Tuesday, September 25, 2018

(१०६) चर्चाएं ...भाग - 25

(१) आहार का शुद्धिकरण, इसका क्या अभिप्राय है...?? कहा जाता है कि जैसा खाएं अन्न वैसा होये मन और जैसा पिएं पानी, वैसी होये वाणी! ..आहार का हमारे शास्त्रों में विशेष महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि आहार केवल मुख से नहीं बल्कि कानों से सुनना, आँखों से देखना और हाथों से स्पर्श करना भी है!
मानव देह में मूलतः हम सामाजिक प्राणी हैं. खाने-पीने के अलावा यदि सुनने, सूंघने, देखने और स्पर्श करने में भी अत्यधिक सावधानी रखने लगेगें, तो फिर तो हम समाज से लगभग कट ही जायेंगे. आज समाज में खुलेआम इतनी तथाकथित अस्पृश्य व अयोग्य वार्तालाप, दृश्य, कथन, वस्तुएं हमारे इर्दगिर्द हैं कि चौबीसों घंटे हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बंद नहीं कर सकते, और न ही उनसे दूर भाग सकते हैं. बेहतर हो कि हम कीचड़ में कमल बनने की चेष्टा करें, अन्यथा किसी सुनसान पर्वत या जंगल में पलायन कर जायें, जो कि न तो संभव है और न ही सामाजिक और पुरुषार्थ की दृष्टि से ठीक है! इस काल में उचित यही है कि जैसा भी समाज हमारे आसपास है, उसे खुशी-खुशी स्वीकार करें, साथ ही अपनी अंदरूनी अच्छाई को बरकरार रखते हुए समानांतर रूप से समाज को उन्नत करने की भी कोशिश करें. समाज में उठते-बैठते भौतिक रूप से हम भले ही मैले हो जायें, पर भीतर से (नैतिक व आत्मिक स्तर पर) खुद को दूषित न होने दें, यही प्रयास करें. ज्यादा छुआछूत में दिमागी कसरत न ही करें तो बेहतर! सारांश में, खाद्य सामग्री सहित समस्त अन्य भौतिक वस्तुएं जिस 'नेक तरीके' से हम कमाते हैं, हमारी शुद्धता उसी से मापी जाएगी; अपने भीतर हम कैसे विचार रखते हैं, कैसे विचार पनपने देते हैं, हमारी शुद्धता उसी से नापी जाएगी. इस निराकार व अभौतिक आत्मा के लिए निराकार शुद्धि ही महत्त्व रखती है.

(२) आज के युग में इंसानियत की उम्मीद करना बेकार है?
कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है, ..और फिर उम्मीद के अलावा सकारात्मकता कायम रखने का अन्य कोई विकल्प है आपके पास? ..नहीं न! ...इसीलिए शायद किसी उम्मीद पर ही तो हम सब यहाँ अपना समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं अन्यथा यहाँ कोई भी न होता! ...कर्म करने से ही किसी अभीष्ट की उम्मीद बंधती है दोस्तों! ..और फिर वह उम्मीद ही हमारे लिए संजीवनी का कार्य करती है.

(३) क्या प्रतिशोध को एक मानसिक बीमारी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
बड़ी अजीब सी बात है कि, पहले गलत जीवनशैली (कुसंस्कारों/गलत आदतों) के कारण हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार में विकृतियां उत्पन्न होती हैं, फिर आगे चलकर वे विकृतियां दृढ़ होकर विकारों में बदल जाती हैं, ..और मामला जब बेकाबू हो जाता है तो उन्हें बीमारी का नाम देकर संबंधित व्यक्ति को क्लीन चिट दे दी जाती है कि वह तो बीमारी की वजह से ऐसा कर रहा है। ...समलैंगिकता को इसी प्रकार क्लीन चिट मिली, ..और अब प्रतिशोध को भी एक बीमारी का नाम देने की तैयारी है क्या? ....इस प्रकार तो मनुष्यों में बहुत सी बीमारियां फैल जाएंगी तिसपर भी सभी के लिए आजादी, सहानुभूति और माफी होगी!

प्रत्युत्तर:- प्रतिशोध को कोई बीमारी का नाम देने की तैयारी नहीं है न ही कोई सहानभूति, लेकिन कोई भी सिस्टम अगर सही से काम नहीं कर रहा है उसे आप अपनी भाषा में जो भी नाम दे सकते है...
प्रत्युत्तर के लिए आभार! ..लेकिन एक सत्य यह भी है कि हवा में उछाले गए शब्दों को ही ढाल बनाकर ही दोषी व्यक्ति व मीडिया एक बीज से पूरा पेड़ खड़ा कर लेते हैं. शब्द उछालकर हम बुद्धिजीवी ही उनको बचाव के नए-नए उपाय सुझाते हैं. बुरा न मानियेगा, आज जो समलैंगिकों को भी जो स्वीकृति मिली है वह बुद्धिजीवियों के योगदान से ही संभव हुई है! ...आखिर हम वह "तिल" फेंकते ही क्यों हैं जिसकी 'ताड़' बनने की सम्भावना बन जाये?!

(४) मन से भागने की बजाए मन की बात सुनते!
मन आखिर है क्या!? मन में कोई बात क्यों आती है!? ऐसा तो नहीं कि पैदाइश से ही मन में वे बातें आती हों जो आज आ रही हैं!? .....मन तो वास्तव में संस्कारों (इम्प्रेशंस) का एक गढ़ है, भण्डार है! कुच्छ पिछले जन्मों के हैं तो कुछ यह जन्म लेने के बाद धीरे-धीरे निर्मित हुए. ..अपनी पञ्चज्ञानेन्द्रियों से कुछ भी सुनते, देखते, सूंघते, चखते और स्पर्श से महसूस करते ही हमारे मन में उस प्रसंग से कोई न कोई संस्कार बनता है. यदि वह संस्कार पहले से बना हुआ है तो और अधिक बड़ा (मजबूत) होता है. ..यह कतई जरूरी नहीं कि सभी संस्कार बुरे ही होते हैं (जैसा कि बहुत से आध्यात्मिक जन फरमाते हैं) और यह भी जरूरी नहीं कि वे सब अच्छे ही हों! ..लेकिन यह तो सत्य है कि एक आम जन के लगभग नब्बे प्रतिशत कार्य उसके मन में विद्यमान संस्कारों से ही सम्पादित होते हैं. ..और अक्सर हम अपने मनानुसार ही कार्य करते हैं. यदि दूसरों की राय से यानी दूसरों के मनानुसार करते हैं तब भी अपने मन की अनुमति लेकर ही हम उनको कर सकते हैं. किसी अन्य का कोई दबाव तो नहीं बन सकता न! ...तो अच्छा हो कि हम अपने मन में बेहतर संस्कारों को ही पनाह दें और अवांछित संस्कारों की उपेक्षा करें. ...उपेक्षित संस्कार ठीक उसी प्रकार एक दिन हमारे मन से पलायन कर जायेंगे जैसे एक अनचाहा और उपेक्षित मेहमान जल्दी ही हमारे घर से विदा ले लेता है. ...मन की हम जरूर सुनें, और सुनते भी हैं लेकिन इतना ध्यान अवश्य रखा जाये कि हमारे मन में कोई बुरा संस्कार अपनी जगह स्थाई न करने पाए. ...बुरे अथवा अवांछित संस्कारों से निजात पाने का सिर्फ एक उपाय है कि हम अच्छे प्रसंगों को अधिक याद करें, उन्हें ही अधिक महत्त्व दें; उससे अच्छे संस्कार धीरे-धीरे दृढ़ होते जायेंगे जिनकी अधिकता बुरे संस्कारों को पलायन के लिए मजबूर करेगी.