Wednesday, August 8, 2018

(१०३) चर्चाएं ...भाग - 22

(१) चिंतन करने से शांति मिलती है?
केवल सोचने (चिंतन) से नहीं, ..सोच कर कुछ करने से कुछ होता है; ..और यदि हम कुछ सकारात्मक और सार्थक करने में सफल रहे तो अवश्य ही उस कर्म के बाद कुछ समय के लिए शांति मिलती है! ..'कुछ समय' इसलिए कहा क्योंकि कुछ-कुछ समय के अन्तराल पर हमें अन्य कर्म करने के अवसर मिलते रहते हैं. यदि वे भी सार्थक रखने में हम सफल रहते हैं तो आन्तरिक खुशी (आनंद) व शांति आदि बरकरार रहते हैं! निरर्थक चिंतन अशांति पैदा करता है; आनंद और शांति पाने के लिए सार्थक चिंतन का महत्त्व भी केवल ५ प्रतिशत है; सार्थक चिंतन पश्चात् सार्थक कर्म करने से शेष ९५ प्रतिशत सधता है. ...बड़ा अर्थ यह यह कि किसी भी तरह से केवल भगवत् (या आत्म) चिंतन करने से भी बात कुछ खास नहीं बनती अपितु उनके गुणों (या आत्मा के नैसर्गिक गुणों) को आत्मसात करने और रोजाना के जीवन के प्रत्येक प्रसंग में उन्हें घोलने से ही सच्चा आनंद और शांति मिलते हैं. इन गुणों (सरलता से कहें तो सर्वमान्य नैतिक गुणों) की अथाह चर्चा पहले भी हम अनेक बार कर ही चुके हैं.

(२) हम प्रसन्न कैसे रह सकते हैं? मन में संतुष्टि नहीं है, कोई दूसरा आपको प्रसन्नता दे सकता है यह भ्रम है!
अच्छा सोच कर और अच्छा करके; और यह कर लेने के पश्चात् फल को नियति पर छोड़ कर हम लगभग चिंतामुक्त यानी प्रसन्न रह सकते हैं. वैसे सुनने-पढ़ने में यह बात जितनी सरल सी लगती है उतनी है नहीं!! ..लेकिन फिर भी असाध्य या असंभव भी नहीं है. ..यही तो साधना है! आपकी अच्छी क्रियाओं का फल किसी उचित समय पर किसी उचित माध्यम से (अर्थात् किसी के भी माध्यम द्वारा) किसी उचित रूप में कभी भी प्रकट हो सकता है (बिना आपको यह बताए-जताए भी कि यह आपके अमुक कर्म का फल है!). ..अर्थ यह कि आपके किसी सार्थक कर्म की बदौलत आपको किसी दूसरे के माध्यम से भी अनायास ही किसी भी प्रकार की खुशी मिल सकती है, ..यह कोई भ्रम तो नहीं!!! विज्ञान के क्रिया-प्रतिक्रिया सम्बन्धी नियम और ऊर्जा के अक्षुण्ण रहने (फॉर्म बदल सकती है लेकिन रहेगी बरकरार) सम्बन्धी नियम, इन दो नियमों को यदि मिलाकर यदि अपने ऊपर भी लागू करके कल्पना करें तो अध्यात्म की भी अनेकों गुत्थियां सुलझने लगती हैं, जिन्हें आज के तथाकथित धर्मगुरुओं ने बेवजह विज्ञान से दूरी बनाकर उलझा रखा है.

(३) विचारों को स्वतंत्र कैसे करें?
यदि मैं आपके प्रश्न को ठीक से समझ पा रहा हूँ तो अवश्य ही आपका प्रश्न बहुत अर्थपूर्ण, व्यापक और महत्वपूर्ण है! केवल भोले-भाले अन्धश्रद्ध भक्त ही नहीं अपितु हम बुद्धिजीवियों की सोच के ऊपर भी अक्सर किसी न किसी अन्य की सोच का ठप्पा लगा होता है. अर्थात् वह स्वतंत्र सोच नहीं होती बल्कि किसी न किसी तरह से किसी से प्रभावित होती है! अब अन्य व्यक्ति या समुदाय जिससे हमारी सोच प्रभावित है, वह सही भी हो सकता है और गलत भी! यह भी हो सकता है कि वह कभी सही रहा हो लेकिन आज वह सोच प्रासंगिक न हो!? लेकिन यदि हम उसकी सोच को अपनी सोच पर हावी कर लेते हैं तो हमारी सोच स्वतंत्र कहां रही!? भला कैसे हम वर्तमान परिस्थितियों में स्वतंत्र रूप से कुछ नवीन साथ ही प्रासंगिक विचारमंथन कर सकते हैं!? कैसे उसी दृश्य (जीवन) की नए कोण से तस्वीर खींच सकते हैं!? बिना स्वतंत्र सोच भला कैसे आगे की भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं!? सोच को स्वतंत्र करने का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम उसे निरंकुश या विकृत कर दें! स्वतंत्र सोच इसलिए चाहिए कि पूर्व-बंधनों से मुक्त हो कर हम परिष्कार की क्रियाओं को व्यापक रूप से सक्रिय कर सकें. आज जो भी राष्ट्र भौतिक प्रगति साथ ही अपनी न्यायव्यवस्था को भी सुदृढ़ करने में सफल रहा है या हो रहा है वह अपनी सोच को स्वतंत्र और प्रगतिशील करके ही! बेड़ियों को काटकर ही आगे बढ़ा जा सकता है यह विचार जब प्रबलता से हमारे दिलोदिमाग पर छाएगा तभी हम छटपटाकर पूरा जोर लगाकर अपनेआप को, अपने विचारों को मुक्त कर पायेंगे! अपनी कोई भी दौड़ हम दूसरे के पैरों से पूरी नहीं कर सकते! ...एक अन्य पहलू यह कि, बलशाली व स्वतंत्र नित नयी राहें खोजते हैं, नए रास्ते बनाते हैं; और कमजोर व परतंत्र सालों-साल उन्हीं रास्तों पर बहुत पीछे चलते हुए मात्र अनुयायी या अनुगामी बने रह जाते हैं! आज हम और हमारा देश किस पड़ाव पर हैं, कैसे हैं, क्यों हैं, ..अब यह बताने की आवश्यकता नहीं. ..कोई शॉर्टकट नहीं काम आएगा और न ही भगवान् जी हमारी मदद करने आयेंगे, अब केवल स्वतंत्र और अभिनव (इनोवेटिव) सोच के साथ ही हमारा उद्धार होगा.

(४) भूत-प्रेत इंसान को क्यों परेशान करते हैं?
आपकी चर्चा का जवाब मैं एक काल्पनिक दृष्टान्त से आरंभ करता हूँ-- "एक ऐसा छोटा सा पिछड़ा हुआ शहर था जिसमें लगभग जंगलराज था. चोर, उचक्कों, लुटेरों का सरेआम आतंक रहता था. वहां के लोग इसके आदी हो चुके थे और इस अनाचार को अपनी नियति मानकर बेहाल जीवन गुजार रहे थे. लेकिन वहां अभी नया बसा एक व्यक्ति इन सब से बहुत त्रस्त था और कम से कम अपने जीवन और धन को तो सर्वप्रथम सुरक्षित करना चाहता था. उसने वहां के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी से दोस्ती गांठ ली. हालांकि अन्य पुलिस फोर्स वहां बहुत कम थी और असहाय सी थी किन्तु वह अफसर बहुत तेजतर्रार, निडर और ईमानदार था. दोस्त बन जाने के बाद उस व्यक्ति का अधिकांश समय उस ऑफिसर के साथ ही बीतता था. उनके परस्पर आत्मीय संबंधों को वहां के दुर्जनों-उचक्कों ने भी देखा, और उस व्यक्ति को परेशान या लूटने का विचार त्याग दिया. वे अब उसके सामने भी नहीं आते थे! वह व्यक्ति अब उस नरक समान शहर में भी सुरक्षित और भयमुक्त था!" ......इसी प्रकार, इस संसार में परमेश्वर से बढ़कर तेजवान, साहसी, निडर, न्यायप्रिय और ईमानदार शख्सियत भला और क्या होगी!! जो भी उससे दोस्ती गांठ लेता है वह भूत-प्रेत सरीखे चोर-उचक्कों से सुरक्षित हो जाता है. ....भूत-प्रेत-पिशाच आदि का अस्तित्व ही उनके लिए समाप्त हो जाता है! यदि भूत-प्रेत का अस्तित्व है तो केवल उन लोगों के लिए जिनकी परमेश्वर से पूरी तरह से मित्रता व नजदीकी नहीं!! जिस प्रकार उस शहर में भूत-प्रेत सरीखे चोर उचक्के थे लेकिन सिर्फ कमजोर लोगों के लिए; ..केवल उन्हीं पर उनका वश चलता था; ...उसी प्रकार सही में यदि वातावरण में भूत-प्रेत आदि हैं भी तो सिर्फ कमजोर (ईश्वर की छत्रछाया से परे) लोगों के लिए! ...जो ईश्वर से जितनी अधिक नजदीकी लायेगा भूत-प्रेत उससे उतनी ही अधिक दूरी बना लेंगे. रौशनी (प्रकाश-स्रोत) के आगे अँधेरा कभी टिक पाया है क्या?? ईश्वर रूपी प्रकाश-स्रोत को हमेशा अपने अंतर्मन में जगाये रखिये, ये भूत-प्रेत आपके आसपास भी नहीं फटकेंगे. ...बड़ा अर्थ यह कि हम जितना अधिक ईश्वरीय (यानी श्रेष्ठ व उत्कृष्ट) गुणों के समीप जाते जायेंगे उतना ही निर्भय होते जायेंगे.