Tuesday, September 25, 2018

(१०५) चर्चाएं ...भाग - 24

(१) विज्ञान भी ज्ञान का ही भाग है?
जी हाँ, बिल्कुल. ...विज्ञान मूलतः क्या है? ..प्रकृति के तत्वों को जानना, दृश्य-अदृश्य पदार्थों को जानना, उनके गुणधर्म जानना, प्रकृति के नियम-सिद्धांतों को जानना, प्रकृति में हो रही सभी घटनाओं का कार्यकारणभाव जानना, प्रकृति द्वारा प्रदत्त विभिन्न कच्चे पदार्थों से मानव-हित के लिए नाना प्रकार की वस्तुएं, यंत्र-सयंत्र आदि का निर्माण करना, भूसंपदा को उचित ढंग से उपयोग में लाने हेतु नित-नवीन तकनीकें खोजना, आदि. .....विज्ञान कुछ और नहीं वरन पहले से विद्यमान को खोजना ही है यानी रि-सर्च! ज्ञान एकत्रित करने की प्रक्रिया का यह बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण अंग है. यहाँ तक कि अध्यात्म के शुरुआती अध्याय भी विज्ञान की सहायता से बहुत सरलता से समझे जा सकते हैं. और विज्ञान के ज्ञान की सहायता से ही विभिन्न अंधविश्वासों से बचते हुए शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान पाने की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है. ..अधिकांशतः हम देखते हैं कि बहुत से ढोंगी बाबा और स्वयंभूः आध्यात्मिक गुरु अपने अनुयायियों को विज्ञान से दूर रहने को बोलते हैं, उससे परहेज रखने को कहते हैं; यह केवल इसलिए कि वस्तुतः वे चाहते हैं कि उनके अनुयायी अंधविश्वासों में जकड़े रहें और आँख मूंद कर उनका अंधानुसरण करते रहें. ..मेरा तो मानना है कि विज्ञानी शुरू में अवश्य सहमते हुए अध्यात्म में कदम रखते हैं, लेकिन फिर अध्यात्म की गहराईयों में और उंचाईयों पर अधिकांशतः वे ही पहुंचते हैं. ..निःसंदेह अध्यात्म-ज्ञान, विज्ञान से भी ऊपर का ज्ञान है, किन्तु विज्ञान से होते हुए ही उसका रास्ता जाता है. ..भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार भी 'प्रवृत्ति' के बाद ही 'निवृत्ति' संभव है! ...कुछ पा लेने के बाद ही उसे त्यागने (या उसकी आसक्ति त्यागने) में व्यक्ति की, पुरुषार्थ की, पूर्णता है! ...असली अध्यात्म-ज्ञान भी हमें 'प्रवृत्ति' से 'निवृत्ति' की ओर ले जाता है. और विज्ञान का ज्ञान 'प्रवृत्ति' के चरण को कुशलतापूर्वक पूर्ण कराता है.

(२) नियमों की आवश्यकता और नियम कैसे बनते हैं?
प्रकृति अथवा ईश्वर के नियम तो "सिद्धांत" रूप में चिरकाल से बने ही हुए हैं. और उन सिद्धांतों की रक्षा हेतु समाज के बुद्धिमान-वर्ग ने समय-समय पर अनेक नियम बनाये, एवं आज भी नित नए नियम बन रहे हैं. नियम हमेशा लोगों को सुसभ्य, सुशिक्षित व अनुशासनप्रिय नागरिक बनाने के लिए वहां के देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति आदि के अनुसार बनते हैं. पुराने नियम बदले अथवा हटाये भी जा सकते हैं और नए नियम नए ढंग से बनाये भी जा सकते हैं. अतः यह भी कह सकते हैं कि लोगों की सोच और आचरण को नियंत्रित एवं सही पथ पर लाने लिए नियमों की आवश्यकता पड़ती है जिससे यथासंभव प्रकृति के उन चिरस्थाई "सिद्धांतों" की रक्षा हो सके जिनमें समस्त जीव-अजीव का हित निहित है. ..अतः नियम हमेशा परिवर्तनीय हो सकते / होते हैं और "सिद्धांत" हमेशा अपरिवर्तनीय होते हैं!!! "नियम" तो 'सही और न्यायोचित' यानी धर्म यानी राइटियचनेस को कायम रखने के लिए एक कामचलाऊ व्यवस्था है. यदि सभी लोग सभ्य, शिक्षित और धार्मिक (राइटियच) हो जायें तो मानवनिर्मित नियमों की आवश्यकता ही न पड़े. लेकिन ऐसा नहीं है इसलिए प्रत्येक दिन ही कुछ नियम बनाने पड़ते हैं.

(३) काश लोग सभ्य होते! ...पर सच्चाई तो कुछ और ही बयान करती है ...आज आप देखें तो हर तरफ अराजकता फैली है और लोग नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाने लगे हैं ...किसी को कानून का भी डर नहीं हैं क्योंकि कानून बनाने वाले और उसका पालन कराने वाले खुद ही कानून को कुछ नहीं समझते ...आज तो किसी सख्त हाथ की जरूरत है जो लोगों को कानून का पालन करवाने में सक्षम हो!
इसीलिए तो नित नवीन नियम-कानून बनाने पड़ते हैं. ...लेकिन फिर से कहूँगा कि यह एक कारगर किन्तु अस्थाई व्यवस्था है क्योंकि धूर्त लोग बारम्बार इन नियमों-कानूनों से भी बचने के रास्ते तलाश लेते हैं. ..इसलिए तुरंत इलाज के तौर पर नियम-कानून बनाना अच्छी बात है लेकिन समानांतर रूप से लोगों में आध्यात्मिक गुण (यानी श्रेष्ठ नैतिक गुण ही) उपजाना ही इस समस्या का स्थाई हल दे सकता है. ..जो नैतिक होगा वो कुदरत के सिद्धांतों का पालन स्वयमेव करेगा और सही पथ पर अपनेआप चलेगा लेकिन धूर्त को जागतिक नियम-कानून का अंकुश ही जबरन सही मार्ग पर रहने को मजबूर करता है और इसमें भी चूक या धोखा मिल जाता है!

(४) क्या हम बिना कर्म किये प्रभु से आशा लगाए बैठें कि प्रभु की इच्छा होगी तो सब मिलेगा?
बिना कर्म किये तो कुछ नहीं मिलता. हाँ, कभी-कभी बिना किसी वर्तमान प्रसास के किसी को खुद के ही किसी पूर्व कर्म के कारण अनायास कुछ मिलना हो जाता है! लेकिन, श्रीमान् जी... खरे भक्त अपना कर्म सर्वोत्तम ढंग से करते हैं और इसके पश्चात् फल ईश्वर-इच्छा पर छोड़ देते हैं. हालाँकि ऐसा बहुत कम होता है अब!

(५) अपनी विल पावर को कैसे बढ़ायें?
जिनकी विल पॉवर कम होती है, वे अक्सर बहुत से कार्यों को स्वयं के लिए 'असंभव' समझते हैं. ..बस एक कोशिश वे करें कि, खुद के लिए 'असंभव' घोषित कार्यों को 'कठिन' (या बहुत कठिन) की केटेगरी में ले आयें, और यथासंभव 'असंभव' शब्द को वे अपने शब्दकोष से निकाल ही दें! ..बारम्बार अपनेआप को यह कमांड दें कि, "कोई भी काम मुश्किल हो सकता है, ..बहुत मुश्किल हो सकता है, ..पर असंभव नहीं!" ...फिर देखिएगा कि इच्छाशक्ति कैसे नहीं बढ़ती!