Wednesday, September 26, 2018

(१०८) चर्चाएं ...भाग - 27

(१) डर ही डर.. क्या डर ही इंसान है कभी कभी ऐसा लगता है, हम क्यों इतना डरते हैं, कभी बीमार होते हैं तो सोचते हैं शायद बीमारी ठीक ही नहीं होगी!? आधी से ज्यादा परेशानियां शायद थोड़े बहुत साहस से ही ठीक हो जाएंगी!
हमारे भीतर किसी भी अच्छी यानी किसी सकारात्मक चीज की कमी ही, उसके विलोम यानी किसी बुराई / दुर्बलता / नकारात्मकता आदि की वजह बनती है. निःसंदेह 'डर' हम सब की कमजोरी है. किसी में कम होता है तो किसी में बहुत ज्यादा. लेकिन यह उपजता हमारी किसी अंदरूनी कमी के कारण ही है. यदि हम निरंतरता से खुद में कुछ सकारात्मकता जोड़ते रहें तो हमारी मानसिक दुर्बलताएं घटती जाती हैं. जैसा आपने सुझाया कि 'साहस' से आधे से अधिक 'डर' दूर हो जायेंगे, तो इसमें भी वही फार्मूला लागू हुआ न! पॉजिटिव बढ़ाया, तो नेगेटिव कम हुआ! यह सर्वोत्तम तरीका है अपनी दुर्बलताओं से मुक्ति पाने का. ..कभी कभी हमारे मन में कोई चोर, कपट, धूर्तता, बेईमानी, आदि का शॉर्टकट होता है तब भी हमें भीतर से भय लगता है कि हम कहीं पकड़े न जायें, हमारा राज न खुल जाये; तब भी भय का कारण हमारा गिरा हुआ नैतिक स्तर ही हुआ. हम उसे उठायेंगे तो उस भय को भगायेंगे जो उसकी (नैतिकता की) कमी से उपजा है. ...बीमारी के मामलों में तो डर अनोखा ही होता है क्योंकि कोई भी बीमार होना या मरना नहीं चाहता; हर कोई हमेशा हृष्टपुष्ट ही रहना चाहता है! लेकिन उस दशा में भी मन को यह समझाना होगा कि सभी भौतिक वस्तुओं की तरह मानव शरीर भी भंगुर है, इसका भी क्षरण होता है, इसकी भी टूटफूट संभव है, इसकी भी एक एक्सपायरी डेट है! एक मोटर गाड़ी भी जब हम खरीदते हैं तो हमें पता होता है कि उसमें भी टूटफूट, एक्सीडेंट, आदि संभव है; उसे निरंतर रखरखाव की जरूरत भी पड़ेगी; एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह बेकार हो जाएगी...., तब भी हम धैर्य और साहस रखकर उसे खरीदते हैं, उसे जमकर इस्तेमाल करते हैं, उसकी देखभाल, रखरखाव आदि बाकायदा रखते हैं, उसकी सेहत के प्रति फिक्रमंद रहते हैं लेकिन चिंता में घुले नहीं जाते! छोटी-छोटी बात पर उसे मैकेनिक के पास नहीं ले जाते और कुछ खराबी हो जाने पर उसे रगड़ते भी नहीं रहते, उसका प्रॉपर इलाज करवाते हैं! उसमें डाले जाने वाले ईंधन, इंजन-आयल (यानी भोजन) की गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं; ड्राइविंग भी स्मूथ करते हैं! ...ठीक इसी प्रकार अपने शरीर के प्रति दृष्टिकोण बना लें तो काफी आसानी हो जाएगी! जागरूकता और दृढ़ता से सत्य भीतर समाने पर व्यर्थ के डर कम हो जायेंगे.

(२) जैसे ही किसी चीज की इच्छा को छोड़ते हैं वैसे ही वह चीज गोदी में आकर गिरती है और कभी-कभी उस से भी बेहतर चीज .....क्या आप ने कभी ऐसा अनुभव किया?
जी हाँ..., अनेक बार ऐसा अनुभव किया है. ...इसीलिए तो कहा जाता है कि योग्यतम ढंग से अपने काम करते जाओ लेकिन कभी बहुत व्यग्रता से किसी चीज के मिल जाने की बाट न जोहते रहो. आपकी कर्मठता और नेकनीयती की बदौलत सही वक्त पर सही चीज आप तक स्वतः आ जाएगी. बहुत पीछे पड़ने से और बहुत अपेक्षा करने से भी कई काम अटक जाते हैं, इसलिए सहजभाव बहुत जरूरी है.

(३) ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या के सम्बन्ध में बताएं!
"ब्रह्म सत्य है, और जगत मिथ्या", इसका सीधा अर्थ लें तो निकलता है कि, "अजन्मा, अप्रकट व निराकार आत्मा-परमात्मा ही सत्य है, शेष सब भौतिक पदार्थ मिथ्या यानी स्वप्न-स्वरूप यानी मिट जाने वाला है." ...यदि कोई इस 'अर्थ' को ही 'भावार्थ' के रूप में ले ले तो बड़ा खतरा यह बनता है कि वह प्राणी कभी भी समस्त सांसारिक कर्तव्यकर्म और भौतिक प्राण तक भी स्वेच्छा से त्याग सकता है! ...इस संदर्भित वाक्य का गूढ़ अर्थ यानी भावार्थ प्राकृतिक रूप से ही हमारे भीतर अंकित है यानी सबको सहज उपलब्ध है, लेकिन मन में बने आगंतुक बेतरतीब संस्कारों के ढेर तले वह दबा पड़ा है! हम अक्सर इन्हीं संस्कारों के तहत ही जीवन जीते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत आत्मा और परमात्मा को ढूंढते फिरते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत भौतिक व आध्यात्मिक बहसें करते हैं. ..हालाँकि मथने से बहुत बार आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी खरा सत्य भी सामने आ जाता है, फिर भी दिल है कि मानता नहीं...., हम और अधिक मथ कर पुनः सब गड्डमड्ड कर देते हैं! हम गोल गोल घूमते रहते हैं, सोचते हैं बहुत चल लिए, ...लेकिन हमारा विस्थापन तो पुनः-पुनः शून्य हो जाता है!

(४) आपके नजरिये से अध्यात्म है क्या? क्या ये कर्मकांड है ज्योतिष है तांत्रिक क्रिया है या अमानवीय ऐसी सिद्धियों का प्राप्त करने का तरीका है, या अध्यात्म स्वयं की ही खोज है? आप अध्यात्म में क्यों आये और क्या पाना चाहते हो?
यह तो वही बात हो गयी कि कोई सागर या नदी से पूछे कि, "तेरा जल से क्या काम?!" ..जल से ही एक नदी या सागर का अस्तित्व है, उसी प्रकार 'आत्मा' (सूक्ष्म चैतन्य) के बिना क्या हमारा भौतिक देह में जीवन संभव है? आत्मा विषयक समस्त ज्ञान 'अध्यात्म' है. यह (अध्यात्म) भी एक प्रकार का शास्त्र यानी विज्ञान है. मूलतः यह सिद्धांतों पर आधारित है. आधुनिक विज्ञान के भी प्रकृति और प्राकृतिक सिस्टम से जुड़े अधिकांश या सभी नियम-सिद्धांत भी आध्यात्मिक सिद्धांतों से ही निकले हैं या उनका अनुमोदन करते हैं. हम मात्र उन्हें ही मान लें और स्वयं को भी उनके अंतर्गत रख कर थोड़ा विचारमंथन कर लें, तो मानों हम स्वयं (आत्मा) और अध्यात्म को जान गए! उदाहरण के लिए मात्र दो वैज्ञानिक सिद्धांत- (१) ऊर्जा की अक्षुण्णता का सिद्धांत यानी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, हाँ किसी अन्य स्वरूप में परिवर्तित अवश्य हो सकती है. ..(२) प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया निश्चित है. ...क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया त्वरित भी आ सकती है और विलंबित भी; वह प्रतिक्रिया किसी अन्य रूप-अवस्था में भी आ सकती है; लेकिन आएगी अवश्य और उसकी प्रकृति (सकारात्मक या नकारात्मक) मूल क्रिया के अनुसार ही होगी. ...अध्यात्म में आने का कारण स्वयं और स्वयं से सम्बंधित सच्चे तथ्यों को समझना होता है, तदोपरांत अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य और अपनी जीवनशैली को उन सिद्धांतों के अनुसार ढालना होता है. 'अध्यात्म' कोई पढ़ने, रटने या यंत्रवत कर्मकांड करने का शास्त्र नहीं अपितु सीधे-साधे ढंग से जीवन में उतारने का शास्त्र है. अध्यात्म में कोई आता नहीं है, प्रत्येक मनुष्य उसमें पहले से ही है, यह अलग बात है कि वह उसमें कितनी गहरी डुबकियाँ लगाता है. ज्योतिष, तंत्र-विद्या और रिद्धि-सिद्धि आदि का अध्यात्म से कोई भी रिश्ता-नाता नहीं है!