Friday, April 17, 2009

(१४) अभिजात वर्ग

हम लोग अपने यहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता आदि के विषय में काफी चर्चा करते हैं। बार-बार मनन करने पर एक ही निष्कर्ष सामने आता है कि इसकी जड़ हमारी असंतुलित मानसिकता व आध्यात्मिकता में ही है। हम भौतिकता के पीछे इतना व्यग्र व आसक्त हो गए हैं कि हमने नैसर्गिक आध्यात्मिकता, श्रेष्ठ मान्यताओं व नैतिक मूल्यों को विस्मृत कर दिया है। यदि हमें विकसित देशों का पिछलग्गू बनना ही है, तो हमें उन देशों के बहुमुखी भौतिक विकास, खुशहाली आदि पर बिलकुल तटस्थ व गंभीर दृष्टि डालनी चाहिए। हम पायेंगे कि उनकी सफलता व उस सफलता के स्थायित्व का राज उनके कर्तव्यबोध में, कर्तव्यपरायणता में, कठिन शारीरिक श्रम में, स्वस्थ मानसिकता में व उत्कृष्ट आध्यात्मिकता में छुपा है। शरीर तो सभी का एक जैसा ही होता है पर विकास एवं खुशहाली के पीछे असली चीजें यही होती हैं जो ऊपर बताई गयी हैं। यह बात उन्होंने देशाटन के दौरान शायद हमारे ही देश के तत्त्ववेत्ताओं व पूर्वजों से सीखी, भली भांति अपनाई, अपने आचार में शामिल की व बहुमुखी विकास एवं खुशहाली को प्राप्त किया। पर हम भारतवासियों को बाद में उनकी भौतिक तरक्की व विकास ही दिखाई दिया, उसके पीछे का मूल कारण नहीं। और फिर हम भी शीघ्र भौतिक विकास की राह पर चल दिए विभिन्न 'शॉर्टकटों' के माध्यम से। इस प्रक्रिया में हम मानसिक रूप से दिवालिया व आध्यात्मिक रूप से खोखले होते जा रहे हैं। उपरोक्त लेखन या समीक्षा को आप नकारात्मक सोच बिलकुल भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि यदि हमें वास्तव में सुधरना है तो हमें केवल 'अपनी' कमियों पर ध्यान देना होगा और 'अन्यों' की सिर्फ अच्छाइयों पर ही। 'अपनी' कमी अर्थात् मेरे सहित मेरे आस-पास के समाज / संघ की कमी।

ध्यान दें कि अधिसंख्य समाज (लगभग ९८%) मात्र अनुगामी होता है, वह अभिजात वर्ग (लगभग २%) का मात्र अनुसरण करता है। तो फिर तार्किक दृष्टि से तो यह अभिजात वर्ग ही वर्तमान स्थिति के लिए मुख्यतः जिम्मेदार है। २% अभिजात वर्ग के लोग अर्थात् समाज के महत्त्वपूर्ण लोग, जैसे -- नेता, अभिनेता, पत्रकार, वकील, न्यायाधीश, उद्योगपति, व्यापारी, अधिकारी, पुलिस, प्रशासक, शासक, चिकित्सक, अध्यापक, गुरु आदि। लगभग ९८% लोगों के लिए इनमें से एक या अधिक आदर्श स्वरूप होते हैं। वे उन्हीं का अनुसरण करते हैं।

तर्क करने वाले अब यह कहेंगे कि यदि ऐसा ही है तो फिर विश्व में विभिन्न क्रांतियाँ कैसे संभव हुयीं?? ये क्रांतियाँ तो आम लोगों द्वारा ही संचालित हुयीं। यदि अभिजात वर्ग के अनुसरण वाला सिद्धांत ठीक है तो ऐसा हो पाना तो लगभग असंभव ही था! फिर भी ऐसा क्यों हुआ??

देखा जाये तो तर्क के इस प्रश्न में ही इसका उत्तर छुपा हुआ है -- पहली बात तो क्रांति रोज-रोज नहीं होती। दूसरी बात यह कि क्रांति का मुख्य कारण आम नागरिकों में उपजा भारी असंतोष होता है। समाज का माहौल पहले बड़े-बड़े लोगों के गलत व्यवहार के कारण ख़राब होता है; कोई संदेह नहीं कि इसके लिए आम नागरिक भी जिम्मेदार होते हैं क्योंकि वे भी बड़े लोगों का अनुसरण कर रहे होते हैं। सभी के स्वेच्छाचार से माहौल धीरे-धीरे ख़राब होते-होते उस अवस्था तक जा पहुँचता है कि आम आदमी को अब उस माहौल में बेचैनी व घुटन महसूस होने लगती है। कह सकते हैं कि अति की स्थिति आ जाती है। इस स्थिति में ही आम आदमी जागता है। और आम आदमी के जागने पर ही क्रांति संभव होती है। हाँ, उनको जगाने के लिए कुछ समाज सुधारक क्रांतिकारी नेताओं का प्रयास अवश्य कार्य करता है, परन्तु फिर भी क्रांति का मुख्य कारण बुरी स्थितियों का 'संतृप्त अवस्था' तक पहुंचना ही होता है।

प्रारंभ में जब अभिजात वर्ग भ्रष्टाचार में लिप्त होता है तो उनको ऐसा करता देख अनुगामी वर्ग उन्हीं के कृत्यों को उचित जान वैसा ही अनुसरण करता है। पर स्थिति ख़राब होते-होते एक दिन ऐसा आता है कि जब उनको यह अहसास होता है कि उनका यह वर्तमान आचरण (अनुसरण) ही तो इस दम-घोंटू वातावरण के लिए जिम्मेदार है। और तब सारी भड़ास उच्च पदों पर आसीत् लोगों के विरुद्ध ही निकलती है, क्योंकि निश्चित रूप से वे सब ही समाज की इस अधोगति के लिए मूलतः जिम्मेदार होते हैं।

तो यह सब जानने के बाद भी क्या हम अतीत से सबक नहीं ले सकते? जैसे हर काल में समाज में उतार-चढाव आते रहे, क्रांतियाँ होती रहीं, वैसा ही क्या इस काल में भी होता रहेगा? क्या ज्वार-भाटे ही हम भारतीयों की नियति बन चुके हैं? क्या हमारा जीवन एक शांत नदी की भांति नहीं चल सकता? .... यह सब ठीक हो सकता है, यदि हमारे अनुकरणीय, हमारे अगुआ अर्थात् अभिजात वर्ग अपने-आप को परिवर्तित करे, संतुलित करे।

इधर मेरा पंजाब व हिमाचल जाने का कुछ कार्यक्रम बन रहा था, सो पर्यटन सम्बन्धी कुछ किताबें उलट-पुलट रहा था। इन्हीं में जानकारी मिली कि - "कालका-शिमला रेल पथ लगभग १०० वर्ष से भी अधिक पुराना है। यह दुर्गम पहाड़ियों पर स्थित है। राह में लगभग १०२ सुरंगों में से व ८६९ पुलों पर से रेलगाड़ी गुजरती है। सबसे लम्बी सुरंग ३,७५२ फुट लम्बी है। इस मार्ग में पड़ने वाले पुलों व सुरंगों को देख कर तत्कालीन इंजीनियरों और कारीगरों के श्रम व कुशलता की दाद दी जा सकती है। ८६९ पुलों में से केवल एक पुल लोहे से निर्मित है, जबकि शेष पुल पत्थर से बने हैं, इनमें से एक पुल तो चार-मंजिला है।" ... कुछ इसी प्रकार की प्रशंसा हम प्राचीन इमारतों के विषय में भी सुनते हैं। ... पर समानान्तर रूप से पिछले दिनों समाचारपत्र में यह भी पढ़ने को मिला कि 'लखनऊ मेडिकल कॉलेज के एक नव-निर्मित भवन की तीसरी मंजिल से पत्थर की दीवार-टाइलें निकल कर डॉक्टरों के ऊपर गिरीं, वे बाल-बाल बचे!' ... वैसे सुनते हैं कि इंजीनियरिंग के क्षेत्र में बड़ी तरक्की हो गयी है!

सत्य ही है कि तकनीकी क्षेत्र में अब अनेक क्रांतिकारी खोजें हो चुकीं हैं व उपकरण आदि बन चुके हैं, परन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि जब तक हमारी ईमानदारी व कर्मठता इन अत्याधुनिक खोजों के साथ नहीं जुड़ती, तब तक इन सब आविष्कारों का कोई लाभ नहीं। जिन देशों ने ईमानदारी व कर्मठता अपना ली, वे आज मजबूती के साथ (बिना खोखलेपन के) शीर्ष पर हैं। हम भारतीय इतनी अधिक प्रतिभा रखते हैं, पूरा विश्व कायल है हमारा, तदपि ईमानदारी व कर्मठता के अभाव के कारण हमारे यहाँ के उत्पादों में वह गुणवत्ता, मजबूती, सफाई और सबसे बढ़कर निरंतरता नजर नहीं आती। प्रतिभा भरपूर है, लेकिन भ्रष्टाचार भी सर चढ़कर बोल रहा है। कोई अतिरिक्त स्वार्थ सिद्ध हो रहा हो, केवल तब ही विश्वस्तरीय गुणवत्ता दिखाई देती है, पर साधारणतः एक आम भारतीय कामचलाऊ कार्य करता ही नजर आता है, क्योंकि उसके अधिकांश आदर्श भी आज यही कर रहे हैं। यह एक कटु सत्य है। उद्योगपति हो या व्यापारी, इंजीनियर हो या डॉक्टर, नेता हो या प्रशासकीय अधिकारी, पुलिस हो या वकील; अधिकतर सभी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या फिर कम से कम अवसरवादी तो हैं ही। आज भारत के अधिसंख्य भाग में यह काम या होड़ जोरों पर है कि कौन किसको अधिक से अधिक 'चूना' लगा सकता है, अर्थात् बेवकूफ बना कर ठग सकता है। व्यापारी, उद्योगपति, अधिकारी, इंजीनियर, नेता, वकील, डॉक्टर, दवा कम्पनियाँ, रोग-जाँच केंद्र (diagnostic centre), निजी वित्त (ऋण प्रदाता) कम्पनियाँ, निजी बीमा कम्पनियाँ, निजी दूर-संचार कम्पनियाँ, निजी शिक्षण संस्थान, अधिकांश धार्मिक संस्थाएं व अन्य बहुत से निजी संस्थान आदि आज जो भी सेवाएं दे रहे हैं, उनमें लोक-हित की भावना बहुत कम व निज-स्वार्थसिद्धि की भावना अधिक है। सभी इसी फिराक (खोज) में हैं कि कैसे दो पैसे और बन जायें - येन केन प्रकारेण। नैतिकता जाये भाड़ में! भौतिक जीवन की नश्वरता को भी भुला दिया है जैसे ...!

बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी क्यों पीछे रहेंगी? जिस मूल देश से वे सम्बन्ध रखती हैं वहां तो उनका कार्य साफ-सुथरा है, पर भारत में चूँकि भ्रष्टाचार खूब है, अतः यहाँ वे भी चाँदी काट रहीं हैं। बहती गंगा में सब हाथ धो रहे हैं। समाचार माध्यम -- प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जिनके ऊपर कभी बड़ा सामाजिक दायित्व माना जाता था, आज ये दोनों माध्यम पैसे व यश की होड़ में बिक चुके हैं। कर्तव्यबोध को तो एक तरफ जाने दीजिये, आज टी.आर.पी. की प्रतिस्पर्धा में समाचार माध्यम जो खेल खेल रहे हैं, उनसे कौन परिचित नहीं है! साधारण ख़बरों को नमक-मिर्च लगा कर असाधारण रूप देना, भ्रमित करने वाले कार्यक्रम गढ़ना, उत्तेजक व आक्रामक भाषा शैली का प्रयोग करना, यह सब आम बातें हैं भारतीय समाचार चैनलों पर। समाचारों को चटपटी चाट बना कर रख दिया है; गंभीरता, नम्रता, सौम्यता, सब नदारद हैं। हर चीज को बेचने में लगे हैं। कमोवेश प्रिंट मीडिया भी इसी राह पर चल रहा है, पर यहाँ लोक-लाज अभी थोड़ी-बहुत बाकी है।

एक और क्षेत्र, जो पत्रकारिता से पवित्र माना जाता था, वह था - धर्म का क्षेत्र। इस क्षेत्र में पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही ले लें तो पायेंगे कि २४ घंटे चलने वाले हमारे ५-६ भक्ति चैनल दुनिया में निराले ही हैं। इनमें जो धार्मिक कार्यक्रम आते हैं, वे अधिकतर विज्ञापन ही प्रतीत होते हैं; और जो बीच-बीच में छोटे-बड़े विज्ञापन आते हैं, उनकी तो बात ही अनोखी है। इनको तटस्थ दृष्टि से देखिये तो पायेंगे कि ये सब भौंडी होड़ करते हुए, लोगों को भ्रम में डालते हुए, बस पैसा बटोरने में लगे हैं। इन धार्मिक चैनलों ने तो लोगों की रुचि बदल कर रख दी है, जनमानस को सस्तेपन की ओर ढकेल दिया है।

उधर मोबाइल कम्पनियों की भी होड़, आक्रामक विज्ञापन, अन्य निरुपयोगी सुविधाओं की आदत डलवाना, छुपे खर्च, कामचलाऊ गुणवत्ता, आदि किसी से छुपे नहीं हैं। इनके इन्हीं सब प्रयासों के चलते आज भारत की शहरी युवा पीढी के पास बिना किसी विशेष आवश्यकता के दो-तीन मोबाइल फोन या दो-तीन 'सिम कार्ड' होना अवश्यम्भावी है। घर में, बाहर, बस में, ट्रेन में, मोटरसाइकिल पर, कार में, ये इससे चिपके ही रहते हैं। कई युवा तो इन्हें अपने अभिभावकों से छुपा कर भी रखते हैं। ... गर्व कीजिए कि हमारा देश विकसित हो गया है! टेलीविजन पर आने वाले विभिन्न प्रतियोगी कार्यक्रमों में आजकल बहुत आम हो चले S.M.S. के खेल में इन दूर-संचार कम्पनियों की सहभागिता से भी बुद्धिजीवी वर्ग परिचित ही होगा!

बेवकूफ बना कर पैसा बटोरने का खेल चल ही रहा है, तो चिकित्सक वर्ग भी क्यों पीछे रहेगा? जो जागरूक लोग हैं, वे अवश्य यह जानते होंगे कि डॉक्टरों, दवा कम्पनियों व निजी रोग-जाँच केन्द्रों के बीच क्या सांठ-गांठ चलती है! धन अर्जित करने के लिए ये एक-दूसरे पर आश्रित हैं इसमें कोई संदेह नहीं, पर यहाँ तो इससे आगे भी बहुत कुछ होता है, और कारण है - अत्यधिक धन-लिप्सा।

राज नेताओं व पुलिस विभाग की बात करना यहाँ उचित नहीं होगा, कई पृष्ठ भर जायेंगे, फिर भी संभवतः बात पूरी न हो। मध्य, पूर्वी और उत्तर भारत में तो स्थिति बहुत विकट है तथा इससे सब परिचित हैं। ... आगे बढ़ते हैं।

वर्तमान में शासन-प्रशासन भी स्वायत्तता के नाम पर इन सब भ्रष्टाचारियों पर रोक लगा पाने में लगभग निष्फल ही है। ... पर एक कार्य प्रशासन अवश्य कर रहा है कि वह आम जनता को सचेत कर रहा है -- "भ्रष्टाचारियों से बच कर रहो, भ्रमित मत होओ, जागो और सतर्क रहो; 'ऐड्स' भी खूब फ़ैल रहा है, इसलिए बचाव हेतु वाह्य सुरक्षा उपाय अपनाओ, आदि-आदि।" अर्थात् साफ़ दिखाई पड़ रहा है कि भ्रष्टाचार और अनैतिकता की रोकथाम हेतु सरकार कुछ भी अधिक करने में अक्षम है, पर जनता को परामर्श दे रही है कि उनके विषैले परिणामों से खुद को बचा लो। ... यह तो वही बात हो गयी कि - "शहर में मच्छर बहुत हैं पर हम तो अहिंसावादी हैं, अतः मच्छरों को नष्ट नहीं कर सकते; हम समाजवादी व समवादी भी हैं, अतः उनको भगा व समझा भी नहीं सकते, वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं, अतः प्रिय नागरिकों, बेहतर हो कि आप ही सदैव मच्छरदानी में रहें। हाँ, जनता में से कोई यह भी कह रहा था कि रासायनिक प्रदूषण बहुत बढ़ गया है; तो हम क्या करें, सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती, बेहतर हो कि आप ऑक्सीजन-मास्क लगा कर चलें। स्वतंत्र देश में सब स्वतंत्र हैं।"

हमारे देश के कर्णधार, आदर्श व अभिजात वर्ग के लोग आखिर क्यों ऐसा कर रहे हैं? हम जैसे लोगों के पास मुख है, जीभ है, कलम है, पर कुछ करने का अधिकार नहीं है। संभवतः अपने पूर्वकर्मों के कारण हम अति-सीमित हैं, हम अभिजात वर्ग के भी नहीं हैं कि आम-जन हमारी सुने या हमारे कृत्यों पर ध्यान दे। तो फिर एक और क्रांति की प्रतीक्षा करना या किसी नए ईश्वरीय अवतार की बाट जोहना ही हमारी वर्तमान नियति है या फिर हमारे आदर्श, हमारे अगुआ, हमारे रोल-मॉडल, हमारे देश के बड़े व महत्त्वपूर्ण लोग, अर्थात् हमारा अभिजात वर्ग क्या स्वयं से कोई प्रथमोद्योग (पहल) करेगा? इन बड़े लोगों जैसे - नेता, अभिनेता, धर्मगुरु, खिलाड़ियों आदि व अभिजात वर्ग से सम्बंधित अन्य लोगों का यह अच्छा भाग्य है कि वे आज इन उच्च पदों पर आसीत् हैं, उनके पास सामर्थ्य है, शक्ति है, अधिकार हैं; लोग उनकी बात सुनते हैं, उनके अनुयायी हैं। वे चाहें तो मात्र स्वयं को बदल कर समाज को बदल सकते हैं। सस्ती लोकप्रियता व ढेर सारे धन का मोह त्याग कर वे मात्र संतुलित व आडम्बर-रहित जीवन जियें, उपदेश आदि न भी दें, तो केवल उनकी यह संतुलित और ठोस जीवन-शैली ही समष्टि (सर्व समाज) के लिए प्रेरणादायी होगी और एक बेहतर समाज का निर्माण होने में मदद मिलेगी। इति।