Friday, April 3, 2009

(६) सर्व साधकों को चाहिए कि ... (भाग १)


(१) सभी साधक एक-दूसरे के साथ ऐसे मिलजुल कर रहें, जैसे कि एक 'आदर्श परिवार' के सदस्य आपस में रहते हैं।

(२) प्रत्येक साधक को दूसरे साधकों के साथ सदैव वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि वह स्वयं के लिए दूसरों से अपेक्षा करता है। यह बात लिखनी, पढ़नी व समझनी सरल है, पर लागू करनी थोड़ी कठिन; परन्तु हमारे लिए इसका निरंतर अभ्यास अति आवश्यक है।

(३) जब सभी साधक एक-दूसरे को अपने परिवार के सदस्य के समान ही मानेंगे, तो परस्पर भावना बढ़ेगी, एक-दूसरे की सहायता करने की तत्परता बढ़ेगी। ठीक वैसे, जैसे परिवार के सब कार्य हमें अपने ही तो लगते हैं।

(४) किसी साधक की कठिनाई के समय में, चाहे वह भौतिक हो या आध्यात्मिक, सर्व साधकों को उसकी सहायता के लिए उसी प्रकार तत्पर होना चाहिए जैसे अपने पुत्र-पुत्री, भाई-बहन अथवा माता-पिता के लिए होते हैं।

(५) उपरोक्त प्रकार की स्थिति बनाने के लिए सभी साधकों में आपस में खुलापन होना चाहिए व सभी साधकों में पारिवारिक सदस्यों की भाँति आपसी स्नेह (प्रीति) होना चाहिए।

(६) चूँकि हम सभी साधक हैं और परिपूर्णता के लिए प्रयासरत हैं, ... ईश्वरीय गुणों को अपने आचरण से प्रकट करने हेतु प्रयासरत हैं; अतः स्वयं के एवं अपने प्रत्येक साधक भाई-बहन के संस्कारों पर भी नियंत्रण पाना व संस्कारों को एक-एक करके समाप्त करना परम आवश्यक है। यही हमारा प्रथम लक्ष्य होना चाहिए, क्योंकि यही तो हमारी साधना का मुख्य भाग है।

(७) अपने अवगुणों और गलतियों को कम करने के साथ-साथ प्रत्येक साधक को, अन्य साधकों के लिए भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनकी भी प्रगति निरंतर होती रहे। इसके लिए प्रत्येक उस साधक को (जो गलतियाँ कर रहा हो या जिसमें कोई अवगुण हो) उसी प्रकार समझाना चाहिए जैसे अपने किसी परम-निकट या परम-प्रिय सम्बन्धी को समझा रहे हों। इस प्रकार का भाव रखने पर किसी के मन में भी गलत विचार नहीं आएंगे।

(८) जैसे पुत्र या पुत्री अथवा भाई-बहन, माता-पिता आदि से कोई गलती यदि हो जाती है, तो हम उसे धिक्कारते नहीं और न ही अपने परिवार से अलग करने का निर्णय लेते हैं; वरन उसे प्यार और सौहार्दपूर्ण ढंग से समझाते हैं और उसकी आदतों को ठीक करने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं। हाँ कभी-कभार थोड़ा-बहुत डाँटते भी हैं, सजा भी देते हैं, पर यह सब ऊपरी तौर पर ही। हमारे भीतर उसके प्रति स्नेह पूर्ववत् बना रहता है। डाँटते या सजा देते समय हमारी स्थिति नारियल के समान होनी चाहिए यानी बाहर से तो कठोर पर भीतर से नरम। यदि घर के सभी सदस्य किसी एक सदस्य को ठीक करने या संतुलित करने की ठान लेते हैं, तो गंभीरता और ईमानदारी से एकत्रित प्रयास कर हम उसे सही राह पर ला पाते हैं अन्यथा परिवार बिखर सकता है। पर सम्पूर्ण व एकत्रित, गंभीर एवं ईमानदार प्रयत्नों से भी जब वह सदस्य नहीं सुधरता, तो उसे उसके हाल पर छोड़ना ही पड़ता है। पर फिर भी उसके उज्जवल भविष्य के लिए हम अपने मन में सकारात्मक विचार रखते हैं, जैसे - उसका सदैव भला हो, वह सही मार्ग पर आ जाये और पुनः घर लौट आये, आदि-आदि। ठीक ऐसा ही दृष्टिकोण हमें अपने प्रत्येक साधक भाई-बहन के प्रति रखना होगा। हमें एक सूत्र में बंधे रहना होगा व एकत्रित होना नहीं छोड़ना होगा। तथा शीघ्र दूसरे अनजान जनों को भी साधक बनने के लिए प्रेरित करना होगा। इससे हमारा सुन्दर परिवार बढ़ेगा और यही एकत्रित संयुक्त परिवार ही तो हमारी शक्ति होगा, जहाँ केवल प्रेम, नम्रता, भाई-चारे, परस्पर भावना और तत्परता का बोल-बाला होगा। वस्तुतः ऐसा परिवार पूरा विश्व हो, यही तो परमेश्वर चाहता है। अतः हमारे ऊपर ही यह दायित्व है कि हम सभी साधक आपस में एक सूत्र में बंध कर ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें कि दूसरे स्वयं ही प्रेरित हों इस परिवार का सदस्य बनने के लिए। मेरे सहित मेरे परिवार के सभी सदस्यों के स्वभावदोष कम हों, गलतियाँ कम हों, प्रेम अधिक हो, ... ऐसा दृष्टिकोण प्रत्येक साधक का होना चाहिए।

(९) भौतिक वस्तुओं व संसाधनों की चर्चा व चिंता सिर्फ उतनी ही करनी होगी, जितनी हमारे जीवन के निर्बाध रूप से चलने के लिए आवश्यक है। यदि किसी साधक के अतिआवश्यक भौतिक क्रिया-कलाप किसी कारण से बाधित हो रहे हों, तो उस साधक की सहायता करना अन्य साधकों का कर्तव्य होना चाहिए, ठीक वैसे ही, जैसे वह आपके परिवार का ही अभिन्न अंग हो।

(१०) अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पहचानना व उन्हें सीमित रखना प्रत्येक साधक का कर्त्तव्य है, यह हमारे नियोजन, मितव्ययता व अनुशासन के गुण को प्रकट करता है। भौतिक सुविधाओं और सुख-सामग्रियों के बीच रहने की आदतों से यथासंभव प्रत्येक को परे रहना चाहिए क्योंकि उनकी आदत पड़ जाने से, भविष्य में उनके अभाव से हमें बैचेनी हो सकती है।

(११) किसी भी साधक में स्वयं की भौतिक संपन्नता अथवा विपन्नता को लेकर कोई भी उच्च अथवा हीन भावना नहीं होनी चाहिए।

(१२) साधना के तौर पर सर्वप्रथम साधकों को मूलभूत ईश्वरीय गुण अपनाने व अपने आचारों के माध्यम से उन गुणों को प्रकट करने की आवश्यकता है। ईश्वरीय मूलभूत गुण तो अनंत हैं पर इनमें से प्रमुख हैं -- नम्रता, ईमानदारी, प्रीति, अनुशासन, नियोजन, दृढ़ता, समर्पण, समभाव, तत्परता आदि।

(१३) इन सभी गुणों के प्रकटीकरण के लिए आवश्यक है - ईश्वर के प्रति भाव; भाव अर्थात् विकल्परहित विश्वास, बल्कि इससे भी बढ़ कर। भाव का एक और अर्थ है, वह है - चित्त की संतुलित अवस्था। यह अवस्था हमें साधना के द्वारा तब ही प्राप्त होती है जब हम कर्म तो करते हैं और यथासम्भव ईश्वरीय गुणों के अनुसार ही करने का भरपूर प्रयत्न करते हैं, पर कर्तापन स्वयं नहीं रखते तथा फल भी ईश्वर-इच्छा पर छोड़ देते हैं। ऐसा जब हम सदैव करते हैं तो यही चित्त की संतुलित अवस्था है। यही सम्पूर्ण भाव है ईश्वर के प्रति, सम्पूर्ण निष्ठा है ईश्वरीय गुणों के प्रति।