्रभावित (दुखी) होता है.

(५) ईश्वर हमारे अंदर है तो हम उसे बाहर क्यों खोजते हैं?
निःसंदेह 'ईश्वर' यानी वह 'ऊर्जा' (जिसे आध्यात्मिक भाषा में 'आत्मा' या 'ईश्वरीय तत्त्व' कहा जाता है) और उस आत्मा के स्वाभाविक या नैसर्गिक गुणधर्म यानी प्रॉपर्टीज (जिन्हें आध्यात्मिक भाषा में 'ईश्वरीय गुण' कहा जाता है), हमारे भीतर ही विद्यमान हैं! ..यह हमारी बेवकूफी, नादानी, अज्ञान, या लगातार गलत संस्कार मिलने व दिए जाने का परिणाम ही है कि हम पागलों समान उसे बाहर दूंढ़ते फिरते हैं! प्रचुरता से फैली और फैलाई जा रही अनाप-शनाप भ्रांतियों के चलते ईश्वर सम्बन्धी हमारे संस्कार विकृत से हो गए हैं! हम उसे पता नहीं क्या-क्या समझने लग गए हैं?! ...और पता नहीं कैसे-कैसे उसे रिझाने और संतुष्ट करने में लगे रहते हैं?! ..उस अनदेखे-अनजाने ईश्वर को कोई बाहरी व्यक्ति या महादिव्य राजा या मोटी बुद्धि वाली महान शक्ति समझकर हम कभी मासूम, कभी अंध-भक्त, कभी गुलाम, कभी चापलूस, तो कभी चालाक बनकर उससे पता नहीं कैसे-कैसे और क्या-क्या मांगते रहते हैं?! ..और तो और, हमारे अनुसार वह ईश्वर तो भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लिए भिन्न-भिन्न है; उसके नाम, रूप, शिक्षाएं, उसे रिझाने के तरीके (पूजन पद्धतियाँ/अनुष्ठान) भी भिन्न-भिन्न हैं!!! ऐसा भी नहीं कि हम यह समझते हों कि यह सब भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के चलते है; क्योंकि यदि हम ऐसा समझते होते तो सभी संस्कृतियों के तहत ईश्वर (!) व शिक्षाओं की विभिन्नताओं का सम्मान करते. ..ऐसा आज बिलकुल भी नहीं है! अपने-अपने ईश्वर, विश्वास व पद्धति को श्रेष्ठतम कहना और अन्य की आलोचना करना एक आम बात है आज! ...यानी एक तो करेला, ..ऊपर से नीम चढ़ा!!! ...ऐसे में भीतर की मिठास (नैसर्गिक ईश्वरत्व) देखने की फुर्सत ही किसे है!!! सब मनुष्यों के भीतर मौजूद सार्वभौमिक प्राकृतिक (अथवा ईश्वरीय) गुण, नैसर्गिक रूप से विद्यमान अच्छे-बुरे की पहचान की शक्ति, केवल सही और न्यायपूर्ण व्यवहार के लिए नैसर्गिक दिव्य प्रेरणा आदि ये सब विशेषताएं आज भी हैं, परन्तु उनके ऊपर व्याप्त गलत या विकृत धारणाओं और कुसंस्कारों का ढेर लग गया है, वे विशेषताएं उनके तले दब गई हैं. इसी कारण इतना पाप, अत्याचार और भ्रष्टाचार बढ़ गया है; धर्म एवं अध्यात्म के क्षेत्र में भी इसी कारण सब ऊपर-ऊपर ही तैर रहे हैं.