-->> हम सभी को एक संतुलन की आवश्यकता होती है - भौतिकता व आध्यात्मिकता के बीच।
-->> 'विश्व स्वास्थ संगठन' ने भी एक 'आदर्श स्वस्थ व्यक्ति' की जो परिभाषा बताई है, उसके अनुसार व्यक्ति को चार प्रकार से स्वस्थ होना चाहिए - शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व आध्यात्मिक रूप से।
-->> स्वस्थ मानसिकता व आध्यात्मिकता हेतु हमें 'धर्म' की शरण में जाना आवश्यक होता है। 'धर्म' अर्थात् 'आत्मानुभूति' - आत्मा को अनुभूत करना - आत्मा के गुणधर्मों को अनुभूत करना। ईश्वर व आत्मा के गुणधर्म में कोई अंतर नहीं, मूलतः वे सच्चिदानंद ही हैं, अर्थात् पूर्णतयः शुद्ध, स्वस्थ, चैतन्यमय, चिरस्थायी व आनंदमय। ये गुणधर्म (properties) हैं, गुण-दोष (nature) नहीं। जैसे शक्कर का मूल गुणधर्म 'मिठास' होता है। परमात्मा या आत्मा के गुणधर्म तो हैं, पर ये (परमात्मा व आत्मा) गुण-दोष रहित हैं। आत्मा की अनुभूति अर्थात् इसके गुणधर्मों की अनुभूति अर्थात् धर्म (righteousness) की अनुभूति। शक्कर की मिठास भी शाब्दिक व्याख्या से परे है, खासतौर पर उसके लिए, जो उससे अनभिज्ञ हो। 'मिठास' को ठीक-ठीक जानने हेतु शक्कर को जीभ पर रखकर उसके स्वाद (गुणधर्म) को अनुभूत करना ही एकमात्र विकल्प है। ऐसे ही 'धर्म' भी आत्मा के गुणधर्म की अनुभूति ही है।
-->> आज यदि हम अपनेआप को सहज महसूस नहीं करते हैं, तो अवश्य ही संतुलन में कुछ गड़बड़ी है। क्योंकि हम स्वस्थ मानसिकता व आध्यात्मिकता के प्रति जागरूक व आस्थावान नहीं हैं। वास्तव में आज अधिसंख्य का झुकाव भौतिकता की तरफ अधिक है; मूल्यांकन व समीक्षा करने वालों का भी। निश्चित तौर पर हम नैसर्गिक आध्यात्मिकता की या 'धर्म' की अनदेखी करते हैं, या शायद हम 'धर्म' से अनभिज्ञ ही हैं।
-->> प्रत्येक व्यक्ति के कार्यों में धार्मिकता या अधार्मिकता का कम-ज्यादा प्रमाण, उस व्यक्ति की लिंगदेह (आंतरिक देह) में विद्यमान अविद्या व उसके घटकों (मन, बुद्धि, संस्कारों आदि) के प्रमाण (मात्रा) पर निर्भर है, क्योंकि अविद्या के ये घटक ही 'धर्म' की वास्तविक अनुभूति में बाधक हैं।
-->> चूँकि आत्मा का मूल गुणधर्म 'धर्म' है, अतः आत्मा से आने वाला प्रत्येक स्पंदन या निर्देश, 'धर्म' का ही निर्देश है। या वह साक्षात् 'धर्म' ही है। पर अविद्या के आवरण के कारण वे निर्देश हमारी ज्ञानेन्द्रियों या कर्मेन्द्रियों तक नहीं या कम पहुँचते हैं। इस स्थिति में हमारे अधिकतर कार्य अविद्या के घटकों (मन, संस्कार, बुद्धि, अहं आदि) द्वारा ही संपन्न होते हैं, तभी तो वे दोषपूर्ण (अधार्मिक) हो सकते हैं अथवा होते हैं, क्योंकि अविद्या के घटकों व वृत्ति का झुकाव सदैव सत्य की ओर हो यह आवश्यक नहीं। सारांश में 'आत्मा' अर्थात् जलता हुआ बल्ब (प्रकाश-स्रोत), तथा 'अविद्या' अर्थात् बल्ब पर ढका मोटा काला कपड़ा।
-->> अब जो भी विधि या साधन इस 'अविद्या' का नाश कर पाए, उस विधि या साधन का क्रियान्वयन ही 'साधना' कहलायेगा।
-->> चूँकि यह विषय 'आत्मा' से सम्बन्ध रखता है, अतः इसे 'अध्यात्म' (अधि+आत्मन) कहते हैं। विभिन्न सिद्धांतों व कृत्यों के समावेश उपरांत यह 'अध्यात्मशास्त्र' कहलाता है।
-->> अतः 'अध्यात्मशास्त्र' वह शास्त्र हुआ, जो व्यक्ति को उसके वास्तविक रूप से तथा वास्तविक (मूल) गुणधर्म से परिचित करवा सके।
-->> मूल रूप व मूल गुणधर्म (धर्म) से परिचित होने में बाधा हैं -- अविद्या के विभिन्न घटक। इनकी जानकारी अध्यात्मशास्त्र द्वारा पहले शब्दों, तदुपरांत अनुभूतियों द्वारा होती है व यथोचित साधना करने पर अविद्या के घटकों का नाश प्रारंभ होता है।
-->> विभिन्न आध्यात्मिक साधनायें हमें धर्म नहीं सिखातीं, वरन वे हमारे अज्ञान (अविद्या) के आवरण को नष्ट करतीं हैं मात्र। आवरण नष्ट होने या क्षतिग्रस्त होने पर हमें वास्तविक धर्म का पता स्वतः ही चलता है। जैसे - जलते हुए बल्ब के ऊपर ढका मोटा कपड़ा क्षतिग्रस्त होने या हटने के पश्चात् प्रकाश स्वतः ही प्राप्त होता है -- क्षतिग्रस्त होने पर थोड़ा-बहुत व हटने पर भरपूर।
-->> चूँकि 'धर्म' परमात्मा का गुणधर्म है और परमात्मा सर्वव्यापी है, अतः धर्म की उपलब्धता सर्वत्र व सर्वकाल है। यह हमें सहज ही व नैसर्गिक तथा सूक्ष्म रूप से सदैव प्राप्य है। जब भी आवश्यकता पड़ने पर हम इसे परमात्मा से प्राप्त करते हैं या दूसरे शब्दों में - सीखते हैं, तो उस समय हम परमात्मा को या उसके मार्गदर्शन स्पंदनों को 'गुरुतत्त्व' की संज्ञा देते हैं। अतः कह सकते हैं कि 'गुरु' एक ईश्वरीय तत्त्व है, जो प्राकृतिक रूप से सदैव कार्यरत है। देह के माध्यम से जो कार्य करता है, वह उसी तत्त्व का सगुण रूप है।
-->> आध्यात्मिक साधना हेतु परम आवश्यक है - साधना के प्रति श्रद्धा की, ईश्वर के प्रति श्रद्धा की, व सबसे बढ़कर तीव्र उत्कंठा या तड़प की। जितनी तीव्र उत्कंठा, उतनी ही तेज गति से आध्यात्मिक प्रगति।
-->> चूँकि आज अविद्या के घटक अधिक सक्रिय हैं अतः व्यक्ति मन के संस्कारों व वृत्ति के अधीन है, फलस्वरूप आरम्भ में या बाद में भी व्यक्तियों के साधना-मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं / होते हैं। पर यदि व्यक्ति एक बार दृढ़ता से संकल्प ले ले कि स्वयं के मूल को जानना व पाना है, तो आगे का मार्ग सरल हो जाता है, भले ही साधना-मार्ग भिन्न-भिन्न क्यों न हों। एक बार उत्कंठा जाग गयी तो समझिये लक्ष्य का पता चल गया, तदुपरांत साधना-पद्धति व साधन गौण हो जाते हैं। तीव्र उत्कंठा के साथ जब व्यक्ति साध्य की ओर गंभीरता से अग्रसर होगा, तो कहीं न कहीं से प्रेरक मार्गदर्शन अवश्य मिलेगा - सगुण या निर्गुण रूप में।
-->> एक बार जब विषय ठीक से समझ में आ जाये, साध्य के प्रति तड़प जाग जाये, तो व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह अन्यों को भी इस विषय के बारे में बताये, व आगे जाने हेतु प्रेरित करे। वह इसलिए क्योंकि भौतिक रूप से व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है व उसे समूह में या एकत्रित (संघ में) रहना आवश्यक होता है। व्यक्ति व संघ में एकता न हो तो उस व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में होता है। अतः जब अधिसंख्य समाज धार्मिकता को जानेगा, धर्माचरण करेगा, तभी धार्मिक व्यक्ति उस संघ के साथ भली-भांति रह पायेगा। संघ में रहना ही माया है और यह ईश्वर द्वारा ही निर्मित है।
-->> परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालना व जीवित रहना तो एक आम बात है; पर महत्त्वपूर्ण है - परिस्थितियों को अनुकूल बनाना, जीवित रहने योग्य बनाना। अनैतिकता व भ्रष्टाचार (अधार्मिकता) से समझौता कर जीवित रहने का प्रयास भले ही व्यावहारिक प्रतीत हो, पर है तो वास्तव में कायरतापूर्ण ही। सच्चा धार्मिक ही व्यष्टि (स्वयं की) व समष्टि (समाज की) साधना, विशेष रूप से समष्टि साधना के माध्यम से माहौल को धर्मानुकूल बनाने का साहस कर सकता है। वर्तमान में प्रचलित व्यावहारिकता यदि किसी गलत कृत्य (अराजकता, भ्रष्टाचार आदि यानी अधार्मिकता) का विरोध नहीं करती, तो वह (तथाकथित व्यावहारिकता) नपुंसकता ही है।
-->> आज दो ही उपाय हैं - पहला यह कि समाज को धर्म व अध्यात्मशास्त्र के विषय में बताना तथा गंभीर व परिणामकारक साधना के लिए प्रेरित करना, जिससे माहौल सत्य के अनुकूल बन सके; और दूसरा यह कि समुचित मार्गदर्शन एवं सुधरने के मौके मिलने के उपरांत भी न सुधरने वाले दुष्टों को दण्डित करना।
उपसंहार -- महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि लेखन किसका है, शब्द किसके हैं, विचार किसके हैं; बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि उस लेखन, शब्दों या विचारों को कितना मथा जाता है, चिंतन किया जाता है। मंथन से ही सार निकलता है। सार से विषय समझ में आता है। विषय समझ में आने से व्यक्ति में उत्कंठा व तड़प जागती है, साध्य पता चलता है। फिर वह व्यक्ति लग जाता है व्यष्टि व समष्टि साधना में - अविद्या के ही घटकों की सहायता से! अविद्या जब पूरी तरह से हट जाती है तो उस व्यक्ति का अलग से कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। इस अवस्था को विरले ही प्राप्त करते हैं, पर सब प्राप्त कर सकने में सक्षम हैं। साधकों के लिए समष्टि साधना का महत्त्व, व्यष्टि साधना से जरा सा भी कम नहीं होना चाहिए, क्योंकि धर्मी (साधकों) का अस्तित्व धर्मीजनों के बीच ही संभव है। ... कभी-कभी तो समष्टि का विचार, व्यष्टि से भी अधिक श्रेयस्कर लगता है। इस माया में हमें सांघिक ढांचे में रहना ही है, तो क्यों न सभी की आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास करते-करते सभी के साथ चला जाये प्रगति के पथ पर! इति।