Wednesday, July 31, 2019

(११३) प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन

प्रेम अर्थात् आत्मिक स्नेह, अपनापन..। ...पहली बात यह कि, प्रत्येक व्यक्ति अपनेआप यानी स्वयं के प्रति प्रेम रखता ही है! इस प्रेम को शायद सभी पूरी तरह से शुद्ध, समर्पित, और स्वाभाविक (प्राकृतिक) यानी स्वतः उत्पन्न हुआ ही मानेंगे, ..क्योंकि इसके लिए हम कोई वाह्य या जबरन प्रयास तो शायद नहीं करते! किसी मनोरोगी या मानसिक रूप से विकलांग या विक्षिप्त आदि को यदि न गिना जाये, तो साधारणतया हर कोई अपना ध्यान पूरी तरह से रखता ही है. प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे- शारीरिक, भौतिक, सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक जरूरतों का ध्यान स्वतः ही रख सकता है। ..लेकिन महत्वपूर्ण बात यहाँ यह कि, यह उस व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह इनमें से कितने पहलुओं पर ध्यान देता है, इनमें से कौन से पहलू उसकी वरीयता सूची में स्थान पा सके हैं! यह बात इस पर भी बहुत निर्भर करती है कि उस व्यक्ति का स्वयं के प्रति स्नेह किस श्रेणी का है, स्नेह का स्तर क्या है! ...अर्थात् अपने ही प्रति प्रेम में भी, प्रेम का विस्तार इस पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति में कितना विवेक है या वह अपने विवेक का कितना प्रयोग करता है, या उसकी सोच कितनी व्यापक है!!! निकृष्टतम स्थिति में, उसका व्यष्टि प्रेम केवल उसके भौतिक शरीर तक ही सीमित हो सकता है, या शायद कुछ अन्य स्थूल पहलू भी उसमें शामिल हो सकते हैं; और बेहतर हालत में, सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक जैसे पहलुओं पर भी उसका ध्यान जा सकता है; और 'स्वयं' के प्रति पूर्ण जागरूकता की स्थिति में, खुद की आध्यात्मिक जरूरतों का भी उसे भान रह सकता है। ....यह तो हो गया उसका अपना केंद्र बिंदु! पहले पायदान पर यह सब साध लेना अत्यावश्यक है, यानी स्वयं के प्रति ही पूर्ण जागरूकता...; और तभी तो प्रेम हो पाना संभव होगा खुद से ही! ..क्योंकि केंद्र से बाहर की कक्षाओं (ऑर्बिट्स) में विस्तारित होने की पहली शर्त ही यही है कि केंद्र में सम्पूर्णता, बलिष्ठता हो! ..और यह विस्तारण भी क्रमशः कक्षा दर कक्षा होना चाहिए।
व्यष्टि-प्रेम अर्थात् केवल स्वयं के प्रति प्रेम तक ही सीमित रह गए, और क्रमशः वाह्य वर्तुलों में विस्तारित न हो पाए, तब तो नितांत स्वार्थी ही रह गए! ..और वो भी पता नहीं कि स्वार्थ भी किस श्रेणी का है!? यह माना जाता है तथा अनुभूत भी किया जा सकता है कि हमारा मूल, यानी कि आत्मा, अर्थात् असली मैं, मूलतः अथाह रूप से विस्तारित है; सभी सीमाओं से पूरी तरह से मुक्त है। ..और आत्मा के मूलभूत गुणों में 'प्रेम' भी एक है। अब आत्मा के इस भौतिक शरीर में रोपण के पश्चात् यदि हम उसके गुणों को प्रकट नहीं करते तो क्या वह आत्मा फंसा हुआ, बंधा हुआ, घुटा हुआ सा महसूस नहीं करेगी? जिस स्थिति को बहुत से ज्ञानी 'मोक्ष' से संबोधित करते हैं, वह आखिर क्या है? सरल भाषा में उसे 'मुक्ति' कहा जाता है! तो, फिर यह 'मुक्ति' क्या हुई? 'मोक्ष' या 'मुक्ति' का यह भी तो अर्थ निकाला जा सकता है कि 'आत्मा' के मूलभूत गुणों का १०० प्रतिशत प्रकटीकरण! ..फिर जो साक्षात् 'प्रकट' है उसे 'प्रकटीकरण' की आखिर क्या आवश्यकता? ...मानव देह में आत्मा है तो अवश्य, पर दबी हुई, छुपी हुई, असहाय सी है, बिलकुल मृतप्राय..., जबतक कि हम उसको प्रकट नहीं करते! ...प्रकट कैसे करेंगे? ...बिना आयाम की 'आत्मा' को हम 'त्रिआयामी' मनुष्य केवल और केवल अपने आचरण के माध्यम से ही प्रकट कर सकते हैं, उसी से उसके जीवंत होने का प्रमाण दे सकते हैं, उसे जीवन दे सकते हैं। आध्यात्मिक कृत्य के तौर पर केवल शास्त्रों को कंठस्थ करके और रूढ़िगत विधि-विधानों के संपादन द्वारा हम उसका ध्यान नहीं रख सकते। जब ध्यान नहीं रख सकते तो प्रेम की तो अनुपस्थिति ही हुई न!
अब प्रश्न यह उठता है कि मानव देह में रोपित यह आत्मा इतनी असहाय और मृतप्राय सी आखिर क्यों? क्योंकि यह ऐसे डिब्बे में आ गयी है जहाँ अनेकों प्रकार का अन्य सामान, कचरा आदि भी विद्यमान है। कुछ पहले से ही है और कुछ रोजाना इकठ्ठा हो रहा है! इसको ज्ञानीजनों ने स्थूल मन में स्थापित विभिन्न 'संस्कारों' से संबोधित किया है। संस्कार यानी मन पर अंकित इम्प्रेशंस। मूलतः ये संस्कार ही हमारी मूल स्थूल वृत्ति है। इन्हीं संस्कारों के वशीभूत हम अक्सर रहते हैं, और इन्हीं के अनुसार हम बरतते हैं। स्वार्थ, 'आत्मा' का गुण नहीं है, बल्कि यह संस्कार-जनित है। जब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हम जानते और मानते हैं (यदि हमें कोरा ज्ञान भी है तब भी) कि इस त्रिआयामी देह के चलायमान होने के पीछे बीजरूप वह आत्मा ही है तो क्यों हम प्रयास नहीं करते कि इस आत्मा के मूल गुणधर्मों को मौका दिया जाये कि वे स्वतंत्र हों और हमारे आचरण द्वारा उनका प्रकटीकरण हो!? संस्कारों के वशीभूत हो जब हम उसके 'प्रेम' के गुण को बाहर नहीं आने देते, तब हम सरासर 'स्वार्थ' की दशा में होते हैं! तब सबसे नीचे (निकृष्टतम) के क्रम से हमारे लिए हमारे प्रेम का केंद्र बिंदु हम स्वयं (निज देह और उसकी भौतिक आवश्यकताएं), मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा कुटुंब, मेरे (मेरी जाति के) लोग, मेरे सत्संगी भाई-बहन, मेरे क्षेत्र के लोग, मेरे नगर के लोग, मेरे प्रदेश के लोग, मेरे देश के लोग..., बस यहीं तक ही सीमित होता है! ..किसी सीमा में बंधा हुआ और किसी खास हद तक ही विस्तारित होता है हमारा प्यार!!! इतना ही नहीं, बहुत सी शर्तें भी होती हैं उसमें! यानी हमारा प्रेम संकुचित और सापेक्ष होता है! ..अर्थात् स्वार्थ ही में हैं हम अभी तक! ...आत्मा का गुण तो नहीं है यह! ..फिर आत्मा का प्रकटीकरण हुआ ही कहाँ? उसकी तो सांसें बंद ही हैं अभी.., ..या घुटी हुई सी!
उदाहरण के तौर पर सबसे बड़ी बात यह कि, ...आज संकुचित हृदय रखने वाले आक्रान्ता चरमपंथी ही नहीं अपितु हमारे बड़े से बड़े राजनेता, तथाकथित धर्माचार्य, आध्यात्मिक गुरु/मार्गदर्शक आदि के वक्तव्य सुनें तो यहाँ हर कोई अपने से जुड़ी ही बात करता है, और यदि प्रेम में बहुत ढेर सारा विस्तार भी हो जाये तो बात राष्ट्रप्रेम तक ही आकर रुक जाती है!!! ...यह बात सही है कि केंद्र (स्वकेंद्र) से बाहर की कक्षाओं/वर्तुलों में विस्तारण क्रमशः ही होता है/होना चाहिए, यह बात मैंने भी सबसे ऊपर लिखी है, परन्तु विस्तारण की तीव्र भूख तो दृष्टिगोचर होनी चाहिए! मुझे तो वह भूख/तड़प/तीव्र इच्छा कहीं भी नहीं दिखती! शायद यहाँ आप मेरे से सहमत न हों, पर मैं आगे अन्य प्रमाण देता हूँ। ..जब भी हम यानी हमारे अगुवा अपने राष्ट्र के विकास की बात करते हैं तो उस क्रम में हम अन्य (राष्ट्रों, संघों, समूहों) की आलोचना भी संग में करते हैं! क्यों? कभी हम चीनी सामान के बहिष्कार की बात करते हैं, कभी अन्य विदेशी सामान के बहिष्कार की बात! क्यों? दूसरों की समृद्धि को अपने विकास के लिए रोड़ा सा महसूस करते व कराते हैं! क्यों? ..एक साधारण व्यक्ति अपनी प्रगति के लिए अपने कर्म पर आश्रित व समर्पित न रहकर, उससे ज्यादा इस बात से क्यों दुखी है कि उसका पड़ोसी कैसे इतना समृद्ध व सुखी हो गया/हो रहा है!? ..एक साधारण दुकानदार इस बात पर ध्यान नहीं दे कि वह अपनी बिक्री कैसे बढ़ाये, बल्कि इस बात पर केन्द्रित रहे कि बगल के दुकानदार की बिक्री कैसे घट जाये, तो इस प्रवृत्ति को हम अच्छी व्यापारिक वृत्ति नहीं कह सकते! ..है न? ..इसी प्रकार एक मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी अपना उत्पादन या बिक्री बढ़ाने के क्रम में इस महत्वपूर्ण बात को अनदेखा कर रही है कि अपने सामान की गुणवत्ता कैसे बढ़ाई जाये, बल्कि उसका पूरा ध्यान इस बात पर लगा है कि उपभोक्ताओं को अन्य कंपनी के खिलाफ कैसे भड़काया जाये! क्या कहेंगे आप? इसी प्रकार, एक धर्मगुरु का ध्यान इस पर आज कम है कि वह अपने धर्मशास्त्र को ईमानदारी से समझे-समझाए, बल्कि उसका ध्यान अन्य धर्म (पंथ) की आलोचना और उसे निकृष्ट साबित करने पर अधिक है! क्यों भाई?
इन सब क्रिया-कलापों का सीधा सा अर्थ निकलता है कि हम सभी स्वार्थी हैं। फलतः संकुचित हैं, और किसी सीमा में बंधे हुए हैं। और आगे अपनेआप को असुरक्षित महसूस करते हुए, और अधिक स्वार्थ की ओर बढ़ रहे हैं! कहते हैं कि, बोलने और करने में बहुत अंतर होता है। अर्थात् हम बोलते तो बहुत बढ़िया हैं पर करने में कमजोर पड़ जाते हैं। लेकिन मैं तो देख रहा हूँ कि हम बोलने में भी अत्यधिक संकुचित वृत्ति वाले बोल बोलने लग गए हैं! हमारी संस्कृति ऐसी तो न थी कभी! ..किसी खास जयकारे अथवा गीत को ही आज राष्ट्रभक्ति का प्रमाण मान लिया जाता है; आज किसी अमुक रंग, फल या पशु आदि को ही किसी खास समूह की पहचान मान कर उससे स्नेह या द्वेष किया जाता है! खानपान और वेशभूषा को 'वास्तविक धर्म' (righteousness) से जोड़कर यहीं देखा जाता है; उसी के अनुसार उससे प्रेम या नफरत का पोषण होता है! राष्ट्रप्रेमी और राष्ट्रद्रोही; धर्मभीरु और धर्मद्रोही, इन सबकी नयी परिभाषाएं गढ़ दी गयीं हैं। और निश्चित रूप से ये नवीन परिभाषाएं संकुचित मानसिकता और विविध स्वार्थों पर आधारित हैं! कुल मिलकर खरा 'प्रेम' आज दुर्लभ ही नहीं लुप्तप्राय हो गया है। इसीलिए हम सर्वांगीण ठोस प्रगति करने में पिछले अनेक दशकों से नाकामयाब रहे हैं। मुझे तो तीव्रता से महसूस होता है कि अनेक वर्षों में भी अपने क्रियमाण और सोच का स्तर ऊपर न उठा पाने, और कोई खास उपलब्धि न हासिल कर पाने के फलस्वरूप हम अति कुंठित से हो गए हैं और धीरे-धीरे और अधिक संकुचित होते जा रहे हैं! कहने को आज सप्ताह के सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले अनेकों धार्मिक टीवी चैनल्स हैं, धर्मगुरुओं की हमारे देश में इतनी प्रत्यक्ष उपस्थिति शायद ही कभी रही हो, हमारे नौजवानों की मेधा का आज सारा जग कायल है; ...बावजूद इन सबके हम और हमारे जीवन-मूल्य यदि लगातार नीचे को गिर रहे हैं तो इसके मूल में फिर से वही बात है कि अगुवाओं सहित हम सब स्वार्थी हो गए हैं, फलस्वरूप संकुचित हो गए हैं, फलस्वरूप आत्मिक रूप से मृतप्राय से हो गए हैं। जब तक हम इन विषैले संस्कारों व ओछी सोच रूपी उस खरपरवार से मुक्ति नहीं पाते जो हमारी आत्मा को दबाये हुए है, हमारे विस्तार को रोके हुए है, हमारे निरपेक्ष प्रेम को रोके हुए है, तब तक हम मरे हुए हैं क्योंकि हमारी आत्मा को हमने इनसे मृतप्राय कर रखा है। जब कभी हम अपनी आत्मा को इस मकड़जाल से मुक्त करेंगे, आत्मा के अतुलनीय गुण 'प्रेम' को वास्तव में प्रकट होने देने का मार्ग प्रशस्त करेंगे, तब ही क्षुद्र सीमाओं से परे हमारा, हमारी सोच का विस्तार संभव होगा। तब हम आत्मा के गुणधर्मों के अनुसार उड़ान भरेंगे और सही मायनों में एक आत्मिक मानव कहलायेंगे। इति।

Tuesday, July 30, 2019

(११२) बदलने की क्षमता ही बुद्धिमत्ता का माप है!

आइंस्टीन ने उपरोक्त कथन (शीर्षक) बहुत ही नेक इरादे और सकारात्मक प्रगति के आह्वान-स्वरूप कहा था। उनका मूल आशय यही था कि, 'जो बुद्धिमान होगा वह अपने उचित (righteous) विवेक से अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करके जीवन के सभी (भौतिक एवं आध्यात्मिक) पहलुओं में निरंतर 'सकारात्मक' बदलाव अवश्य लाता रहेगा। ...और जो ऐसा करने में असमर्थ रहता है, उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिह्न् तो लगाया ही जायेगा!' सबसे पहले हम 'बदलने', बदलाव', या 'परिवर्तन' शब्द पर ही चिंतन करें, तो कहीं इसका अर्थ, नवनिर्माण द्वारा पूर्वनिर्मित के प्रतिस्थापन, से निकलता है; तो कहीं इसका आशय पूर्वनिर्मित में ही किसी परिवर्तन से होता है! इसी निमित्त सभी राष्ट्रों द्वारा नित्य नवीन अन्वेषण किये जा रहे हैं। पहले से उपलब्ध वस्तुओं में भी नित नए-नए सुधार कर उनमें और अधिक वैशिष्ट्‍य डालने का निरंतर प्रयास किया जा रहा है। बदलाव अथवा नवनिर्माण की प्रक्रिया में प्रत्येक राष्ट्र या समूह का अपना-अपना नजरिया है। जो नवनिर्माण और बदलाव को सकारात्मक उद्देश्य से करते हैं वे वास्तव में विकसित, सुसभ्य, शांतिप्रिय, न्यायप्रिय, खुशहाल हैं, और शेष पिछड़े या विकासशील की श्रेणी में हैं। अर्थात् उनकी बुद्धिमत्ता, विवेक और नजरिये आदि पर प्रश्नचिह्न् हैं! हम भी तो सालों-साल से 'विकासशील' के तमगे के साथ ही हैं! अब अपने यहाँ की कुछ चर्चा...
आज विभिन्न सेवा-प्रदाताओं और उनके प्रबंधकों का एक ही नारा है कि - "नित नवीन परिवर्तन करो, अन्यथा मिट जाओगे"; अर्थात् आज सभी कम्पनियाँ अपने उत्पादों में रोज ही कुछ न कुछ परिवर्तन करने हेतु प्रयासरत हैं और उनको लगता है कि यदि वे कुछ नया नहीं देंगे तो उनकी प्रतिद्वन्दी कम्पनी उनसे बाजी मार ले जायेगी। प्रतिद्वंदिता का भय निरंतर सताता रहता है, इसीलिए वे अपने उत्पादों या सेवाओं में नित नए बदलाव करते रहते हैं। अर्थात् नित नवीन परिवर्तन का कारण समाज-सहाय्य से अधिक निज-सहाय्य है!
आज भौतिक प्रगति या बारम्बार त्वरित परिवर्तन के पीछे यही तर्क दिया जाता है कि यह सब लोगों के सुखों में बढ़ोत्तरी करने के लिए किया जा रहा है और इसी से हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं। यद्यपि इसमें कोई संदेह भी नहीं कि बहुत सी खोजों, अन्वेषणों एवं परिवर्तनों ने मानव जीवन को बहुत आराम और सुविधाएं प्रदान की हैं; परन्तु साथ ही मेरा यह भी मानना है कि प्रत्येक भौतिक वस्तु के विकास, खपत, प्रयोग एवं उपयोगिता का एक संतृप्ति बिंदु होता है। उस बिंदु पर पहुँचने के पश्चात् या तो ठहराव आ जाता है या फिर विकास की गति बहुत मंथर हो जाती है। किसी वस्तु के विकासक्रम में कभी न कभी हम उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं। उस स्थिति तक पहुँचने के बाद भी यदि हम स्वार्थवश एवं लाभ कमाने हेतु जबरदस्ती उसमें और अधिक परिवर्तन कर उसे 'दोहते' रहते हैं तो बजाय सुख देने के वह वस्तु दुःखों का कारण बन जाती है!
यदि किसी वस्तु में कुछ सुधार या परिवर्तन करने पर वास्तव में उस वस्तु का परिष्कार होता हो और उसके जरिये मानव को वास्तव में पहले से अधिक सुविधा-सहायता मिलती हो, उसकी ऊर्जा वास्तव में बचती हो, तो उन परिवर्तनों एवं सुधारों का स्वागत होना चाहिए; परन्तु परिवर्तन के पश्चात् यदि एक सुख देकर वह वस्तु दो दुःख बढ़ा रही हो या ऊर्जा व समय की खपत बढ़ा रही हो तो ऐसे परिवर्तन से तो बचना ही बेहतर! ... परन्तु आज हम इतना तेज भाग रहे हैं कि नकारात्मक पक्षों को बहुधा अनदेखा कर जाते हैं, और परिवर्तन को ही उत्तरजीविता (survival) का 'एकमात्र' आधार मानते हैं; जबकि हम देखते हैं कि समय के साथ प्राकृतिक वस्तुओं में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है और यदि कोई आया भी है तो नकारात्मक दिशा में ही, वह भी जबरन मानवीय हस्तक्षेप के कारण! .... यदि हम एक कुशल चित्रकार हैं तो किसी चित्र को बनाकर उसमें एक हद तक ही सुधार करते हैं अन्यथा बजाय सुधरने के वह बिगड़ सकता है! बारम्बार सुधारों के बजाय हम नित नए-नए चित्र तैयार करते हैं। हमारी हर रचना अपने आप में अनूठी होती है।
आजकल अधिक माल खपाने की वृत्ति भी व्यापार-जगत में खूब है। विडम्बना ही है कि किसी राष्ट्र की उन्नति या विकसित होने का पैमाना (मापदंड) भी आज यही है कि उस देश में कितना अधिक सामान उपभोग किया जाता है। अरे, ... कोई एक सीमा तक ही अपने मनपसंद लड्डू खा सकता है, या एक हद तक ही पानी पी सकता है; सीमा से परे उपभोग करने से अस्वस्थ होना निश्चित ही होता है।
अब थोड़ा अतीत से ....
अंग्रेजों के भारत आने से पूर्व हमारा भौतिक विकास लगभग थमा हुआ था। शारीरिक रूप से हम आलसी व सुस्त थे, बस विभिन्न धार्मिक विचार-विमर्शों तक ही सीमित थे। जबकि उस समय अन्य विकासशील व विकसित देश निरन्तर चलायमान थे, वे समय के साथ-साथ क्रमबद्ध भौतिक प्रगति व परिवर्तनों के प्रति जागरूक थे। भारत में जब अंग्रेजों का आधिपत्य हो रहा था, उसी समय यहाँ पर भी भौतिक परिवर्तन का दौर आरम्भ हुआ। पहले बाहर के देशों के उत्पाद यहाँ आने शुरू हुए, तदुपरांत अपने यहाँ भी आधुनिक कल-कारखाने लगने शुरू हुए। हम उन उत्पादों से पहले से अधिक परिचित नहीं थे। या परिचित संभवतः हों भी पर प्रयोग करने के अभ्यस्त नहीं थे। अचानक ही इतनी सुख-सुविधाओं के सामान आ गए कि हम उनकी चकाचौंध में खो से गए। अन्य राष्ट्रों ने तो अपना भौतिक विकास कई वर्षों में धीरे-धीरे निज श्रम से किया था; प्रगति, अनुसंधानों, खोजों व उत्पादों के सम्पर्क में धीरे-धीरे आये थे, अतः वे तो संतुलित थे। परन्तु हमें वह सब अनायास ही बिना किसी विशेष श्रम के एकदम से यूं ही मिल रहा था। हम मदमस्त हो गए।
वैसे हमने ही ऐसे संयोग उत्पन्न किये कि अंग्रेज व्यापारियों को भारत पर आधिपत्य जमाने का अवसर प्राप्त हुआ। वे संख्या में हमसे बहुत कम थे पर सुसंगठित थे और हम संख्या में उनसे कई गुना अधिक होने पर भी असंगठित थे, राग-द्वेष में डूबे थे, अशिक्षा व अविद्या की बेड़ियों में जकड़े थे। यदि ऐसा न होता तो हमारी भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति इतने लम्बे समय थमी न रहती। अध्यात्म के क्षेत्र में विपुल वाद-विवाद व मंत्रणायें होते रहने के बावजूद हम अध्यात्म का व्यावहारीकरण करने में अक्षम सिद्ध हुए। इन्हीं सब कमजोरियों के कारण पिछले काफी वर्षों से न तो हमने अपने भौतिक विकास पर ध्यान दिया था और न ही आध्यात्मिक विकास पर। हम जड़ व स्थिर थे।
भले ही अंग्रेजों ने हमें वर्षों गुलाम बनाये रखा, तब भी कुछ मायनों में हमें उनके प्रति आभारी भी होना पड़ेगा, क्योंकि उनके कारण ही हमारी व हमारे देश की भौतिक जड़ता कुछ हद तक समाप्त हुयी। परिवर्तन की दृष्टि से देखें तो उन्होंने ही हमारे देश में वैज्ञानिक युग का पुनः सूत्रपात किया। भौतिक शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में उन्होंने हमारी बहुत मदद की। आधुनिक भारत का निर्माण उसी काल में आरम्भ हुआ। हमारे देश में मैदानी व विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में रास्तों व सड़कों का निर्माण, रेलपथ का निर्माण, विभिन्न कल-कारखानों का निर्माण उन्हीं के काल में व उन्हीं के सौजन्य से सम्भव हो पाया। आज भी हम उस काल में संपन्न हुए जटिल उपयोगी कार्यों को अपने समक्ष पाते हैं, उनकी उपयोगिता गुणवत्ता के साथ आज भी हमारे सामने है, जैसे कालका-शिमला पहाड़ी रेलपथ। देखा जाये तो स्वतंत्रता के वर्षों बाद भी इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद हम उस स्तर की 'गुणवत्ता' व उपयोगिता के अन्य कार्य करने में अत्यंत मंद रहे हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल के उपयोगी कार्य या निर्माण के रख-रखाव में भी हम अक्षम सिद्ध हो रहे हैं!
आज भी हमारा वही असंतुलन जारी है, हम प्रवृत्तियों में ही, भोगने में ही डूबे हैं। आज भी अनेकों भौतिक उपलब्धियाँ हमें अपने सामर्थ्य से नहीं वरन अन्य राष्ट्रों की कृपा से प्राप्त हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर मोबाइल फोन, विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों, स्वास्थ्य से सम्बंधित नवीनतम उपकरणों आदि को ही देख लें तो अत्यधिक उच्च गुणवत्ता का सामान आज भी विदेशों से ही आता है या उनकी तकनीक बाहर से आती है, बस उत्पादन ही यहाँ होता है और उस पर भी यह संशय बना रहता है कि उत्पाद पूरी तरह से मानकों के अनुरूप है अथवा नहीं। आज हमारा लक्ष्य बेहतर गुणवत्ता का सामान बनाना नहीं वरन केवल मुनाफा देने वाला सामान बनाना है। जैसे निर्माण करने में, वैसे ही प्रयोग करने में भी हम नीतिहीन ही हैं।
हम विज्ञान के विभिन्न पहलुओं की जड़ों से अनभिज्ञ हैं या बहुत कम जानते हैं। अधिकांशतः हमारा ज्ञान सतही है। विदेशियों के सौजन्य से हमारा थोड़ा-बहुत वैज्ञानिक व भौतिक विकास तब शुरू हुआ था जब शेष विश्व अनुसंधानों के कई चरणों को पार कर चुका था। अतः हमें नकल का अवसर ही प्राप्त हुआ, सो विषयों को जड़ से जानने की हमारी जिज्ञासा ही लगभग समाप्त हो गयी या आज भी आलसी वृत्ति के होने के कारण हम उनको ठीक से समझना ही नहीं चाहते हैं।
अंग्रेजी सभ्यता लालच की थी पर उन्होंने अपने आप को परिष्कृत व परिमार्जित कर नीतिमान व धर्मभीरु बना लिया। उनकी सोच व कार्यों की गुणवत्ता पहले की तुलना में और अधिक श्रेष्ठ हो चुकी है। मात्र पैसा ही अब उनका उद्देश्य नहीं है, .. पर हमारा उद्देश्य?? हमारे यहाँ तो आज नैतिक मूल्य इतने रसातल में जा चुके हैं कि उनकी खुल कर व्याख्या करने में भी लज्जा का अनुभव होता है।
लाख बुराइयों के बाद भी अंग्रेज मेहनती व अनुशासित थे। उन्होंने अपने ये गुण हमें देने की भरपूर कोशिश की, परन्तु हमने उनके कुछ और बुरे गुण तो अपना लिए, पर मेहनत व अनुशासन से अभी भी मुँह चुराते हैं।
जब हम सीखने की या आगे बढ़ने की प्रक्रिया में होते हैं तो हमें स्वयं की तुलना सदैव अपने से उच्च अर्थात् उन्नत व श्रेष्ठ लोगों से करनी चाहिए, निचली अवस्था के लोगों से नहीं! हम बारम्बार अपनी तुलना पाकिस्तान जैसे छोटे, कमजोर व अपरिपक्व देश से करते रहते हैं एवं खुश होते रहते हैं। परन्तु जहाँ चीन जैसे विकसित या अपेक्षाकृत उन्नत विकासशील देशों से तुलना की बात होती है, वहाँ हम उनकी समृद्धि के अनेकों अन्य कारण गिना देते हैं!
दुःख की बात है कि हमारे भारत में आज लगभग प्रत्येक क्षेत्र के अगुवाओं की यही दशा है - न्यूनतम प्रयास कर येनकेन-प्रकारेण अधिकतम प्राप्त करने की वृत्ति! जब अगुआ ऐसे तो फिर अनुगामी तो तदनुसार होंगे ही! कागजों पर, आंकड़ों में निश्चित रूप से हम अपने राष्ट्र को काफी आगे दिखाने में सफल हो गए हैं परन्तु अपने सामने हम अनावृत हैं। प्रगति की आपाधापी में हम संतुलन खोते जा रहे हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति जैसे शब्दों और उनके अर्थों को भुला बैठे हैं। अनर्गल विकास और प्रगति की दौड़ ने हमें क्रमशः आत्मिक प्राणी से शारीरिक प्राणी और फिर शारीरिक प्राणी से संवेदनहीन मशीन में परिवर्तित कर दिया! देखा जाये तो यह भी एक प्रकार का परिवर्तन ही है, और लोग तर्क देते हुए यह चिरपरिचित पंक्ति पुनः कहेंगे कि 'परिवर्तन ही शाश्वत सत्य है'!!
प्रकृति में, मानव देह में, उसकी मूलभूत आवश्यकताओं में, गुणधर्मों में तो विगत हजारों वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं आया है, फिर हम क्यों अपने जीवन में नित इतना अधिक परिवर्तन करने की चाहत रखते हैं?? यह अत्यधिक चाहत ही हमें बीमार बना रही है। स्वयं भी एक प्राकृतिक वस्तु होने के कारण हमारा प्रथम कर्तव्य बनता है कि प्रकृति ने जिस मूल रूप में एवं उद्देश्य से हमें बनाया, हम उसे जानने और खोजने की चेष्टा करें तथा उसे बनाये रखने का प्रयत्न करें। मेरा विचार है कि प्राकृतिक सिस्टम अपरिवर्तनीय है! हम जबरन उसे हिलाने का प्रयास करेंगे तो खुद ही हिल जायेंगे! क्या नित ऐसा होते नहीं देख रहे हैं हम??
ऐसी खोजों, परिवर्तनों आदि का स्वागत होना चाहिए जो हमें प्राकृतिक रूप से उन्नत होने में मदद करें। प्राकृतिक रूप से तात्पर्य है कि बिना हमारे मूल रूप, गुणधर्म और स्वभाव को छेड़े; बिना हमारे दिलों पर स्वाभाविक रूप से अंकित नैतिकता को छेड़े। अर्थात् हम भौतिक रूप से उन्नत अवश्य हों पर बिना राक्षस या असुर बने। जो भौतिक प्रगति हमें इंसान से देवता बनाने के बजाए आसुरी वृत्ति की ओर ले कर जाये उसे फिर से जांचना अति आवश्यक!
समाज बदल रहा है या बुराइयों की गर्त में जा रहा है...? ..परिवर्तन ही जीवन का नियम है तो अपनी सोच में परिवर्तन क्यों नहीं कर पाते सभी? प्रत्येक व्यक्ति आज कुछ अपने कुछ विशिष्ट संस्कारों (इम्प्रेशंस) और धारणाओं के अधीन है। इनके चलते उसकी सोच इतनी दृढ़ सी हो गयी है कि अचानक किसी परिवर्तन की बात पर वह भड़कता है, आसानी से राजी नहीं होता, या चाह कर भी खुद को बदल नहीं पाता। मेरे विचार से किसी को 'परिवर्तित' होने के लिए कहना उसे उसकी पूर्वस्थापित सोच और अहं के विरुद्ध लगता है। ...'परिवर्तन' के स्थान पर यदि 'शोधन', 'परिष्करण', 'निखारना' (रिफाइनमेंट) आदि के लिए कहा जाये तो व्यक्ति के अहंकार पर कोई चोट नहीं होती! ..सत्य भी तो यही है कि हम यदि व्यक्तित्व और सोच आदि में 'निखार' लाने की कोशिश करें तो इस क्रम में जरूरी परिवर्तन भी स्वतः हो ही जाते हैं! व्यक्ति, समाज या सोच की असली उन्नति के लिए 'परिवर्तन' की नहीं, बल्कि 'रिफाइनमेंट' या 'निखारने' की आवश्यकता है। 'परिवर्तन' शब्द में शायद आलोचना का पुट लगता है जबकि 'रिफाइनमेंट' या 'बेटरमेंट/इम्प्रूवमेंट' (और ज्यादा अच्छा बनो) शब्द जोश पैदा करते हैं। जरा सोचकर देखिये कि स्वयं की या अपने किसी करीबी की सोच को बदलने के लिए इनमें से कौन से शब्द मनोवैज्ञानिक तौर पर अधिक कारगर हैं?! इति।

Thursday, July 18, 2019

(१११) आखिर हम कहाँ जा रहे हैं...

वर्तमान में मैं ५६ वर्ष का हूँ. ..बचपन से आज तक के विभिन्न दृश्य व प्रसंग मेरे मनमस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं. इनमें से अधिकांश को अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवं आत्मा के द्वारा अनुभव-अनुभूत किया है, और कुछएक सुने-सुनाए और कुछ लेखों के माध्यम से ज्ञात हुए हैं.

निःसंदेह सम्पूर्ण विश्व प्रगति एवं उत्कृष्टता की चाह रखता है, ..हम भारतवासी भी रखते हैं! लेकिन हमारी प्रगति बहुत ही विचित्र ढंग से और विचित्र मार्गों द्वारा हो रही है. प्रगति की दौड़ और होड़ में हम भी भाग तो रहे हैं पर अस्तव्यस्त से! इस क्रम में हमारी सामान्य नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठा, सादगी, सरलता, सहजता, उपलब्धता एवं निश्छलता आदि का ग्राफ निरंतर नीचे को गिरता जा रहा है. निश्चित रूप से यही वे मूल कारण हैं जो हमें ठोस प्रगति से रोक रहे हैं और भारत की गणना अभी तक एक 'विकासशील' राष्ट्र के रूप में होती है (५० वर्ष पूर्व मेरे बचपन की किताबों में भी मैंने अपने राष्ट्र के विषय में यही 'विकासशील' शब्द ही पढ़ा था)!

बहुत गहरे इतिहास में न जा कर गाँधी जी से ही आरंभ करते हैं. उस समय अंग्रेज आक्रांताओं का बहुत जुल्म और बर्बरता थी. उनके लिए किसी को मृत्युदंड देना तक भी बहुत सरल था. किन्तु फिर भी अंग्रजों के घनघोर विरोधी होने के बावजूद अंग्रेजों ने गाँधी जी की हत्या नहीं की, और न ही कभी ऐसा कोई षड्यंत्र किया. हाँ, उन्हें जेल में बहुत डाला! देश-विदेश में इतने प्रख्यात होने एवं संत का दर्जा तक मिलने के बावजूद भी उनकी जीवनशैली में एक निष्कपट सरलता थी. सभी को वह सहज भाव से मिलते थे और सर्वसाधारण के लिए उनकी वैयक्तिक उपलब्धता बहुत सरल थी. ...क्या आजकल के बड़े मार्गदर्शकों, गुरुओं, संतों, स्वामियों और साध्वियों आदि से सामान्य जन की प्रत्यक्ष भेंट सरल व सहज रह गयी है?? अहिंसा और सादगी का पाठ पढ़ने-पढ़ाने वाले बड़े लोग आज अपने घर पर भी और बाहर भी सशस्त्र अंगरक्षकों के घेरे में कैद हैं. कभी-कभार सामान्यजन हेतु वे प्रकट होते हैं, लेकिन उनका संवाद बहुधा एकपक्षीय (one way) ही होता है. किसी सामान्य जन को उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलना हो तो सचिवों के इतने घेरे हैं कि उनको पार करना किसी चाटुकार के बस की ही बात है! हाँ, यदि भौतिक जगत में आप कुछ ख़ास साख रखते हैं तो फिर तो मिलना बहुत ही आसान है!

विगत अनेक वर्षों से अभी चार-पांच वर्ष पूर्व तक भी सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा सामान्य जन को जब कोई क्षति पहुंचती थी या कोई धोखा होता था, तो शिकायतों के निवारण हेतु अनेक सरकारी पटल थे, जैसे-- National Consumer Helpline (NCH), Centralized Public Grievance Redress And Monitoring System (CPGRAMS), Directorate of Public Grievances (DPG). जिन पर आप ऑनलाइन या ऑफलाइन शिकायत दर्ज कर सकते थे. और यदि आपका केस सच्चा और प्रमाण-युक्त है, तो तयशुदा समयावधि के भीतर आपको खरा न्याय मिल जाता था. ये पोर्टल अब भी हैं, लेकिन बेअसर हो चुके हैं. मैंने स्वयं अतीत में इनकी सहायता ली थी और न्याय का प्रतिशत सौ फीसदी रहा था, जबकि वर्तमान (निकट-अतीत) में यह आंकड़ा शून्य का आ गया! क्यों?? क्योंकि रसूखदारों के प्रति सत्ता की भी खुशामद अब बहुत बढ़ गयी है. सनद रहे कि ये उपरोक्त पोर्टल विभिन्न मंत्रालयों व विभागों से सम्बद्ध हैं.

आध्यात्मिक संस्थाओं में धुआंधार सुनाया व रटाया जा रहा है. किन्तु सर्व शिक्षा मन व बुद्धि के स्तर पर सीमित है! ...गहरे विवेक अथवा आत्मा के स्तर पर कोई भी कार्य नहीं हो रहा है. राजनीतिक संस्थाएं आमजन को डराने और दहशत में डालने और बड़ी व चाटुकार प्रभावशाली कारोबारी हस्तियों को उठाने में लगी हैं. व्यावसायिक संस्थाएं केवल बड़े मुनाफे के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं, गुणवत्ता व ईमानदारी कम होती चली जा रही है. विज्ञापनों, पैकिंग्स और लुभावने वादों, आमंत्रण आदि में महीन अक्षरों में छुपी हुई पेचीदा 'टर्म्स एंड कंडीशन्स' निरंतर बढ़ती जा रही हैं. इससे व्यवसाय में पारदर्शिता व भरोसा कम होता जा रहा है. नोटबंदी के बाद से अंधाधुंध किये गए बेतरतीब डिजिटलीकरण ने हमारे देश की शिक्षा संस्थाओं व वैज्ञानिक संस्थाओं के गिरते चरित्र को भी उजागर कर दिया है. देश के शीर्षस्थ शिक्षा संस्थानों से निकली बिजनेस मैनेजमेंट स्नातकों और सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की नयी पौध ने व्यवसाय व उपभोक्ता जगत में ऐसी-ऐसी नयी स्कीमों, मोबाइल एप्लीकेशन्स का संजाल खड़ा कर दिया है, जिससे समय की अनावश्यक बर्बादी के साथ ही जोड़-तोड़ की बिक्री-खरीदी का जोर निरंतर बढ़ रहा है. ईमानदारी से यदि कहूं तो इस अजीबोगरीब डिजिटलीकरण से बजाय सरलता होने के, कठिनाईयां व जटिलताएं ही बढ़ी हैं. छोटे व्यवसाई/दुकानदार समाप्त हो रहे हैं, स्वरोजगार के स्थान पर वे अब छोटी-मोटी नौकरी ढूढ़ रहे हैं; ..पेमेंट करना व पाना तो अवश्य सरल हुआ है, पर इसके साथ ही विभिन्न मोबाइल एप्लीकेशन्स से निजता का हनन, असुरक्षित वेबसाइट्स के अलावा सुरक्षित माने जाने वाले एप्लीकेशन्स एवं साइट्स से असंख्य पॉपअप्स उभरना, उनसे प्रविष्ट होते खतरनाक वायरस और चोर सॉफ्टवेयर, सिस्टम की हैकिंग, बैंक खाता सम्बन्धी गोपनीय जानकारी का लीक होना, एटीएम कार्ड क्लोनिंग, आदि ये कुछ ऐसी नकारात्मक चीजें बढ़ी हैं जिनसे साधारण मानवीय मूल्यों का अस्तित्व आज संकट में है. इस अंधाधुंध डिजिटलीकरण के बाद, बिग बाज़ार जैसे किसी भी बड़े स्टोर से खरीदारी की प्रक्रिया में समय की बर्बादी और मानसिक जोड़तोड़ से उपजी मानसिक थकावट बहुत बढ़ गयी है. उदाहरण के लिए-- एक लेने पर ५०० का, दो लेने पर ८०० का और तीन लेने पर १००० का, तीन या चार के साथ एक फ्री, ....फ्री वो जो सबसे कम दाम का होगा, चुनिन्दा सामानों पर कुछ छूट आपके फ्यूचर पे डिजिटल वॉलेट में कुछ-कुछ रुपए प्रति माह जाएगी, उसी माह में उसे प्रयोग करना होगा अन्यथा वॉलेट में आया पैसा जब्त हो जायेगा, इसके अलावा आपके मोबाइल नंबर पर कूपन कोड आते रहते हैं, उनकी भी कुछ दिनों की एक्सपायरी डेट होती है. इनकी टर्म्स एंड कंडीशन्स इतनी छुपी होती हैं कि आप धोखे और लालच में आकर स्टोर चले जाते हो, असली तथ्य आपको वहां बिलिंग के समय पता चलते हैं, जिनसे आप तनाव में आ सकते हो. इसके अतिरिक्त पे-बेक पॉइंट्स कार्ड, प्रॉफिट क्लब कार्ड, और न जाने कितने ही पेचीदा प्रलोभन....., ये सभी की उस पिपासा को बढ़ा रहे हैं, जो अंत में आपको साधारण मानवीय नैतिक मूल्यों और नैसर्गिक जीवनशैली से दूर ले जाती है, और समय की बर्बादी व मानसिक तनाव बोनस में अलग से मिलते हैं. ...वैसे अनेक आध्यात्मिक संस्थाओं के व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी अब इसी राह पर अग्रसर हो चुके हैं!!!

इसके अतिरिक्त देश की सुरक्षा से जुड़े आयुध निर्माण जैसे कि एक विवादित युद्धक विमान के निर्माण जैसे कार्यों का अनुबंध अब सरकारी सुस्थापित कंपनी को छोड़कर ऐसी निजी कंपनियों को दिया जा रहा है जो पहले से ही दिवालियेपन की कगार पर हैं! डॉक्टरी व इंजिनीयरिंग जैसी मानव-हित से जुड़ी विधाएं तेजी से मुनाफे वाली व्यावसायिकता की ओर अग्रसर हैं. हवाई यात्रा के उपरांत अब आमजन की रेल यात्रा की सीटों का भी अब मांग बढ़ने व उपलब्धता घटने के साथ किराया बढ़ जाता है. किसी की गरीबी, इमरजेंसी या विवशता का ध्यान किसे है भाई, ..सारा जोर मुनाफे पर है अब! देशी सामान व सेवा की गुणवत्ता हाशिये पर जाती जा रही है.

११वीं कक्षा में आने पर सन् १९७८ में जब अपने शहर लखनऊ में ही घर से दूर कॉलेज में साइकिल से जाना शुरू किया तो तब यहाँ के केंद्रीय चौराहे पर पैदल सड़क पार करने वालों के लिए बाकायदा रोड सिग्नल लाइट्स होती थीं. पैदल वालों की लाइट हरी होते ही उस छोर के वाहन रुक जाते थे और पैदल सड़क पार करने वाले जेब्रा लाइन्स पर से आराम से सड़क पार कर लेते थे. दक्षिण भारत में यह अब भी है. लेकिन हमारे यहाँ अब जेब्रा लाइन्स तो हैं पर मात्र दिखावट के लिए! उनपर वाहनों का अधिक्रमण रहता है. और पैदल पार करने वालों के लिए न तो कोई लाइट्स हैं, न अंडर पास, न ही ओवर ब्रिज और न ही कोई सहानुभूति! समय के साथ हम आगे को गए या पीछे को, कोई तो समझा दे!

पूर्व में हम साधारण सरकारी स्कूलों में पढ़कर ही कुछ बन गए, अस्वस्थ होने पर साधारण सरकारी चिकित्सालयों में ही जा कर स्वस्थ हो गए; लेकिन अब क्या ऐसा है?? हम आगे को बढ़े या नीचे गिर गए? ...पहले उधार का खाना हमारी आम संस्कृति नहीं थी. लेकिन आगे बढ़ने के क्रम में हम शहरी लोग तो चतुर-चालाक हुए ही, साथ ही अब भोले ग्रामीण व खेतिहर भी चुस्त हो गए हैं! जिसे पहले कहने या प्रकट करने में सकुचाहट होती थी, उस कर्ज को लेना अब आम बात हो गयी है! उस पर भी तुर्रा यह कि चुकाने से पहले सरकारी माफी या एक-मुश्त समाधान योजना की प्रतीक्षा रहती है! यह जीवनशैली तो हमारी पहचान न थी कभी!

यहाँ आज लगभग सभी काम करने वाले अब डिजिटल क्रांति (मोबाइल एप्स) के जबरदस्त शिकंजे में हैं. इससे भी कार्य के प्रति समर्पण, सेवाभाव, गुणवत्ता आदि बहुत प्रभावित हुए हैं. कारण यह कि इसकी खोज, बनाने आदि में हमारा कोई भी योगदान नहीं रहा, अन्यथा इसकी असल कीमत व महत्त्व हम जानते! बाजार के वैश्वीकरण के दौर में हमें तो यह अनायास मिल गया! जब रोटी, दाल, सब्जी हम कमाकर खुद बनाते हैं तो उसकी कीमत जानते हैं, उसकी इज्जत करते हैं; लेकिन येनकेनप्रकारेण वह हमें अनायास मिल जाये तो हम आधा खाते हैं, आधा बर्बाद करते हैं. मुझे तो नहीं लगता कि उपग्रह प्रक्षेपण व अन्तरिक्ष विज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य वैज्ञानिकी क्षेत्र में हमने कोई ठोस व अभिनव प्रयास कर कोई उपलब्धि हासिल की हो! यहाँ तक कि हमारी अकूत आध्यात्मिक विरासत में भी हमने कोई ठोस प्रगति की चाह कभी भी नहीं दिखाई! हमारे सनातन वेद, उपनिषद् आदि जहाँ हमें उनसे भी आगे जाने को प्रेरित करते हैं, वहीं हम उनको लेकर बगल में दबाये अभी भी उन्हें श्रवण, कंठस्थ आदि करने के स्तर पर ही हैं! वेदों ने तो हमें क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर व आगे सूक्ष्मतम होने को प्रेरित किया, परन्तु हम अभी तक असंख्य स्थूल विधि-निषेधों में ही उलझे हैं! हम क्रमशः मन के, विवेक के, हृदय के, आत्मा के स्तर पर आखिर कब जायेंगे? यहाँ एक धर्मग्रन्थ में लिखी बड़े पते की बात बताना चाहता हूँ, अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए वहां लिखा था, "तुम सब इस धर्मग्रन्थ को पढ़ो, इसे याद करो, इसे धारण करो, इसके अनुसार वर्तन करो; ..लेकिन कभी तुम ऐसा भी पाओगे कि, कभी तुम किसी अन्य भूभाग के अपरिचित से व्यक्तियों से मिलोगे, जो इस धर्मग्रन्थ को बिलकुल भी नहीं जानते, फिर भी उनके आचरण से तुम्हें ऐसा महसूस होगा कि वे इस धर्मग्रन्थ में लिखी शिक्षा के अनुसार ही चल रहे हैं! अजीब सा है न यह!! क्योंकि परमेश्वर ने सभी को वह विद्या दी है हमेशा से ही, ...कोई पढ़कर, कंठस्थ करके 'शायद' वहां तक पहुँचता है, और कोई अनपढ़ होते हुये भी! शब्द महत्वपूर्ण नहीं बल्कि आचरण महत्वपूर्ण है, संवेदनाएं महत्वपूर्ण हैं, मन/अंतर् में चलने वाले विचार/भाव महत्वपूर्ण हैं!"

अब अंत में मेरे मन को विचलित कर देने वाली एक बात, ...मैं जीवन में अब तक सदैव सत्य का समर्थन व गलत का शालीन विरोध दर्ज करता रहा. उम्र बीतने के साथ-साथ जब मैंने पाया कि हमारे समाज में नैतिकता का ग्राफ लगातार नीचे को गिरता जा रहा है, तो मैंने कुछ वरिष्ठ लोगों से मार्गदर्शन लेना चाहा कि अब क्या कर्तव्य बनता है. अधिकांश ने परामर्श दिया कि, "यहाँ प्रयास करने से कोई लाभ नहीं, भगवान् सबको अपनी करनी का फल समय आने पर अवश्य देंगे!" ...बड़े लोगों की यह सोच निश्चित ही पलायनवादी है! ....क्या निर्गुण परमात्मा के हम छोटे-छोटे मनुष्य रूपी सगुण अवतारों का जन्म इसीलिए हुआ है कि मशीन की भांति यह भूलोक प्रवास मात्र भोगें, जब तक कि देह में हैं! क्या हमारी कोई भूमिका या कर्तव्य नहीं?

Friday, November 2, 2018

(११०) चर्चाएं ...भाग - 29

(१) वे लोग बहुत किस्मत वाले हैं जिन्हें मालूम है कि हम डिप्रेशन के शिकार हैं वर्ना अधिकांश लोग तो यूँही जीवन बिता के चले जाते हैं! आपकी क्या राय है? और वे अधिकांश लोगों में से ही वे लोग हैं जो अपने अहं में इतने मगन हैं कि उनकी मगरूरी की वजह से बाकी लोग जोकि अच्छे से जीना चाहते हैं, फीलिंग्स रखते हैं, ..डिप्रेशन में हैं! कृपया अपनी राय दें!!
आपके प्रश्न और उसके ठीक बाद में आपके अपने मत (व्यू) में, आप द्वारा दो हिस्सों में दो बातें चर्चा में लायी गयी हैं! हालाँकि वे दोनों परस्पर सम्बन्धी हैं लेकिन आपका प्रश्न बहुत स्पष्ट नहीं हो पाया! जहाँ तक मैंने समझा है आपका आशय यह है-- "इस समाज में बहुत से अच्छे लोग हैं जो बढ़िया ढंग से ऐसा जीवन जीना चाहते हैं जिसमें मानवीय भावनाएं/संवेदनाएं हों. लेकिन उधर समाज में बहुत से बुरे और अहंकारी लोग भी हैं, जो उनकी (भले लोगों की) फीलिंग्स की बिलकुल भी कद्र नहीं करते. इस वजह से अधिकांश अच्छे लोग तिरस्कृत और उपेक्षित होकर अवसाद (डिप्रेशन) में जीवन जीने को मजबूर होते हैं. ..और इन अवसादग्रस्त अच्छे लोगों में से बहुतों को यह मालुम ही नहीं होता कि उन्हें डिप्रेशन है, और वे यूँ ही (रोते-कलपते, दबे हुए, त्रस्त) जीवन व्यतीत कर एक दिन मर जाते हैं!" ....यदि आपका आशय यही है, तो मैं भी यहाँ आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ. मैं मानता हूँ कि हमारे समाज में ऐसा बहुत होता है. ...और ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक हमारी आम सोच ऊपर नहीं उठती. ..सोच ऊपर उठाने के निमित्त ही तो हम ऐसी संवेदनशील चर्चाएं छेड़ते हैं. ..उम्मीद है अन्य उपस्थित लोग भी मानवीय संवेदनाओं को पुनर्जीवित करने वाली चर्चाएं अवश्य शुरू करेंगे.

(२) मेरा यहां क्या है, बोलना/लिखना यहां तक कि सोच वह भी पहले से मौजूद है तो फिर मेरा क्या है, मैं क्यों परेशान हूँ! किस लिए? काश इतनी सी बात पल्ले पड़ जाए तो जिंदगी खूबसूरत हो जाए और पता नहीं क्या-क्या नया देख पाएं और सोच पाएं, काश हम वहां तक पहुंचें? आपकी क्या राय है?
जी, बिलकुल.., हम जिन्दगी के कुछ पहलुओं तक ही सीमित हैं, उन्हीं में लगातार गोल-गोल घूम रहे हैं. उससे बाहर निकलने की कोशिश करें तो ही कुछ नया और बेहतर मिल पाएगा....पहली कक्षा का सत्र खत्म होने पर दूसरी कक्षा में, फिर तीसरी, फिर क्रमशः चौथी-पांचवीं.... यानी लगातार एक को छोड़कर अगली कक्षा में जाते रहते हैं न हम..! हमारी कोई जिद नहीं रहती कि एक ही कक्षा में जीवन भर पढ़ते रहेंगे! ..फिर इसी आगे जाने के दस्तूर को अपनी दूसरी चीजों में क्यों नहीं अमल करते? ..करना चाहिए ना...! ...तभी कुछ नया पा सकेंगे, ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ सकेंगे, नहीं तो एक ही जगह गोल-गोल घूमते रह जायेंगे. ..उदाहरण के लिए..., कुछ लोग कहते हैं कि 'वेद' अपने आप में सम्पूर्ण हैं, ज्ञान का चरम हैं; ...वहीं 'वेद' यह कहते हैं कि बेड़ियों में न फंसो, आगे बढ़ते जाओ, ..जब तुम मुझे भी समझ लो तो मुझे भी छोड़कर और आगे को बढ़ो... सब कुछ अनंत है, अनंत के लिए स्वतंत्र और स्वछन्द होकर निरंतर आगे को बढ़ते रहो.

(३) जब हमें खुद को देखना होता है कि हम कैसे लगते हैं तो हम शीशा देखते हैं वैसे ही अगर हम अपने अंदर के अँधेरे/उजाले को देखना चाहते हैं तो जरूरी है कि हमें अँधेरा देखने के लिए उजाले में और उजाला देखने के लिए अँधेरे में खड़ा होना पड़ेगा!?
प्रश्न थोड़ा अस्पष्ट है फिर भी अर्थ का अनुमान लगाकर उत्तर देने का प्रयास करता हूँ. आईने के सामने हम खुद के उन पहलुओं को भी देख सकते हैं जो हमें आमतौर पर सीधे-सीधे नजर नहीं आते, ..और देखकर हम उन्हें संवार सकते हैं, ठीक कर सकते हैं. इसी प्रकार अंतर्मुख होकर या किसी से बड़े अपनेपन से काउन्सलिंग लेकर हम अपनी भीतरी कमियों को जान सकते हैं और उन्हें ठीक या दूर कर सकते हैं. ...बुराई का महत्त्व जानने के लिए हमें अच्छाई में, और अच्छाई का महत्त्व जानने के लिए हमें बुराई में जाने की आवश्यकता तो नहीं! जीवन के ये पाठ समय के साथ स्वतः ही सीखते चले जाते हैं यदि हम पर्याप्त संवेदनशील और जागरूक हैं तो! हमारे भीतर बुराई और अच्छाई के रूप में अँधेरा और उजियारा दोनों हैं,...भीतर के उजाले को लगातार पाने का प्रयास हमारे अंतर्मन के सभी अँधेरे दूर करता जाता है. जैसे-जैसे भीतरी प्रकाश की मात्रा बढती जाती है, अँधेरे भागते जाते हैं. ...हर प्रकार के प्रकाश का तो कोई तो स्रोत जरूर होता है, ...किन्तु किसी भी प्रकार के अँधेरे का कोई भी स्रोत नहीं होता!!!! ...प्रकाश का न होना ही अँधेरे का मूल कारण होता है!

(४) पैसे से जीवन है या पैसा ही जीवन है? कई बार देखता हूँ लोग कमाते कमाते भूल बैठे हैं कि कमाने के लिए जीवन है या कमाई से अच्छे जीवन की तलाश, कृपया अपने विचार रखें!
चूंकि हम भौतिक शरीर और भौतिक जगत में रह रहे हैं तो इस जीवन को बेहतरी के साथ जीना हमारा उद्देश्य अवश्य होना चाहिए. ..जीवन को बेहतर बनाने के लिए हमें श्रम की और उससे अर्जित धन की आवश्यकता पड़ती है. फिर इस धन को हम उन मदों (या वस्तुओं) पर खर्च कर सकते हैं जिनसे हमें लम्बे अरसे तक बुनियादी आराम और खुशी मिले. ...लेकिन हमारे यहाँ अधिकांश लोगों को धन या मात्र दिखावा एकत्रित करने का शौक है, वो भी बहुत सारा, अथाह..!! इसके साथ ही एक खराबी और, कि, यह धन भी उन्हें बहुत कम श्रम करके या यूं ही (किसी दंदफंद/शॉर्टकट से) मिल जाये, इसकी चाहत बहुत रहती है! ..सांसारिक वस्तुएं, विलासिता आदि कोई बुरी चीज नहीं, पर पागलों समान उनमें आसक्ति रखना, ..यह गलत है! ...हमारे यहाँ सही या गलत तरीके से जो भी कमाया जाता है उसे जीवनपर्यंत बढ़ाने, बचाने, छुपाने, सहेजने या फिर दिखावा करने के लिए ही ज्यादा कोशिशें होती हैं, ..जीवन के सही पहलुओं पर तो उसे बहुत कम खर्च किया जाता है! जीवन को जिन्दादिली के साथ व प्रकृति का लुफ्त लेते हुए जीने की ललक बहुतों में अब गायब है, एक दिखावटी कृत्रिम जीवन जिया जा रहा है, बिलकुल मशीनी सा..! नोट बनाने की मशीन तो बन गए हैं पर मानवता व जीवन के सच्चे उल्लास को बंधक बना दिया है हमने! ..यह असंतुलन की स्थिति है. ..हमें सचेत होना होगा.

(५) क्या हम इसीलिए अच्छे हैं क्यूंकि हमें भगवान् और कर्मों का डर है या हम वैसे भी अच्छे हैं क्या हम कभी बिना डर/भय के जीवन को यूँही एक नदी के बहाव की तरह जी पाते हैं?
जो कमजोर इच्छाशक्ति वाले, कम समझ रखने वाले और कम नैतिक हैं वे अपने अच्छेपन को बढ़ाने या अच्छाई को बरकरार रखने के लिए भगवान् और कर्मफल आदि से डरते हैं और इस डर की वजह से 'शायद' वे अच्छे हैं! फिर भी उनकी अच्छाई परिस्थितियों के अनुसार डोलती रहती है! ...दूसरी ओर दृढ़, समझदार और नैतिक गुणों से भरपूर व्यक्ति बिना किसी डर के स्वाभाविक या प्राकृतिक रूप से लगभग हमेशा ही अच्छे बने रह सकने में समर्थ होते हैं. पहले प्रकार के व्यक्ति डर के मारे अत्यधिक विधि-निषेधों का अनुपालन करते हैं जबकि दूसरे प्रकार के व्यक्ति विधि-निषेधों से परे रहकर भी भीतरी अच्छाई को कायम रख पाने में सफल रहते हैं. पहले वाले जकड़े हुए और परतंत्र से दिखते हैं तथा सीमित रूप से अच्छे होते हैं, जबकि दूसरे वाले खुले विचारों के साथ स्वतंत्र और स्वछन्द होते हैं, उनकी अच्छाईयां व्यापक होती हैं.

(६) स्वभाव से सोच है या सोच से स्वभाव है?
हमारी सोच तो अपनेआप में 'अव्यक्त' होती है लेकिन हमारे स्वभाव/मनोभाव/मिजाज़ के माध्यम से वह 'व्यक्त 'होती है! यानी हमारे स्वभाव से हमारी सोच महसूस या दिखाई पड़ती है. अर्थात् हमारे स्वभाव (सामान्य व्यवहार / मिजाज) के मूल में हमारी सोच है. ...सोच से ही स्वभाव है!

(७) मुझे बहुत गुस्सा आता है, मेरा घर में सबसे ज्यादा झगड़ा होता है और मुझे धन कमाने के लिए कोई रास्ता नहीं सूझता, और पैसों की परेशानी बनी रहती है!
प्रत्येक चीज पाने के लिए लगनपूर्वक कर्म करना आवश्यक होता है; और हमारे वश में केवल कर्म (कोशिश) करना ही है, फल नहीं! .."हमारे वश में फल नहीं" से तात्पर्य यह है कि फल कब व किस रूप में हमारे समक्ष आएगा, इसका हम बहुत सटीक अनुमान नहीं लगा सकते। वर्तमान कर्म के साथ हमारा प्रारब्ध भी तो हमसे जुड़ा हुआ है, वह भी नतीजे (परिणाम) को कुछ न कुछ प्रभावित करता रहता है। ...अब चूंकि हमारे हाथ में सिर्फ कर्म ही है, तो फिर हमारे वश में मात्र यही है कि हम शांत मन से पूरी तन्मयता से खुद को कर्मभूमि में झोंक दें, ...प्रारब्ध को परास्त करके एक दिन विजयी होने का केवल यही विकल्प है हमारे पास!!! ..कोशिश पूरी करें पर उतावले होकर भागें नहीं किसी चीज के पीछे! जब मिलनी होगी मिल जाएगी हमारे प्रयासों में कोई कमी नहीं, इस बात का संतोष सदैव आ जाये तो मन अपनेआप शांत रहेगा। बौखलाने और उत्तेजित होकर आपा खो देने से तो हमारी मानसिकता और आगामी कर्म बहुत प्रभावित हो सकते हैं। कृपया शांत चित्त से अनवरत कर्म करने में जुट जाएं, सफलता को फिर कभी तो किसी न किसी रूप में आपके पास आना ही पड़ेगा।

(८) मैंने कोई सपना देखा और चाहे जिस भी कमी की वजह से वह पूरा नहीं हुआ। पर जिस दोस्त या रिलेटिव को मैंने वह सपना शेयर किया था उसने प्रभावित हो उसे पूरा कर लिया। दुख होता है कि मेरा सपना क्यों अधूरा रहा!?
जो व्यक्ति किन्हीं शब्दों, ज्ञान, सपने या किसी के आईडिया वगैरह से प्रभावित व प्रेरित होकर जितनी जल्दी और कुशलता से कार्य को सम्पादित (एक्सीक्यूशन/इम्प्लीमेंटेशन) करता है , उसके सफल होने की संभावनाएं उतनी ही तीव्र होती हैं! ...किसी भी ज्ञान को पाने का महत्व केवल 5% होता है, शेष 95% महत्त्व कुशलतापूर्वक उसे कार्यान्वित करने का होता है.

(९) क्या सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं कि हमारी सोच में गलती है? हमारा यह सोचना कि वह (भगवान) हमारा ही हिस्सा नहीं बल्कि कुछ है जो हमारे बाहर है? आप क्या सोचते हो कृपया बताएं, क्या यह हमारी सोच नहीं कि भगवान कोई बहुत ही ताकतवर चीज है जो हमारे पाप पुण्य का ब्यौरा रख रही है बजाए इसके कि हम उसको अपने में ही अनुभव कर पाएं और एक पूर्णता को महसूस कर पाएं!
भगवान् उतनी ही ताकतवर चीज है जितनी कि प्रकृति!!! प्रकृति अपने प्रति (यानी प्रकृति के प्रति) हमारे हर एक्शन को दर्ज करती है और उसी के अनुरूप प्रकृति की प्रतिक्रिया स्वतः ही आती है! कब और किस फॉर्म में, विज्ञान ने कुछ हद तक इसकी व्याख्या करने में सफलता प्राप्त कर ली है! प्रकृति के समान ही ईश्वर हैं या यह कहना अधिक उचित होगा कि भगवान् प्रकृति के रूप में ही हमारे समक्ष विद्यमान हैं. प्रकृति के नियम और ईश्वर के नियम एक ही हैं! जैसे प्रकृति निराकार वैसे ही ईश्वर भी! चूंकि हम भी एक प्राकृतिक जीव हैं इसलिए ईश्वर या प्रकृति हमारे भीतर भी है. यदि हम उसके नियमों-सिद्धांतों के अनुरूप चलते हैं तो मानों हम पूर्ण हैं, हमें कोई भी डर या भय नहीं! उसके विरुद्ध जाने पर आशंका उपजती है कि प्रकृति संविधान के खिलाफ जाने पर प्रकृति की कोई प्रतिक्रिया हम तक अवश्य आयेगी कभी न कभी! ...ईश्वर कोई डराने वाला राजा नहीं है दीदी.... वो तो प्रकृति के सिद्धांत के रूप में है. ये सिद्धांत अटल होते हैं. उदाहरण के लिए- धनिये का बीज बोने पर धनिये का पौधा ही निकलता है और गेहूं का बीज बोने पर गेहूं का ही!! इसके विपरीत होते देखा है क्या कभी?? इसमें डरने वाली तो कोई बात नहीं दिखती मुझे! एक और उदाहरण -- महान वैज्ञानिक न्यूटन का तृतीय नियम (एक प्राकृतिक सिद्धांत) यह कहता है कि- प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप उसी अनुरूप कोई प्रतिक्रिया आनी निश्चित है; प्रतिक्रिया तुरंत भी आ सकती है और अनिश्चित समय के बाद भी! लेकिन आयेगी अवश्य!!! इसमें भी कोई व्यर्थ डरने-डराने वाली बात नहीं! यह तो प्राकृतिक संविधान का एक नियम (सिद्धांत) है मात्र! जो इसका ध्यान रखता है, पालन करता है, वह निश्चिन्त है, विरुद्ध जाने वाला झेलेगा, झेलता है. ....तो यदि हम ईश्वर को सदैव अपने भीतर ही महसूस करते हैं सदैव तो ईश्वरीय संविधान का पालन हमसे स्वतः अपनेआप ही होता रहता है, बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के. तब एक पूर्णता का अहसास होता है.

(१०) भगवान की बड़ी बड़ी मूर्तियां, उनका दर्शन क्या यह बयान नहीं करता कि जीवन एक दर्शक से दर्शन बनने का सफर है? आपकी क्या राय है, क्या जीवन सिर्फ भगवान का दर्शन, उनकी बातें या कभी न कभी उन्हीं की तरह बन जाना कि लोग हमारा दर्शन कर सके, भगवान् की तरह नहीं बल्कि एक अच्छे इंसान की तरह ही सही! हमारा भी कुछ योगदान हो इस धरा पर और लोग उसको जान सकें और हमें भी अपने इंसान होने पर गर्व हो जाए!!!
हमारी फितरत कुछ ऐसी है कि ज्ञान के पथ पर हम पहले स्थूल की राह पर, तत्पश्चात धीरे-धीरे सूक्ष्म की राह पर चलते हैं. स्कूल में भी शुरू में हम फोटो और त्रिआयामी आकृतियों की मदद से वर्णाक्षर ए,बी,सी,डी.... सीखना शुरू करते हैं. ..फिर कक्षा दर कक्षा हमारा ज्ञान व समझ सूक्ष्म होते चले जाते हैं. फोटो और आकृतियों के बिना भी हमारा ज्ञान व्यापक होता चला जाता है. ..शर्त बस यह होती है कि किसी एक कक्षा के मोह में न पड़ जायें, नहीं तो जीवन भर उसी कक्षा में बैठे रह जायेंगे!!! एक कक्षा का पाठ्यक्रम यानी सिलेबस समाप्त हो जाने पर अगली कक्षा में जाना अनिवार्य होता है! ऐसे ही ईश्वर को भी स्थूल से सूक्ष्म तक जानना आवश्यक होता है. कहीं बीच में एक स्थान पर ही अटक जाने से हमारी यात्रा रुक जाती है और हम कुंए के मेंढक बन सकते हैं! ...ज्ञान के क्रमशः सूक्ष्मतर...सूक्ष्मतम होते होते व्यक्ति और उसकी सोच भी व्यापक होते जाते हैं, अच्छाईयां बढ़ती जाती हैं, कर्म भी स्वतः उत्कृष्ट होते जाते हैं, ...फिर सार्थक योगदान अपनेआप होता है. लोग उसे जानें या न जानें, नोटिस करें या न करें, सराहें या न सराहें, ...उस व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता. ..बस उसे भीतर से स्वयं से पूरी तसल्ली होती है, बड़ा संतोष मिलता है.

(११) क्या जीवन का हर संघर्ष, हर परेशानी हमें अपनी ताकत याद दिलाने ले लिए नहीं था? अंततः यही समझ आता है जीवन का हर कष्ट, हर दुःख, हर सुख, हमसे हमारी पहचान कराने के लिए ही था, कि हम इस मनुष्यरूपी जीवन को सार्थक बनाएं, कुछ खुद के लिए और कुछ औरों के काम आएं!!!
मैं मानता हूँ कि हर कोई अपने जीवन में गिर कर, संघर्ष कर, बहुत कुछ सीखता है. ...लेकिन इसके साथ ही मेरा यह भी मानना है कि हम दूसरों के प्रसंगों से भी बहुत कुछ ग्रहण कर सकते हैं, दूसरों को भी गिरता या संघर्ष करता देख बहुत कुछ सीख कर सचेत हो सकते हैं, अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, ..यदि हममें ग्रहण करने की अभिलाषा और काबलियत हो तो! ...हाँ अवलोकन करने, सीखने के बाद उसे प्रयोग में लाना अति आवश्यक होता है, तभी कुछ ठोस हासिल होता है.

(१२) हम व्रत क्यों रखते हैं? कुछ पाने के लिए? रिवाज चला आ रहा है इसलिए? या सच में हमें उपवास का मतलब मालूम है इसलिए? आज करवाचौथ था इसलिए यह सवाल दिमाग में आया!! !हम क्या और क्यों कर रहे है, हमें पति से वास्तव में प्यार है या दिमाग के पीछे हमें मालूम है पति के बिना गुजारा नहीं!?
वैसे तो अधिकांश व्रत आदि देखा-देखी, समाज की भेड़चाल के अनुसार ही रखे जाते हैं. ...लेकिन स्त्रियों द्वारा रखे जाने वाले कुछ व्रत जैसे करवाचौथ एवं छठ आदि बहुत आस्था और भाव से रखे जाते हैं. स्त्रियों का अपने जीवनसाथी के प्रति निःस्वार्थ प्रेम परिलक्षित होता है इनमें. मेरे विचार से कम से कम 90 प्रतिशत स्त्रियाँ बड़े मनोयोग व दिल से इन व्रतों को रखती हैं. उनको मेरा सादर नमन.

(१३) ईश्वर साकार है या निराकार? यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि आखिर ईश्वर कैसा है? साकार होता है या बिना आकार का निराकार? रामकृष्ण परमहन्स कहते थे कि ईश्वर को पहले साकार मानकर उसकी भक्ति करो, इतनी भक्ति करो कि उसमे लीन हो जाओ, तब उसका निराकार स्वरूप स्वतः प्राप्त हो जायेगा...!
परमपूज्य रामकृष्ण परमहंस जी ने अति उत्तम बात बताई है। हमारी प्रवृत्ति और मानसिक ढांचा भी कुदरती इसी प्रकार का है कि हमारा ज्ञान क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। बचपन से ही स्कूल में बच्चा प्रथम फोटो और त्रिआयामी खिलौनों की मदद से वर्णाक्षर सीखता है, फिर कक्षा दर कक्षा क्रमशः उसका ज्ञान और समझ स्वतः ही पैने व सूक्ष्म होते चले जाते हैं। ...बस यहां शर्त एक ही होती है कि एक कक्षा का कोर्स पूरा होने पर अगली कक्षा को प्रस्थान अवश्य किया जाए! एक ही कक्षा से मोह रखने वाला, सदैव उसी कक्षा में ही बैठे रहने की जिद करने वाला बालक आगे उन्नति नहीं कर सकता!

(१४) जीवन में हमें क्या प्राप्त होता है, उस पर हमारा शतप्रतिशत कोई नियंत्रण नहीं किन्तु परिस्थिति का अपने साथ सही उपयोग केवल हमारे हाथ में ही है, ....क्या यह सही है?? भाग्य पर विश्वास ठीक है किन्तु केवल भाग्यवादी बन कर हाथ पर हाथ रख कर बैठना सही नहीं है; ...प्रयत्नशील रह कर अवसर की तलाश करने से ही रास्ते मिलते हैं!
यह बात ठीक है कि प्रारब्ध या भाग्य होता है; लेकिन यह बात मेरे लिए मानना असंभव है कि भाग्य को कोई सटीकता से कभी भी जान सकता है। ...तो प्रत्येक मिले अवसर पर पूरे मन से तब तक प्रयास करना चाहिए जब तक कि अवसर की वैधता समाप्त नहीं हो जाती। उदाहरण के लिए, ..किसी प्रतियोगी परीक्षा में पूरी कोशिशों के बाद भी उसके लिए निर्धारित अधिकतम प्रयत्नों के बाद (पात्रता समाप्त होने तक) भी यदि हमें सफलता प्राप्त नहीं होती, तब ही हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि यह शायद हमारे भाग्य में ही नहीं थी!!! ...लेकिन आखिरी वैध कोशिश का परिणाम आने तक हमें अपने कर्म के अलावा किसी चीज का यानी भाग्य फैक्टर का पता नहीं चल सकता। ...जब ऐसा है तो हताशा की तो कोई गुंजाइश नहीं बचती! अंतिम प्रयास तक भरपूर कर्मशील और आशावान रहते हैं। ..सफलता मिल गयी तो बल्ले-बल्ले, ..अन्यथा नियति को सिर झुकाकर मान लेते हैं और तब किसी अन्य प्रोजेक्ट में लग जाते हैं। जीवन चलने का नाम है, यह कभी नहीं भूलते तो जोश और होश दोनों कायम रहते हैं। प्रारब्ध, कर्म और फल संबंधी मूलभूत सिद्धांतों को भलीभांति जानते और मानते हैं तो जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी विचलित नहीं होते कि हम वो न पा पाए जिसके लिए कोशिशें करते रहे! क्योंकि न पाने के बावजूद हम जानते हैं कि हमारे किये गए प्रयास विफल नहीं जाएंगे, वो भी एक दिन रंग लाएंगे! वो प्रयास वो क्रियाएं हैं जिनकी प्रतिक्रियाएं आना अभी शेष है। ..इस जीवन के साथ एक अध्याय समाप्त हुआ, किताब तो अभी जारी है!

Friday, September 28, 2018

(१०९) चर्चाएं ...भाग - 28

(१) रावण के दस सिर, वेदों का ज्ञान, बड़ी सी सोने की लंका, हर तरह का ज्ञान, हर तरह की पावर और राम में सिर्फ और सिर्फ देवत्व!! सवाल ये है कि बुराई इतनी पावरफुल क्यों है और अच्छाई अपना इम्तिहान देते-देते क्यों मरी जा रही है बिना किसी वजह ......या ये जरूरी है कि अच्छाई भी अपनेआप को समर्थ बनाकर रखे जरूरत के लिए! ...बेहतरीन उदाहरण है परमाणु बम को रखना अपनी समृद्धि और रक्षा के लिए!!! कृपया अपनी राय दें. ...कहीं न कहीं अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाने में सहायक है ......आपकी क्या राय है कृपया बताएं!!
वैसे यह कोई स्थाई समाधान नहीं है कि बुराई से बचने के लिए हम अपनी संहारक क्षमता को बढ़ाते रहें! संहारक क्षमता को बढ़ाने में जितना समय, श्रम व पैसा लगता है उसकी मदद से बहुत से विकास के काम भी किये जा सकते हैं! ..फिर संहारक क्षमता को बढ़ाने की भी तो कोई थाह नहीं! हम आतताई से बचने के लिए आज जो बनायेंगे कल वह आतताई उससे बड़ा संहारक शस्त्र बना लेगा! ...फिर यह भी तो जरूरी नहीं कि वह हमारी संहारक क्षमता के आगे सदैव नतमस्तक रहे! ..कभी भी यह भी हो सकता है कि वह सिरफिरा परमाणु बम जैसे अस्त्रों का प्रयोग करके अन्यों और अपनी तबाही ले आए!!! ...डर से किसी सिरफिरे अल्पज्ञ को हमेशा के लिए नहीं दबाया जा सकता! क्या यह बेहतर विकल्प नहीं कि अल्पज्ञ को सुधारने की कोशिश की जाये, और न सुधरने पर उस खतरनाक अल्पज्ञ का ही सदा के लिए खात्मा कर दिया जाये! राम और कृष्ण ने यही किया था! राम के समय में मात्र लंकाधीश रावण और उसके चंद सहयोगी दुष्ट थे, पूरी लंका के अन्य समस्त जन नहीं! महाभारत के समय में कौरव और उनके कुछ सहयोगी दुष्ट थे, वहां की आम प्रजा नहीं! राम और कृष्ण ने भी उन दुष्टों को समझाने की भरसक कोशिश की और न सुधरने पर अंततः उनका खात्मा किया! ..लेकिन मात्र अपनी संहारक क्षमता को बढ़ा कर या मात्र अपने बाहुबल को जता कर राम और कृष्ण क्या उनकी दुष्टता को सदा के लिए नियंत्रित कर सकते थे???? ..राम-कृष्ण के शक्ति-प्रदर्शन से शायद उनकी दुष्टता कुछ समय के लिए दबी रह सकती थी लेकिन वे दोबारा छुपकर प्रतिघात अवश्य करते और उन्होंने किया भी! ..वैसे इतिहास गवाह है कि समझाने से (खरा ज्ञान देने से) बहुत से दुष्ट सुधरे भी हैं और असत्य से सत्य के पक्ष में आ खड़े हुए हैं.  ...समाज एक शरीर की तरह है और विभिन्न लोग उसके अंग-प्रत्यंग! ...अपने शरीर के किसी अंग में बीमारी हो जाने पर हम उसका इलाज बिलकुल थोड़े से (मुलायम तरीके से) शुरू करते हैं और ठीक न होने की दशा में इलाज को क्रमशः तीव्र करते जाते हैं. कभी-कभी (बहुत कम बार ही) ऐसा भी होता है कि शरीर के उस बीमार हिस्से की वजह से पूरे शरीर के स्वास्थ्य को खतरा बन जाता है तब सर्जरी करवा कर उसको हमेशा के लिए समाप्त करना पड़ता है! ..लेकिन क्या जरा सा कुछ होते ही हम सर्जरी पर उतर आते हैं? जी नहीं! ...राम और कृष्ण की नीति भी यही रही थी;  और यह नीति आज भी प्रासंगिक है, हमेशा रहेगी! ..अंत में आपने कहा है कि, अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाती है, ...यह बिलकुल ठीक बात है. ...अब उदाहरण के तौर पर देख लीजिये कि शरीर के किसी अंग में हुए रोग को यदि हम खामोश रहकर नजरअंदाज करते हैं तो वह मामूली सा रोग एक दिन नासूर बन जाता है! समय रहते उसका समुचित इलाज अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन इलाज के चरण वही होने चाहियें- मंद से शुरू करके क्रमशः तीव्र...!

(२) दुःख और सुख क्या है?
मन की नकारात्मक या सकारात्मक स्थिति ही क्रमशः दुःख और सुख है! ...और ये स्थितियां उससे उत्पन्न होती हैं जो हो रहा है! ...जो हो रहा है वो तो होगा ही क्योंकि उसके पीछे हमारे पूर्व व वर्तमान के कर्म तथा प्रकृति के अकाट्य नियम-सिद्धांत हैं! गहराई से यह विचार करते ही हम दुःख और सुख से थोड़ा सा अलग हो जाते हैं.

(३) 'आज' की दुनिया में समझदार इंसान की क्या पहचान है? क्योंकि ईमानदारी, वफादारी, सत्य, धर्म, अहिंसा और निःस्वार्थ भाव; लोग इन्हें किताबी बातें कहते हैं, इन पर अडिग रहने वालों को लोग बेवकूफ कह कर हंसी उड़ाते हैं!
इस चर्चा में आपने अपना जो दृष्टिकोण दिया है वह सत्य और सराहनीय है। ...लेकिन यदि आपके मूल प्रश्न ('आज' की दुनिया में....) पर आएं, तो 'आज' की दुनिया में तो समझदार इंसान की पहचान यही है कि, "जो सबकी हां में हां मिलाये, चल रही हवा के साथ बहता जाए!" बड़े दुर्दिन आ गए हैं! ..बस यहां आकर थोड़ा ढाढ़स बंधता है।

(४) प्यार हमेशा दूसरे का भला करने में लगा रहता है और प्यार पाने की ख्वाइश हमेशा दूसरे को हासिल करने में लगी रहती है, अक्सर ऐसा देखा जाता है जो बढ़चढ़ कर प्यार / दोस्ती की बातें करते हैं वे सिर्फ प्यार नहीं बल्कि प्यार को हासिल कर के एक सिक्योरिटी को हासिल करना चाहते है!! कृपया अपनी राय दें!!
निरपेक्ष प्रेम, निःस्वार्थ प्यार, आदि आजकल की भारतीय संस्कृति से गायब से हो गए हैं। आजकल प्यार केवल शारीरिक आकर्षण और सांसारिक लाभ में ही फंसकर रह गया है। अविवाहित युगल के बीच अब विरले ही सच्चा प्यार देखने को मिलता है। विवाहितों में अभी भी गाढ़ा प्यार कायम था, ..लेकिन समलैंगिक और विवाहेत्तर संबंधों की आजादी के बाद पता नहीं समाज अब प्यार की कौन सी नई परिभाषा गढ़ता है!
मैंने हमेशा दूसरों से कुछ न कुछ सीखने का पक्ष लिया है, ...लेकिन आंखें मींचकर कदापि नहीं!!! प्रत्येक में कुछ अच्छाईयां और कुछ बुराईयां होती हैं. यदि हमें वास्तव में आगे को जाना है तो दूसरे की बुराई को फिल्टर करके केवल उसकी अच्छाई को लेना होता है. ...लेकिन फटाफट प्रगति को पा जाने की धुन में हमारे देश के आका चंद विकसित देशों की बुराईयों के तो पिछलग्गू बन गए हैं परन्तु उनकी अच्छाईयों एवं विशेषताओं से अभी भी कोसों दूर हैं! मेरे पिछले अनेक लेखों में इस त्रासदी का विस्तृत वर्णन है.

(५) मेरी आस्था भगवान में बहुत अधिक है लेकिन मैं कभी-कभी आस्था से भटक जाता हूं लेकिन कुछ ही दिनों में ईश्वर पर यकीन करने लगता हूं मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि कि मेरा दिमाग या फिर मेरा मन या फिर मेरी आत्मा तीनों स्थिर नहीं है ये तीनों चीज एक ही हैं या अलग कुछ समझ में नहीं आ रहा है!
शुरू में आप दिमाग, मन, आत्मा जैसे विषयों पर अपना ध्यान न भटकाकर, अपनी आस्था को अनेक से एक में लाने की चेष्टा करो. अर्थात् पहले अनेक ईश्वर रूपों में से किसी एक पर आ जाओ, फिर उस एक साकार ईश्वर रूप से भी एक निराकार परमात्मा पर आस्था दृढ़ करने का प्रयास करो. भीतर से खोजी और जिज्ञासु बनो. पश्चात् धीरे-धीरे सब ज्ञान अपनेआप होता चला जायेगा. अध्यात्म में जल्दबाजी बिलकुल भी ठीक नहीं, लेकिन समझने-जानने की निरंतर भूख-प्यास बहुत जरूरी है. यह तीव्र जिज्ञासा ही आगे के सब द्वार खोलती चली जाती है. शुभकामनाएं.

(६) वासना को दूर करके अपना मन परमात्मा में कैसे लगाया जा सकता है?
बड़ा अचूक उपाय है यह कि, किसी भी नकारात्मक अथवा अवांछित विषय से अपना ध्यान हटाने के लिए, ठीक उसी समय किसी अन्य सकारात्मक विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करने से, अवांछित से छुटकारा पाने में बड़ी मदद मिलती है. हालाँकि शुरू में यह प्रक्रिया जबरन करनी पड़ती है, फिर धीरे-धीरे मन सध जाता है.

Wednesday, September 26, 2018

(१०८) चर्चाएं ...भाग - 27

(१) डर ही डर.. क्या डर ही इंसान है कभी कभी ऐसा लगता है, हम क्यों इतना डरते हैं, कभी बीमार होते हैं तो सोचते हैं शायद बीमारी ठीक ही नहीं होगी!? आधी से ज्यादा परेशानियां शायद थोड़े बहुत साहस से ही ठीक हो जाएंगी!
हमारे भीतर किसी भी अच्छी यानी किसी सकारात्मक चीज की कमी ही, उसके विलोम यानी किसी बुराई / दुर्बलता / नकारात्मकता आदि की वजह बनती है. निःसंदेह 'डर' हम सब की कमजोरी है. किसी में कम होता है तो किसी में बहुत ज्यादा. लेकिन यह उपजता हमारी किसी अंदरूनी कमी के कारण ही है. यदि हम निरंतरता से खुद में कुछ सकारात्मकता जोड़ते रहें तो हमारी मानसिक दुर्बलताएं घटती जाती हैं. जैसा आपने सुझाया कि 'साहस' से आधे से अधिक 'डर' दूर हो जायेंगे, तो इसमें भी वही फार्मूला लागू हुआ न! पॉजिटिव बढ़ाया, तो नेगेटिव कम हुआ! यह सर्वोत्तम तरीका है अपनी दुर्बलताओं से मुक्ति पाने का. ..कभी कभी हमारे मन में कोई चोर, कपट, धूर्तता, बेईमानी, आदि का शॉर्टकट होता है तब भी हमें भीतर से भय लगता है कि हम कहीं पकड़े न जायें, हमारा राज न खुल जाये; तब भी भय का कारण हमारा गिरा हुआ नैतिक स्तर ही हुआ. हम उसे उठायेंगे तो उस भय को भगायेंगे जो उसकी (नैतिकता की) कमी से उपजा है. ...बीमारी के मामलों में तो डर अनोखा ही होता है क्योंकि कोई भी बीमार होना या मरना नहीं चाहता; हर कोई हमेशा हृष्टपुष्ट ही रहना चाहता है! लेकिन उस दशा में भी मन को यह समझाना होगा कि सभी भौतिक वस्तुओं की तरह मानव शरीर भी भंगुर है, इसका भी क्षरण होता है, इसकी भी टूटफूट संभव है, इसकी भी एक एक्सपायरी डेट है! एक मोटर गाड़ी भी जब हम खरीदते हैं तो हमें पता होता है कि उसमें भी टूटफूट, एक्सीडेंट, आदि संभव है; उसे निरंतर रखरखाव की जरूरत भी पड़ेगी; एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह बेकार हो जाएगी...., तब भी हम धैर्य और साहस रखकर उसे खरीदते हैं, उसे जमकर इस्तेमाल करते हैं, उसकी देखभाल, रखरखाव आदि बाकायदा रखते हैं, उसकी सेहत के प्रति फिक्रमंद रहते हैं लेकिन चिंता में घुले नहीं जाते! छोटी-छोटी बात पर उसे मैकेनिक के पास नहीं ले जाते और कुछ खराबी हो जाने पर उसे रगड़ते भी नहीं रहते, उसका प्रॉपर इलाज करवाते हैं! उसमें डाले जाने वाले ईंधन, इंजन-आयल (यानी भोजन) की गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं; ड्राइविंग भी स्मूथ करते हैं! ...ठीक इसी प्रकार अपने शरीर के प्रति दृष्टिकोण बना लें तो काफी आसानी हो जाएगी! जागरूकता और दृढ़ता से सत्य भीतर समाने पर व्यर्थ के डर कम हो जायेंगे.

(२) जैसे ही किसी चीज की इच्छा को छोड़ते हैं वैसे ही वह चीज गोदी में आकर गिरती है और कभी-कभी उस से भी बेहतर चीज .....क्या आप ने कभी ऐसा अनुभव किया?
जी हाँ..., अनेक बार ऐसा अनुभव किया है. ...इसीलिए तो कहा जाता है कि योग्यतम ढंग से अपने काम करते जाओ लेकिन कभी बहुत व्यग्रता से किसी चीज के मिल जाने की बाट न जोहते रहो. आपकी कर्मठता और नेकनीयती की बदौलत सही वक्त पर सही चीज आप तक स्वतः आ जाएगी. बहुत पीछे पड़ने से और बहुत अपेक्षा करने से भी कई काम अटक जाते हैं, इसलिए सहजभाव बहुत जरूरी है.

(३) ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या के सम्बन्ध में बताएं!
"ब्रह्म सत्य है, और जगत मिथ्या", इसका सीधा अर्थ लें तो निकलता है कि, "अजन्मा, अप्रकट व निराकार आत्मा-परमात्मा ही सत्य है, शेष सब भौतिक पदार्थ मिथ्या यानी स्वप्न-स्वरूप यानी मिट जाने वाला है." ...यदि कोई इस 'अर्थ' को ही 'भावार्थ' के रूप में ले ले तो बड़ा खतरा यह बनता है कि वह प्राणी कभी भी समस्त सांसारिक कर्तव्यकर्म और भौतिक प्राण तक भी स्वेच्छा से त्याग सकता है! ...इस संदर्भित वाक्य का गूढ़ अर्थ यानी भावार्थ प्राकृतिक रूप से ही हमारे भीतर अंकित है यानी सबको सहज उपलब्ध है, लेकिन मन में बने आगंतुक बेतरतीब संस्कारों के ढेर तले वह दबा पड़ा है! हम अक्सर इन्हीं संस्कारों के तहत ही जीवन जीते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत आत्मा और परमात्मा को ढूंढते फिरते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत भौतिक व आध्यात्मिक बहसें करते हैं. ..हालाँकि मथने से बहुत बार आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी खरा सत्य भी सामने आ जाता है, फिर भी दिल है कि मानता नहीं...., हम और अधिक मथ कर पुनः सब गड्डमड्ड कर देते हैं! हम गोल गोल घूमते रहते हैं, सोचते हैं बहुत चल लिए, ...लेकिन हमारा विस्थापन तो पुनः-पुनः शून्य हो जाता है!

(४) आपके नजरिये से अध्यात्म है क्या? क्या ये कर्मकांड है ज्योतिष है तांत्रिक क्रिया है या अमानवीय ऐसी सिद्धियों का प्राप्त करने का तरीका है, या अध्यात्म स्वयं की ही खोज है? आप अध्यात्म में क्यों आये और क्या पाना चाहते हो?
यह तो वही बात हो गयी कि कोई सागर या नदी से पूछे कि, "तेरा जल से क्या काम?!" ..जल से ही एक नदी या सागर का अस्तित्व है, उसी प्रकार 'आत्मा' (सूक्ष्म चैतन्य) के बिना क्या हमारा भौतिक देह में जीवन संभव है? आत्मा विषयक समस्त ज्ञान 'अध्यात्म' है. यह (अध्यात्म) भी एक प्रकार का शास्त्र यानी विज्ञान है. मूलतः यह सिद्धांतों पर आधारित है. आधुनिक विज्ञान के भी प्रकृति और प्राकृतिक सिस्टम से जुड़े अधिकांश या सभी नियम-सिद्धांत भी आध्यात्मिक सिद्धांतों से ही निकले हैं या उनका अनुमोदन करते हैं. हम मात्र उन्हें ही मान लें और स्वयं को भी उनके अंतर्गत रख कर थोड़ा विचारमंथन कर लें, तो मानों हम स्वयं (आत्मा) और अध्यात्म को जान गए! उदाहरण के लिए मात्र दो वैज्ञानिक सिद्धांत- (१) ऊर्जा की अक्षुण्णता का सिद्धांत यानी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, हाँ किसी अन्य स्वरूप में परिवर्तित अवश्य हो सकती है. ..(२) प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया निश्चित है. ...क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया त्वरित भी आ सकती है और विलंबित भी; वह प्रतिक्रिया किसी अन्य रूप-अवस्था में भी आ सकती है; लेकिन आएगी अवश्य और उसकी प्रकृति (सकारात्मक या नकारात्मक) मूल क्रिया के अनुसार ही होगी. ...अध्यात्म में आने का कारण स्वयं और स्वयं से सम्बंधित सच्चे तथ्यों को समझना होता है, तदोपरांत अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य और अपनी जीवनशैली को उन सिद्धांतों के अनुसार ढालना होता है. 'अध्यात्म' कोई पढ़ने, रटने या यंत्रवत कर्मकांड करने का शास्त्र नहीं अपितु सीधे-साधे ढंग से जीवन में उतारने का शास्त्र है. अध्यात्म में कोई आता नहीं है, प्रत्येक मनुष्य उसमें पहले से ही है, यह अलग बात है कि वह उसमें कितनी गहरी डुबकियाँ लगाता है. ज्योतिष, तंत्र-विद्या और रिद्धि-सिद्धि आदि का अध्यात्म से कोई भी रिश्ता-नाता नहीं है!

(१०७) चर्चाएं ...भाग - 26

(१) जीवन जीना एक कला क्यों कहा गया है...? आजकल ऐसे कई आध्यात्मिक केंद्र भी चल रहे है जहाँ आप ध्यान और चित्त शान्ति की विविध प्रक्रियाएं सीख सकते हैं!
जीवन जीने की कला अत्यंत व्यापक है. कोई व्यक्ति इसके कुछ पहलुओं से परिचित होता है तो दूसरा कोई व्यक्ति इसके कुछ अन्य दूसरे पहलुओं से! ..जो व्यक्ति जितने अधिक पहलुओं को अपने व्यक्तित्व में समेट लेता है वह उतना ही बड़ा कलाकार (अर्थात् समृद्ध व परिपूर्ण) होता है. ..इसकी कोई थाह नहीं! मेरी समझ से कोई अमुक आध्यात्मिक केंद्र 'जीवन जीने की कला' की अपरिमित थाह को एक निश्चित परिधि तक सीमित कर देता है, उसके पंखों को कतर देता है; क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगभग एक सी प्रक्रिया का प्रावधान या आग्रह होता है. ..जबकि मेरा मानना है कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में अनूठा यानी यूनिक है.

(२) सच्चा भक्त कौन होता है जो सेवा करे या जो बस पूजा करे?
जो भी कृत्य हमारे अहंकार को कम करते हुए हमारे भीतर 'ईश्वरीय गुणों' को बढ़ाने में सफल हो रहा है वह (कृत्य) ही हमारे लिए उत्तम!!! सभी के लिए यह (कृत्य) भिन्न-भिन्न हो सकता है, क्योंकि जितने व्यक्ति, उतनी ही प्रकृतियाँ, उतने ही साधना मार्ग! ..क्योंकि भिन्न विशिष्टताओं के कारण प्रत्येक मनुष्य अपनेआप में यूनिक (अनूठा) है, इसलिए किसी की भक्ति को सच्ची और किसी की भक्ति को झूठी करार दे देना ठीक न होगा. ...बेहतर हो कि हम व्यक्ति के 'गुणों' को परखें और उस आधार पर उसकी श्रेष्ठता का आंकलन करें.

(३) माफ कर देना सब समस्या का समाधान है?
परिवार और आपसी संबंधों यानी व्यक्ति के आन्तरिक सर्किल में तो इस सूत्र का कोई जवाब नहीं. माफ कर देने से संम्बंधों-रिश्तों में मधुरता बनी रहती है, बहुत सी समस्याएं भी हल हो जाती हैं. ऐसा इसलिए संभव होता है कि 'अपना' होने के कारण सामने वाले के दिल में भी हमारे लिए कुछ आदर-सम्मान होता ही है, और वह हमारी माफी की कद्र करता है. लेकिन दूर के व्यक्ति के लिए ऐसा करना (बारम्बार माफ करना) प्रैक्टिकली बहुत उपयोगी नहीं रहता क्योंकि उसके मन में हमारे लिए बहुत अल्प (या न के बराबर) स्नेह या सम्मान होने के कारण वह हमारी सहिष्णुता की कद्र नहीं कर पाता. उदाहरण के लिए-- "महात्मा गाँधी जी कितने विनम्र व सहिष्णु थे फिर भी वे समाज में व्याप्त अनेकों बुराइयों, गलतियों और अत्याचारों के लिए जिम्मेदार लोगों व शासकों को माफ करके चुपचाप नहीं बैठे रहे, बल्कि उन्होंने देश-विदेश में गलत के खिलाफ अनेकों सत्याग्रही आन्दोलन किये. ...भाई जी, कोई भी सूत्र हर जगह फिट नहीं हो पाता! हमारी माफी या चुप्पी का ही निरंकुश शासक, अधिकारीवर्ग और लालची कंपनियां और बहुत से अन्य लोग फायदा उठाते हैं. ..इसलिए स्वयं धर्म यानी नेक और सत्य मार्ग पर चलकर समस्त जग से भी इसका आग्रह करना ही तो सत्याग्रह है. प्रत्येक को प्रत्येक दशा में माफ करके हम सत्याग्रह (सत्य का आग्रह) नहीं कर सकते!

(४) हमें दूसरों को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?
सभी तथाकथित ज्ञानी बारम्बार बहुत जोर देके कहते हैं कि खुद को ही बदलो, किसी अन्य को बदलने की चेष्टा न करो! लेकिन यह बात मुझे अधिक ठीक लगती है कि, खुद को संवारो और फिर अन्यों को भी संवारने की चेष्टा करो! ...'बदलने' शब्द में बहुत अपेक्षा-जिद-आग्रह हो जाता है इसलिए स्थाई सफलता नहीं मिल पाती. ..संवरने और संवारने में भला किसे आपत्ति हो सकती है! हममें कुछ भी ऐसा नहीं जो आमूलचूल बदला जा सके, पर सुधार की गुंजाईश तो सदैव रहती ही है!

(५) ज्ञान दूसरों को देना आसान है पर अपने पर अमल करना मुश्किल! ऐसा क्यों?
ज्ञान के ऊपर अमल करना उनके लिए मुश्किल होता है जो ऊपर ऊपर का दिखावा करते हैं। वे खड़कते इसलिये ज्यादा हैं क्योंकि वे भीतर से खोखले हैं! वे बोलते तो बहुत हैं पर सब रटा-रटाया, सुना-सुनाया या किताबी! ...लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रथम खुद अमल करके अनुभव और अनुभूतियाँ जुटाते हैं तदुपरांत उन्हें आगे भी बांटते हैं। उनका ज्ञान अनुभवों पर आधारित होने से गहराव व सच्चाई लिए होता है, इसलिये वह आमजन को खट्टा-तीखा लगता है क्योंकि सत्य को चखना व हजम करना इतना सरल भी नहीं! ऐसे विरले ज्ञानियों को समाज और तथाकथित गुरुओं-संस्थाओं आदि के भारी क्रोध और विरोध का सामना भी करना पड़ता है।

Tuesday, September 25, 2018

(१०६) चर्चाएं ...भाग - 25

(१) आहार का शुद्धिकरण, इसका क्या अभिप्राय है...?? कहा जाता है कि जैसा खाएं अन्न वैसा होये मन और जैसा पिएं पानी, वैसी होये वाणी! ..आहार का हमारे शास्त्रों में विशेष महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि आहार केवल मुख से नहीं बल्कि कानों से सुनना, आँखों से देखना और हाथों से स्पर्श करना भी है!
मानव देह में मूलतः हम सामाजिक प्राणी हैं. खाने-पीने के अलावा यदि सुनने, सूंघने, देखने और स्पर्श करने में भी अत्यधिक सावधानी रखने लगेगें, तो फिर तो हम समाज से लगभग कट ही जायेंगे. आज समाज में खुलेआम इतनी तथाकथित अस्पृश्य व अयोग्य वार्तालाप, दृश्य, कथन, वस्तुएं हमारे इर्दगिर्द हैं कि चौबीसों घंटे हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बंद नहीं कर सकते, और न ही उनसे दूर भाग सकते हैं. बेहतर हो कि हम कीचड़ में कमल बनने की चेष्टा करें, अन्यथा किसी सुनसान पर्वत या जंगल में पलायन कर जायें, जो कि न तो संभव है और न ही सामाजिक और पुरुषार्थ की दृष्टि से ठीक है! इस काल में उचित यही है कि जैसा भी समाज हमारे आसपास है, उसे खुशी-खुशी स्वीकार करें, साथ ही अपनी अंदरूनी अच्छाई को बरकरार रखते हुए समानांतर रूप से समाज को उन्नत करने की भी कोशिश करें. समाज में उठते-बैठते भौतिक रूप से हम भले ही मैले हो जायें, पर भीतर से (नैतिक व आत्मिक स्तर पर) खुद को दूषित न होने दें, यही प्रयास करें. ज्यादा छुआछूत में दिमागी कसरत न ही करें तो बेहतर! सारांश में, खाद्य सामग्री सहित समस्त अन्य भौतिक वस्तुएं जिस 'नेक तरीके' से हम कमाते हैं, हमारी शुद्धता उसी से मापी जाएगी; अपने भीतर हम कैसे विचार रखते हैं, कैसे विचार पनपने देते हैं, हमारी शुद्धता उसी से नापी जाएगी. इस निराकार व अभौतिक आत्मा के लिए निराकार शुद्धि ही महत्त्व रखती है.

(२) आज के युग में इंसानियत की उम्मीद करना बेकार है?
कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है, ..और फिर उम्मीद के अलावा सकारात्मकता कायम रखने का अन्य कोई विकल्प है आपके पास? ..नहीं न! ...इसीलिए शायद किसी उम्मीद पर ही तो हम सब यहाँ अपना समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं अन्यथा यहाँ कोई भी न होता! ...कर्म करने से ही किसी अभीष्ट की उम्मीद बंधती है दोस्तों! ..और फिर वह उम्मीद ही हमारे लिए संजीवनी का कार्य करती है.

(३) क्या प्रतिशोध को एक मानसिक बीमारी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
बड़ी अजीब सी बात है कि, पहले गलत जीवनशैली (कुसंस्कारों/गलत आदतों) के कारण हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार में विकृतियां उत्पन्न होती हैं, फिर आगे चलकर वे विकृतियां दृढ़ होकर विकारों में बदल जाती हैं, ..और मामला जब बेकाबू हो जाता है तो उन्हें बीमारी का नाम देकर संबंधित व्यक्ति को क्लीन चिट दे दी जाती है कि वह तो बीमारी की वजह से ऐसा कर रहा है। ...समलैंगिकता को इसी प्रकार क्लीन चिट मिली, ..और अब प्रतिशोध को भी एक बीमारी का नाम देने की तैयारी है क्या? ....इस प्रकार तो मनुष्यों में बहुत सी बीमारियां फैल जाएंगी तिसपर भी सभी के लिए आजादी, सहानुभूति और माफी होगी!

प्रत्युत्तर:- प्रतिशोध को कोई बीमारी का नाम देने की तैयारी नहीं है न ही कोई सहानभूति, लेकिन कोई भी सिस्टम अगर सही से काम नहीं कर रहा है उसे आप अपनी भाषा में जो भी नाम दे सकते है...
प्रत्युत्तर के लिए आभार! ..लेकिन एक सत्य यह भी है कि हवा में उछाले गए शब्दों को ही ढाल बनाकर ही दोषी व्यक्ति व मीडिया एक बीज से पूरा पेड़ खड़ा कर लेते हैं. शब्द उछालकर हम बुद्धिजीवी ही उनको बचाव के नए-नए उपाय सुझाते हैं. बुरा न मानियेगा, आज जो समलैंगिकों को भी जो स्वीकृति मिली है वह बुद्धिजीवियों के योगदान से ही संभव हुई है! ...आखिर हम वह "तिल" फेंकते ही क्यों हैं जिसकी 'ताड़' बनने की सम्भावना बन जाये?!

(४) मन से भागने की बजाए मन की बात सुनते!
मन आखिर है क्या!? मन में कोई बात क्यों आती है!? ऐसा तो नहीं कि पैदाइश से ही मन में वे बातें आती हों जो आज आ रही हैं!? .....मन तो वास्तव में संस्कारों (इम्प्रेशंस) का एक गढ़ है, भण्डार है! कुच्छ पिछले जन्मों के हैं तो कुछ यह जन्म लेने के बाद धीरे-धीरे निर्मित हुए. ..अपनी पञ्चज्ञानेन्द्रियों से कुछ भी सुनते, देखते, सूंघते, चखते और स्पर्श से महसूस करते ही हमारे मन में उस प्रसंग से कोई न कोई संस्कार बनता है. यदि वह संस्कार पहले से बना हुआ है तो और अधिक बड़ा (मजबूत) होता है. ..यह कतई जरूरी नहीं कि सभी संस्कार बुरे ही होते हैं (जैसा कि बहुत से आध्यात्मिक जन फरमाते हैं) और यह भी जरूरी नहीं कि वे सब अच्छे ही हों! ..लेकिन यह तो सत्य है कि एक आम जन के लगभग नब्बे प्रतिशत कार्य उसके मन में विद्यमान संस्कारों से ही सम्पादित होते हैं. ..और अक्सर हम अपने मनानुसार ही कार्य करते हैं. यदि दूसरों की राय से यानी दूसरों के मनानुसार करते हैं तब भी अपने मन की अनुमति लेकर ही हम उनको कर सकते हैं. किसी अन्य का कोई दबाव तो नहीं बन सकता न! ...तो अच्छा हो कि हम अपने मन में बेहतर संस्कारों को ही पनाह दें और अवांछित संस्कारों की उपेक्षा करें. ...उपेक्षित संस्कार ठीक उसी प्रकार एक दिन हमारे मन से पलायन कर जायेंगे जैसे एक अनचाहा और उपेक्षित मेहमान जल्दी ही हमारे घर से विदा ले लेता है. ...मन की हम जरूर सुनें, और सुनते भी हैं लेकिन इतना ध्यान अवश्य रखा जाये कि हमारे मन में कोई बुरा संस्कार अपनी जगह स्थाई न करने पाए. ...बुरे अथवा अवांछित संस्कारों से निजात पाने का सिर्फ एक उपाय है कि हम अच्छे प्रसंगों को अधिक याद करें, उन्हें ही अधिक महत्त्व दें; उससे अच्छे संस्कार धीरे-धीरे दृढ़ होते जायेंगे जिनकी अधिकता बुरे संस्कारों को पलायन के लिए मजबूर करेगी.

(१०५) चर्चाएं ...भाग - 24

(१) विज्ञान भी ज्ञान का ही भाग है?
जी हाँ, बिल्कुल. ...विज्ञान मूलतः क्या है? ..प्रकृति के तत्वों को जानना, दृश्य-अदृश्य पदार्थों को जानना, उनके गुणधर्म जानना, प्रकृति के नियम-सिद्धांतों को जानना, प्रकृति में हो रही सभी घटनाओं का कार्यकारणभाव जानना, प्रकृति द्वारा प्रदत्त विभिन्न कच्चे पदार्थों से मानव-हित के लिए नाना प्रकार की वस्तुएं, यंत्र-सयंत्र आदि का निर्माण करना, भूसंपदा को उचित ढंग से उपयोग में लाने हेतु नित-नवीन तकनीकें खोजना, आदि. .....विज्ञान कुछ और नहीं वरन पहले से विद्यमान को खोजना ही है यानी रि-सर्च! ज्ञान एकत्रित करने की प्रक्रिया का यह बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण अंग है. यहाँ तक कि अध्यात्म के शुरुआती अध्याय भी विज्ञान की सहायता से बहुत सरलता से समझे जा सकते हैं. और विज्ञान के ज्ञान की सहायता से ही विभिन्न अंधविश्वासों से बचते हुए शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान पाने की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है. ..अधिकांशतः हम देखते हैं कि बहुत से ढोंगी बाबा और स्वयंभूः आध्यात्मिक गुरु अपने अनुयायियों को विज्ञान से दूर रहने को बोलते हैं, उससे परहेज रखने को कहते हैं; यह केवल इसलिए कि वस्तुतः वे चाहते हैं कि उनके अनुयायी अंधविश्वासों में जकड़े रहें और आँख मूंद कर उनका अंधानुसरण करते रहें. ..मेरा तो मानना है कि विज्ञानी शुरू में अवश्य सहमते हुए अध्यात्म में कदम रखते हैं, लेकिन फिर अध्यात्म की गहराईयों में और उंचाईयों पर अधिकांशतः वे ही पहुंचते हैं. ..निःसंदेह अध्यात्म-ज्ञान, विज्ञान से भी ऊपर का ज्ञान है, किन्तु विज्ञान से होते हुए ही उसका रास्ता जाता है. ..भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार भी 'प्रवृत्ति' के बाद ही 'निवृत्ति' संभव है! ...कुछ पा लेने के बाद ही उसे त्यागने (या उसकी आसक्ति त्यागने) में व्यक्ति की, पुरुषार्थ की, पूर्णता है! ...असली अध्यात्म-ज्ञान भी हमें 'प्रवृत्ति' से 'निवृत्ति' की ओर ले जाता है. और विज्ञान का ज्ञान 'प्रवृत्ति' के चरण को कुशलतापूर्वक पूर्ण कराता है.

(२) नियमों की आवश्यकता और नियम कैसे बनते हैं?
प्रकृति अथवा ईश्वर के नियम तो "सिद्धांत" रूप में चिरकाल से बने ही हुए हैं. और उन सिद्धांतों की रक्षा हेतु समाज के बुद्धिमान-वर्ग ने समय-समय पर अनेक नियम बनाये, एवं आज भी नित नए नियम बन रहे हैं. नियम हमेशा लोगों को सुसभ्य, सुशिक्षित व अनुशासनप्रिय नागरिक बनाने के लिए वहां के देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति आदि के अनुसार बनते हैं. पुराने नियम बदले अथवा हटाये भी जा सकते हैं और नए नियम नए ढंग से बनाये भी जा सकते हैं. अतः यह भी कह सकते हैं कि लोगों की सोच और आचरण को नियंत्रित एवं सही पथ पर लाने लिए नियमों की आवश्यकता पड़ती है जिससे यथासंभव प्रकृति के उन चिरस्थाई "सिद्धांतों" की रक्षा हो सके जिनमें समस्त जीव-अजीव का हित निहित है. ..अतः नियम हमेशा परिवर्तनीय हो सकते / होते हैं और "सिद्धांत" हमेशा अपरिवर्तनीय होते हैं!!! "नियम" तो 'सही और न्यायोचित' यानी धर्म यानी राइटियचनेस को कायम रखने के लिए एक कामचलाऊ व्यवस्था है. यदि सभी लोग सभ्य, शिक्षित और धार्मिक (राइटियच) हो जायें तो मानवनिर्मित नियमों की आवश्यकता ही न पड़े. लेकिन ऐसा नहीं है इसलिए प्रत्येक दिन ही कुछ नियम बनाने पड़ते हैं.

(३) काश लोग सभ्य होते! ...पर सच्चाई तो कुछ और ही बयान करती है ...आज आप देखें तो हर तरफ अराजकता फैली है और लोग नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाने लगे हैं ...किसी को कानून का भी डर नहीं हैं क्योंकि कानून बनाने वाले और उसका पालन कराने वाले खुद ही कानून को कुछ नहीं समझते ...आज तो किसी सख्त हाथ की जरूरत है जो लोगों को कानून का पालन करवाने में सक्षम हो!
इसीलिए तो नित नवीन नियम-कानून बनाने पड़ते हैं. ...लेकिन फिर से कहूँगा कि यह एक कारगर किन्तु अस्थाई व्यवस्था है क्योंकि धूर्त लोग बारम्बार इन नियमों-कानूनों से भी बचने के रास्ते तलाश लेते हैं. ..इसलिए तुरंत इलाज के तौर पर नियम-कानून बनाना अच्छी बात है लेकिन समानांतर रूप से लोगों में आध्यात्मिक गुण (यानी श्रेष्ठ नैतिक गुण ही) उपजाना ही इस समस्या का स्थाई हल दे सकता है. ..जो नैतिक होगा वो कुदरत के सिद्धांतों का पालन स्वयमेव करेगा और सही पथ पर अपनेआप चलेगा लेकिन धूर्त को जागतिक नियम-कानून का अंकुश ही जबरन सही मार्ग पर रहने को मजबूर करता है और इसमें भी चूक या धोखा मिल जाता है!

(४) क्या हम बिना कर्म किये प्रभु से आशा लगाए बैठें कि प्रभु की इच्छा होगी तो सब मिलेगा?
बिना कर्म किये तो कुछ नहीं मिलता. हाँ, कभी-कभी बिना किसी वर्तमान प्रसास के किसी को खुद के ही किसी पूर्व कर्म के कारण अनायास कुछ मिलना हो जाता है! लेकिन, श्रीमान् जी... खरे भक्त अपना कर्म सर्वोत्तम ढंग से करते हैं और इसके पश्चात् फल ईश्वर-इच्छा पर छोड़ देते हैं. हालाँकि ऐसा बहुत कम होता है अब!

(५) अपनी विल पावर को कैसे बढ़ायें?
जिनकी विल पॉवर कम होती है, वे अक्सर बहुत से कार्यों को स्वयं के लिए 'असंभव' समझते हैं. ..बस एक कोशिश वे करें कि, खुद के लिए 'असंभव' घोषित कार्यों को 'कठिन' (या बहुत कठिन) की केटेगरी में ले आयें, और यथासंभव 'असंभव' शब्द को वे अपने शब्दकोष से निकाल ही दें! ..बारम्बार अपनेआप को यह कमांड दें कि, "कोई भी काम मुश्किल हो सकता है, ..बहुत मुश्किल हो सकता है, ..पर असंभव नहीं!" ...फिर देखिएगा कि इच्छाशक्ति कैसे नहीं बढ़ती!

Thursday, September 6, 2018

(१०४) चर्चाएं ...भाग - 23

(१) ईश्वर-रूप का प्रत्यक्ष दर्शन कैसे संभव होता है!
(१) अब तक ज्ञात प्राचीनतम ज्ञानस्रोत वेदों में ईश्वर (या परमेश्वर अर्थात् ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता) को इस ब्रह्माण्ड का सिद्धांत स्वरूप माना गया है. ..सिद्धांत स्वरूप यानी घटित होने वाले सभी क्रियाकलापों / चक्रों के पीछे (नेपथ्य में) विद्यमान कारणभूत आधारभूत शक्ति! यह सैद्धांतिक शक्ति अप्रकट और निराकार होती है. अर्थात् सीधे शब्दों में, परमेश्वर (सर्वोच्च शक्ति या सत्ता) मूलतः अजन्मा, अप्रकट एवं निराकार है. जानने-पहचानने अथवा समझने में सरलता के लिए आगे के साहित्यों में बताए अनुसार बहुत से लोग उस शक्ति को सदाशिव (या शिव) के नाम से जानते हैं. ....(२) प्रथमतः साकार जीवन नहीं था. कदाचित् बाद में जीव व जीवन की उत्पत्ति उसी एकमात्र शक्ति की एक शाखा अथवा भाग से आरंभ हुई; ..उसके उस भाग को समझने, जानने और उसकी अपेक्षाओं का पालन करने में सरलता व सुगमता हो, इस अभिप्राय से आगे के साहित्यों में उसे 'ब्रह्मा' का नाम दिया गया. ....(३) सृष्टि के निर्माण के बाद उसकी योगक्षेम की भी आवश्यकता थी, उस निमित्त उसी आधारभूत शक्ति के एक अन्य भाग द्वारा यह कार्य आरम्भ हुआ; ..समझने की सरलता के लिए बाद के साहित्यों में उसे 'विष्णु' बताया गया. ....(४) क्योंकि अपूर्णताओं के कारण साकार जीवन सदा के लिए संभव न था इस कारण से उसके लय अथवा समाप्ति के लिए उसी आधारभूत शक्ति की एक तीसरी शाखा ने कार्य आरंभ किया, जिसे पहले के साहित्यों में 'रुद्र' के नाम से और बाद के साहित्यों में 'महेश' व बहुत से अन्य नामों के द्वारा भी जाना गया. ....(५) बाद में सृष्टि के अन्य अनेक कार्यों के संपादन हेतु उसी आधारभूत शक्ति या ऊर्जा के अनेक अन्य रूपों ने कार्य आरंभ किया. समझने में आसानी के लिए मनीषियों ने उन्हें अलग-अलग नामों से संबोधित किया. ....(६) अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न तो वह आधारभूत शक्ति साकार थी और न ही उसकी अन्य शाखाएं साकार रूप में थीं. यह तो काफी बाद के काल में सृष्टि के चक्र को ठीक से चलता रहने देने के लिए एवं उस चक्र के पीछे की शक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनकी 'भक्ति' आरंभ हुई. और उन 'भक्तों' के साकार-भाव अनुसार उस समय के मनीषियों, शिल्पियों, चित्रकारों द्वारा उन शक्तियों के बहुत से मानवीय मूर्त रूप, चित्र आदि सृजित हुए. आज भी हम देख सकते हैं कि सभ्यता, संस्कृति व स्थान आदि के अनुसार उनकी मूर्तियों व चित्रों में भिन्नता पाई जाती है. देशाटन कीजिये तो स्पष्टता से समझ में आएगा कि उत्तर भारत में उनका रूप, रंग, आकार (यहाँ तक कि नाम भी) कुछ है और दक्षिण भारत में कुछ अन्य!! ...किन्तु भक्त के असल भाव में फिर भी समानता है! ..क्योंकि भाव मूलतः निराकार होता है, साकारता उसमें बाद में आती है! ..मन में भाव हो तो उत्तर के भक्त को भगवान् उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप को वह पूजता है, ..और दक्षिण के भक्त को उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप में वहां का भक्त उन्हें पूजता है! ...इसी प्रकार किसी अन्य समुदाय (जैसे ईसाई, मुसलमान आदि) को उसके इष्ट का वही रूप ध्यान में आता है जिसकी वह आराधना करता है. उन्हें यहोवा, यीशु मसीह, मक्का, मदीना (अर्थात् जिनको वे मानते हैं) आदि के दर्शन होते हैं, अन्य किसी के नहीं. ...अर्थात् बड़ा अर्थ यह कि, ...."इस सृष्टि के पीछे का 'नियंता' मूलतः अजन्मा, अप्रकट, एवं निराकार है. उसकी अन्य कार्यकारी शाखाएं भी निराकार ही हैं. उसके नियमों-सिद्धांतों में बंधे रहने के लिए, फलस्वरूप सुखी रहने के लिए, बाद के काल में मनीषियों ने 'भक्ति' का आरंभ किया और कराया! सुविधापूर्ण भक्ति करने के लिए देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति के अनुसार ईश्वर के विभिन्न नामों-रूपों आदि के साथ भिन्न-भिन्न साहित्यों का निर्माण हुआ, ...और फिर भक्तों ने अपने आराध्य, विश्वास आदि के दर्शन भी तदनुसार ही प्राप्त किये. ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन एक प्रकार से भाव की साकारता ही है, जो वास्तव में है तो आभासी ही!?"

(२) जीवन में संतुलन होना कितना आवश्यक है?
भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य संतुलन होना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि हम मानव भौतिकता और आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण हैं. मूलतः हमारा वजूद आध्यात्मिक है, लेकिन इस समय भौतिक भूलोक पर और भौतिक मानव देह में होने के कारण हम भौतिकता को भी अनदेखा नहीं कर सकते तथा साथ ही आध्यात्मिकता को तो अनदेखा करने का प्रश्न नहीं उठता!!! हम वर्तमान में हाइब्रिड हैं इसलिए दोनों विशेषताओं में गजब का संतुलन स्थापित करके ही हम 'अभी' सुखी, शांत व आनंदित रह सकते हैं तथा 'भविष्य' की यात्रा का भी सुखद होना सुनिश्चित कर सकते हैं! अभी मोटी-मोटी बात बस यह जान लें कि "कमी और अति हर चीज की बुरी." (उदाहरण के तौर पर- "पानी यानी जल" को ले लें तो कहा जाता है कि जल ही जीवन है, किन्तु सब जानते हैं कि पानी की कमी भी हमारे जीवन के लिए घातक हो सकती है और अति भी! भोजन के साथ भी यही बात लागू होती है और जीवन से जुड़ी अन्य किसी महत्वपूर्ण चीज पर भी!). ठीक-ठीक संतुलन हमेशा लाभप्रद रहता है. ....एक तरफ मन की शुद्धि और अच्छे विचारों को पनपने देने के लिए आध्यात्मिक साहित्य, सत्संग आदि को अपनाएं, तो दूसरी तरफ किसी किसी उत्सव, शादी, पार्टी, अच्छे सिनेमा, खेल-कूद, नृत्य (डांस), मौज-मस्ती यानी खिलंदड़ेपन को भी अपनाएं! ..एक के लिए दूसरे को छोड़ देना कोई संतुलन वाली बात नहीं! सब कुछ करते समय हमारी खराई (अच्छापन) बनी रहे यह सबसे पते की बात है. "हरफनमौला बनकर जीवन जीने से 'सम्पूर्णता' का एहसास होता है." मैं खुद भी ऐसा ही करता हूँ, और ये बातें मैंने अपने निजी अनुभव से कही हैं.

(३) हमें किसी की मदद का फल (परितोष) ईश्वर द्वारा मिलता है?
देखिये, हम किसी की मदद यदि किसी आकांक्षा यानी चाहत से करते हैं (जैसे हमें अच्छा फल मिले या पूर्वजन्म के पाप धुल जायें), तो वह सकाम कर्म (अथवा भक्ति) हुआ. सकाम यानी किसी चाहत या स्वार्थ के साथ किया गया कर्म! चाहत भी एक प्रकार से स्वार्थ ही तो है! फिर भी आप द्वारा की गयी वह मदद ईश्वर द्वारा देखी जाएगी और उसका फल भी शायद उसी रूप में मिल जाये जिस रूप में आप चाहते हैं. ..लेकिन ईश्वर को निष्काम यानी बिना किसी फल की अभिलाषा के साथ किया गया सुकर्म अपेक्षाकृत अधिक पसंद है! ईश्वर आप द्वारा की गयी निष्काम (निःस्वार्थ) मदद को भी देखता है और उसका फल भी देता है. लेकिन निष्काम मदद का फल वह अपनी बुद्धि के अनुसार देता है! ..और निश्चित रूप से उसकी बुद्धि आपकी बुद्धि से तो बेहतर ही होगी!!! ...उदाहरण के लिए-- मानों एक माँ के दो बच्चे हैं, एक नटखट, वाचाल और नखरीला है, किसी भी काम को करने के बाद या बिना कुछ किये भी वह माँ से कुछ न कुछ माँगा करता है, माँ भी वात्सल्य में यथासंभव उसकी फरमाइश के हिसाब से उसे दे दिया करती है; ..वहीं दूसरी तरफ उसका दूसरा बच्चा बड़ा सीधा और सरल स्वभाव का है, जरूरत और निर्देश के अनुसार वह सब काम करता रहता है लेकिन उसके ओठों पर कभी कोई फरमाइश और दिल में कोई स्वार्थ या चाहत नहीं आते! ...क्या माँ उसका ध्यान नहीं रखती?! ...माँ उसका ध्यान कहीं अधिक रखती है क्योंकि माँ को मालुम है कि वह कभी कुछ मांगता नहीं है, इसलिए वह उसकी जरूरतों का ध्यान अपनी बुद्धि से रखती है. माँ की बुद्धि यकीनन उस अबोध बालक से अधिक बेहतर होती है. वह उसकी जरूरत के हिसाब से उसे उचित समय पर उचित साधन या चीजें देती रहती है. हम साधकों के लिए यहाँ माँ अर्थात् ईश्वर; और सरल बालक अर्थात् अच्छे साधक.

(४) स्वार्थी धोखेबाज को ईश्वर द्वारा दंड मिलता है?
ईश्वर अथवा प्रकृति के नियम इतने अच्छे और अकाट्य हैं कि किये गए कर्म की गुणवत्ता के अनुरूप उस कर्म का फल किसी उचित समय पर और उचित रूप में आए बगैर नहीं रहता! वह उचित समय और उचित रूप क्या है, इसे ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता, हम मानव मात्र अनुमान लगा सकते हैं! किसी से धोखा खाने के बाद यदि हम बड़ी तड़प के साथ चाहें कि उसका दंड उसे मिले, तो जरूर मिलेगा और शायद जल्दी ही मिल जाये, और शायद हमारी चाहत के अनुरूप ही मिल जाये. ...लेकिन यदि हम ईश्वर से उसके दंड की मांग न करें तिस पर भी उसे ईश्वर (या प्रकृति) की अपनी न्याय-व्यवस्था के अंतर्गत किसी उचित समय पर और किसी उचित रूप में दण्डित अवश्य किया जायेगा! समय और दंड के स्वरूप का निर्धारण ईश्वर या प्रकृति द्वारा होगा. आप बिलकुल निश्चिन्त रहें, और ईश्वर के न्याय की राह न देखते रहें! ....बड़ी बात यह कि भक्त के लिए किसी फल की इच्छा रखने पर उसकी भक्ति 'सकाम' हो जाती है और बिना किसी मांग के वह 'निष्काम' कहलाती है! ...अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से अपनी बुद्धि से बड़ी विह्वलता कुछ मांगने पर वह हमें हमारी इच्छा-अनुरूप दे देता है, और आगे कुछ अनर्थ हो जाने पर 'मांगने' का दोष हम पर ही लगता है; लेकिन दूसरी ओर यदि हम अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से कुछ भी मांग नहीं करते तब भी वह हमारी समस्याएं देखता है और उचित समय पर उचित मदद अपनेआप करता है (हमारी सोच और कामों से प्रभावित हो कर बड़े अपनेपन से), तब आगे कुछ अनर्थ होने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि फैसले लेने में वह बहुत अधिक बुद्धिमान है. ...अर्थात् 'सकाम' कर्म में कर्तापन रहता है और 'निष्काम' कर्म में कर्तापन नहीं रहता. हमारे प्रारब्ध यानी आगे के भाग्य का निर्माण भी हमारे कर्म के कर्तापन से ही होता है! ईश्वर से कुछ मांगें या ना भी मांगें तो भी कर्म का प्रत्युत्तर तो मिलेगा ही, मांगने पर कर्तापन लगेगा और ना मांगने पर कर्तापन ईश्वर का ही होगा!