(१) ईश्वर-रूप का प्रत्यक्ष दर्शन कैसे संभव होता है!
(१) अब तक ज्ञात प्राचीनतम ज्ञानस्रोत वेदों में ईश्वर (या परमेश्वर अर्थात् ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता) को इस ब्रह्माण्ड का सिद्धांत स्वरूप माना गया है. ..सिद्धांत स्वरूप यानी घटित होने वाले सभी क्रियाकलापों / चक्रों के पीछे (नेपथ्य में) विद्यमान कारणभूत आधारभूत शक्ति! यह सैद्धांतिक शक्ति अप्रकट और निराकार होती है. अर्थात् सीधे शब्दों में, परमेश्वर (सर्वोच्च शक्ति या सत्ता) मूलतः अजन्मा, अप्रकट एवं निराकार है. जानने-पहचानने अथवा समझने में सरलता के लिए आगे के साहित्यों में बताए अनुसार बहुत से लोग उस शक्ति को सदाशिव (या शिव) के नाम से जानते हैं. ....(२) प्रथमतः साकार जीवन नहीं था. कदाचित् बाद में जीव व जीवन की उत्पत्ति उसी एकमात्र शक्ति की एक शाखा अथवा भाग से आरंभ हुई; ..उसके उस भाग को समझने, जानने और उसकी अपेक्षाओं का पालन करने में सरलता व सुगमता हो, इस अभिप्राय से आगे के साहित्यों में उसे 'ब्रह्मा' का नाम दिया गया. ....(३) सृष्टि के निर्माण के बाद उसकी योगक्षेम की भी आवश्यकता थी, उस निमित्त उसी आधारभूत शक्ति के एक अन्य भाग द्वारा यह कार्य आरम्भ हुआ; ..समझने की सरलता के लिए बाद के साहित्यों में उसे 'विष्णु' बताया गया. ....(४) क्योंकि अपूर्णताओं के कारण साकार जीवन सदा के लिए संभव न था इस कारण से उसके लय अथवा समाप्ति के लिए उसी आधारभूत शक्ति की एक तीसरी शाखा ने कार्य आरंभ किया, जिसे पहले के साहित्यों में 'रुद्र' के नाम से और बाद के साहित्यों में 'महेश' व बहुत से अन्य नामों के द्वारा भी जाना गया. ....(५) बाद में सृष्टि के अन्य अनेक कार्यों के संपादन हेतु उसी आधारभूत शक्ति या ऊर्जा के अनेक अन्य रूपों ने कार्य आरंभ किया. समझने में आसानी के लिए मनीषियों ने उन्हें अलग-अलग नामों से संबोधित किया. ....(६) अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न तो वह आधारभूत शक्ति साकार थी और न ही उसकी अन्य शाखाएं साकार रूप में थीं. यह तो काफी बाद के काल में सृष्टि के चक्र को ठीक से चलता रहने देने के लिए एवं उस चक्र के पीछे की शक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनकी 'भक्ति' आरंभ हुई. और उन 'भक्तों' के साकार-भाव अनुसार उस समय के मनीषियों, शिल्पियों, चित्रकारों द्वारा उन शक्तियों के बहुत से मानवीय मूर्त रूप, चित्र आदि सृजित हुए. आज भी हम देख सकते हैं कि सभ्यता, संस्कृति व स्थान आदि के अनुसार उनकी मूर्तियों व चित्रों में भिन्नता पाई जाती है. देशाटन कीजिये तो स्पष्टता से समझ में आएगा कि उत्तर भारत में उनका रूप, रंग, आकार (यहाँ तक कि नाम भी) कुछ है और दक्षिण भारत में कुछ अन्य!! ...किन्तु भक्त के असल भाव में फिर भी समानता है! ..क्योंकि भाव मूलतः निराकार होता है, साकारता उसमें बाद में आती है! ..मन में भाव हो तो उत्तर के भक्त को भगवान् उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप को वह पूजता है, ..और दक्षिण के भक्त को उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप में वहां का भक्त उन्हें पूजता है! ...इसी प्रकार किसी अन्य समुदाय (जैसे ईसाई, मुसलमान आदि) को उसके इष्ट का वही रूप ध्यान में आता है जिसकी वह आराधना करता है. उन्हें यहोवा, यीशु मसीह, मक्का, मदीना (अर्थात् जिनको वे मानते हैं) आदि के दर्शन होते हैं, अन्य किसी के नहीं. ...अर्थात् बड़ा अर्थ यह कि, ...."इस सृष्टि के पीछे का 'नियंता' मूलतः अजन्मा, अप्रकट, एवं निराकार है. उसकी अन्य कार्यकारी शाखाएं भी निराकार ही हैं. उसके नियमों-सिद्धांतों में बंधे रहने के लिए, फलस्वरूप सुखी रहने के लिए, बाद के काल में मनीषियों ने 'भक्ति' का आरंभ किया और कराया! सुविधापूर्ण भक्ति करने के लिए देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति के अनुसार ईश्वर के विभिन्न नामों-रूपों आदि के साथ भिन्न-भिन्न साहित्यों का निर्माण हुआ, ...और फिर भक्तों ने अपने आराध्य, विश्वास आदि के दर्शन भी तदनुसार ही प्राप्त किये. ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन एक प्रकार से भाव की साकारता ही है, जो वास्तव में है तो आभासी ही!?"
(२) जीवन में संतुलन होना कितना आवश्यक है?
भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य संतुलन होना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि हम मानव भौतिकता और आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण हैं. मूलतः हमारा वजूद आध्यात्मिक है, लेकिन इस समय भौतिक भूलोक पर और भौतिक मानव देह में होने के कारण हम भौतिकता को भी अनदेखा नहीं कर सकते तथा साथ ही आध्यात्मिकता को तो अनदेखा करने का प्रश्न नहीं उठता!!! हम वर्तमान में हाइब्रिड हैं इसलिए दोनों विशेषताओं में गजब का संतुलन स्थापित करके ही हम 'अभी' सुखी, शांत व आनंदित रह सकते हैं तथा 'भविष्य' की यात्रा का भी सुखद होना सुनिश्चित कर सकते हैं! अभी मोटी-मोटी बात बस यह जान लें कि "कमी और अति हर चीज की बुरी." (उदाहरण के तौर पर- "पानी यानी जल" को ले लें तो कहा जाता है कि जल ही जीवन है, किन्तु सब जानते हैं कि पानी की कमी भी हमारे जीवन के लिए घातक हो सकती है और अति भी! भोजन के साथ भी यही बात लागू होती है और जीवन से जुड़ी अन्य किसी महत्वपूर्ण चीज पर भी!). ठीक-ठीक संतुलन हमेशा लाभप्रद रहता है. ....एक तरफ मन की शुद्धि और अच्छे विचारों को पनपने देने के लिए आध्यात्मिक साहित्य, सत्संग आदि को अपनाएं, तो दूसरी तरफ किसी किसी उत्सव, शादी, पार्टी, अच्छे सिनेमा, खेल-कूद, नृत्य (डांस), मौज-मस्ती यानी खिलंदड़ेपन को भी अपनाएं! ..एक के लिए दूसरे को छोड़ देना कोई संतुलन वाली बात नहीं! सब कुछ करते समय हमारी खराई (अच्छापन) बनी रहे यह सबसे पते की बात है. "हरफनमौला बनकर जीवन जीने से 'सम्पूर्णता' का एहसास होता है." मैं खुद भी ऐसा ही करता हूँ, और ये बातें मैंने अपने निजी अनुभव से कही हैं.
(३) हमें किसी की मदद का फल (परितोष) ईश्वर द्वारा मिलता है?
देखिये, हम किसी की मदद यदि किसी आकांक्षा यानी चाहत से करते हैं (जैसे हमें अच्छा फल मिले या पूर्वजन्म के पाप धुल जायें), तो वह सकाम कर्म (अथवा भक्ति) हुआ. सकाम यानी किसी चाहत या स्वार्थ के साथ किया गया कर्म! चाहत भी एक प्रकार से स्वार्थ ही तो है! फिर भी आप द्वारा की गयी वह मदद ईश्वर द्वारा देखी जाएगी और उसका फल भी शायद उसी रूप में मिल जाये जिस रूप में आप चाहते हैं. ..लेकिन ईश्वर को निष्काम यानी बिना किसी फल की अभिलाषा के साथ किया गया सुकर्म अपेक्षाकृत अधिक पसंद है! ईश्वर आप द्वारा की गयी निष्काम (निःस्वार्थ) मदद को भी देखता है और उसका फल भी देता है. लेकिन निष्काम मदद का फल वह अपनी बुद्धि के अनुसार देता है! ..और निश्चित रूप से उसकी बुद्धि आपकी बुद्धि से तो बेहतर ही होगी!!! ...उदाहरण के लिए-- मानों एक माँ के दो बच्चे हैं, एक नटखट, वाचाल और नखरीला है, किसी भी काम को करने के बाद या बिना कुछ किये भी वह माँ से कुछ न कुछ माँगा करता है, माँ भी वात्सल्य में यथासंभव उसकी फरमाइश के हिसाब से उसे दे दिया करती है; ..वहीं दूसरी तरफ उसका दूसरा बच्चा बड़ा सीधा और सरल स्वभाव का है, जरूरत और निर्देश के अनुसार वह सब काम करता रहता है लेकिन उसके ओठों पर कभी कोई फरमाइश और दिल में कोई स्वार्थ या चाहत नहीं आते! ...क्या माँ उसका ध्यान नहीं रखती?! ...माँ उसका ध्यान कहीं अधिक रखती है क्योंकि माँ को मालुम है कि वह कभी कुछ मांगता नहीं है, इसलिए वह उसकी जरूरतों का ध्यान अपनी बुद्धि से रखती है. माँ की बुद्धि यकीनन उस अबोध बालक से अधिक बेहतर होती है. वह उसकी जरूरत के हिसाब से उसे उचित समय पर उचित साधन या चीजें देती रहती है. हम साधकों के लिए यहाँ माँ अर्थात् ईश्वर; और सरल बालक अर्थात् अच्छे साधक.
(४) स्वार्थी धोखेबाज को ईश्वर द्वारा दंड मिलता है?
ईश्वर अथवा प्रकृति के नियम इतने अच्छे और अकाट्य हैं कि किये गए कर्म की गुणवत्ता के अनुरूप उस कर्म का फल किसी उचित समय पर और उचित रूप में आए बगैर नहीं रहता! वह उचित समय और उचित रूप क्या है, इसे ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता, हम मानव मात्र अनुमान लगा सकते हैं! किसी से धोखा खाने के बाद यदि हम बड़ी तड़प के साथ चाहें कि उसका दंड उसे मिले, तो जरूर मिलेगा और शायद जल्दी ही मिल जाये, और शायद हमारी चाहत के अनुरूप ही मिल जाये. ...लेकिन यदि हम ईश्वर से उसके दंड की मांग न करें तिस पर भी उसे ईश्वर (या प्रकृति) की अपनी न्याय-व्यवस्था के अंतर्गत किसी उचित समय पर और किसी उचित रूप में दण्डित अवश्य किया जायेगा! समय और दंड के स्वरूप का निर्धारण ईश्वर या प्रकृति द्वारा होगा. आप बिलकुल निश्चिन्त रहें, और ईश्वर के न्याय की राह न देखते रहें! ....बड़ी बात यह कि भक्त के लिए किसी फल की इच्छा रखने पर उसकी भक्ति 'सकाम' हो जाती है और बिना किसी मांग के वह 'निष्काम' कहलाती है! ...अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से अपनी बुद्धि से बड़ी विह्वलता कुछ मांगने पर वह हमें हमारी इच्छा-अनुरूप दे देता है, और आगे कुछ अनर्थ हो जाने पर 'मांगने' का दोष हम पर ही लगता है; लेकिन दूसरी ओर यदि हम अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से कुछ भी मांग नहीं करते तब भी वह हमारी समस्याएं देखता है और उचित समय पर उचित मदद अपनेआप करता है (हमारी सोच और कामों से प्रभावित हो कर बड़े अपनेपन से), तब आगे कुछ अनर्थ होने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि फैसले लेने में वह बहुत अधिक बुद्धिमान है. ...अर्थात् 'सकाम' कर्म में कर्तापन रहता है और 'निष्काम' कर्म में कर्तापन नहीं रहता. हमारे प्रारब्ध यानी आगे के भाग्य का निर्माण भी हमारे कर्म के कर्तापन से ही होता है! ईश्वर से कुछ मांगें या ना भी मांगें तो भी कर्म का प्रत्युत्तर तो मिलेगा ही, मांगने पर कर्तापन लगेगा और ना मांगने पर कर्तापन ईश्वर का ही होगा!