हम सत्संग जाते हैं, महापुरुषों-संतों आदि के प्रवचन सुनते हैं व उनके पौराणिक ग्रंथों को पढ़ते हैं, .. पर वह नहीं करते, जो उन लोगों ने किया। अर्थात् परिश्रम व साधना नहीं करते। तभी तो हम उनकी बातों का महत्त्व जान कर भी नहीं जान पाते, उनकी बातों को अपनी दिनचर्या, आचरण आदि में शामिल नहीं कर पाते। उन महापुरुषों जैसा बनने के लिए हमें परिश्रम व साधना की आवश्यकता है। वास्तव में स्वयं साधना करके ही हम सत्य को खोज सकते हैं। बिना गहराई से जानने की उत्कंठा के, बिना तड़प व उद्विग्नता के केवल ऊपरी तौर पर ही किसी बात को ज्यों का त्यों मान लेना अनुभूति-रहित साधना ही है और वह निर्जीव है। ऐसी साधना अन्धविश्वास को जन्म देती है, बढ़ावा देती है। वास्तविक धर्म, ज्ञान, विद्या आदि की खोज दूसरे के पैरों से नहीं हो सकती। हाँ, संतों, महापुरुषों व गुरुओं द्वारा संचित व संकलित ज्ञान तथा उनके दिशा-निर्देशों से हमारी राह कुछ आसान अवश्य हो सकती है, पर चलना हमें अपने पैरों पर ही होगा। जैसे - तैराकी सीखने के लिए हम इससे सम्बंधित कुछ किताबें पढ़ सकते हैं - ये हमें तैराकी नहीं सिखातीं, पर इस विधा पर थोड़ा-बहुत शाब्दिक मार्गदर्शन देती हैं। इसके अलावा हम तैराकी के किसी प्रशिक्षक की मदद ले सकते हैं - वह हमें और अच्छे से मार्गदर्शन दे सकता है। ... पर फिर भी इन सब के बावजूद हमारे स्वयं के प्रयास व परिश्रम ही हमें तैराकी सिखाते हैं व इसमें निपुण करते हैं। व्यायाम-शाला में भी गुरु हमारे लिए दंड-बैठक नहीं लगा सकते। अपने शरीर-सौष्ठव हेतु हमें स्वयं ही व्यायाम करना पड़ता है। गुरु की भूमिका दिशा-निर्देशक की है, महत्त्वपूर्ण है, पर फिर भी सीमित है। ऐसे ही, आध्यात्मिक प्रगति हेतु भी श्रेष्ठ संतों के वचन हमारी सोई जिज्ञासा व उत्कंठा को झिंझोड़ कर जगाने का कार्य करते हैं। वे हमें परम-सत्य को जानने व उसको पाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। मात्र इतना ही कार्य है विभिन्न मार्गदर्शनों का; शेष साधक को स्वयं निज-क्रियमाण से ही करना पड़ता है। ऐसा करने पर ही साधना में स्थायित्व आता है, वह अटूट होती है व साधक अवश्य लक्ष्य को पाता है। इस स्थिति में आने पर वह दूसरों की जिज्ञासा व उत्कंठा जागृत करने का प्रयास आरम्भ कर देता है अर्थात् व्यष्टि उपरांत समष्टि साधना आरम्भ कर देता है। पर परम-सत्य इतना विशाल है कि उसे शब्दों में बांध लेना संभव नहीं। यह अनुभूति का विषय ही है। ठीक-ठीक अनुभूति हो जाये तो यह (परम-सत्य) बहुत छोटा व बहुत सरल है। अतएव सभी पंथिक ग्रन्थ या अन्य मार्गदर्शन भी उस परम-सत्य की मर्यादित व्याख्या ही कर सकते हैं। वर्तमान साधक इन सभी साधनों से अपनी प्रकृति अनुसार मर्यादित मार्गदर्शन ही ग्रहण कर सकता है व शेष अन्वेषण उसे स्वयं करना पड़ता है और उसकी कोई थाह नहीं। इसीलिए अध्यात्मशास्त्रीय साधना का मूलभूत सिद्धांत यही बताया गया है - जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियाँ, व उतने ही साधनामार्ग। एक जगह पढ़ा था - "तुममें से कोई भी यदि सत्य को समझने का प्रयत्न कर रहा हो, तो तुम जब भी उसके सम्पर्क में आओ तो सद्व्यवहार का परिचय दो; सत्य-अन्वेषण में उसकी मदद करो; और स्वयं को उस सत्य-अन्वेषक से उच्च अथवा अधिक प्रतिभासंपन्न न समझो।" साधना के आरंभ में जिज्ञासा व उत्कंठा जागृत होने का कारण उस व्यक्ति का प्रारब्ध या अन्य किसी व्यक्ति (गुरु) की खरी समष्टिगत साधना है, तदुपरांत आगे के चरणों में उस व्यक्ति (साधक) का सपरिश्रम क्रियमाण। यही सपरिश्रम क्रियमाण ही 'साधना' है। इसी से अंततः हमें सत्य की अनुभूति होती है। इति।