Wednesday, September 26, 2018

(१०७) चर्चाएं ...भाग - 26

(१) जीवन जीना एक कला क्यों कहा गया है...? आजकल ऐसे कई आध्यात्मिक केंद्र भी चल रहे है जहाँ आप ध्यान और चित्त शान्ति की विविध प्रक्रियाएं सीख सकते हैं!
जीवन जीने की कला अत्यंत व्यापक है. कोई व्यक्ति इसके कुछ पहलुओं से परिचित होता है तो दूसरा कोई व्यक्ति इसके कुछ अन्य दूसरे पहलुओं से! ..जो व्यक्ति जितने अधिक पहलुओं को अपने व्यक्तित्व में समेट लेता है वह उतना ही बड़ा कलाकार (अर्थात् समृद्ध व परिपूर्ण) होता है. ..इसकी कोई थाह नहीं! मेरी समझ से कोई अमुक आध्यात्मिक केंद्र 'जीवन जीने की कला' की अपरिमित थाह को एक निश्चित परिधि तक सीमित कर देता है, उसके पंखों को कतर देता है; क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगभग एक सी प्रक्रिया का प्रावधान या आग्रह होता है. ..जबकि मेरा मानना है कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में अनूठा यानी यूनिक है.

(२) सच्चा भक्त कौन होता है जो सेवा करे या जो बस पूजा करे?
जो भी कृत्य हमारे अहंकार को कम करते हुए हमारे भीतर 'ईश्वरीय गुणों' को बढ़ाने में सफल हो रहा है वह (कृत्य) ही हमारे लिए उत्तम!!! सभी के लिए यह (कृत्य) भिन्न-भिन्न हो सकता है, क्योंकि जितने व्यक्ति, उतनी ही प्रकृतियाँ, उतने ही साधना मार्ग! ..क्योंकि भिन्न विशिष्टताओं के कारण प्रत्येक मनुष्य अपनेआप में यूनिक (अनूठा) है, इसलिए किसी की भक्ति को सच्ची और किसी की भक्ति को झूठी करार दे देना ठीक न होगा. ...बेहतर हो कि हम व्यक्ति के 'गुणों' को परखें और उस आधार पर उसकी श्रेष्ठता का आंकलन करें.

(३) माफ कर देना सब समस्या का समाधान है?
परिवार और आपसी संबंधों यानी व्यक्ति के आन्तरिक सर्किल में तो इस सूत्र का कोई जवाब नहीं. माफ कर देने से संम्बंधों-रिश्तों में मधुरता बनी रहती है, बहुत सी समस्याएं भी हल हो जाती हैं. ऐसा इसलिए संभव होता है कि 'अपना' होने के कारण सामने वाले के दिल में भी हमारे लिए कुछ आदर-सम्मान होता ही है, और वह हमारी माफी की कद्र करता है. लेकिन दूर के व्यक्ति के लिए ऐसा करना (बारम्बार माफ करना) प्रैक्टिकली बहुत उपयोगी नहीं रहता क्योंकि उसके मन में हमारे लिए बहुत अल्प (या न के बराबर) स्नेह या सम्मान होने के कारण वह हमारी सहिष्णुता की कद्र नहीं कर पाता. उदाहरण के लिए-- "महात्मा गाँधी जी कितने विनम्र व सहिष्णु थे फिर भी वे समाज में व्याप्त अनेकों बुराइयों, गलतियों और अत्याचारों के लिए जिम्मेदार लोगों व शासकों को माफ करके चुपचाप नहीं बैठे रहे, बल्कि उन्होंने देश-विदेश में गलत के खिलाफ अनेकों सत्याग्रही आन्दोलन किये. ...भाई जी, कोई भी सूत्र हर जगह फिट नहीं हो पाता! हमारी माफी या चुप्पी का ही निरंकुश शासक, अधिकारीवर्ग और लालची कंपनियां और बहुत से अन्य लोग फायदा उठाते हैं. ..इसलिए स्वयं धर्म यानी नेक और सत्य मार्ग पर चलकर समस्त जग से भी इसका आग्रह करना ही तो सत्याग्रह है. प्रत्येक को प्रत्येक दशा में माफ करके हम सत्याग्रह (सत्य का आग्रह) नहीं कर सकते!

(४) हमें दूसरों को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?
सभी तथाकथित ज्ञानी बारम्बार बहुत जोर देके कहते हैं कि खुद को ही बदलो, किसी अन्य को बदलने की चेष्टा न करो! लेकिन यह बात मुझे अधिक ठीक लगती है कि, खुद को संवारो और फिर अन्यों को भी संवारने की चेष्टा करो! ...'बदलने' शब्द में बहुत अपेक्षा-जिद-आग्रह हो जाता है इसलिए स्थाई सफलता नहीं मिल पाती. ..संवरने और संवारने में भला किसे आपत्ति हो सकती है! हममें कुछ भी ऐसा नहीं जो आमूलचूल बदला जा सके, पर सुधार की गुंजाईश तो सदैव रहती ही है!

(५) ज्ञान दूसरों को देना आसान है पर अपने पर अमल करना मुश्किल! ऐसा क्यों?
ज्ञान के ऊपर अमल करना उनके लिए मुश्किल होता है जो ऊपर ऊपर का दिखावा करते हैं। वे खड़कते इसलिये ज्यादा हैं क्योंकि वे भीतर से खोखले हैं! वे बोलते तो बहुत हैं पर सब रटा-रटाया, सुना-सुनाया या किताबी! ...लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रथम खुद अमल करके अनुभव और अनुभूतियाँ जुटाते हैं तदुपरांत उन्हें आगे भी बांटते हैं। उनका ज्ञान अनुभवों पर आधारित होने से गहराव व सच्चाई लिए होता है, इसलिये वह आमजन को खट्टा-तीखा लगता है क्योंकि सत्य को चखना व हजम करना इतना सरल भी नहीं! ऐसे विरले ज्ञानियों को समाज और तथाकथित गुरुओं-संस्थाओं आदि के भारी क्रोध और विरोध का सामना भी करना पड़ता है।