Tuesday, April 14, 2009

(१२) कर्म - शक्ति - धर्म - सुख

ईश्वर द्वारा निर्मित प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि स्वयं ईश्वर की या प्रकृति की समस्त शक्तियां भी प्रत्येक जीव के लिए सहजता से उपलब्ध हैं। इनको प्राप्त करने हेतु मात्र पुरुषार्थ (परिश्रम / योग्य कर्म) की आवश्यकता होती है। सुपात्र या कुपात्र जैसी कोई शर्त नहीं होती। जैसे पेड़ की छाँव, सूर्य का प्रकाश, वर्षा का जल और अग्नि की ऊष्मा सज्जन एवं दुर्जन को समान रूप से प्राप्त होते हैं। तभी तो असुरों (दुर्जनों) को भी तपस्या आदि से ईश्वरीय शक्ति (या शस्त्र आदि) मिलने के दृष्टांत हम पौराणिक कथाओं में देखते हैं। ईश्वर भी एक तत्त्व है और इसके अनेक गुणधर्म हैं। सभी गुणधर्मों को एकत्रित रूप से हम 'धर्म' कहते हैं। यदि एक भी गुणधर्म छूट जाये या रह जाये तो 'धर्म' का स्वरूप 'अधर्म' में बदलने में देर नहीं लगती। 'धर्म' का मार्ग शांति की ओर ले जाता है जबकि 'अधर्म' की परिणति अंततः अशांति, दुःख आदि में होती है। उदाहरणार्थ - कर्ण, रावण आदि। ... दूसरे शब्दों में हम ऐसे कह सकते हैं कि शक्ति, सामर्थ्य आदि (सभी प्रकार के वैज्ञानिक आविष्कार व उन पर आधारित उत्पाद) हम निज क्रियमाण से प्राप्त तो कर सकते हैं, पर यदि हम उनका प्रयोग ईश्वरीय गुणों के विपरीत करते हैं तो अवश्य ही हम दुःख व अशांति को प्राप्त करते हैं। उनका उपयोग ईश्वरीय गुणों के अनुरूप करने से हमें सुख व शांति का अनुभव होता है। ईश्वरीय गुणों के अनुरूप से तात्पर्य है -- सहज रूप से, प्रकृति के अनुरूप, लोक-हितार्थ, योग्य एवं न्यायपूर्ण। इति।