Friday, September 28, 2018

(१०९) चर्चाएं ...भाग - 28

(१) रावण के दस सिर, वेदों का ज्ञान, बड़ी सी सोने की लंका, हर तरह का ज्ञान, हर तरह की पावर और राम में सिर्फ और सिर्फ देवत्व!! सवाल ये है कि बुराई इतनी पावरफुल क्यों है और अच्छाई अपना इम्तिहान देते-देते क्यों मरी जा रही है बिना किसी वजह ......या ये जरूरी है कि अच्छाई भी अपनेआप को समर्थ बनाकर रखे जरूरत के लिए! ...बेहतरीन उदाहरण है परमाणु बम को रखना अपनी समृद्धि और रक्षा के लिए!!! कृपया अपनी राय दें. ...कहीं न कहीं अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाने में सहायक है ......आपकी क्या राय है कृपया बताएं!!
वैसे यह कोई स्थाई समाधान नहीं है कि बुराई से बचने के लिए हम अपनी संहारक क्षमता को बढ़ाते रहें! संहारक क्षमता को बढ़ाने में जितना समय, श्रम व पैसा लगता है उसकी मदद से बहुत से विकास के काम भी किये जा सकते हैं! ..फिर संहारक क्षमता को बढ़ाने की भी तो कोई थाह नहीं! हम आतताई से बचने के लिए आज जो बनायेंगे कल वह आतताई उससे बड़ा संहारक शस्त्र बना लेगा! ...फिर यह भी तो जरूरी नहीं कि वह हमारी संहारक क्षमता के आगे सदैव नतमस्तक रहे! ..कभी भी यह भी हो सकता है कि वह सिरफिरा परमाणु बम जैसे अस्त्रों का प्रयोग करके अन्यों और अपनी तबाही ले आए!!! ...डर से किसी सिरफिरे अल्पज्ञ को हमेशा के लिए नहीं दबाया जा सकता! क्या यह बेहतर विकल्प नहीं कि अल्पज्ञ को सुधारने की कोशिश की जाये, और न सुधरने पर उस खतरनाक अल्पज्ञ का ही सदा के लिए खात्मा कर दिया जाये! राम और कृष्ण ने यही किया था! राम के समय में मात्र लंकाधीश रावण और उसके चंद सहयोगी दुष्ट थे, पूरी लंका के अन्य समस्त जन नहीं! महाभारत के समय में कौरव और उनके कुछ सहयोगी दुष्ट थे, वहां की आम प्रजा नहीं! राम और कृष्ण ने भी उन दुष्टों को समझाने की भरसक कोशिश की और न सुधरने पर अंततः उनका खात्मा किया! ..लेकिन मात्र अपनी संहारक क्षमता को बढ़ा कर या मात्र अपने बाहुबल को जता कर राम और कृष्ण क्या उनकी दुष्टता को सदा के लिए नियंत्रित कर सकते थे???? ..राम-कृष्ण के शक्ति-प्रदर्शन से शायद उनकी दुष्टता कुछ समय के लिए दबी रह सकती थी लेकिन वे दोबारा छुपकर प्रतिघात अवश्य करते और उन्होंने किया भी! ..वैसे इतिहास गवाह है कि समझाने से (खरा ज्ञान देने से) बहुत से दुष्ट सुधरे भी हैं और असत्य से सत्य के पक्ष में आ खड़े हुए हैं.  ...समाज एक शरीर की तरह है और विभिन्न लोग उसके अंग-प्रत्यंग! ...अपने शरीर के किसी अंग में बीमारी हो जाने पर हम उसका इलाज बिलकुल थोड़े से (मुलायम तरीके से) शुरू करते हैं और ठीक न होने की दशा में इलाज को क्रमशः तीव्र करते जाते हैं. कभी-कभी (बहुत कम बार ही) ऐसा भी होता है कि शरीर के उस बीमार हिस्से की वजह से पूरे शरीर के स्वास्थ्य को खतरा बन जाता है तब सर्जरी करवा कर उसको हमेशा के लिए समाप्त करना पड़ता है! ..लेकिन क्या जरा सा कुछ होते ही हम सर्जरी पर उतर आते हैं? जी नहीं! ...राम और कृष्ण की नीति भी यही रही थी;  और यह नीति आज भी प्रासंगिक है, हमेशा रहेगी! ..अंत में आपने कहा है कि, अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाती है, ...यह बिलकुल ठीक बात है. ...अब उदाहरण के तौर पर देख लीजिये कि शरीर के किसी अंग में हुए रोग को यदि हम खामोश रहकर नजरअंदाज करते हैं तो वह मामूली सा रोग एक दिन नासूर बन जाता है! समय रहते उसका समुचित इलाज अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन इलाज के चरण वही होने चाहियें- मंद से शुरू करके क्रमशः तीव्र...!

(२) दुःख और सुख क्या है?
मन की नकारात्मक या सकारात्मक स्थिति ही क्रमशः दुःख और सुख है! ...और ये स्थितियां उससे उत्पन्न होती हैं जो हो रहा है! ...जो हो रहा है वो तो होगा ही क्योंकि उसके पीछे हमारे पूर्व व वर्तमान के कर्म तथा प्रकृति के अकाट्य नियम-सिद्धांत हैं! गहराई से यह विचार करते ही हम दुःख और सुख से थोड़ा सा अलग हो जाते हैं.

(३) 'आज' की दुनिया में समझदार इंसान की क्या पहचान है? क्योंकि ईमानदारी, वफादारी, सत्य, धर्म, अहिंसा और निःस्वार्थ भाव; लोग इन्हें किताबी बातें कहते हैं, इन पर अडिग रहने वालों को लोग बेवकूफ कह कर हंसी उड़ाते हैं!
इस चर्चा में आपने अपना जो दृष्टिकोण दिया है वह सत्य और सराहनीय है। ...लेकिन यदि आपके मूल प्रश्न ('आज' की दुनिया में....) पर आएं, तो 'आज' की दुनिया में तो समझदार इंसान की पहचान यही है कि, "जो सबकी हां में हां मिलाये, चल रही हवा के साथ बहता जाए!" बड़े दुर्दिन आ गए हैं! ..बस यहां आकर थोड़ा ढाढ़स बंधता है।

(४) प्यार हमेशा दूसरे का भला करने में लगा रहता है और प्यार पाने की ख्वाइश हमेशा दूसरे को हासिल करने में लगी रहती है, अक्सर ऐसा देखा जाता है जो बढ़चढ़ कर प्यार / दोस्ती की बातें करते हैं वे सिर्फ प्यार नहीं बल्कि प्यार को हासिल कर के एक सिक्योरिटी को हासिल करना चाहते है!! कृपया अपनी राय दें!!
निरपेक्ष प्रेम, निःस्वार्थ प्यार, आदि आजकल की भारतीय संस्कृति से गायब से हो गए हैं। आजकल प्यार केवल शारीरिक आकर्षण और सांसारिक लाभ में ही फंसकर रह गया है। अविवाहित युगल के बीच अब विरले ही सच्चा प्यार देखने को मिलता है। विवाहितों में अभी भी गाढ़ा प्यार कायम था, ..लेकिन समलैंगिक और विवाहेत्तर संबंधों की आजादी के बाद पता नहीं समाज अब प्यार की कौन सी नई परिभाषा गढ़ता है!
मैंने हमेशा दूसरों से कुछ न कुछ सीखने का पक्ष लिया है, ...लेकिन आंखें मींचकर कदापि नहीं!!! प्रत्येक में कुछ अच्छाईयां और कुछ बुराईयां होती हैं. यदि हमें वास्तव में आगे को जाना है तो दूसरे की बुराई को फिल्टर करके केवल उसकी अच्छाई को लेना होता है. ...लेकिन फटाफट प्रगति को पा जाने की धुन में हमारे देश के आका चंद विकसित देशों की बुराईयों के तो पिछलग्गू बन गए हैं परन्तु उनकी अच्छाईयों एवं विशेषताओं से अभी भी कोसों दूर हैं! मेरे पिछले अनेक लेखों में इस त्रासदी का विस्तृत वर्णन है.

(५) मेरी आस्था भगवान में बहुत अधिक है लेकिन मैं कभी-कभी आस्था से भटक जाता हूं लेकिन कुछ ही दिनों में ईश्वर पर यकीन करने लगता हूं मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि कि मेरा दिमाग या फिर मेरा मन या फिर मेरी आत्मा तीनों स्थिर नहीं है ये तीनों चीज एक ही हैं या अलग कुछ समझ में नहीं आ रहा है!
शुरू में आप दिमाग, मन, आत्मा जैसे विषयों पर अपना ध्यान न भटकाकर, अपनी आस्था को अनेक से एक में लाने की चेष्टा करो. अर्थात् पहले अनेक ईश्वर रूपों में से किसी एक पर आ जाओ, फिर उस एक साकार ईश्वर रूप से भी एक निराकार परमात्मा पर आस्था दृढ़ करने का प्रयास करो. भीतर से खोजी और जिज्ञासु बनो. पश्चात् धीरे-धीरे सब ज्ञान अपनेआप होता चला जायेगा. अध्यात्म में जल्दबाजी बिलकुल भी ठीक नहीं, लेकिन समझने-जानने की निरंतर भूख-प्यास बहुत जरूरी है. यह तीव्र जिज्ञासा ही आगे के सब द्वार खोलती चली जाती है. शुभकामनाएं.

(६) वासना को दूर करके अपना मन परमात्मा में कैसे लगाया जा सकता है?
बड़ा अचूक उपाय है यह कि, किसी भी नकारात्मक अथवा अवांछित विषय से अपना ध्यान हटाने के लिए, ठीक उसी समय किसी अन्य सकारात्मक विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करने से, अवांछित से छुटकारा पाने में बड़ी मदद मिलती है. हालाँकि शुरू में यह प्रक्रिया जबरन करनी पड़ती है, फिर धीरे-धीरे मन सध जाता है.