अध्यात्मप्रसार की व्यापकता इसमें निहित होगी कि सभी साधक प्रसार में भाग लें। अर्थात् प्रत्येक सीखने वाला साधक अन्य लोगों को (नए साधकों को) जितना शीघ्र हो सके, सिखाना आरंभ कर दे। अर्थात् प्रत्येक साधक तात्त्विक एवं प्रायोगिक शास्त्र के अध्यापन में शीघ्र हिस्सा ले, यह विचार मन में रख कर कि उन्नति हेतु प्रत्येक व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान की त्वरित आवश्यकता है। मेरे ऐसा कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि प्रत्येक साधक कोरा पाण्डित्य झाड़े और अहं का शिकार हो जाये। यहाँ सिखाने / पढ़ाने का उद्देश्य यह भी है कि सिखाने / पढ़ाने वाला साधक इससे स्वयं की भी शीघ्र प्रगति करेगा। वह कैसे? एक उदाहरण से स्पष्ट होगा --
एक प्रौढ़ व्यक्ति है, बीवी-बच्चे वाला है, नौकरी आदि करता है। अपने बचपन व जवानी में वह एक साधारण विद्यार्थी रहा था। किसी भी विषय की बहुत गहराई से पढ़ाई नहीं की थी। और अब तो अनेक वर्ष बीत चुके हैं पढ़े हुए, सो अब तो सब धूमिल हो चुका है। कमोवेश उसका यही हाल नैतिक मूल्यों व धार्मिकता के विषय में भी है। अर्थात् कुल मिला कर वह एक औसत व्यावहारिक व औसत आध्यात्मिक ज्ञान रखने वाला व्यक्ति है। उसका एक बच्चा है जो अभी छोटा सा ही ५-६ वर्ष का है। वह व्यक्ति चाहता है कि उसका बच्चा पढ़ाई में अच्छा रहे व नैतिक गुणों का भी धनी हो। यानी किताबी पढ़ाई, व्यवहार, व नैतिकता, तीनों में वह बच्चे को निपुण करना चाहता है। तो वह अपने बच्चे को कक्षा दर कक्षा स्वयं अध्ययन करके रोजाना पढ़ाता है। सत्संग आदि में जाकर या किन्हीं अन्य स्रोतों से वह आध्यात्मिक ज्ञान भी जुटाता है और अपने बच्चे को सिखाता है। यानी जितनी मेहनत उस व्यक्ति ने स्वयं अपने लिए नहीं की थी, उससे अधिक वह अपने बच्चे के लिए करता है, क्योंकि उसकी हार्दिक इच्छा है कि उसका बच्चा परिपूर्ण बने।
.... तो हम देखते हैं कि अपने बच्चे को अच्छा व परिपूर्ण बनाने की धुन में वह व्यक्ति स्वयं भी परिपूर्णता को प्राप्त करता जा रहा है। वह स्वयं भी नित कुछ सीख रहा है और इस तरह से सीखा हुआ टिकाऊ व आत्मसंतोष देने वाला होता है। इस उदाहरण से स्पष्ट हो गया होगा कि साधकों से किस प्रकार की अपील की जा रही है। उपरोक्त उदाहरण के अनुसार अध्यापन करने से किसी प्रकार के पाण्डित्य का अहंभाव जन्म नहीं लेता क्योंकि नितांत स्वयं का कोई स्वार्थ नहीं होता। मात्र एक लक्ष्य होता है कि दूसरे की ठीक-ठीक व शीघ्र प्रगति कैसे संभव हो सके। इस प्रकार के अध्यापन से साधक (अध्यापक) की स्वयं की भी निरंतर और टिकाऊ प्रगति होती रहती है। अर्थात् इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने पर दोहरा व दोगुना लाभ मिलता है तथा सबसे बढ़कर यह होता है कि अनोखे आत्मसंतोष व आनंद की अनुभूति होती है, हल्कापन महसूस होता है। इति।