कुछ समय (लगभग दो वर्ष) पहले मैं एक विद्वान व ज्ञानी व्यक्ति से मिला। समाज के अभिजात्य वर्ग में से एक हैं, सरकार में कर्मठ प्रशासनिक अधिकारी हैं। पिछले लगभग २० वर्षों से अध्यात्म में भी उनकी गहरी रुचि है और समाज की उन्नति के विषय में गहरा चिंतन भी करते हैं। इस विषय पर उनकी लगभग ३० किताबें व अन्य लघु साहित्य प्रकाशित हो चुके हैं। उनके मत के अनुसार व्यक्ति की आध्यात्मिक पूंजी ही सर्वाधिक महत्त्व रखती है, अन्य कुछ नहीं। उनका यह कथन शत-प्रतिशत ठीक है। ... चूँकि मेरा रुझान भी अध्यात्म की तरफ पिछले कुछ वर्षों से है, और इस अवधि में थोड़ा-बहुत लेखन कार्य भी अन्तःस्फूर्ति से हुआ। शुरुआती दिनों में मुझे अपने ऊपर बहुत गर्व होता था कि मेरी मानसिक व बौद्धिक क्षमता एकाएक बहुत बढ़ गयी है, मैं विलक्षणों की श्रेणी में आ गया हूँ, और यह सब लेखन कार्य मैं ही कर रहा हूँ। पर समय बीतने के साथ-साथ बहुत ही जल्दी मुझे यह अहसास तीव्रता से हुआ कि अध्यात्म-विषयक जो भी विचार मेरे मन में आ रहे हैं, वे सब गुरु अथवा ईश्वर अथवा प्रकृति द्वारा प्रेषित हैं, .. मेरी बुद्धि का इसमें तनिक भी योगदान नहीं है। या बुद्धि का योगदान मात्र शब्द-विन्यास तक ही सीमित हो सकता है। .. पूर्व में मैंने इस विषय पर अन्य लेखकों या विचारकों को कभी नहीं पढ़ा-सुना था, इसलिए दिग्भ्रमित था; बाद में सबसे पहले डॉक्टर जयंत आठवले जी, तदुपरांत गांधीजी, विवेकानंद जी आदि को पढ़ा, तो अनेक स्थानों पर मेरे द्वारा लिखित विचारों व इन सब के विचारों में, कुछ विरोधाभासों के बावजूद अद्भुत समानता व सामंजस्य दिखाई पड़ा। कई स्थानों पर तो शब्द-विन्यास भी बहुत मिलता-जुलता था। मैं अवाक् रह गया।
... तब मुझे वस्तुस्थिति का भान हुआ कि अन्तःस्फूर्ति से बहुत गहराई से आने वाले निश्च्छल, निर्विकार व व्यापकता लिए हुए विचार, जो केवल मानव हित हेतु ही होते हैं, वे केवल और केवल ईश्वर या प्रकृति द्वारा ही संप्रेषित होते हैं। चिड़िया, कौए आदि पक्षी चौपाये जानवरों (जैसे गाय) की पीठ पर बैठ जाते हैं, उनसे अठखेलियाँ करते हैं, .. पर मनुष्य के साथ वे ऐसा नहीं करते। शायद उन्हें यह प्रकृति ही सिखाती है कि उनके लिए क्या उचित है। ऐसे अनेक कई और भी उदाहरण इस प्रकृति में दिखाई पड़ सकते हैं यदि हम सूक्ष्मता से निरीक्षण कर पायें। शायद हम इसे जीव-जंतुओं की सहज बुद्धि भी कह सकते हैं ..। पर ध्यान से देखें तो एक जंगली कुत्ते, गली के एक आवारा कुत्ते व एक पालतू कुत्ते की बुद्धि में बहुत अधिक अंतर होता है। आवश्यकतानुसार या परिस्थिति अनुसार शायद प्रकृति उनकी सहज बुद्धि में कुछ परिवर्तन करती है। कुएं के मेंढक व सागर के मेंढक की बुद्धि में भी शायद इसी लिए बहुत अंतर होता है ..। .. पर प्रत्येक जीव की सहज बुद्धि के उन्नत होने की एक सीमा है शायद ..। .. और हम मनुष्य भी एक जीव ही हैं, और शायद हमारी जानकारी के अनुसार हम इस संसार के श्रेष्ठतम जीव हैं जिसकी बुद्धि या ज्ञान के विकसित होने की कोई सीमा नहीं है, वह संभवतः अनंत है। गिरते-पड़ते हम लगातार उन्नत हो रहे हैं - कभी भौतिकी के क्षेत्र में तो कभी अध्यात्म के क्षेत्र में। दोनों ही इसी ब्रह्मांडीय ज्ञान का ही हिस्सा हैं। हम कुछ अन्तःस्फूर्ति से और कुछ अन्यों की बुद्धि से सीखते हैं। पर हमारे ज्ञान के अनुसार ही, अन्य भी तो इसी प्रकृति का एक हिस्सा ही तो हैं - हमारी तरह परमात्मा का ही एक अंश। तो हमारी अन्तःप्रेरणा और अन्यों की अन्तःप्रेरणा में अंतर हम क्यों महसूस करें? .. विषय कुछ दुरूह हो रहा है। इसको यहीं छोड़ कर हम वापस वहीं आते हैं।
... बहुधा हमारे मन पर अंकित पूर्व-संस्कारों, बुद्धि व अहम् के कारण हमको यही प्रतीत होता है कि ये विचार, यह लेखन सब मेरा ही किया-धरा है, मैं कमाल का हूँ, और जो कुछ भी मैंने लिखा है, वह मेरी 'बौद्धिक सम्पदा' है। इस प्रकार का विचार आधुनिक युग के मानवों में बहुत अधिक पाया जाता है। जबकि हम देखते हैं कि प्राचीन साहित्य या ज्ञान, जैसे वेद, उपनिषद आदि के रचियता अज्ञात ही हैं। या ऐसा माना जाता है कि वे ईश्वरीय प्रेरणा से सृजित हुए। महात्मा गाँधी जी ने भी अपने लेखन में इस बात को स्वीकार किया किया है - "जो मेरे विचार हैं, वे मेरे ही हैं ऐसा नहीं है, पर वे मेरी आत्मा में गड़े-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ अन्तःस्फूर्ति से और कुछ किताबें पढ़ने के बाद बने हैं। दिल में भीतर ही भीतर जो मैं महसूस करता था, उनका इन किताबों ने समर्थन किया। उद्देश्य सिर्फ देश (संघ) की सेवा करने का, सत्य की खोज करने का, और उसके मुताबिक बरतने का है।"
इसी प्रकार प्रत्येक जन जब शुद्ध मन-बुद्धि से, तटस्थता से, स्वतंत्र चिंतन करता है तो उसे भी अपने भीतर इसी प्रकार से वचन सुने देते हैं जो लोकहित हेतु, सत्य व धर्म हेतु होते हैं। अनेक अन्य लेखनों में उसे इन वचनों का समर्थन व समानताएं भी दीखती हैं। तो निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अध्यात्म-विषयक विचार किसी भी व्यक्ति की निजी पूंजी या बौद्धिक सम्पदा नहीं होते। ... वास्तव में ये सब विचार टुकड़ों-टुकड़ों में धर्म (righteousness) की व्याख्या कर सकने में एक मर्यादा तक समर्थ हैं, लोकहित हेतु हैं। ये ईश्वर द्वारा संप्रेषित परन्तु अपरिपूर्ण मानव द्वारा अपूर्ण शब्द-भाषा में व्यक्त हैं, अतः सुधार की सम्भावना सदैव बनी रहेगी। इतना सब जानने के पश्चात् भी अहं के कारण व्यक्ति स्वयं को ही विचारों का सृजनकर्ता समझता है व तीव्र आसक्तिवश उस विचार / लेखन को निजी संपत्ति मान कर परेशान हो जाता है कि कहीं और कोई व्यक्ति इसे चुरा न ले। वह उसे कानूनी रूप से सुरक्षित करने का प्रयास करता है। और इतना ही नहीं, वह उसे बेचता भी है। इसके लिए वह विभिन्न तर्क भी देता है, पर सब खोखले हैं ....। .. ज्ञान, ईश्वरीय ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान अमूल्य है, पर उसका रुपये में कोई मूल्य नहीं हो सकता। हाँ, गीता प्रेस की भांति बिना किसी अतिरिक्त मुनाफे के, न्यूनतम निर्माण मूल्य पर विक्रय अवश्य हो सकता है, इसमें किसी स्वार्थ की गंध-दुर्गंध नहीं। पर अन्य तरीकों से, शब्दजालों से, तर्कों से, विभिन्न स्पष्टीकरण देकर उस लेखन का बौद्धिक सम्पदा के रूप में संरक्षण करवाना व उसे मुनाफे पर विक्रय करना मात्र अहं का पोषण तथा स्वार्थ-सिद्धि है और कुछ नहीं। मेरा यह अनुभव है कि हमारे स्वार्थ-रहित कार्यों का उचित फल ईश्वर या प्रकृति द्वारा उचित समय पर अवश्य मिलता है, बिना हमारे प्रयास के, स्वतः ही। यह फल धन के रूप में भी हो सकता है, यश के रूप में भी, या अनोखे संतोष के रूप में भी। इस फल की कामना हम अपनी सीमित बुद्धि द्वारा भी कर सकते हैं, या इसे असीमित बुद्धि वाले ईश्वर की इच्छा पर भी छोड़ सकते हैं।
उपरोक्त यह सब समझने व लिखने की प्रेरणा मुझे उन विद्वान प्रशासनिक अधिकारी व चिन्तक द्वारा मुझे मुफ्त में भेंट की गयी कुछ किताबों को पढ़ने से मिली। प्रारंभ में ही सर्वाधिकार सम्बन्धी वैधानिक चेतावनी के दर्शन हुए। भीतर का भाग यानी कि लेखों को पढ़ा, तो उनके गहरे चिंतन, मनन आदि के दर्शन हुए; शब्द-विन्यास आदि भी बहुत ही अच्छा था। .. पर दृढ़ता के साथ महसूस हुआ कि इस लेखन की 'आत्मा' से मैं पूर्वपरिचित हूँ। इसके मूल भावों को मैं पूर्व में बहुत से अन्य लेखनों में भी महसूस कर चुका था। .. भौतिक विषयों से या विज्ञान से सम्बंधित शोध कार्यों को तो हम केवल मानसिक या बौद्धिक स्तर पर करते हैं, तो अज्ञानवश या मानसिक / बौद्धिक स्तर पर ही होने के कारण हम उन शोधों का श्रेय कदाचित् स्वयं को दे सकते हैं, उस शोध को अपनी बौद्धिक सम्पदा मान सकते हैं। पर जब हम एक स्तर और ऊपर उठ कर आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचते हैं तो सर्वविषयों का आध्यात्मीकरण कर देते हैं। तब हम कर्ता नहीं रहते, केवल माध्यम ही रह जाते हैं। इस बात के ठोस प्रमाण मिलते हैं कि विज्ञान की अधिकांश बड़ी खोजें या शोध अचानक और / या बड़े विचित्र ढंग से हुए। खोज या शोध के दौरान खोजकर्ता प्रचलित व्याख्या या परिभाषा के अनुसार आदर्श मानसिक स्थिति में नहीं थे। संभवतः उस समय वे आत्मिक स्थिति में थे। कारण यह कि भौतिक जगत् भी तो ईश्वर द्वारा ही निर्मित है। हमारे वर्तमान संसाधनों का प्रत्येक कच्चा पदार्थ भी इस प्रकृति की ही देन है, कुछ भी ऐसा नहीं जो हमने निर्माण किया हो। पर वास्तव में हमने उनको व्यवस्थित ढंग से समझने व जोड़ने का कार्य किया है और वह भी आत्मिक स्तर पर पहुँचने पर ही संभव हो पाया है। तभी तो हम अक्सर सुनते हैं कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक आधे पागल होते हैं, जाने कहाँ खो जाते हैं। ... वे खो नहीं जाते, वे तो मानसिक अवस्था से आध्यात्मिक अवस्था में पहुँच जाते हैं।
पुनः आगे होता यह है कि स्वार्थी संस्थाएं, सरकारें आदि उस वैज्ञानिक की विलक्षण खोज का दोहन करती हैं। गंभीरता से चिंतन करें तो पायेंगे कि प्रत्येक वैज्ञानिक खोज मूलतः लोक-हितार्थ ही होती है। पर बाद में वह मन, बुद्धि, अंहकार, और लालसाओं के चलते कोई और ही रूप ले लेती है। उदाहरण - परमाणु-शक्ति की खोज।
तो हमने देखा कि पूर्वकाल में भौतिक विषयों पर भी शोध / खोज कार्य करने वाले, उस खोज का श्रेय स्वयं नहीं लेना चाहते थे, वरन मात्र लोकहित ही उनका उद्देश्य रहता था। यह बात अलग है कि दुनिया वालों या सरकार के अनुग्रह पर वे निज सम्मान को शालीनता से स्वीकारते थे, शायद थोड़ा सा अंहकार भी पैदा हो जाता हो इस स्थिति में। फिर भी साधारणतः वे स्वयं को गर्वित ही महसूस करते थे, इससे अधिक नहीं। उनकी खोज जब लोक-हितार्थ प्रयोग होती थी, तो वे आत्मिक रूप से संतोष प्राप्त करते थे। और जब-जब उनकी खोज लोक-विध्वंस हेतु प्रयुक्त हुई, तब-तब वे दुःखी हुए।
हम देखते हैं कि भौतिक जगत् में तो शोध हेतु प्रचुर सामग्री व असीम संभावनाएं हैं, पर आध्यात्मिक साधना तो अतिसीमित है। परमात्मा, प्रकृति या निर्माण-कर्ता को, उसकी इच्छाओं, नियमों आदि को जानना; स्वयं को व इसके भीतर की विलक्षण ऊर्जा को जानना, अर्थात् आत्मा व परमात्मा का सम्बन्ध, उनके गुणधर्म, नियम, सिद्धांत आदि अन्तःस्फूर्ति या स्थूल गुरु के माध्यम से समझना तथा उनको अपने आचार से प्रकट करना ही अध्यात्म का एकमेव शाश्वत ध्येय है। यह सब असीमित ज्ञान है, पर अति सीमित भी। शब्दजाल फैलाने वाले तथाकथित गुरुओं तथा जिज्ञासा-रहित लोगों के लिए यह अत्यंत दुरूह; पर खरे जिज्ञासु तथा खरे गुरु के लिए अति सरल, अति सीमित है। तो इस असीमित परन्तु सीमित विषय की बारम्बार अलग-अलग खोज व व्याख्या कैसे संभव हो सकती है? बिलकुल मिथ्या है तथाकथित धर्मगुरुओं या विद्वानों का यह दावा कि सच्चा ईश्वरीय ज्ञान सिर्फ और सिर्फ उन्हीं के पास है और यह ज्ञान उनकी स्वयं की बौद्धिक या आध्यात्मिक सम्पदा है; खबरदार जो किसी और ने इसे चुराने या किसी और को देने की हिम्मत की!! ... अरे थोड़ा सा ही तो है ईश्वरीय ज्ञान, जो ईश्वर स्वयं अपने अंशों को (हम सब को) उनकी सर्वांगीण प्रगति हेतु प्रदत्त करते रहते हैं। इसीलिए तो प्रत्येक काल में संस्कृति, भाषा व स्थानानुसार उनमें ढेर सारी समानताएं भी दृष्टिगोचर होतीं हैं, जो हमारे चिंतन को बल भी देतीं हैं निरंतर। पर फिर भी हम मूर्खों समान समझते हैं कि इस ज्ञान पर मात्र मेरा ही अधिकार है। कितने संकुचित हो गए हम, और कितना संकुचित है हमारा दृष्टिकोण कि सरलतम विषय पर अपना अधिकार जमाने चले हैं। .. माना कि बहुतों की पहुँच से यह वक्ती तौर पर दूर है, पर ऐसा विषय की गूढ़ता के कारण है - यह बात नहीं है। यह स्थिति मात्र अज्ञानता के कारण या जिज्ञासा के अभाव के कारण है। जब-जब किसी में जिज्ञासा उत्पन्न होती है, तो ईश्वर उसे ज्ञान देते हैं - सगुण या निर्गुण रूप में। ज्ञान पाने के बाद हमारा कर्तव्य यही है कि हम अन्यों में भी जिज्ञासा जगाने का प्रयास करें। क्योंकि हमारे ही ज्ञानानुसार विश्व के सभी व्यक्ति हमारे बन्धु ही नहीं, बल्कि अभिन्न अंग हैं। नियमानुसार, हम सबको समाज में या संघ-स्वरुप रहना है तो क्यों न सभी की आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास करते-करते सभी के साथ चला जाये प्रगति के पथ पर। धर्म से परिचित होना व अन्यों को भी कराना, यह प्रत्येक का प्रथम कर्तव्य है। सर्वहित इसी में निहित है।
इसी विषय पर डॉक्टर जयंत आठवले जी की बात मुझे बहुत जंची। उनके द्वारा अध्यात्म पर बहुत सा लेखन हो चुका है। इस पर उनका कहना है कि --
"हम स्वयं को लेखक नहीं मानते, इसके कारण यहाँ दे रहे हैं --
(अ) 'व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम्।' अर्थात् महर्षि व्यास जी ने लेखन के लिए कोई विषय शेष नहीं रखा, इसलिए लेखकों के लिए नया कुछ भी लिखना संभव नहीं है। अतः हमने सभी ग्रंथों पर 'लेखक' न लिखते हुए, 'संकलक' ही लिखा है।
(आ) संत ज्ञानेश्वर जैसे सर्वोच्च स्तर के संत जहाँ अपना उल्लेख नम्रतापूर्वक 'भाष्यकारों का सेवक' बतौर करते हैं, वहां लेखक छापने की हिम्मत हम नहीं कर सकते।
(इ) कई जानकारियाँ विभिन्न ग्रंथों व ज्ञानियों से मिलीं हैं। इसके अतिरिक्त, अन्तःस्फूर्ति से जो कुछ ज्ञात हुआ है, वह भी तो श्रीगुरु (ईश्वर) ने ही सुझाया है, इसलिए उसका कर्तापन और लेखकत्व अपनी ओर से नहीं लिया जा सकता।"
कितना विनम्र संबोधन है यह, और कितनी सच्चाई है इसमें। बस आवश्यकता है इस भाव को सदा-सदा के लिए अक्षुण्ण रखने की, सुरक्षित रखने की। इति।