Saturday, April 24, 2010

(३०) बच्चों की परवरिश और शिक्षा-दीक्षा

इस सम्बन्ध में प्रचलित धार्मिक / आध्यात्मिक अवधारणा
आरंभ में भारत में वर्तमान समय में प्रचलित धार्मिक बल्कि आध्यात्मिक अवधारणा की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा जो मैंने कई धार्मिक गुरुओं व साधकों के मुख से सुनी है। उनका कहना है कि - "हमें अपने बच्चों पर विशेष ध्यान देने या चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, जो उनके भाग्य में होगा उसी अनुसार वे अपने जीवन में प्राप्त कर लेंगे।" .. कुछ का कहना है कि - "अभिभावक होने के नाते हमें बच्चों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार सुख-सुविधाएं या साधन आदि उपलब्ध करा देने चाहियें बस! आगे जैसा उनका भाग्य होगा, वे बन जायेंगे।"

... उपरोक्त बात कुछ सीमा तक सही है और यह बात भी सही है कि मैं भी कर्मफल, भाग्य (प्रारब्ध), पुनर्जन्म आदि पर विश्वास करता हूँ, ... परन्तु फिर भी मैं भाग्यवादी कतई नहीं हूँ। पिछले लेखों से भी यह स्पष्टतया विदित होगा कि किसी वांछित परिणाम के लिए केवल भाग्य पर आश्रित रहना मूर्खता ही है। ... और एक बार को हम यह मान सकते हैं कि अनायास या किसी विशेष परिस्थिति (घोर लाचारगी) में किया गया कार्य संभवतः भाग्यवश (प्रारब्धवश) हो सकता है, परन्तु हमारा क्रियमाण (विवेकानुसार प्रयत्नपूर्वक किया गया कार्य) हमारे भाग्य के ऊपर बिलकुल भी आश्रित नहीं होता है। ... यहाँ मैं क्रियमाण से उत्पन्न परिणाम (फल) की बात नहीं कर रहा हूँ। फल तो क्रियमाण और प्रारब्ध के संयोग (दोनों के गुणनफल) से प्राप्त होता है (कर्मxप्रारब्ध = फल)|

यदि हम कर्मफल के सिद्धांत को पुनः देखें तो पायेंगे कि वस्तुतः भाग्य तो हमारे पिछले कर्मों के फलस्वरूप ही निर्मित होता है। इसका निर्माण ईश्वरेच्छा से नहीं वरन हमारे ही कर्मों के कारण होता है। क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया के सिद्धांत पर आधारित है यह। ... और जब तक आत्मा का प्रवास देह में होता रहता है, यह 'भाग्य' भी परिवर्तनीय दशा में उस जीव के साथ बना रहता है। इस विषय पर विस्तारपूर्वक चर्चा हम पहले के अनेक लेखों में कर ही चुके हैं। फिर भी पुनः कहूँगा कि सब कुछ या अधिकांश बातें भाग्य के भरोसे छोड़कर निश्चिन्त हो जाना, यह पलायनवादिता है; यह नकारात्मक सोच है। हाँ, सामर्थ्यानुसार भरसक योग्य 'कर्म' (क्रिया) करने के उपरांत 'फल' (प्रतिक्रिया) के प्रति निश्चिन्तता अर्थात् फल मिलने के समय के विषय में निर्विचार अवस्था या फल के प्रति तटस्थता आदि का भाव इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति वास्तव में संतुलित है।

फिर से इस लेख के मूल विषय पर आते हैं। ... हमें यह पता होना चाहिए कि प्रत्येक आत्मा का किसी देह के माध्यम से इस धरा पर पदार्पण किसी विशेष कारण से ही होता है, वह है - उस जीव का अपने प्रारब्ध यानी पिछले शेष कर्मफलों को भोगना एवं कोई विशिष्ट साधना कर ईश्वरीय तत्त्व के और समीप जाना। 'विशिष्ट साधना' से तात्पर्य है कि पिछले संस्कारों के अनुसार एवं उनकी सहायता से, वर्तमान संस्कारों व क्रियमाण की सहायता से तथा आत्मिक प्रकाश का मार्गदर्शन लेते हुए ईश्वरीय गुणों व ज्ञान की ओर अग्रसर होना। जीव का किसी अमुक परिवार में जन्म उस जीव एवं उस जीव से जुड़े अन्य व्यक्तियों के प्रारब्ध के कारण ही होता है। तब एक काम तो यह हो सकता है कि हम सबसे ऊपर वर्णित भ्रान्ति के चलते लगभग कर्महीन हो प्रारब्ध के भरोसे बैठे रहें और उस जीव के संस्कार स्वतः निर्मित होने दें; वह अच्छा या बुरा जैसा भी विकसित होने को हो, बस हम उसे पोषण देते रहें! ... कहते हैं कि दुर्गुणी व कायर अपने कर्मों से अपने प्रारब्ध को खराब करते है। ... तो इस बात का विपरीत भी संभव है कि योग्य व साहसी व्यक्ति अपने गुणों और सत्-कर्मों से अपने अथवा किसी अन्य के प्रारब्ध के कारण उत्पन्न होने वाले प्रतिकूल परिणाम को परिवर्तित कर सकते हैं, आगामी कर्मफलों को बेहतर बना सकते हैं। इसमें तनिक भी संशय नहीं है!

इस सम्बन्ध में प्रचलित मनोवैज्ञानिक अवधारणा
मैंने वर्तमान समय के बहुत से मनोवैज्ञानिकों को भी यह कहते सुना है कि - "माता-पिता को अपनी इच्छाएं एवं संस्कार (impressions) आदि अपने बच्चों पर लादने नहीं चाहियें, उन्हें उनकी इच्छानुसार निर्मित होने देना चाहिए। जिस दिशा में बच्चे का मानसिक व आध्यात्मिक ढांचा उसे ले जाना चाहेगा, जिस ओर उसकी वृत्ति बनेगी, रुझान बनेगा, उस ओर वह स्वतः ही अग्रसर हो जायेगा।"

... बात सुनने में बहुत अच्छी और व्यावहारिक जान पड़ती है, परन्तु है वास्तव में कायरतापूर्ण व अपने दायित्वों से बचने का प्रयास ही! अब सोचिये उपरोक्त बात पर चलकर हमने बच्चे को ठीक उस समय उसके भाग्य के सहारे छोड़ दिया जब उसकी कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ अभी ठीक से विकसित ही नहीं हो पायी हैं, मानसिक विकास तो अभी शैशवावस्था में ही है! यह सब तो हम भौतिक शास्त्रानुसार कह रहे हैं; और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी हम यह मान कर चलते हैं कि बच्चा जब पैदा होता है तब उसका मस्तिष्क या मन इस जन्म के दृष्टिकोण से संस्कारविहीन (impressionless / blank) होता है। पिछले जन्मों के संस्कार होते तो अवश्य हैं, परन्तु सुप्तावस्था में ही। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होना शुरू होता है, क्रमशः उसके मन पर नए संस्कारों का बनना प्रारंभ होता है; और प्रसंगानुसार या किन्हीं विशिष्ट घटनाक्रमों का साक्षी या दृष्टा होने पर उसके मन पर विद्यमान कुछ पुराने सुप्त संस्कारों का भी जागना प्रारंभ होता है। ... हम देखते हैं कि बच्चा कुछ बातों को तुरंत कम प्रयास या लगभग बिना प्रयास के ही सीख जाता है और कुछ बातों को बहुत कठिनाई से सीख पाता है। विभिन्न प्रसंगों में परस्पर उलट परिणाम भी दृष्टिगोचर हो सकते हैं, उदाहरणार्थ - 'अ' बात को यदि एक बच्चा 'क' कठिनाई से सीख रहा होता है और दूसरा बच्चा 'ख' सरलता से, तो एक अन्य बात 'ब' को 'क' सरलता से सीख लेता है और 'ख' कठिनाई से! बहुत जल्दी सीखने के पीछे का कारण मन पर अंकित पुराने संस्कार व विचार-केन्द्र हैं, और कठिनाई से सीखने का कारण है - उस प्रसंग से सम्बंधित कोई पुराना ठोस संस्कार न होना या उसका ठीक से जागृत न होना, उस प्रसंग से सम्बंधित नए संस्कारों का प्रथमतः निर्माण होना व उसके अनुरूप ग्रहण करने की क्षमता का शनैः-शनैः विकास होना।

... अर्थात् हम यह मान कर चलते हैं कि जीवन में आने वाले प्रसंगों और उन्हीं के अनुसार निर्मित या विकसित संस्कारों से बच्चे का मानसिक विकास होता है। अब ये प्रसंग अच्छी शिक्षा के स्वरूप में होंगे तो बच्चा सकारात्मक दिशा में अग्रसर होगा अन्यथा नकारात्मक दिशा में बढ़ेगा। .. अब यदि हम अभिभावक तटस्थ रवैया अपना लेंगे अर्थात् बच्चे के समक्ष अच्छा या बुरा कोई भी दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करेंगे, कोई भी सैद्धांतिक या व्यावहारिक शिक्षा नहीं देंगे तो भी बच्चा आगे तो बढ़ेगा ही अपने हिसाब से! उसके मन-मस्तिष्क पर संस्कारों का निर्माण या जागरण तो तब भी होगा ही! अब यह निर्माण हमारे तटस्थ या मूक रहने पर कहीं बाहर से होगा, अन्य समाज से होगा। कोई आवश्यक नहीं कि अन्य समाज उस पर सकारात्मक संस्कार बनने या सकारात्मक संस्कार जागृत करने में ही मदद करे। हो सकता है हमारे आसपास रज-तम युक्त समाज हो और उसका उसके मन पर नकारात्मक असर पड़े और फलस्वरूप उसके मन में विद्यमान सुप्त संस्कारों में से नकारात्मक संस्कार पहले जागें और सक्रिय हों। इसका परिणाम यह होगा कि उसके मन पर नकारात्मक संस्कारों का प्रभुत्व होकर उसकी वृत्ति का निर्माण भी तदनुसार ही होने की संभावनाएं प्रबल हो जायेंगी। तब वे तथाकथित मनोवैज्ञानिक कुछ न कुछ और तर्क देने लगेंगे। तर्कों और तार्किक लड़ाई का अंत नहीं! आप जीत न पायेंगे उनसे! पर सत्य तो यही है कि अंततः हम हाथ मलेंगे और अपने व बच्चे के प्रारब्ध को कोसेंगे। मनोवैज्ञानिक यही कहेंगे कि आपके बच्चे का मानसिक ढांचा ही ऐसा था, इसमें कुछ भी अटपटा नहीं!!

... लेकिन जरा दूसरा पक्ष लें जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखता है। वह यह कि - यद्यपि हम सामान्य अभिभावक इतने समर्थ नहीं कि अपने बच्चे का आदर्श मानसिक विकास करने में सक्षम हों अर्थात् उसे आत्मिक स्तर तक ले जा कर उसके मन पर आत्मा का प्रभुत्व स्थापित करने में योग्य मदद कर पाएं, तदपि इतना तो हम कर ही सकते हैं कि उसके मन पर स्वयं ही अच्छे से अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करें, जो ईश्वरीय गुणों के बहुत समीप हों। इससे होगा यह कि बचपन से ही उसके मन पर योग्य व सकारात्मक संस्कारों का बनना आरंभ होगा तथा पुरातन मिले-जुले सुप्त संस्कारों में से केवल अच्छे संस्कारों को ही पोषण मिलेगा और प्रथमतः वे योग्य संस्कार ही जागृत होंगे। अब स्थिति क्या हो जायेगी कि मन पर वर्तमान व पुरातन योग्य संस्कारों का प्रभुत्व हो जायेगा, परिणामतः उसकी वृत्ति सकारात्मक एवं सत्त्वप्रधान होगी। रज-तम का भी उसमें समावेश होगा, परन्तु उसका प्रयोग आपातकाल हेतु या विशिष्ट परिस्थिति अनुसार करने हेतु सत्त्व-वृत्ति रूपी नियंत्रक लगाम रहेगी ही। इससे शैशवावस्था या बाद में भी बच्चा अपनी सत्त्व-वृत्ति के कारण योग्य गुरु के दिशानिर्देशन में शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति कर सकता है। वह योग्य गुरु उसके अभिभावक भी हो सकते हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं।

मैंने अपने सहित बहुत से अभिभावकों को देखा है कि शैशवावस्था में तो वे ठीकठाक थे, पर किशोरावस्था में कोई भी योग्य मार्गदर्शन न मिलने के कारण मध्य की आयु में वे दिग्भ्रमित रहे, फलतः आध्यात्मिक व व्यावहारिक उन्नति करने में अक्षम रहे। बाद में प्रौढावस्था में संभवतः प्रारब्धवश उन्हें योग्य मार्गदर्शन मिला और उनके नेत्र कुछ खुले; उन्हें अब सब कुछ साफ-साफ़ नजर आने लगा और महसूस हुआ कि योग्य मार्गदर्शन के अभाव में उन्होंने बीते वर्षों में कितना कुछ खो दिया, समय बर्बाद कर दिया और गया वक्त लौट कर नहीं आता! हमारी आयु कम ही है, कितनी? यह हम नहीं जानते। पर जीवन का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा यूं ही व्यर्थ गँवा देने पर समझ में आया कि हमने जो किया या हमारे साथ जो घटित हुआ, वह हमारे बच्चों के साथ न घटित हो अर्थात् हमारे बच्चे योग्य मार्गदर्शन से वंचित न रहें। ... तो अब स्थिति क्या बन गयी कि हमने जो भी इधर-उधर भटक कर अंततः अपने प्रारब्धवश जो सीखा, जाना, वह अपने बच्चे को उसके शैशवकाल से सिखाना प्रारंभ कर दिया। हमारे अभिभावक सचेत नहीं थे, पर हम समय से सचेत हो गए अपने बच्चों के प्रति कि हमारे समान उनका जीवन असमंजस की स्थिति में न रहे और यथासंभव उन पर योग्य संस्कार शुरुआती अवस्था से ही अंकित होने प्रारंभ हो जायें।

... यह कतई आवश्यक नहीं कि हर कोई गिर कर ही सीखे। ... किसी दूसरे को गड्ढे में गिरता देख भी यह जाना जा सकता है कि वहाँ खतरा है, .. थोड़ा मार्ग बदल कर सावधानीपूर्वक निकला जा सकता है। अतः सावधानीपूर्वक चलने से हम असीमित ऊर्जा बचा सकते हैं। आत्मा को स्थूल देह के रूप में कोई अक्षुण्ण भौतिक ऊर्जा का स्रोत नहीं मिल गया है; यह सीमित ही है। अतः बुद्धिमानी यही है कि यदि अभिभावक को पर्याप्त व्यावहारिक व आध्यात्मिक ज्ञान हो, तो बच्चे के विकासक्रम में उसे 'मौनी बाबा' की भूमिका न निभा एक कर्मठ व योग्य मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। यदि अभिभावक पर्याप्त ज्ञान नहीं रखता तो उसे परिवार या मित्रमंडली में किसी ऐसे सदस्य की पहचान कर उसकी मदद लेनी चाहिए जो एक योग्य मार्गदर्शक की भूमिका निभा पाए। यदि अभिभावक बिलकुल ही जड़बुद्धि का, निरा भौतिकवादी या मात्र अपने में ही मस्त स्वार्थी व्यक्ति है, तो फिर बात ही अलग है; तब तो सकारात्मक या नकारात्मक दिशा में अग्रसारित होने हेतु केवल बच्चे का ही क्रियमाण व प्रारब्ध कार्य करेगा।

... ऊपर जो बात हमने की, वह बच्चे की शैशवावस्था की थी। अब जब बात आती ही किशोरावस्था की, तो वर्तमान मनोवैज्ञानिक और अधिक मजबूती से कहते हैं कि - "किशोरावस्था में तो बच्चे को अपने अनुसार मार्गदर्शित करने का प्रयास घातक होगा, उसे उसी की इच्छानुसार विकसित होने देना चाहिए।" यहाँ मनोवैज्ञानिकों की बात बहुत हद तक ठीक है। फिर भी यदि अभिभावकों में पर्याप्त योग्यता है और वे बच्चे के साथ अच्छा सामंजस्य बैठाने में कामयाब हैं, तो निश्चित रूप से वे किशोरावस्था के बच्चे को भी मार्गदर्शन दे सकते हैं। वे उसे भविष्य की योजनाएं बनाने व उन्हें क्रियान्वित करने हेतु परामर्श व सहायता दोनों प्रदान कर सकते हैं; एक मित्र की भूमिका बखूबी निभा सकते हैं। ऐसी अवस्था निर्मित होने के लिए यह परम आवश्यक है कि अभिभावक समय के अनुरूप निरंतर स्वयं को अद्यतन (update) रखते हों और वर्तमान सभी बदलावों तथा समय की मांग को भली-भांति समझते हों; तभी वे आज के वर्तमान एवं आने वाले भविष्य के परिपेक्ष्य में अपनी संतान का योग्य मार्गदर्शन कर सकेंगे। यहाँ अभिभावक को कई भूमिकाओं को एक साथ निभाना होता है - एक मित्र की, एक मार्गदर्शक की, एक मनोवैज्ञानिक की, एक आध्यात्मिक गुरु की, एक भौतिक संसाधन प्रदाता की, और हर स्थिति में साथ खड़े होने वाले एक समझदार अभिभावक की।

एक कुशल अभिभावक बनने के लिए आवश्यक है कि वह स्वयं अपने भीतर भी संतुलित रवैया विकसित करे, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित करे और उन्हें अपने बच्चे पर लादे नहीं। देखा जाता है कि बहुत से अभिभावक अति महत्त्वाकांक्षी होने के कारण अपने कच्चे विवेक से स्वयं ही यह तय कर लेते हैं कि उनका बच्चा भविष्य में क्या बने?! वे संसाधनों का तो अम्बार लगा देते हैं परन्तु बच्चे के रुझान, प्रतिभा व सामर्थ्य आदि पर गौर नहीं करते हैं; फलतः अपेक्षाओं से दबा उनका बच्चा निराशा व अवसाद की स्थिति में जा सकता है। ... आम के पेड़ से सेब की आशा रखने वाला अंततः खुद को निराशा में खड़ा पाता है और ... ! यदि फिर भी कोई अभिभावक मजबूती से पक्का इरादा कर ले कि उसे अपनी संतान को विशिष्ट ही बनाना है, तो फिर इसके लिए उसे बहुत श्रम करना पड़ेगा, बचपन से ही संतान के बेहद करीब रह कर मित्रवत कड़ा अभ्यास कराना होगा, स्वयं भी उस विधा में पारंगत होना पड़ेगा; यह सब बहुत कठिन और जोखिम भरा तो है पर शायद असंभव नहीं। इस पर एक विशेष टिप्पणी मैं अवश्य करना चाहूँगा कि असफल होने की दशा में कुछ भी अनहोनी या नकारात्मक घटना होना अवश्यम्भावी है यदि वहाँ आध्यात्मिक समझ का अभाव है!!

एक बात पर मैं बहुत अधिक जोर देना चाहता हूँ कि एक 'संतुलित' अभिभावक को अपने बच्चे को पूरी तरह से 'संतुलित' अर्थात् शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ नागरिक बनाने का गंभीर प्रयास करना होगा। विशेषकर आध्यात्मिकता का पक्ष मजबूती से दृढ़ करना होगा क्योंकि बच्चे की शांत, सरल, सरस व वास्तव में आनंददायक जीवनशैली निर्मित होने के लिए 'स्वस्थ आध्यात्मिकता' की बुनियाद अत्यावश्यक है। पुनः, 'स्वस्थ आध्यात्मिकता' अर्थात् स्वाभाविक सच्ची धार्मिकता (righteousness) की ओर उन्मुखता।

यदि हम अच्छे माली (बागबान) हैं तो हम कोई पौधा रोप कर उसे उसके प्रारब्ध पर नहीं छोड़ देते। हम उस पौधे के आसपास की भूमि की नियमित निराई-गुडाई करते हैं, उसे पानी देते हैं, खाद देते हैं, कीड़ों से बचाते हैं। जब उसकी जड़ें जम जाती हैं, वह बड़ा होना शुरू होता है, तब भी उसकी देखभाल करते ही हैं, परजीवी बेलों से उसे बचाते हैं, सावधानी से कीटनाशक आदि भी डालते हैं, अच्छे विकास के लिए कटिंग आदि करते हैं, बेल हो तो उसे योग्य स्थान पर फैलने देने के लिए रस्सी या सुतली आदि बांध कर सहारा व दिशा देते हैं। इन सब कृत्यों का उद्देश्य यही होता है कि वह पौधा योग्य रीति से विकसित हो अपना जीवन सुदृढ़ करे और उससे अन्यों को भी लाभ पहुंचे अर्थात् वह सुन्दर तथा पुष्ट फल प्रदान करे। ... यह बात अलग है कि कुछ पेड़-पौधे बिना देखभाल के ही बहुत अच्छी तरह से विकसित होते हैं और लाभदायी फल प्रदान करते हैं; दूसरी ओर कुछ पेड़-पौधे हमारी अथक देखभाल के बावजूद भी मुरझा जाते हैं और अंततः नष्ट हो जाते हैं। ... लेकिन यह सब देखते हुए क्या लोग बागबानी या किसानी छोड़ देते हैं? .. या सब कुछ प्रकृति या प्रारब्ध आदि पर ही छोड़ देते हैं?? ... नहीं, बिलकुल भी नहीं।

... प्रारब्ध का हमें पता नहीं, कर्म करना हमारे वश में है, और हमारा कर्म कब और कितना फलीभूत होगा, हमें नहीं पता! ... फिर भी हम आशावादी हैं, क्योंकि हम अच्छे से जानते हैं कि प्रारब्ध कोई ऊपर से टपकी चीज नहीं है, वरन वह तो हमारे ही पूर्वकर्मों से निर्मित है। हम सभी कर्मफल से बंधे हैं। नियम ही यही है - क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया; कब, कैसे और किस रूप में? .. इसकी यथार्थ व्याख्या करने में वैज्ञानिक भी असमर्थ हैं। फिर भी वैज्ञानिक मानते ही हैं कि ऊर्जा अक्षुण्ण होती है, मात्र उसका स्वरूप बदल जाता है और क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया अटल है। तो फिर हम कर्मफल व संचित की आध्यात्मिक अवधारणा बल्कि सिद्धांत मानने में क्यों संकोच करें, और क्यों योग्य क्रिया करने में पीछे रहें जबकि हमको यह पता है कि योग्य क्रिया के फलस्वरूप योग्य प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी है। फिर भी यदि हम अपने संघ की वर्तमान परिस्थितियों से उकता कर अवसाद की स्थिति में पहुँच गए हों, समष्टि के उत्कर्ष के कोई आसार न दीख रहे हों, केवल अपने या अपने पारिवारिक वर्तुल के अच्छे बनने का कोई भी प्रत्यक्ष लाभ न दीख रहा हो, तिस पर भी प्रयत्नपूर्वक क्रियमाण कर हमें स्वयं व अपनी संतानों को 'कमल' की स्थिति में तो ले जाना ही होगा; तब हमें कम से कम इस कहावत से तो संतोष की अनुभूति होगी ही कि - "कीचड़ में कमल भी खिलते हैं"। ... आगे कभी न कभी हमारे योग्य प्रयत्नों को योग्य प्रतिक्रिया अवश्य मिलेगी, यह अटल सत्य है। इति।

Tuesday, April 13, 2010

(२९) स्वस्थ आलोचना

पहली बात तो यह कि आलोचना की ही क्यों जाती है? आलोचना का मूल कारण 'सत्य (!?) का आग्रह' करना होता है। यहाँ 'सत्य का आग्रह' से तात्पर्य 'आलोचक द्वारा मापदंडित सत्य' से है। यद्यपि जो आलोचक के लिए सत्य व सही है वह किसी अन्य के लिए असत्य व गलत भी हो सकता है, इसकी सम्भावना भी रहती ही है। पर फिर भी एक स्वस्थ आलोचक का मंतव्य यही रहता है कि उचित आलोचना से लोकहित साधा जाये।

मनुष्य एक सांघिक प्राणी है। एक जागरूक सांघिक प्राणी को जब भी उसके संघ में या आसपास के वातावरण में कुछ गलत होते दिखाई पड़ता है तो वह संघ के हितार्थ कुछ न कुछ बोलता अवश्य है। उसका बोलना, आलोचना या सुझाव आदि उसके सामर्थ्य यानी बुद्धि-विवेकानुसार होते हैं।

अब यह आलोचना भी कई प्रकार की होने लग गयी है -- एक तो वह जो स्वतः ही यानी स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की जागरूकतानुसार प्रकट होती है, और दूसरी वह जो कुछ व्यक्ति व्यवसाय या शौक के तौर पर करते हैं। व्यवसाय के तौर पर आलोचना करना अर्थात् जैसे आजकल अधिकांश प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले कर रहे हैं - 24x7. ... आलोचनाएं गढ़ी जाती हैं, किस्से-कहानियों के रूप में! ... कुछ लोग शौक या सनक के कारण भी आलोचना करते हैं, क्योंकि शायद वे अक्सर असंतुष्ट ही रहते हैं या हर बात में विरोधी तर्क देना उनका स्वभाव होता है। ऐसे लोग सत्य के व्यर्थ के ठेकेदार बनकर समाज के लिए नासूर से बन जाते हैं। कोरी शेखी बघारने के अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा काम नहीं होता। अच्छा हो कि हम उपरोक्त वर्णित व्यावसायिक और शौकिया आलोचकों से परे ही रहें एवं उनके प्रभाव में न आयें।

.... अब हम यहाँ स्वस्थ आलोचना के ऊपर ही चर्चा करेंगे। ... जैसे कि हमने ऊपर भी चर्चा की थी - एक स्वस्थ एवं जागरूक सांघिक व्यक्ति असत्य व गलत कृत्यों को होते नहीं देख पाता। वस्तुस्थिति के पता होने पर भी धृतराष्ट्र व गांधारी समान आचरण उसे नहीं भाता है। वह कुछ न कुछ आलोचना या तत्सम्बन्धी क्रिया करने पर बाध्य होता है। शास्त्रों में भी कहा गया है - "सत्य के समान धर्म नहीं है और असत्य के समान पाप नहीं है, इसलिए सत्य का लोप कभी नहीं करना चाहिए।" ... सत्य के सम्बन्ध में यदि शास्त्रों और ज्ञानियों के वाक्य उद्धृत किये जायें तो एक बड़ा सा ग्रन्थ बन जायेगा। परन्तु यहाँ विचारणीय यह है कि सत्य क्या है और इसका प्रयोग कैसे हो सकता है?

जब भी कोई व्यक्ति किसी घटनाक्रम का तटस्थ रूप से, स्वस्थ एवं सरल हृदय से अवलोकन करता है, तब उसे उस घटनाक्रम से जुड़े सत्य व असत्य पहलुओं का अहसास होता है। सत्यप्रिय और जागरूक होने के कारण वह व्यक्ति उस घटनाक्रम के स्वस्थ पहलुओं को तो सराहता है, परन्तु गलत पहलुओं पर अपने हिसाब से विरोध दर्शाता है। वह आलोचना भी करता है और साथ ही सुझाव भी देता है। इस क्रम में गलत के विरुद्ध वह सात्त्विक क्रोध भी प्रकट करता है, जो स्वाभाविक है।

यह बात ठीक है कि सब लोग आपके मनानुसार या सुझावानुसार नहीं चल सकते। जब आप अन्यों के मनानुसार आचरण नहीं कर सकते तो फिर दूसरों से अपने अनुसार कृत्य की अपेक्षा क्यों रखी जाये? .... पर फिर भी मैं यह कहूँगा कि देख कर भी मक्खी निगलना या निगलने देना ठीक नहीं!

यदि कोई इतना सामर्थ्यवान है कि किसी घटनाक्रम को सही-सही भांप पाए और सही या गलत के निष्कर्ष पर ईमानदारी से पहुँच पाए, तो अवश्य ही उसे सत्य का साथ देते हुए अन्यों से भी सत्य के समर्थन का आग्रह करना चाहिए, चाहे आज कोई अच्छा समझे या बुरा! उसकी आलोचना में निर्भीकता के साथ यथासंभव विनम्रता एवं स्वस्थ तार्किक दृष्टिकोण का होना बहुत आवश्यक है। इसी की मदद से हम प्रतिकूल भाव रखने वाले को भी धीरे-धीरे अनुकूल बना सकते हैं। सबसे बड़ी बात जो आलोचक को ध्यान में रखनी चाहिए, वह यह कि उसे गलती पर क्रोध आना चाहिए, गलती करने वाले पर नहीं! गलत बात का विरोध होना चाहिए, व्यक्ति या विशिष्ट संघ का नहीं! अज्ञान का विरोध होना चाहिए, अज्ञानी का नहीं! .... स्वस्थ आलोचक गलत कृत्यों से द्वेष रखता है, कर्ता से नहीं! कर्ता का कृत्य परिवर्तनीय होता है और वह हमारे या उसके क्रियमाण से बदला जा सकता है!

स्वस्थ आलोचक का काम है कि प्रसंग आने पर गलत का विरोध और सत्य का समर्थन किये जाये बिना किसी परिणाम की अपेक्षा के। जब योग्य समय आयेगा तब उसके स्वस्थ आलोचना रूपी बीज में अंकुरण स्वतः ही हो जायेगा। इस प्रकार की आलोचना को हम आलोचना नहीं बल्कि 'सचेतना' कहेंगे। बीज डालना हमारा कार्य है, उसे संरक्षण व पोषण देना भी कुछ हद तक हमारे हाथ में है, .. पर उसके अंकुरण को या अंकुरण के समय को सुनिश्चित करना हमारे हाथ में नहीं!

विपरीत विचारधारा रखने वाले व्यक्ति सरलता से तुरंत हमारी बात मान लेंगे यह कतई संभव नहीं, बल्कि यह आशंका अवश्य संभव है कि वे नाराज होकर आवेश में आ जायें। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोई भी वस्तु अपनी वर्तमान अवस्था में ही रहना चाहती है। उसके स्वभाव में रासायनिक परिवर्तन करना बहुत कठिन होता है। फिर मन के संस्कारों व वृत्ति के विरुद्ध जाना इतना आसान नहीं। अतः आलोचक को उनकी तीष्ण प्रतिक्रिया को सहर्ष सहन करने हेतु तैयार रहना चाहिए। ... ऐसी अवस्था के लिए श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने बहुत सुन्दर मार्गदर्शन किया है -- "ऐसी अवस्था में उचित यह है कि अपनी शुद्ध नीयत के सच्चे विचारों का प्रचार करने वाले उनके (प्रतिकूल भाव रखने वालों के) क्रोध को शांति और सुख के साथ सहन करते हुए उनसे प्रेम करें, उनके क्रोध का बदला क्षमा और सेवा से दें, उनकी गालियों का और मार का बदला परमेश्वर से उनका कल्याण चाहने की प्रार्थना के रूप में दें, वह भी ढोंग या उन्हें चिढ़ाने के लिए नहीं, पर सच्चे हृदय से। यदि ऐसा होगा तो हमारे विचारों का प्रचार होना बड़ी बात नहीं, आज नहीं तो कुछ दिनों बाद होगा।"

अब हम इस विषय के कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर भिन्न कोण से मनन करते हैं -- ... मनुष्य एक सांघिक प्राणी है, उसे समाज से सरोकार होता है। समाज-व्यवस्था उत्तम हो, समाज में धार्मिकता (righteousness) का पलड़ा भारी हो, तो ही वह खरा सुख पा सकता है। अतः सभी को अपने समाज या संघ को परिष्कृत करने का प्रयास करते रहना चाहिए, जिसके भीतर इसका सामर्थ्य हो उसे तो अवश्य ही! अपने परिवार को सुदृढ़ व आनंदित रखने हेतु भी तो हम ऐसा ही करते हैं। हमारे परिवार का मुखिया या अन्य समझदार व्यक्ति भी तो यही करता है कि सभी को प्यार से कुछ न कुछ समझाता रहता है, डांटता भी है, और मौका पड़ने पर विरोध भी दर्शाता है। यह सब वह इसलिए करता है कि परिवार में सुख-शांति बनी रहे, सौहार्दपूर्ण व धार्मिक (righteous) वातावरण बना रहे।

.... ठीक इसी प्रकार यदि कुछ जिम्मेदार व सामर्थ्यवान व्यक्ति 'अपने परिवार' का वर्तुल क्रमशः बड़ा करते हैं अर्थात् निज परिवार की परिधि समुदाय, संघ, देश, विश्व आदि तक विस्तारित करते हैं तो निश्चित ही उनके ऊपर यह दायित्व आ जाता है कि लोकहित या समष्टि हितार्थ कुछ न कुछ कृत्य करते रहें। वे गांधारी व धृतराष्ट्र समान मूक दर्शक न रहें। और कुछ नहीं तो कम से कम स्वस्थ व ईमानदार आलोचना करके वे दिग्भ्रमितों को मानसिक रूप से झिंझोड़ने का कार्य तो कर ही सकते हैं। समाज का एक अंग होने के नाते यह हमारे लिए कर्तव्य समान है। लोकहितार्थ जो भी न्यूनतम करना हमारे वश में है वह तो हमें अवश्य करना होगा, साहसी तो अधिकतम के लिए जायेंगे। इति।

Tuesday, March 30, 2010

(२८) आलोचनाओं पर अवश्य ध्यान दें

  • हम सदैव आलोचनाओं से बचना चाहते हैं जबकि वास्तव में हमारी सफलता में सबसे बड़ा हाथ हमारे आलोचकों का ही होता है। आलोचना का अर्थ मात्र निंदा नहीं होता। यह तो मात्र हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हम उसे किस प्रकार से ले रहे हैं।
  • आलोचना सुनने पर उदास होने के बजाए उससे कुछ सीखने का प्रयास करना चाहिए। आलोचक को कोसने के बजाए यह बेहतर होगा कि इस पर ध्यान दें कि हमने क्या किया और क्या नहीं किया, जिससे हमें आलोचना का सामना करना पड़ा।
  • यदि हमें सामने वाले व्यक्ति द्वारा की जा रही आलोचना या गुस्से का कारण समझ में न आ रहा हो तो बजाए उससे बहस करने के यह अच्छा रहेगा कि शांतिपूर्वक ढंग से बात करके आलोचना की जड़ में जाया जाए। और उसके नकारात्मक शब्दों से भी सीखने योग्य कुछ न कुछ निकाल लिया जाए।
  • आलोचक ही हमें बताते हैं कि हमारे अंदर क्या कमियां हैं। उन कमियों को दूर करके ही हम सफलता की राह पर अग्रसर हो सकते हैं। जीवन में हमें बहुत से प्रशंसक मिलते हैं और वे हमारी झूठी प्रशंसा करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। ऐसे लोग आलोचक से कहीं अधिक खतरनाक होते हैं। लेकिन हमारे सामने ही हमारी कमी बताने वाले बहुत कम मिलेंगे। तभी कहते हैं -- निंदक नियरे राखिये ....!
  • प्रशंसा, मान, स्तुति आदि करने का मुख्य कारण अधिकांशतः चाटुकारिता या फिर लोगों का भोलापन होता है। दोषों का बखान न कर केवल स्तुति-मान कर वे दोषों को और बढ़ा देते हैं।
  • जिन लोगों के दोष बताने वाले कम और प्रशंसा करने वाले अधिक होते हैं, वे बहुत जल्दी आवेश में आ जाते हैं, शीघ्र उत्तेजित हो जाते हैं; क्योंकि वे आलोचना सुनने के अभ्यस्त ही नहीं।
  • हममें से कोई भी सम्पूर्ण नहीं हो सकता। अतः यह सोचना भी गलत होगा कि हमारे अंदर कोई कमी नहीं हो सकती या हम कभी गलती नहीं कर सकते। इसलिए यदि कोई हमें हमारे कार्य या सोच की कमियां बता रहा है तो हमें उसकी बातों को ध्यान से सुन कर उन्हें सुधारना चाहिए।
  • आलोचना पर सच्चा ध्यान देकर ही हम अपने दोषों को एक-एक करके निकालने में सक्षम होंगे, मान-प्रशंसा की महिमा सुनने की इच्छा मिट जायेगी तथा वास्तविक नम्रता प्रकट होगी।
  • कोई हमारी कितनी ही कमी क्यों न निकाले, उसपर अपनी झुंझलाहट निकालने से अच्छा होगा कि हम अपनी उस कमी को समझ कर उसे दूर करने का प्रयास करें। झुंझलाहट हमें और अधिक बुराई की ओर ही ले जाती है।
  • जो निर्भीकता से सतत हमारी आलोचना करता रहता है, अवश्य ही वह हमारा हितैषी होता है। क्योंकि आमतौर पर बिना किसी आत्मीय सम्बन्ध के कोई भी हमारे सामने हमारी बुराई बताने में रुचि नहीं रखता।
  • श्रेष्ठ पुरुष की यदि कोई आलोचना या निंदा आदि करे तो वे प्रसन्न ही होते हैं; क्योंकि वे मानते हैं कि आलोचना करने वालों की दृष्टि बहुत सूक्ष्म है, जिससे इन्हें हमारे भीतर छिपे हुए सूक्ष्म दोष भी स्पष्ट रूप से दीखते हैं और कदाचित् ये हमको सर्वथा निर्दोष बनाना चाहते हैं, इसलिए हमारी आलोचना करके हमारा हित करते हैं।
  • यदि आलोचनाएं सुनने से हमें लाभ हो रहा हो तो उन आलोचनाओं पर अवश्य गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए। यदि सामने वाला व्यक्ति आलोचना के बहाने हमारा उपहास कर रहा हो या आलोचना अहंवश की जा रही हो तो उस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अपने गंतव्य पर आगे बढ़ते हुए ऐसे लोगों को अनदेखा कर देना ही अधिक श्रेयस्कर होगा।

Tuesday, February 16, 2010

(२७) दिसम्बर २००३ के कुछ पन्ने

प्रकाश और अंधकार
आज समाज में जो इतना तम है या अज्ञान है उसकी जड़ कहां पर है, इस पर एक विचार। अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख, अच्छा-बुरा, कोलाहल-शांति, दिन-रात, प्रकाश-अंधकार आदि एक-दूसरे के कारण ही हमें पता चलते हैं या परस्पर पूरक प्रतीत होते हैं। पर क्या वस्तुतः ऐसा ही है? इस पर विचार किया तो पता चला कि कुछ-कुछ तो ऐसा ही है, पर कुछ हमारा भ्रम भी है। उदाहरण के लिए - प्रकाश-अंधकार के विषय में ही विचार करें तो हम पाएंगे कि हमें वास्तव में पता ही नहीं है कि अंधकार क्यों है और यह कहां विद्यमान है!

अंधकार तो तभी होता है जब प्रकाश या प्रकाश-स्रोत का अभाव होता है, अन्यथा अंधेरे का अस्तित्व ही नहीं! प्रकाश का स्रोत होता है। हम व्यावहारिक जीवन में भी देखते हैं कि बल्ब नहीं जलता या फ्यूज़ हो जाता है तो अंधेरा हो जाता है, बिजली का बटन बंद कर देते हैं तो अंधेरा हो जाता है, सूरज ढल जाता है तो अंधेरा हो जाता है। प्रकाश के कुछ स्रोत या कारण हम दीपक, बल्ब (विद्युत ऊर्जा) या सूर्य के रूप में देखते हैं, पर क्या कोई बता सकता है कि अंधकार का कोई स्रोत या अलग से कोई कारण है क्या? वस्तुतः अंधकार का स्रोत या कारण अलग से कोई है ही नहीं, फिर भी उसका अस्तित्व है! वह तभी जब प्रकाश स्रोत बंद हो जाए, समाप्त हो जाए। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से यदि देखा जाए तो आज तमगुण अधिक इसलिए हैं क्योंकि सर्वत्र सत्त्वगुणों का अभाव है।

आज समाज में तमोगुणों का बोलबाला तथा सत्त्वगुणों का अभाव दीखता है। ... और बहुत से ज्ञानी लोगों द्वारा बताया जाता है कि तमोगुण का स्रोत इस लोक तथा किसी अन्य लोक की कुछ अनिष्ट शक्तियां हैं | ऐसा जान कर हम कर्मकाण्ड, यज्ञ, मंत्रजप, आदि से तम के कारणों या अनिष्ट शक्तियों को मारने-भगाने के प्रयत्न करने में लगे हैं। यह सब थोड़ी मात्रा में करना तो कुछ हद तक समझ में भी आता है, पर पागलों समान अनिष्ट का अस्तित्व समाप्त करने का प्रयास मूर्खता ही प्रतीत होता है। वास्तविकता तो यह है कि सत्त्वगुण यदि बढ़ जाएंगे तो अंधकार रूपी तमगुण स्वयं ही भाग जाएंगे, जैसे सूर्य के निकलते ही अंधेरा गायब हो जाता है।

सत्त्वगुण के मुख्यतः दो स्रोत हैं -- (१) सूक्ष्म रूप से यदि देखा जाए तो ईश्वर, जैसे कि प्रकाश के संदर्भ में प्राकृतिक स्रोत के रूप में सूर्य। और (२) स्थूल रूप से देखा जाए तो हमारा क्रियमाण अर्थात् हमारी स्थूल देह द्वारा किया गया कार्य; जैसे हमने प्रकाश के संदर्भ में बल्ब, ट्यूबलाईट और बिजली आदि का प्रयोग देखा था। प्रकाश-अंधकार के परिपेक्ष्य में जो महत्त्व सूर्य का था यानी प्राकृतिक, सबसे बड़ा एवं सदैव रहने वाला प्रकाशस्रोत, ठीक यही महत्त्व सत्त्व-तम के विवेचन में ईश्वर का है। ईश्वर यानी विश्व बल्कि ब्रह्माण्ड की सबसे प्रधान व बड़ी सत्त्वगुणी शक्ति, जिसके समक्ष अंधकार रूपी तामसिक और अनिष्ट शक्तियां सदैव नतमस्तक रही हैं। ऐसे ईश्वर की यदि हम सच्चे मन से भावपूर्ण साधना करेंगे, तो ईश्वरीय गुण यानी सत्त्वगुण हमारे भीतर स्वयं ही आएंगे। और जब एक बार प्रकाशपुंज जला नहीं कि अंधेरे यानी तम-गुणों का अस्तित्व समाप्त होना शुरू! प्रकाश के सम्बन्ध में जैसे सूर्य के अतिरिक्त हम अन्य भौतिक माध्यमों से भी प्रकाश उत्पन्न करते हैं, ठीक वैसे ही अन्य माध्यम के रूप में क्रियमाण भी जब अच्छे से अच्छा करने की चेष्टा करेंगे तो इससे भी तमोगुण रूपी अंधकार दूर होगा। अर्थात् उपरोक्त अध्ययन के अनुसार, स्वयं भावपूर्ण साधना करेंगे अर्थात् ईश्वर के समीप जाएंगे और स्वयं के क्रियमाण पर भी ध्यान देंगे अर्थात् अच्छे कार्य ही करेंगे, तो इन दो प्रयासों से स्वयं के तमगुण कम होंगे ही। साथ ही समष्टि हेतु भी ऐसा ही प्रयत्न करेंगे। वास्तव में यही आध्यात्मिक साधना व अध्यात्मप्रसार है। वस्तुतः अंधकार हमारे अंतर्मन में है, यह उपर्लिखित दो स्रोतों यानी ईश्वर एवं हमारे क्रियमाण, इन दोनों से ही दूर होने वाला है। अनिष्ट शक्ति जैसी कोई चीज यदि है तो क्या अच्छी शक्तियां नहीं हैं उनसे निपटने के लिए? या हमें अपनी भक्ति और ईश्वर की शक्ति पर कोई संदेह है क्या?

भय और निर्भयता
पिछला अध्ययन जो हमने प्रकाश व अंधकार का किया, ठीक उसी प्रकार से भय का अस्तित्व है। अंधकार के जैसे ही भय का अस्तित्व है। भय का कोई अलग से स्रोत नहीं है। वह तभी होता है जब हममें निर्भयता या आत्मबल की कमी होती है। निर्भयता व आत्मबल की कमी हममें ईश्वरीय गुणों या सत्त्वगुणों की कमी के कारण ही होती है। यदि हमें ईश्वर पर अगाध श्रद्धा है तो हममें सात्त्विक गुण अधिक होंगे, तब आवश्यक निर्भयता व आत्मबल ईश्वर हमें स्वयं ही प्रदान करेंगे। अंधकार के समान ही डर या भय की कोई सीमा नहीं, तभी तो हमें सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों का भय भी सताता रहता है। भय से ही मन में नाना प्रकार के वहम आते हैं, जो वस्तुतः निरर्थक विचार यानी obsession ही हैं। और इस प्रकार के निरर्थक विचारों या भय रूपी जाल में जब हम जकड़ते चले जाते हैं तब हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। जब-जब हम भक्ति से परे जाते हैं या ईश्वर से परे जाते हैं, तब-तब हमें तम या भय का सामना करना पड़ता है। वास्तव में भय अज्ञान का एक ऐसा जाल है जिसमें केवल कमजोर व्यक्ति ही फंस सकता है। कमजोर व्यक्ति अर्थात् आत्मिक रूप से कमजोर व्यक्ति; जिसको स्वयं पर, ईश्वर पर, ईश्वर की शक्ति व न्यायप्रियता पर कोई संदेह हो। अनिष्ट शक्ति जैसे व्यर्थ के प्रपंचों के जाल में फंस कर हम ईश्वर-शक्ति को व निज-क्रियमाण को कमजोर साबित करने में लगे हैं। यह गलत है। आत्मविश्वास प्रबल हो, ईश्वर पर प्रगाढ़ आस्था हो तो भय या अनिष्ट शक्तियों का कोई अस्तित्व ही नहीं। व्यर्थ में ऐसे प्रपंचों में समय गंवाना ठीक नहीं। सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों के अस्तित्व के बारे में एक बार को तो भरोसा किया जा सकता है कि उनका अस्तित्व है पर वे हमारा कुछ बिगाड़ सकती हैं अथवा ऐसा कर रही हैं, यह बताना या ऐसा समझाना भय को बढ़ावा देना ही हुआ, आत्मबल कम करना ही हुआ या ईश्वर की सत्त्वशक्ति पर संदेह करने समान ही हुआ। वस्तुतः जब हमारा आत्मबल कमजोर होता है तब इस प्रकार के व्याख्यानों या सोच से तम का बोलबाला हो जाता है और हमें व्यर्थ के भय सताने लगते हैं। अपने गलत क्रियमाण के फल को भी हम अनिष्ट शक्तियों का प्रभाव मानने लगते हैं। हम क्रियमाण गलत करते हैं और समझते ऐसा हैं कि अनिष्ट शक्तियों के कारण ही यह सब गलत हुआ। या स्थूल के कुछ दोषों के पीछे की नियम-बद्धता को भी भली-भांति देखते नहीं हैं और सूक्ष्म व अनिष्ट शक्तियों को ही इनके पीछे दोषी करार देते हैं। अर्थात् जब बड़े या परिपक्व व्यक्ति के ऊपर इस प्रकार का विपरीत प्रभाव गलत व्याख्यानों के द्वारा पड़ सकता है तो बच्चों की कोमल भावनाओं व उनके मस्तिष्क पर पड़ रहे कुप्रभाव के विषय में भी कुछ विचार कीजिए। व्यर्थ के भय के संस्कारों का कितना भयावह असर हो सकता है, यह कल्पना से परे है। अतः यह कदापि आवश्यक नहीं कि भय उत्पन्न कर समष्टि को साधना के लिए प्रेरित किया जाए; बल्कि आत्मबल बढ़ाने, भक्ति बढ़ाने, भाव बढ़ाने आदि पर ही जोर दिया जाना चाहिए। यही वास्तविक अध्यात्मप्रसार होगा।

ईश्वर हमसे क्या चाहता है? कुछ और विचार ....
ईश्वर ने १००% क्रियमाण के साथ हमें यानी अपने छोटे से अंश यानी आत्मा को मानव रूप में इस पृथ्वी पर प्रथम जन्म के रूप में जब भेजा तो आत्मा को यह शरीर अर्थात् स्थूल देह, मन एवं बुद्धि आदि प्रदान किए, ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां प्रदान कीं। अर्थात् १००% क्रियमाण, प्रारब्ध शून्य, इन्द्रियों सहित मानव देह। इसका सीधा सा अर्थ यही हुआ कि ईश्वर ने प्रथम जन्म के समय यह सब निर्धारित कर हमें कर्मों के लिए इस मृत्युलोक में स्वतंत्र छोड़ दिया। हमारा प्रारब्ध हमारे हवाले ही था। यानी जन्म देने के पश्चात् क्रियमाण में किसी प्रकार का ईश्वरीय हस्तक्षेप नहीं। निष्कर्ष यही निकलता है कि ईश्वर हमसे केवल कर्मों की अपेक्षा रखता है और वह भी केवल अच्छे या सात्त्विक, ईश्वरीय गुणों बल्कि सिद्धांतों के अनुरूप। परन्तु ऐसा नहीं कि यह सब करने के लिए ईश्वर का हम पर कोई दबाव है। लेकिन यह भी तय है कि वह चाहता यही है कि हमारे कार्य सात्त्विक ही हों, तभी तो कार्यों के अनुसार ही संचित का प्रावधान है - धनात्मक या ऋणात्मक; और वही अगले जन्म का प्रारब्ध हो जाता है। अगले जन्म में हम संचित के अनुरूप ही स्वतः कुछ भोगते हैं और शेष क्रियमाण द्वारा। पहले के कुछ लेखों में भी हम अध्ययन कर ही चुके हैं कि प्रकृति के अन्य ज्ञात नियमों की भांति ही ये नियम हैं, इसमें अचरज या संदेह वाली कोई बात नहीं। अर्थात् ईश्वर अपनी प्रशंसा सुनने का आदी राजा नहीं है जो भजन कीर्तन या अन्य कर्मकाण्डों द्वारा आत्ममुग्ध होता रहे। वरन वह तो कुछ अटल नियमों व सिद्धांतों से बद्ध, ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च न्यायिक शक्ति है और उसके संविधान से सब परिचित हैं, चाहे वे स्वीकार करें अथवा नहीं।

हम बहुत से कर्मवादी लोगों को देखते हैं जिनमें अधिकतर विज्ञान को मानते हैं, ईश्वर को भी वे मानते हैं, पर सिद्धांत रूप में, अधिकांशतः निराकार रूप में; और कोई विशेष कर्मकाण्ड या पूजा आदि भी नहीं करते। वे कर्म पर और आत्मबल पर विश्वास रखते हैं और यदि उनका प्रारब्ध भी अच्छा हुआ तो वे वर्तमान जीवन में सफल रहते हैं, साथ ही प्रसन्न भी रहते हैं; शोधकार्यों व नयी खोजों में अपेक्षित सफलता पाते हैं। ऐसे लोगों पर ईश्वर की कृपादृष्टि सदैव रहती है क्योंकि उनके समस्त कार्य सत् के लिए होते हैं, समष्टि के हितार्थ होते हैं; वे गलत कार्य नहीं करते, ईमानदारी जैसे गुण उनमें रहते ही हैं। यही उनकी पूजा-उपासना या साधना है। यही सब तो ईश्वर को अपेक्षित है। परन्तु ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है। बहुतायत के लिए अच्छे कर्म करना कठिन इसलिए होता है क्योंकि उनमें सत्त्वगुणों की कमी होती है। तो सत्त्वगुणों को बढ़ाने के लिए ईश्वरभक्ति व साधना यानी अध्यात्म का मार्ग ही उचित है व सरल है। वास्तव में यह भी एक प्रकार का 'क्रियमाण' ही है। अतः ईश्वर को अपेक्षित है अच्छा क्रियमाण, अच्छे क्रियमाण हेतु आवश्यक हैं सत्त्व गुण, सत्त्वगुणों का आधार है आत्मिक बल और आत्मिक बल बढ़ाने के लिए आवश्यक है आध्यात्मिक साधना। कालानुसार, स्तरानुसार, वर्णानुसार व आश्रमानुसार साधना भिन्न-भिन्न हो सकती है। पुनः यह भी एक प्रकार का 'क्रियमाण' रूपी 'साधन' ही है जो इसलिए अपनाया जाता है जिससे कि ईश्वर को अपेक्षित अन्य सर्व क्रियमाण हमसे संभव हो सकें।

साधना अर्थात् साधन ही। सुप्त पड़े भावों की जाग्रति हेतु अथवा ईश्वरीय गुणों से पुनः साक्षात्कार हेतु ही हम साधना करते हैं। साधना रूपी साधन से हम ईश्वरीय सिद्धांतानुसार चलने के लिए प्रेरित होते हैं। साधना करने का प्रयोजन ईश्वर को प्रसन्न करना नहीं है और न ही ईश्वर केवल साधना से, नामजप से, कर्मकाण्डों आदि से प्रसन्न होने वाला है। वह तो साधना रूपी साधन से उपजे व अपनाए गए ईश्वरीय गुणों से ही प्रसन्न होगा। अर्थात् अंततः वह हमारे सत्त्वगुण आधारित सुन्दर क्रियमाण अर्थात् 'साध्य' से ही प्रसन्न होगा, कोरी साधन-साधनाओं से नहीं।

विचार-मंथन की आवश्यकता
जब हम अध्यात्म-प्रसार के क्षेत्र में कार्य कर रहे होते हैं अर्थात् समष्टि में प्रसार, तब हमें तरह-तरह की विचारधारा के लोग मिलते हैं। साधना के लिए सबके अलग-अलग दृष्टिकोण होते हैं। कोई अन्धविश्वास में जकड़ा मिलता है तो कोई अन्धविश्वास का घनघोर विरोधी, कोई भीतर से अंधविश्वासों या कर्मकाण्डों का विरोधी तो होता है परन्तु फिर भी ऐसा कर रहा होता है क्योंकि उसके गुरु ने उसे बुद्धिलय या मनोलय के विषय में इतनी घुट्टी पिला रखी होती है कि वह निज विवेक से सही-गलत पहचानना ही नहीं चाहता। इस प्रकार श्रद्धावश बुद्धिलय, मनोलय कर व्यक्ति जो साधना कर रहा होता है वह कदाचित उसके लिए तो बिलकुल ठीक हो सकती है पर अन्य कोई उसे गलत भी समझ सकता है, और कभी-कभी वह साधना नियम-सिद्धांतों की दृष्टि से गलत भी हो सकती है या उस साधना से अन्धविश्वास को बढ़ावा मिल रहा होता है। कोई भी क्रिया यदि पूर्वस्थापित शाश्वत नियम या सिद्धांत के विपरीत की जाती है तो वह गलत तो है ही, साथ ही वह क्रिया अन्धविश्वास को भी बढ़ाती है। अन्धविश्वास से ही अनावश्यक भय उपजता है तथा हम अज्ञान रूपी तम के जाल में फंस जाते हैं। अभी-अभी एक बहुत महत्त्वपूर्ण विचार मन में आया है कि कहते हैं कि विज्ञान अन्धविश्वास को रोकने में सहायक है क्योंकि विज्ञानवादी नियमबद्धता व कार्यकारणभाव बता कर बहुत सारे अंधविश्वासों की कलई खोल सकते हैं। और ऐसा भी बहुत कहा जाता है कि वर्तमानकाल में अध्यात्म की दुनिया में अंधविश्वासों की अधिकता है। यह बात किसी हद तक ठीक है। क्योंकि, चूँकि अध्यात्म कृत्य एवं अनुभूति का शास्त्र है; अनुभूति तो शब्दातीत होती है, विज्ञान के नियमों से परे होती है, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता; इसी बात का लाभ उठा कर कुछ साधक ऊटपटांग, गलत, झूठ व भ्रमित करने वाली अनुभूतियों का बखान करते हैं या यह सब उन साधकों के मन के निरर्थक विचार या obsession भी हो सकते हैं! कुल मिलाकर कारण चाहे कुछ भी हो, ऐसी मिथ्या व निरर्थक अनुभूतियों के बखान से अन्धविश्वास या भय ही पनपता है, बहुतों के मन में शुद्ध अध्यात्म के प्रति विश्वसनीयता भी कम हो जाती है।

जिस प्रकार विज्ञान नियमों या कारणभाव का हवाला देकर अंधविश्वासों को रोकने का प्रयास करता है, आध्यात्मिक गुरु भी क्या यही कार्य नहीं कर सकते?? वे कर सकते हैं। वे समाज में फ़ैल रहे या फैलाए जा रहे भ्रामक प्रचार-प्रसार को रोक सकते हैं। वे चाहें तो इसे रोकें व अध्यात्म को सरल, सरस, सुगम व अन्धविश्वासरहित करें। केवल अंधविश्वासों को तिलांजलि दे कर ही अध्यात्म की गूढ़ता कम की जा सकती है। वर्तमान मार्गदर्शकों द्वारा विचार-मंथन करने से ही यह संभव होगा। आलोचनाएं, समालोचनाएं आदि भी धैर्यपूर्वक सुन कर उनपर ठंडे दिमाग से विचार करना होगा। मथने से ही मक्खन प्राप्त होता है और समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से हम सब परिचित हैं ही। विचारों को मथें, अंधकार व भय के आवरण को हटा आध्यात्मिक साधना की गूढ़ता को कम कर इसे सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य बनाएं। गूढ़ता जैसा इसमें कुछ है ही नहीं। अंधविश्वासों की अधिकता के कारण ही अध्यात्म गूढ़ प्रतीत होता है, भ्रामक प्रतीत होता है। कुछ आध्यात्मिक गुरुओं को लगता है कि जब तक अध्यात्म गूढ़ रहेगा, तभी तक उनकी पूछ रहेगी या यश-सम्मान आदि मिलता रहेगा। सर्वप्रथम वे यह सोचें कि सर्वसाधारण का ध्येय क्या है? वह है प्रसन्नता या आनंद। इसकी प्राप्ति के लिए सर्वसाधारण को अंततः तत्त्वनिष्ठ या सिद्धांतनिष्ठ होना पड़ेगा, व्यक्तिनिष्ठ या संस्थानिष्ठ नहीं। गुरुओं द्वारा सर्वसाधारण को इस स्थान पर ले जाने का यत्न करते हुए उन्हें सतत यह भान कराना होगा कि ईश्वरीय तत्त्व के समक्ष तम, भय या किसी अनिष्ट शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं या ये सब प्रभावहीन हैं। जब ऐसा भाव हम सतत रखेंगे तो अध्यात्म की सभी गूढ़ताएं तो कम होंगी ही, साथ ही अंधविश्वासों से भी मुक्ति मिलेगी। आइए गूढ़ता, निरर्थक विचार (obsession) व अन्धविश्वास समाप्त करें; ईश्वर की शक्ति पर संदेह न करें, अपनी भक्ति पर संदेह न करें व ईश्वरीय गुणों के अनुरूप क्रियमाण करने में जुट जाएं।

वस्तुतः ईश्वर की हमसे यही अपेक्षा है कि आत्मा को दी गयी देह का सुन्दर से सुन्दर उपयोग हो मात्र भूलोक के लिए! भुवलोक तो मृत्यु के पश्चात् की बात है। कहा जाता है कि जब कोई कार्य कर रहे हों तो ध्यान मात्र उसी ओर रहना चाहिए, अन्यत्र नहीं जाना चाहिए। अन्यत्र ध्यान भटकने से हमारा वर्तमान कर्म व उसकी गुणवत्ता प्रभावित होते हैं। अतः सर्वप्रथम हमें वर्तमान समय के लिए अर्थात् भूलोक प्रवास के लिए दी गयी आज्ञा व अपेक्षा को ही शिरोधार्य करना है। यही हमारी एकाग्रता व सही दिशा में कार्य करने का सूचक होगा, अन्य बंधन या भय हमें त्यागने होंगे। जब हम व्यर्थ की बातों को त्यागेंगे तभी हम परिपूर्णता की ओर जाएंगे। सर्वसाधारण आज वही अपनाने की चेष्टा करता है जिसमें उसे परिपूर्णता का एहसास होता है। अध्यात्म में भी वह परिपूर्णता चाहता है। कारणभाव जानने पर हमारी आस्था प्रगाढ़ होती है। अकाट्य नियमों, सिद्धांतों व कार्यकारणभाव के आधार पर ही बुद्धि अनेक विकल्पों में से सही का चुनाव करती है। अतः अध्यात्म-प्रसारक के लिए भी यह अति आवश्यक हो जाता है कि उसके द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत, कथन या तर्क में परिपूर्णता हो। उसके कृत्य, व्यवहार आदि शुद्ध व अनुकरणीय हों। हर कोई इतना ज्ञानी नहीं कि वह सिर्फ आपके गुण देखे और अवगुणों को अनदेखा कर दे, ऐसा सामर्थ्य किसी-किसी में ही होता है। सर्वसाधारण को गुरु अथवा मार्गदर्शक में परिपूर्णता चाहिए, वैचारिक परिपूर्णता चाहिए। परिपूर्णता होगी अकाट्यता के साथ, सत्यता के साथ, यथार्थवादिता के साथ, तब ही अधिक से अधिक जनसमुदाय अध्यात्म की ओर उन्मुख होगा। मामूली सा अवगुण भी अन्य बहुत से गुणों का महत्त्व कम या समाप्त कर सकता है। इसी प्रकार एक गलत या मिथ्या वैचारिक अवधारणा शेष सही अवधारणाओं का महत्त्व कम कर देती है। तो फिर प्रसारक परिपूर्णता को क्यों नहीं अपनाते? पारदर्शिता के साथ वैचारिक परिपूर्णता लाने का प्रयास होना चाहिए, समस्त अवधारणाएं सुस्पष्ट व यथार्थवादी होनी चाहिएं।

ईश्वर की अन्य अपेक्षाएं
भूलोक का निर्माण ईश्वर ने अपने उन्हीं अंशों के लिए किया जिन्हें वह देह रूपी स्थूल आवरण देकर यहां भेजता है। ईश्वर ने भूलोक पर नाना प्रकार की वस्तुएं कच्चे पदार्थ के रूप में डाल रखीं हैं। उन कच्चे पदार्थों में अनेक प्रकार के रहस्य छुपे हुए हैं जिन पर शोध कार्य कर हमें कुछ निर्माण करना है। भोग संबंधी वस्तुएं भी उनसे निर्मित हो सकती हैं। वस्तुतः इसी शोध कार्य को आधुनिक युग में हमने विज्ञान का नाम दे दिया है। ज्ञानी लोग इस भूलोक को मायाजाल इसीलिए कहते हैं क्योंकि भूलोक की वस्तुएं आत्मा के लिए मात्र तब तक महत्त्व रखती हैं जब तक आत्मा का भूलोक पर प्रवास है। इसके पश्चात् इनका कोई महत्त्व नहीं रह जाता। अतः यदि हमें बहुत दूर का विचार करना है तो इस माया का कोई भी महत्त्व नहीं। तब तो हमें प्रयास कर यह देह त्याग देनी चाहिए! पर हम ऐसा बिलकुल भी नहीं करते क्योंकि ईश्वर ने हमें इस माया को जानने के लिए ही तो इस भूलोक पर भेजा है। अर्थात् माया का भोग हमें किसी न किसी रूप में करना ही है। पर उसमें आसक्ति नहीं रखनी है, यह भान सतत रहना चाहिए। आसक्ति ही तम की जड़ है। आसक्तिरहित भोग ईश्वर को मान्य है। अच्छे क्रियमाण द्वारा प्राप्त किया गया भोग ईश्वर को मान्य है। पर गलत तरीकों से यदि कोई भोग-विलासिता की चीजें एकत्रित करता है तो यह सब ईश्वरीय गुणों के, सिद्धांतों के विपरीत हुआ; यह गलत होगा। ईश्वर द्वारा प्रदत्त कच्चे पदार्थों से खोज करके, शोध करके नए-नए उपकरण या भोग की वस्तुएं या मानव हित की वस्तुओं का निर्माण करना आत्मा का अभ्यासवर्ग या प्रशिक्षण ही हुआ। प्रकृति के रहस्यों को खोजना, प्रत्येक क्रिया के कारणभाव को पता करना, नियमबद्ध करना, यही सब कार्य तो वैज्ञानिक करते हैं। यह भी साधना का ही एक रूप है क्योंकि ईश्वर यही तो चाहता है कि उसके यानी ईश्वर के सभी छोटे-छोटे अंश अर्थात् आत्माएं उसी ईश्वर की भांति समर्थता व सम्पूर्णता की दिशा में निरन्तर अग्रसर हों। यह आत्मा के अभ्यासवर्ग का ही एक भाग है। यदि मनुष्य वर्तमान हेतु या आगे भविष्य में आने वाले अन्य मनुष्यों हेतु यानी आत्माओं हेतु कोई शोध कार्य कर रहा है, रहस्यों पर से पर्दा उठा रहा है, भोग की भी वस्तुएं जुटा रहा है तो इस कार्य में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इसमें ईश्वर को भी कोई आपत्ति नहीं है। बल्कि यह तो उसकी हमारे से अपेक्षा है।

अतः ईश्वरीय गुणों को आत्मसात करते हुए यानी बेहतर क्रियमाण के द्वारा यदि हम आसक्तिरहित भोग-विलास भी करते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं। दूसरे को किंचित मात्र भी कष्ट न हो, यदि ऐसा हम सदैव ध्यान में रखते हैं तो माया का उपभोग गलत नहीं है; क्योंकि हमें तो ईश्वर प्रदत्त इस भूलोक के समस्त अनुभव लेने ही चाहिएं। पर यह ध्यान हमेशा रखना है कि हमें किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं रखनी है। संभवतः यही बात कलियुग में सब भूल गए हैं, तभी तो सर्वत्र इतना लोभ, कपट और व्यभिचार फैला हुआ है। अर्थात् आसक्ति से ही आज तम की इतनी अधिकता हो गयी है। बल्कि सत्य यह है कि आज सत्त्वगुण कम हो गए हैं। सत्त्वगुण कम हो गए हैं तो सुख, चैन, आनंद सब छिन गया है हमसे। अतः हमें अपना ध्यान सिर्फ इस लक्ष्य पर ही केंद्रित रखना है कि हम अधिक से अधिक सात्त्विक परिणामोन्मुख क्रियमाण कैसे करें! भूलोक का अध्ययन, ईश्वर प्रदत्त कच्चे पदार्थों से नयी-नयी वस्तुओं का निर्माण का अभ्यास, प्रकृति यानी सृष्टि के नियमों व सिद्धांतों का अध्ययन, वर्तमान भूलोक प्रवासियों एवं भविष्य में आने वाली आत्माओं की सुविधा हेतु बेहतर से बेहतर संसाधन जुटाना, समस्त रहस्यों को जानने का प्रयास, प्रत्येक क्रिया के पीछे का कारणभाव खोजना, प्रत्येक क्रिया को नियमबद्ध करना आदि ये कुछ ऐसे कार्य हैं जो हमें समर्थता व सम्पूर्णता की ओर ले जाते हैं। क्या इस प्रकार विकसित होना बुरी बात है? तो फिर बहुत से ज्ञानी लोग ऐसा करने वालों से या विज्ञान से क्यों द्वेष रखते हैं या उनसे प्रतिद्वंदिता क्यों दर्शाते हैं? बार-बार तुलना क्यों करते हैं? क्या किसी के बार-बार तुलना करने से कोई बात सिद्ध हो सकती है? उदाहरण -- हम गुरु को नहीं अपनाते, गुरु हमें अपनाते हैं। अमुक मेरा शिष्य है, जब यह बात कोई गुरु कहेगा तभी यह माना जाएगा कि वास्तव में अमुक उनका शिष्य है। अर्थात् किसी अन्य को यानी सम्बंधित व्यक्ति को भी तो कुछ कहना चाहिए। स्वयं कुछ भी हम कहते रहे उसका कोई भी महत्त्व नहीं!

भुवलोक संबंधी बातें क्या आवश्यक हैं?
पूर्व अध्ययन में हमने देखा कि ईश्वर ने हमें यानी आत्मा को इन्द्रिय सहित स्थूल देह देकर प्रशिक्षण एवं साधना (क्रियमाण) हेतु कुछ वर्षों के लिए इस भूलोक पर भेजा है। अतः हमने उन्हीं बातों का सर्वप्रथम ध्यान रखना है, जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है। हमें विषयवस्तु दी गयी है यह भूलोक। अतः सर्वप्रथम आवश्यक है कि हम केवल हमारे भूलोक प्रवास के कार्यों पर ही पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें, अन्यत्र नहीं। क्योंकि मुख्य विषय से भटकने पर एकाग्रता में कमी आएगी, फलस्वरूप हम अपेक्षित कार्य नहीं कर पाएंगे। फिर हम भुवलोक का इतना क्यों विचार करते हैं? क्या हमें ईश्वर की शक्ति पर एवं उसकी कार्यप्रणाली पर कोई संदेह है? या हमें भुवलोक में उपस्थित अच्छी आत्माओं की क्षमता पर कोई संदेह है? जैसे हम भूलोक की आत्माएं भूलोक के कार्यों पर ही ध्यान केंद्रित कर रही हैं, उसी प्रकार भुवलोक के लिए भी ईश्वर का कुछ न कुछ आदेश या अपेक्षा भुवलोक की आत्माओं से भी होगी ही। हम सर्वशक्तिमान ईश्वर की कार्य-वितरण प्रणाली में क्यों हस्तक्षेप करें? जब हम यह भूलोक छोड़कर भुवलोक में यदि जाएंगे तो वहां का कार्य देखेंगे। हम अभी से भुवलोक का सोचकर अपनी एकाग्रता क्यों भंग कर रहे हैं और क्यों व्यर्थ के जाल एवं प्रपंचों में फंस रहे हैं? हम केवल एक स्थान पर अपना ध्यान केंद्रित करें यही उत्तम होगा अर्थात् अपने इस भूलोक प्रवास की उपयोगिता सिद्ध करें। अतः पहले विचार की गयीं सभी बातों का पुनः अवलोकन अंतिम बार करते हैं -- हम केवल यथार्थ में ही रहें, ईश्वर आज्ञा या अपेक्षा का पुनः स्मरण करें, अपने कुछ समय के ही भूलोक प्रवास के प्रयोजन को भली-भांति समझें, केवल मुख्य विषयवस्तु पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें। भूलोक प्रवास यानी आत्मा का प्रायोगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम; आत्मा की प्रगति, विकास अथवा परिपूर्णता हेतु। ईश्वर की भक्ति, उस पर पूर्ण आस्था एवं सुन्दर क्रियमाण, यही हमारा मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। प्रसारकों के लिए भी यह आवश्यक बात पुनः दोहरा सकते हैं कि किसी भी चीज की कमी या अति घातक हो सकती है, विशेषकर अध्यात्मप्रसार के क्षेत्र में। ठीक इसी सिद्धांत को पकड़ कर हमें अध्यात्मप्रसार हेतु आवश्यक तत्वों की मात्रा का संतुलन ठीक करना ही होगा। हमें समष्टि में संतुलित रूप से अध्यात्मप्रसार कर सत्त्वगुण बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी। अध्यात्मप्रसार जल्दी से हो जाए इसके लिए यह कतई आवश्यक नहीं कि हम व्यर्थ के प्रपंचों या अनावश्यक भय को अध्यात्म में शामिल करें या बारम्बार विज्ञान को निकृष्ट दर्जे का साबित करने की चेष्टा करें। यह अति होगी और प्रसार के लिए घातक भी। केवल सरल, सच्ची, भावपूर्ण व भक्तिपूर्ण साधना से ही हमें अपेक्षित सुन्दर क्रियमाण हेतु आवश्यक आत्मबल प्राप्त हो सकता है। अतः पहले के विवरण को पुनः दो-तीन बार पढ़कर यथार्थ को समझने का प्रयास करें, फिर तदनुसार संतुलित कर्म करें। पहले लोक (भूलोक) सुधारें, फिर परलोक! इति।

Sunday, February 7, 2010

(२६) ईश्वर बड़ा या ईश्वरीय तत्त्व ?

तत्त्व यानी सिद्धांत (real or divine substance, principle)। हम ईश्वर का नामजप, पूजा-उपासना, कर्मकाण्ड आदि तो किया करते हैं, परन्तु यह जानने का प्रयास नहीं करते कि आखिर यह सब हम क्यों करते हैं? अधिकांश जनों का यह विश्वास होता है कि यह सब करने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं और उनकी आशीषें सदैव हमारे साथ रहती हैं। कोई भी मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिद या चर्च आदि मार्ग में पड़ते हैं तो लोग सिर झुका कर नमन करते हुए आगे बढ़ते हैं। यह सब हम ईश्वर या अपने इष्ट को सम्मान देने एवं उनकी कृपादृष्टि बने रहने के लिए करते हैं। सप्ताह के कुछ विशेष दिनों में लोग आराधनालय जाते हैं और विशेष पूजा-अर्चना करते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं, व्रत आदि रखते हैं। धर्माचार्यों का भी आग्रह रहता ही है कि जनसाधारण यह सब नित्यप्रति करे। पर विचार कीजिए कि क्या ईश्वर इन सब कृत्यों से ही क्या प्रसन्न हो जाते हैं और हम पर अपनी आशीषें बरसाते हैं? उदाहरण के लिए - अधिकांश ईसाई समुदायों में इस बात पर विश्वास करने को अत्यधिक बल दिया जाता है कि यीशु मसीह परमेश्वर के इकलौते पुत्र थे, जो सम्पूर्ण मानव जाति के पापों के प्रायश्चित्त के तौर पर बलिदान हो गए। कहा जाता है, जो इस बात पर विश्वास करेगा, केवल वही स्वर्ग अथवा पुनरुत्थान का अधिकारी होगा। परमेश्वर की आशीषें उस पर बरसेंगी। हिदुओं में भी इससे मिलते-जुलते बहुत से मिथक हैं। कई पौराणिक कथाओं व व्रत कथाओं में कुछ विशिष्ट कर्मकाण्डों और विधियों को करने पर बल दिया गया है और न करने पर ईश्वर द्वारा क्रोधित हो जाने एवं दण्ड देने का भय भी दिखाया गया है। अर्थात् लगभग प्रत्येक संप्रदाय के धर्मग्रंथों एवं धर्मगुरुओं द्वारा ईश्वर को एक ऐसे शक्तिशाली राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो बहुत बलशाली है, हम सब उसकी प्रजा हैं और उसकी प्रजा यदि उसके बल और नाम को मानेगी तथा उसकी जय-जयकार करती रहेगी, तो वह ईश्वरीय राजा प्रजा से प्रसन्न होकर उसपर अपनी कृपावर्षा करता रहेगा; विपरीत करने पर वह रुष्ट होकर दण्ड देगा।

अब हम अपने विवेक से एक अच्छे मानवीय राजा के विषय में सोचें, इतिहास को भी उलटें-पलटें, तो पाएंगे कि मनुष्य जाति में भी ऐसे राजा लोकप्रिय हुए जिन्होंने न्याय का अवलंबन लिया, व्यर्थ के बल प्रदर्शन का नहीं। हमेशा से ऐसे राजा को ही प्रजा ने चाहा है, जो न्यायप्रिय हो, जिसके सिद्धांत अच्छे हों, उन सिद्धांतों के अनुरूप ही राज्य के नियम-कानून हों। साथ ही एक अच्छे और न्यायप्रिय मानवीय राजा की अपनी प्रजा से सदैव यह अपेक्षा रहती है कि उसकी प्रजा उसके बनाए सिद्धांतवादी नियमों का भली-भांति पालन करे। वह चापलूसी या मात्र अपनी जय-जयकार से प्रसन्न नहीं होता वरन प्रजा जनों की नेकनीयती व सिद्धांतानुसार कर्तव्यपालन से प्रसन्न होता है। अर्थात् वह अपनी पूजा से नहीं बल्कि अपने सिद्धांतों की पूजा से संतुष्ट होता है। और जो कोई भी उसके सिद्धांतों की अवहेलना करता है पर उसके समक्ष सदैव उसकी जय-जयकार करता है, उसे वह एक नंबर का चापलूस समझता है और उससे अप्रसन्न ही रहता है, समय आने पर उसे दण्ड भी देता है।

अब तनिक यह विचार कीजिए कि एक अच्छे मानवीय राजा के ये लक्षण हैं, ये गुण हैं, तो ईश्वर की तो बात ही निराली होगी, क्योंकि सभी मान्यताओं के अनुसार निर्विवादित रूप से वह ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च न्यायप्रिय शक्ति है। वह है, इस बात को लगभग हर कोई मानता है। उसके सिद्धांतों व गुणों के विषय में भी लगभग सभी संप्रदायों में एक सी अवधारणा है। फिर हम यह कैसे मान सकते हैं कि ईश्वर मात्र अपनी जय-जयकार सुनने का आदी राजा है! एक तरफ हम विश्वास करते हैं कि वह हमारे दिल या मन में चल रही बात भी समझ सकता है, हमारे सब छुपे कार्यों पर उसकी दृष्टि है, कर्म के अनुसार हमें दण्ड या परितोष मिलता है; और दूसरी तरफ हम कोई प्रसंग आने पर मात्र कुछ समय उसको याद कर लेते हैं, उसकी जय-जयकार कर लेते हैं, परन्तु शेष समय उसके सिद्धांतों पर चलने से आंख चुराते हैं! अधिकांशतः अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ही उससे मदद मांगते हैं। और जहां व्यवहार में ईश्वरीय सिद्धांतों के अनुसरण की बात आती है, वहां हम बहाने गढ़ लेते हैं। प्रत्येक परिपक्व व धर्मभीरू व्यक्ति ईश्वर के सिद्धांतों से भली-भांति परिचित है, कर्म-आधारित परितोष व दण्ड व्यवस्था से भी परिचित है, पर जब उन्हें अपनाने व आचरण से प्रकट का समय आता है, तब उन सिद्धांतों से अनभिज्ञ बन जाता है या भीतर ही भीतर उन पर अविश्वास करता है; फिर भी नियमपूर्वक जप-तप व कर्मकाण्ड आदि करता है! यह तो दोहरा आचरण हुआ। यह लगभग वही बात हुई कि हम कोरी चापलूसी पर उतर आए।

फिर भी कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें नामजप, पूजा-अर्चना, कर्मकाण्ड आदि से अच्छा लगता है, शांति मिलती है, तो ऐसे लोगों के लिए यह सब करना सही भी है। क्योंकि महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनको अच्छा लग रहा है, शांति मिल रही है अर्थात् उनमें ईश्वर व ईश्वरीय गुणों के प्रति श्रद्धा-भाव कुछ तो पहले से है और कुछ इन कृत्यों को करने से बढ़ रहा है। यह श्रद्धा व भाव ही व्यक्ति को ईश्वरीय सिद्धांतों व गुणों के समीप लाता है और व्यक्ति उन सिद्धांतों के अनुरूप आचरण करने लगता है। बच्चा विद्यालय में पढ़ने जाता है, अध्यापकों के प्रति आस्था और सम्मान की भावना होती है तो शीघ्र उनके बताए सिद्धांतों को पकड़ता है। पर यदि वह केवल अध्यापकों के पांव ही पकड़ता रहे और सोचे कि वे मुझसे प्रसन्न होकर उत्तीर्ण कर देंगे, तो यह गलत बात है। मेहनत तो करनी ही पड़ेगी, और मेहनत करने वाले बच्चे को ही अच्छे अंक मिलते हैं, केवल चरण पकड़ने वाले को नहीं। यह बात भी ठीक है कि यदि अध्यापकों के प्रति आदरभाव कम होगा तो उनके सिद्धांतों को भी पकड़ने में बच्चा पीछे रहेगा। पर श्रेष्ठ अध्यापकों को शिष्यों का सिद्धांतों का पालन करते देखना अच्छा लगता है, कोरी चापलूसी करना नहीं। फिर जो सिद्धांत पर चलता है, वह सम्मान देता ही है।

बच्चा जब छोटी कक्षा में होता है, तब अध्यापक के पढाने का ढंग कुछ और ही होता है। वह शिष्य को कड़े अनुशासन में रखता है, बार-बार रटाता है। बाद में अगली कक्षाओं में क्रमशः रटाने की अपेक्षा समझाने का क्रम अधिक होता जाता है। शिष्य भी कम में ही अधिक समझने की योग्यता अर्जित करने लगता है। पढ़ने और पढ़ाने दोनों की पद्धति सूक्ष्मतर होती जाती है। अंत में उच्चतम कक्षाओं में अध्यापक शिष्य से बिलकुल मित्रवत हो जाते हैं, समकक्ष सा मानने लगते हैं। शिष्य तब भी उनका सम्मान करता है। इस पूरी बात में उल्लेखनीय यह है कि बच्चे का ज्ञान पाने का सफर बहुत नीचे से आरंभ होता है और क्रमशः ऊपर की ओर जाता है। इस क्रम में कभी यह नहीं होता कि उत्तीर्ण होने के बाद भी बच्चा उसी कक्षा में पुनः-पुनः पढ़ता रहे। न यह बच्चा चाहता है और न ही अध्यापक। फिर हम शिष्य या भक्त और हमारे वर्तमान गुरुजन ऐसा क्यों कर रहे हैं? बहुत समय हमने स्थूल कृत्यों में व्यतीत कर लिया। वह घड़ी कब आयेगी जब हम प्रौढ़ होकर ज्ञान की अगली कक्षाओं में जाएंगे? कब हम ईश्वर रूपी सर्वोच्च गुरु से मित्रवत होंगे? निचली कक्षाओं में तो ब्रह्मज्ञानी स्थूल देहधारी ही हमारे गुरु होते हैं पर ज्ञान की ऊपरी कक्षाओं में तो गुरु के रूप में हमें साक्षात् ब्रह्म मिलते हैं! और वह सूक्ष्म ब्रह्म हमसे सिद्धांतों के खरे पालन की अपेक्षा करते हैं, रटी-रटाई बातों की नहीं। वह अपनी प्रशंसा सुनने के आदी राजा समान नहीं हैं। वह ऐसे न्यायप्रिय राजा हैं जो स्वयं अपने बनाए सिद्धांतों से बद्ध है। इति।

Thursday, February 4, 2010

(२५) धार्मिक कर्मकाण्ड - अपनाएं, छोड़ें या बदलें ?

समय के साथ-साथ हिंदू समाज में बहुत से कर्मकाण्डों का प्रवेश हो चुका है। गर्भ में आगमन से लेकर मृत्युपरांत तक नाना प्रकार के कर्मकाण्ड चलते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त तीज-त्यौहारों पर एवं प्रतिदिन किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों की संख्या भी बहुत अधिक है। इनमें से केवल कुछ धार्मिक कृत्य ही साधारण व्यक्ति स्वयं कर पाता है, शेष कृत्य पण्डित, पण्डे, पुरोहित या आचार्य आदि द्वारा संपन्न कराए जाते हैं। कर्मकाण्ड करते या करवाते समय बहुतों के मन में यह प्रश्न उठता होगा कि 'क्या ये कर्मकाण्ड वास्तव में औचित्यपूर्ण हैं?' यदि उनसे पूछा जाए या वे स्वयं से ही पूछें तो व्यक्ति-अनुसार कई प्रकार के उत्तर मिलेंगे। कुछ का कथन होगा कि इससे उन्हें अच्छा लगता है। कुछ का कथन होगा कि 'हम यह नहीं करेंगे तो भगवान् नाराज हो जाएंगे।' कुछ का कथन होगा कि 'भगवान् इन सब कृत्यों के करने से प्रसन्न हो जाएंगे।' परन्तु अधिकांश का कथन होगा कि 'हमारे यहाँ ऐसी ही परम्परा चली आ रही है, उसी का निर्वाह हम भी कर रहे हैं, समाज में रहना है तो सामाजिक परम्पराओं का निर्वाह करना ही होगा।' .... अर्थात् हम देखते हैं लोग किसी न किसी भावनावश, भयवश, लोभवश या जगनिन्दा से बचने हेतु धार्मिक कृत्य कर-करवा रहे हैं और इनके करने का कोई ठोस औचित्य बताने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। बहुत ही कम ऐसे लोग होते हैं जिनको इन कृत्यों से वास्तव में कोई आध्यात्मिक अनुभूति होती है, वैसे किसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव को अनुभूति समझ लेना बहुत आम बात है।

यद्यपि विभिन्न मनोवैज्ञानिक एवं मानसिक कारणों से आज समाज में धार्मिकता की सूजन बहुत बढ़ी हुई दिखती है पर समानान्तर रूप से यह भी कटु सत्य है कि कर्मकाण्डों के प्रति लोगों की आस्था कम हुई है या कम से कम अनिश्चय की स्थिति तो निरंतर बढ़ ही रही है। 'धार्मिकता की सूजन' कहा, इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक कृत्य तो अब बहुत हैं पर वे प्राण-विहीन हैं। यह जानने के पश्चात् मनन करना आवश्यक प्रतीत होता है कि जीवन के लगभग हर मोड़ पर आने वाले ये धार्मिक कृत्य क्या अत्यावश्यक हैं? इन धार्मिक कर्मकाण्डों को अपनाया जाए, छोड़ा जाए या बदला जाए?

सर्वप्रथम तो यह जानना बहुत आवश्यक हो जाता है कि कर्मकाण्डों की उत्पत्ति कैसे व क्यों हुई? जैसा कि हमने पहले के लेखों में भी इससे मिलते-जुलते अनेक विषयों पर चर्चा की ही है, उन्हीं को कुछ दोहराते व आगे बढ़ाते हुए चलते हैं।

मनुष्य एक आत्मिक प्राणी है। आत्मा के स्वरूप व गुणों पर हम पहले भी बहुत चर्चा कर चुके हैं। हम जानते हैं कि विश्व के सभी स्थानों पर मान्य सर्वोत्कृष्ट मानवीय गुण ही वस्तुतः आत्मा के मूल गुणों के बहुत समीप हैं। अतः प्रत्येक काल में तत्कालीन ज्ञानी महापुरुषों ने जनसाधारण को उन गुणों के समीप लाने हेतु उस समय के लोगों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार अनेक शिक्षाओं को कुछ वाह्य धार्मिक स्थूल कृत्यों से जोड़ा। फलस्वरूप समाज-अनुरूप नाना प्रकार के कर्मकाण्डों को जन्म दिया। वस्तुतः ये सब क्रिया-कलाप ईश्वरीय गुणों को जानने व आत्मसात् करने हेतु माध्यम या साधन ही थे, साध्य नहीं। आशय केवल यही था कि कुछ स्थूल कृत्यों में ही किसी प्रकार से लोगों का मन रम जाए, जिससे लोगों के आचरण में धार्मिकता (righteousness) का समावेश सुनिश्चित हो सके, समाज का संतुलन बना रहे। सरल स्वभाव होने के कारण पहले लोग इन धार्मिक कृत्यों के प्रति आस्थावान थे। इन्हीं से उनका अंतःकरण शुद्ध हो जाता था, भक्तिभाव जागृत हो जाता था और नीतिपूर्ण कार्य करते थे अर्थात् आध्यात्मिक स्तर ऊंचा हो जाने से नैतिक मूल्य भी स्वतः बलिष्ठ हो जाते थे। विभिन्न कर्मकाण्ड न केवल व्यक्ति के अंतःकरण को शुद्ध करने का कार्य करते थे अपितु उसके मन में सम्बंधित कार्य एवं व्यक्ति के प्रति सम्मान एवं कृतज्ञता का भाव भी उत्पन्न करते थे, उदाहरणार्थ - जन्म, विवाह और मृत्यु पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड। कुल मिलाकर सभी ज्ञानी महापुरुषों का मंतव्य यही था कि कर्मकाण्डों का आधार लेकर साधारण जनमानस शुद्ध व सात्त्विक रहे व समाजव्यवस्था उत्तम बनी रहे। सरलता व सहजता हेतु सगुण भक्ति का सुन्दर आलंबन लिए यह प्रक्रिया बहुत कारगर थी, लेकिन मात्र ज्ञान की प्रारंभिक अवस्थाओं हेतु ही। आगे की अवस्थाओं में आवश्यकतानुसार और अधिक परिपक्व ज्ञान भी मार्गदर्शक सर्वसाधारण को देते थे।

धीरे-धीरे समय ने करवट ली और माया से संबद्ध आत्मिक प्राणी ने माया के विषय में अपने ज्ञान को बढ़ाना आरंभ किया। व्यक्ति में मानसिक व बौद्धिक परिवर्तन होना आरंभ हुआ। सरलता और भोलापन पहले की अपेक्षा कम होता गया। व्यक्ति हर बात, हर घटना का प्रमाण खोजने लगा। अनेक स्थानों पर उसे आशातीत सफलता प्राप्त भी हुई, विशेषकर स्थूल खोजों में। विज्ञान की शिक्षा-पद्धति में वैश्विक स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन आए। आध्यात्मिक रूप से उन्नत होने के लिए भी व्यक्ति ने अपने सामर्थ्यानुसार प्रयास किए, कारणभाव जानने के प्रयास किए। अतः समानान्तर रूप से आध्यात्मिक शिक्षा के तौर-तरीकों में भी परिवर्तन आना अपेक्षित था। परन्तु दुर्भाग्य से भारत आध्यात्मिक शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन करने में असफल रहा। तथाकथित ज्ञानी मार्गदर्शकों का अपना ही स्वरूप बदलता गया। वे निरंतर नीचे की ओर जाने लगे, धन व यश के लोभ ने उन्हें आ घेरा। वे स्वयं तो पतित हुए ही, उन्होंने अन्यों को भी भ्रमित करना प्रारंभ कर दिया। तदुपरांत यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है।

हिंदू समाज में समय के साथ-साथ धर्म-शिक्षा के स्तर में कोई परिवर्तन या सुधार तो हुआ नहीं, बल्कि अनेकों दोष ही घुस आये। देखा जाए तो कर्मकाण्डों का आरंभ त्रेतायुग से हुआ था और द्वापर युग में ये अपने चरम पर थे। तब तक इनका स्वरूप शुद्ध था। उस कालखण्ड तक पण्डितों या पुरोहितों का आध्यात्मिक स्तर ऊंचा था, अंतःकरण स्वच्छ था, वर्णाश्रम व्यवस्था का समुचित पालन करते-करवाते थे, समाज व्यवस्था उत्तम रखने का भान था, जीवनशैली सात्त्विक व साधारण थी। पर कलियुग आते-आते वह बात न रही। संभवतः इस स्थिति का पूर्वाभास तत्कालीन ज्ञानियों को हो गया था, इसीलिए अनेक हिंदू धर्मग्रंथों में कलियुग में 'कर्मकाण्ड साधना' का परित्याग कर उससे सूक्ष्मतर 'नामजप साधना' करने के लिए कहा गया है। कारण खोजें तो अनेक हैं। उनमें से प्रमुख हैं - कालानुसार लोगों की मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता में परिवर्तन आना, जिज्ञासु वृत्ति का बढ़ना, भोलापन कम होना, मनुष्य की आयु का कम होते जाना, भाषा संबंधी परिवर्तन होना (संस्कृत भाषा का धीरे-धीरे लोप होना), ज्ञानियों में अहंभाव व विभिन्न प्रकार के लोभ पनपना, समाज का विभिन्न संप्रदायों में बंटना, जनसंख्या बढ़ना, कर्मकाण्डों में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियों एवं उनकी गुणवत्ता का ह्रास होना आदि।

इतिहास को भी यदि हम समग्र रूप से बिना किसी पूर्वाग्रह के देखें तो यह पाएंगे कि द्वापरयुग तक सब कुछ संतुलित था, पर उसके पश्चात् हिंदू समुदाय में विद्यमान कर्मकाण्डों का स्वरूप बिगड़ता चला गया। हजारों प्रकार की जातियां तदनुसार देवी-देवता, दान के नाम पर निकम्मे लोगों का पालन-पोषण, अनगिनत हानिकारक रूढियों, रस्म-रिवाजों, पूजा-उपासना पद्धतियों, अनुष्ठानों, कर्मकाण्डों आदि की भरमार ने हिंदुओं को दिग्भ्रमित तथा मानसिक व आध्यात्मिक रूप से पंगु सा कर दिया। आज भाव को तो छोड़ दीजिए कोरा विश्वास भी दुर्लभ है, फिर भी लोक-निंदा से बचने के लिए लोग अंधाधुंध ये उपर्लिखित कृत्य बस आँख मूँद कर किए जा रहे हैं। जैसे-तैसे सब निपटाते हुए कामकाज चल रहा है। पण्डित भी मस्त यजमान भी मस्त! क्या इस प्रकार की अंधी दौड़ का कोई औचित्य है? मैं तो कहता हूँ कि इस प्रकार अपनी आँखों में स्वयं धूल झोंकने से अच्छा है कि ये सब करना बंद किया जाए या वर्तमान ज्ञानी महापुरुष आगे आएं और जनसाधारण का निःस्वार्थ मार्गदर्शन करें, स्थिति में शीघ्र व ठोस परिवर्तन लाने का प्रयास करें।

कल पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा लिखित एक पुस्तक पढ़ रहा था। उसमें उन्होंने कहा था कि 'आध्यात्मिकता न वेश से सम्बन्ध रखती है, न पूजा-पाठ से, न जप-तप से। इन सब को करते हुए भी मनुष्य एक नंबर का पाखंडी, आडम्बरी और स्वार्थपरायण हो सकता है। यह नकली अध्यात्मवाद समाज के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहा है और लोगों में अंधविश्वास तथा झूठी श्रद्धा का एक बड़ा कारण बना हुआ है। गुरुनानकदेव जी की तरह सभी हिंदुओं को इस ठग-विद्या को जड़ से समाप्त करना होगा।' यह कार्य हमारे अगुवों यानी अभिजात वर्ग द्वारा पहले किए जाने पर समाज में शीघ्र क्रांति आयेगी। आगे एक और स्थान पर वह कहते हैं कि 'हमें खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि हिंदुओं के धार्मिक संस्कारों तथा अन्य जातीय कृत्यों को संस्कृत भाषा में ही किए जाने का आग्रह, एक वर्ग विशेष के स्वार्थ की दृष्टि से ही किया जाता है। वह वर्ग चाहता था कि धर्मकृत्य सदैव एक ऐसी भाषा में कराये जाएं, जिसका ज्ञान अन्यों को बहुत कम है, उससे सब उनके ऊपर ही निर्भर रहेंगे और उनको सहज में ही सुखपूर्वक निर्वाह करने का अवसर प्राप्त हो सकेगा।'

निश्चित रूप से समाज व्यवस्था को उत्तम रखने और लोगों की भाव-भावनाओं को उच्च स्तर पर बनाए रखने के लिए कर्मकाण्डों का एक बड़ा महत्त्व था। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उपरोक्त अभीष्ट साध्य करने हेतु यह (कर्मकाण्ड) एक साधन मात्र था। समयानुसार सामाजिक एवं बौद्धिक परिवर्तन होने के साथ तत्कालीन ज्ञानियों द्वारा इसका परिष्कार व संशोधन आदि किया जाना अत्यावश्यक था (जैसे - भाषा के सम्बन्ध में ही ऊपर के परिच्छेद में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कथन देखें)। श्रद्धा पहले संस्कृत भाषा में व्यक्त होती थी, कालांतर में वही श्रद्धा हिंदी या किसी क्षेत्रीय भाषा में व्यक्त करने-करवाने में ज्ञानी मार्गदर्शकों को क्या आपत्ति थी? कर्मकाण्ड करना है तो लोग संस्कृत सीख लें, इस प्रकार का आग्रह अब अप्रासंगिक होगा। समय के साथ-साथ अन्य बहुत सी बातों के समान भाषा में भी परिवर्तन आया। कर्मकाण्ड सबकी समझ में आएं और सब सरलता से इन्हें कर सकें, इसके लिए संस्कृत भाषा से हिंदी व अन्य भाषाओं में इनका अनुवाद करना लाभकारी रहता। मैं तो कहता हूँ कि अब भी देर नहीं हुई है, समाज के अगुवे ज्ञानी महापुरुष आगे आएं और निःस्वार्थ भाव से इस कार्य को आगे बढ़ाकर समाज को दिग्भ्रमित और पथभ्रष्ट होने से बचाएं। व्यक्ति जब स्वयं कोई कृत्य करेगा तब ही उसमें खरा श्रद्धाभाव उत्पन्न होगा। स्वयं कसरत करने से ही शरीर स्वस्थ बनेगा, कोई और कसरत करे और आपका शरीर पुष्ट हो, यह नहीं हो सकता। अर्थात् जब मनुष्य स्वयं अपनी भाषा में भली-भांति समझते हुए कर्मकाण्डों को संपन्न करेगा तभी उसे सच्ची अनुभूति होगी। किसी भी कर्मकाण्ड या पूजा-उपासना का सच्चा लक्ष्य है भाव जागृत कर आपको ईश्वर के समीप ले जाना। यह तभी संभव है जब आप अपनी भाषा में, अपने शब्दों में स्वयं यह सब करें। आरंभ में घर के सब सदस्य नहीं तो केवल एक-दो सदस्य ही यदि यह सब स्वयं करने में सक्षम होंगे तो अन्यों का उत्साह स्वयं ही बढ़ेगा। पर फिर से दोहराऊंगा कि समाज में प्रतिष्ठित ज्ञानियों व अभिजातवर्ग के पहल करने पर ही कर्मकाण्डों का स्वरूप सुधरेगा, अन्यथा मात्र लकीर के फकीर बने रहने से उत्तम होगा कि व्यर्थ का दिखावा त्याग कर इन प्राण-विहीन कर्मकाण्डों का परित्याग करें।

सत्य तो यह है कि द्वापरयुग से अब तक के लंबे समय में हमें आध्यात्मिक रूप से अत्यधिक उन्नत हो जाना चाहिए था, परन्तु हम भारतवासी निरन्तर नीचे की ओर ही गए। ऐसा इसीलिए हुआ क्योंकि हम ज्ञान की अगली अवस्थाओं में जाना ही भूल गए, हमारे पथप्रदर्शक भी सोते रहे। विद्यालय में भी तो एक कक्षा उत्तीर्ण कर अगली कक्षा में जाते हैं, पुनः उसी कक्षा में बैठने की गलती नहीं करते। प्रथम कक्षा में 'अ' से अनार जानने के लिए हमें अनार का चित्र या मूर्ति दिखाई जाती है, जबकि अगली कक्षाओं में ऐसा नहीं होता। कक्षा दर कक्षा क्रमशः हमारा ज्ञान विस्तृत एवं सूक्ष्मतर होता चला जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में हम व हमारे मार्गदर्शक जितने चौकन्ने और गतिशील रहे उतनी प्रगति दिखाई पड़ती है, पर अध्यात्म के क्षेत्र में स्थूल कर्मकाण्डों से सूक्ष्मतर जाने के बजाय हम वह स्थूल ज्ञान भी विस्मृत कर बैठे। अब यदि कुछ लोग कहते हैं कि वे अपेक्षाकृत सूक्ष्मतर आध्यात्मिक जगत में पहुंच चुके हैं, तो मैं बेहिचक उनसे कहूँगा कि वे अब कर्मकाण्डों का परित्याग कर दें, परन्तु उन कर्मकाण्डों के प्रति हीन भावना न रखें, क्योंकि आज भी कई व्यक्ति उसी या उससे नीचे की कक्षा में होंगे और कभी आप भी वहां रहे होंगे। अतः मेरा वैयक्तिक निष्कर्ष यह है कि भौतिक जीवन में आने वाले कुछ विशेष अवसरों पर लोग अपनी श्रद्धा व सामर्थ्यानुसार स्थूल अथवा सूक्ष्म कर्मकाण्ड करें, श्रद्धा-विहीन यंत्रवत कुछ करने से उत्तम है कि कुछ न करें। भाव जागृत होने की आशा या इच्छा हो तो यंत्रवत करते रहने में भी कोई बुराई नहीं है। स्मरण रहे कि भाव सर्वोपरि है और यह किसी विशिष्ट भाषा या विधि पर तनिक भी आश्रित नहीं है। इति।

Tuesday, February 2, 2010

(२४) ऑस्ट्रेलिया बनाम मुंबई

पिछले कई दिनों से दो मिलते-जुलते महत्त्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे समाचारपत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हो रहे हैं। पहला मुद्दा ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे हमलों का है तथा दूसरा मुद्दा मुंबई में हिंदी भाषियों के ऊपर हो रहे हमलों का है। दोनों स्थानों पर विवाद के मूलतः दो मुख्य कारण हैं -- (१) अधिसंख्य प्रवासियों, विशेषकर नए प्रवासियों द्वारा वहां की मूल संस्कृति का अनादर व अवहेलना करना, (२) मूल निवासियों में व्याप्त असुरक्षा की भावना। ऑस्ट्रेलिया में काफी पहले से रह रहे कुछ भारतीय स्वीकार करते हैं कि अब उनमें भारत से ऑस्ट्रेलिया आने वाले नए प्रवासियों के प्रति पहले जैसा लगाव नहीं रहा। ऑस्ट्रेलिया में पुराने बसे भारतीय अब प्रयास करते हैं कि हाल ही में भारत से ऑस्ट्रेलिया आने वालों से दूरी बना कर रखी जाए। इसके अनेक कारण हैं। वे आगे कहते हैं कि भारत से आने वाले युवकों का यहाँ झुण्ड बना कर चलना, रेल यात्रा के दौरान मोबाइल फोन पर ऊँचे स्वर में बात करना, यात्रा के दौरान बुजुर्गों, महिलाओं व बच्चों के लिए सीट न छोड़ना जैसी बातें ऑस्ट्रेलिया के मूल नागरिकों को नहीं भाती। यहाँ तक कि कई भारतीय अपने परिवार की स्त्रियों की सुरक्षा के विषय में चिंतित रहते हैं कि कोई भारतीय ही उन्हें परेशान न कर दे।

न्यूनाधिक लगभग यही हाल मुंबई का है। अंतर केवल इतना है कि इस मुद्दे पर महाराष्ट्र के कुछ राजनीतिक दल आक्रामक एवं सतही राजनीति पर उतर आये हैं। जबकि उधर ऑस्ट्रेलियाई सरकार बहुत संयम से विवेकपूर्ण कदम उठा रही है। मुंबई के राजनेताओं के विरोध का मुद्दा अब भाषा पर केंद्रित है, वे हिंदी भाषियों व राष्ट्रभाषा हिंदी के विरोध पर उतर आये हैं। जबकि उधर ऑस्ट्रेलिया में वहां की सरकार व लोगों के विरोध का मुद्दा नैतिकता से सम्बन्ध रखता है। मूलतः वे भारतीयों के दुर्व्यवहार एवं अनैतिक कार्यों से व्यथित हैं। भूतकाल में ऑस्ट्रेलियाई जो भी रहे हों, जैसे भी रहे हों, पर वर्तमान में वे नैतिकता और अनुशासन की दृष्टि से हम वर्तमान अधिसंख्य भारतीयों से बहुत आगे हैं। विकसित देशों के नागरिकों के इन गुणों की चर्चा विस्तार से पिछले अनेक लेखों में हो चुकी है। वस्तुतः इन गुणों से युक्त आचरण ही उनकी वर्तमान संस्कृति है, जिसे उन्होंने बड़े यत्न से बनाया होगा। नवप्रवेशी भारतीयों का उजड्ड व्यवहार ठहरे हुए शांत पानी में पत्थर फेंकने समान उद्विग्नता फ़ैलाने का कार्य करता है, फलतः वहां के निवासियों में रोष व असुरक्षा की भावना घर कर जाती है और प्रतिक्रियात्मक हिंसा जन्म लेती है।

वैसे कोई भी ये उपरोक्त पंक्तियाँ पढ़े तो यही कहेगा कि मुम्बईया राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया बिलकुल सही व नैसर्गिक है। पर कम से कम मैं इस बात से असहमत हूँ। यह सही बात है कि प्रत्येक प्रवासी नागरिक का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह जिस भी प्रान्त में जाए, वहां की संस्कृति को आत्मसात करे, उसका आदर करे, उसमें घुल-मिल जाए और सबसे बड़ी बात यह कि मूल निवासियों एवं संस्कृति के प्रति उसके हृदय में विनम्रता व कृतज्ञता का भाव हो। यही खरी नैतिकता की मांग है, यही धार्मिकता (righteousness) है। यदि इन सब बातों का प्रत्येक प्रवासी गंभीरता से ध्यान रखे तो मूल निवासी व प्रवासी के मध्य सौहार्द बना रह सकता है। यदि प्रवासी जन उपरोक्त कथित प्रवासी-धर्म का परित्याग करते हैं तो वे मूल निवासियों में परायेपन व असुरक्षा की भावना का बीजारोपण करेंगे, फलतः कभी न कभी कठोर प्रतिक्रिया का सामना अवश्य करेंगे। प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप तदनुरूप प्रतिक्रिया का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक नियम हम सब को ज्ञात है ही। .... परन्तु मुंबई में हिंदी भाषी प्रदेशों के प्रवासियों को अपने व्यवहार के कारण उपजी नैसर्गिक प्रतिक्रिया के साथ-साथ कुछ अप्राकृतिक प्रतिक्रियाओं का भी सामना करना पड़ रहा है। यह अति है और यह हिंदी भाषा व हिंदी भाषी विरोध के रूप में हमारे समक्ष है।

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत ऑस्ट्रेलिया भारत से अलग एक स्वतंत्र राष्ट्र है, वहां के कुछ अपने नियम व कानून हैं जो वहां सबको मान्य करने ही होते हैं। इसके पालन में कठोरता चलती है। इसके साथ ही वहां की कुछ निजी संस्कृति भी है, व्यवहार के कुछ तौर-तरीके हैं, जिनके पालन में कठोरता तो नहीं चलती पर उनका पालन करना सभ्यता व विनम्रता का सूचक माना जाता है। नवप्रवेशी भारतीयों ने सरकारी नियम व कानून तो कम तोड़े, पर वहां की संस्कृति पर अवश्य कुठाराघात किया होगा, जिसकी प्रतिक्रिया उन्होंने भुगती। परन्तु मुंबई के विषय में यदि बात करें तो वह अविभाज्य स्वतंत्र भारत राष्ट्र का मात्र एक नगर है और भारत के संविधान एवं कानूनों के अंतर्गत आता है। नियमों व कानूनों के अनुसार हिंदी इस राष्ट्र की मातृभाषा व राष्ट्रभाषा है और साथ ही भारत का प्रत्येक नागरिक शिक्षा, रोजगार या अन्य किसी भी कारण से भारत के किसी भी नगर में जाने के लिए स्वतंत्र है। इसलिए नागरिकों के इस अधिकार का हनन व राष्ट्रभाषा का विरोध करना राष्ट्रीय नियमों-कानूनों का सरासर उल्लंघन करना होगा। रही बात मराठी भाषा सीखने के आग्रह की, तो शिष्टाचार के अंतर्गत प्रत्येक प्रवासी को इसकी अवश्य चेष्टा करनी चाहिए, इससे उनके ज्ञान का व समाज का दायरा भी बढ़ेगा। पर यदि वह मराठी सीखने में असफल भी रहता है तो भी राष्ट्रभाषा हिंदी के ज्ञान के चलते उसके किसी भी कार्य में रूकावट आने की कोई संभावना नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रभाषा हिंदी का ज्ञान मुंबई एवं महाराष्ट्र सहित समग्र भारतीयों को होना ही चाहिए, यह उनके लिए गर्व की बात होगी साथ ही राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान का सूचक भी। इति।

Saturday, November 21, 2009

(२३) हमारा उत्तर भारत

१८ नवम्बर २००९ के दैनिक 'हिन्दुस्तान' में पढ़ा कि गत १५ नवम्बर २००९ को दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर एक पाकिस्तानी गुप्तचर सैयद आमिर अली गिरफ्तार हुआ। इस पाकिस्तानी गुप्तचर का लखनऊ में न केवल पासपोर्ट बन गया, बल्कि यहाँ के प्रशासनिक ढांचे ने उसके पूरे परिवार का राशन कार्ड भी बना दिया। उसे यहाँ हाई स्कूल की मार्कशीट, पैन कार्ड, बैंक खाते और ड्राइविंग लाइसेंस तक उपलब्ध करा दिए गए। यही नहीं, स्वयं को भारतीय नागरिक सिद्ध करने हेतु उसने तीन वर्ष तक बाकायदा आयकर रिटर्न भी फाइल किया। आमिर का पासपोर्ट बनवाने और उसे संरक्षण देने के आरोप में गिरफ्तार दो व्यक्तियों से पूछताछ के दौरान जो भेद खुले, उनसे यह पता चलता है कि उत्तर प्रदेश की पूरी व्यवस्था में किस प्रकार से घुन लग गया है। दलालों की मेहरबानी और भ्रष्ट सरकारी तंत्र के चलते उसने जो दस्तावेज बनवाए, उनमें से अधिकांश असली पाए गए। पूरी रिपोर्ट आप १८ और १९ नवम्बर, २००९ के समाचार पत्र में पढ़ सकते हैं।

यह मात्र एक बानगी है हमारे सोते हुए उत्तर भारत की! इसी प्रकार के कुछ अन्य भ्रष्टाचारों के विषय में मैं पहले के लेखों में भी चर्चा कर चुका हूँ। मैंने पिछले एक लेख 'व्यवहार व अध्यात्म' के अंतिम परिच्छेद में इंगित किया था कि उत्तर भारत में जो व्यक्ति क़ानून के दायरे में रह कर चलता है, वही सबसे बड़ा 'भुक्तभोगी' (sufferer) है। और जो गलत तरीके अपना सकता है, उसके लिए यहाँ कुछ भी पाना सरलता से संभव है! कितनी अजीब सी विडम्बना है यह! एक धार्मिक (righteous) व्यक्ति के लिए तो यह बहुत त्रासद है!

अपने विषय में ही कहूं, तो जन्म से लखनऊ में रहा रहा हूँ और मेरे पास मेरी फोटो सहित एक भी परिचय पत्र ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह से त्रुटिहीन हो! घिसा-पिटा कारण वही है कि यहाँ नियम से कार्य करने व नियमानुसार काम चाहने वाले व्यक्ति का कार्य अक्सर बिगड़ा ही करता है। हम तो आवेदन फॉर्म या प्रार्थना पत्र में सब कुछ ठीक-ठीक भर के देते हैं, परन्तु कंप्यूटर या रजिस्टर में फीड करने वाले कर्मचारी बहुधा गलती कर देते हैं। और एक बार कुछ गलत बन गया तो उसको सही करवाना तो नए बनवाने से भी अधिक कष्टदायी है। विशेषकर सरकारी क्षेत्र के विभागों में बिना सिफारिश या बिना 'सुविधा शुल्क' (रिश्वत का सभ्य पर्यायवाची) के कोई नया काम करवाना ही बहुत दुरूह है, और बाद में रिपेयरिंग अर्थात् संशोधन करवाना तो और भी टेढ़ी खीर! आए दिन हम इन्हीं समस्याओं से जूझते रहते हैं। कभी टेलीफोन का बिल तो कभी बिजली का बिल, कभी पानी का बिल तो कभी गृहकर, कभी आर.टी.ओ. सम्बन्धी तो कभी बैंक या बीमा सम्बन्धी!

कहने को तो हम बहुत उन्नत हो गए हैं। हर स्थान पर, हर सेवा में कंप्यूटरीकरण हो गया है, परन्तु कंप्यूटर को संचालित करने वाले हाथ हमारे ही हैं, और उन हाथों को संचालित व नियंत्रित करने वाला तो हमारा मस्तिष्क ही है, तथा मस्तिष्क का रुझान मन पर, मन के संस्कारों पर निर्भर करता है। हम उत्तर भारतीयों की मानसिक स्थिति तो रसातल में पहुँच चुकी है। मानसिकता को नियंत्रित व निर्देशित करने वाली आध्यात्मिकता से तो जैसे अधिकांश का सरोकार ही नहीं रह गया है! तभी तो सब विभागों में बेमन से कार्य होता है, यंत्रवत सा! जब सम्बंधित कर्मचारी को कोई अतिरिक्त निज स्वार्थपूर्ति होती नहीं दिखती, तब कहीं-कहीं कार्य होता ही नहीं है और कहीं त्रुटियों का अम्बार लग जाता है।

ऐसा नहीं कि सबके कार्य गड़बड़ हो जाते हों, पर इतना अवश्य कहूँगा कि वे मात्र भाग्यशाली होते हैं जिनके कार्य सही-सही हो जाते हैं। यह मेरा निजी एवं पक्का अनुभव है। परन्तु इसके विपरीत आप अपने कार्य करवाने के लिए थोड़ा टेढ़ा, थोड़ा अधार्मिक, थोड़ा भ्रष्ट तरीका अपनाते हैं तो न केवल आपके कार्य सरलता से हो जाते हैं, बल्कि कुछ असंभव से दिखने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं, जैसा पाकिस्तानी गुप्तचर सैयद आमिर अली के प्रकरण में हुआ। पाकिस्तानी नागरिक होते हुए भी उसके सब दस्तावेज लगभग ठीक-ठीक बन गए बिलकुल आसानी से! एक-दो दस्तावेजों को छोड़ कर उसके शेष सभी दस्तावेज असली पाए गए। किसी में कोई गलत पता यदि पाया गया तो वह इसलिए क्योंकि वह गुप्तचर ऐसा ही चाहता था। समाचारपत्र के सूत्रों के अनुसार पासपोर्ट कार्यालय व डाक विभाग में ऐसा कोई समझौता है कि पासपोर्ट स्पीड-पोस्ट द्वारा भेजा जाएगा और डाकिया पासपोर्ट का लिफाफा केवल सम्बंधित व्यक्ति को ही सौंपेगा, परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि गलत पता लिखा होने के बावजूद पासपोर्ट उस गुप्तचर तक पहुँच गया! पता गलत होने के बावजूद भी पुलिस वेरीफिकेशन हो गया! बाद में उस गुप्तचर ने उसी पासपोर्ट के आधार पर ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवा लिया।

सच में हमारे समूचे तंत्र में घुन लग गया है। सरकार केवल भौतिक प्रगति के रथ दौड़ाने में लगी है! सुलझी मानसिकता, कर्त्तव्यपरायणता, ईमानदारी, पारदर्शकता दुर्लभ हो गए हैं। मानवीय मूल्यों के उत्थान की छोड़िए, उनके संरक्षण या उनको यथावत बनाए रखने तक का बोध नहीं है! येनकेन-प्रकारेण सब चल रहा है, बल्कि भाग रहा है! सारथी के योग्य या अयोग्य होने पर तो प्रश्न तब उठे जब कोई सारथी रथ पर हो! धार्मिक (righteous) लोग किसी तरह यहाँ जीवन की लड़ाई लड़ रहे हैं और निज कर्म जनित प्रारब्ध को यहाँ भोग रहे हैं।

मुस्कुराइए कि आप उत्तर भारत की राजधानी में हैं! ..... इति।

पुनश्चः -- हाँ, एक काम यहाँ बहुत बढ़िया हो रहा है कि घर-घर पोलियो ड्रॉप पिलाने वाली टीम नियमित रूप से अपना कार्य मुस्तैदी से कर रही है। उनके सदस्य लगभग हर द्वार पर समय से पहुंचते हैं। किसी कारणवश घर पर बच्चे के उस समय न मिल पाने पर वे आपके सुझाए समय पर दोबारा आपके घर आते हैं। उनके पीछे-पीछे एक दूसरी टीम उनकी जांच करती चलती है। मैं सोचता हूँ कि यहाँ घर-घर जा कर मतदाता पहचान पत्र बनाने का या बिल आदि समय से वितरित करने का या अन्य किसी जाँच का अतिरिक्त कार्य भी इसी टीम को सौंप दिया जाए। मेरा दावा है कि इन कार्यों पर इस समय हो रहे खर्च से कहीं कम पर ये सभी कार्य कुशलता से व त्रुटि-रहित संपन्न हो जाएंगे। इस टीम का प्रबंधन वास्तव में प्रशंसा के योग्य है।

Friday, October 2, 2009

(२२) मोहनदास करमचंद गाँधी

आज गाँधी जयंती है। सुबह उठते ही समाचारपत्र में गाँधी जी से सम्बंधित अनेक लेखों के दर्शन हुए। कल गाँधी जी से सम्बंधित कुछ पुस्तकें भी फिर से पढ़ रहा था। सो मन में विचार आया कि आज उन्हीं सब में से कुछ संकलित कर लिखूं। सबसे पहले मैं गाँधी जी से सम्बंधित वह बात लिखना चाहूँगा जिससे मिलता-जुलता उल्लेख मैंने अपने पिछले लेख 'मार्गदर्शकों का आचरण' में भी किया था।

व्यक्ति-पूजा के तीव्र विरोधी

महात्मा गाँधी व्यक्ति-पूजा के तीव्र विरोधी थे और बहुत सजग रहते थे कि कहीं लोग उन्हें भी भगवान की तरह न पूजने लगें। अहमदाबाद में साबरमती आश्रम एवं गाँधी स्मारक संग्रहालय की देखरेख कर रहे श्री अमृत मोदी जी ने बताया कि कुछ लोगों द्वारा १९२७-२८ में तत्कालीन मद्रास व सौराष्ट्र में गाँधी जी की पूजा के लिए दो मंदिर बनाये गए। लेकिन गाँधी जी ने कड़ा विरोध कर अपने सामने उन मंदिरों को तुड़वा दिया। इसी प्रकार एक बार कस्तूरबा ने गाँधी जी के प्रवास के दौरान उनकी मंगलकामना के लिए उनके चित्र के सामने दीपक जला कर प्रार्थना कर ली। जब गाँधी जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने कस्तूरबा को डांटा-डपटा और उन्हें आगे से ऐसा कोई कार्य नहीं करने का कड़ा निर्देश दिया जिससे व्यक्ति-पूजा को बढ़ावा मिलता हो।

श्री मोदी ने आगे कहा कि महात्मा गाँधी इस बात से भली-भांति परिचित थे कि भारत की जनता व्यक्ति-पूजा की आदी है और अपने जीवन में कोई न कोई आदर्श ढूंढती रहती है। वह बहुत सरलता से किसी को अपना नायक बना कर भावनावश उसकी पूजा आरंभ कर देती है।

महात्मा गाँधी संभवतः देश के एकमात्र ऐसे नेता थे जिनके पास अपने नाम पर कोई संपत्ति नहीं थी। वह सही अर्थों में अपरिग्रह के सिद्धांत का पालन करते थे। इस सिद्धांत का पालन करने में वह किस सीमा तक जा सकते थे इसका एक दृष्टान्त है कि जब ब्रिटिश सरकार ने डांडी यात्रा के बाद स्वतंत्रता सेनानियों की संपत्ति जब्त करनी आरंभ कर दी तो उन्होंने सरकार से कहा कि वह साबरमती आश्रम भी जब्त कर ले, परन्तु ब्रिटिश सरकार ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकी। बाद में गाँधी जी ने स्वयं आश्रम बंद करने का निर्णय लिया और इसे हरिजन सेवक संघ को सौंप दिया।

गाँधीवादी सच्चाई की ओर सबको लौटना ही होगा

गाँधीवादी विचारक चुनी भाई वैद्य के अनुसार महात्मा गाँधी के विचार पत्थर की लकीर जैसे हैं। कोई कुछ भी कह ले, उन्हें गालियाँ देने में अपनी शान समझे या देश की बर्बादी के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने का अनुचित दुस्साहस करे, पर सत्य यही है कि आज पहले से भी कहीं अधिक दुनिया को बापू के सिद्धांतों पर अमल करना आवश्यक लगने लगा है। यदि सही अर्थ में विश्व में सुख-शांति की आवश्यकता है तो गाँधीवादी सच्चाई की ओर सबको लौटना ही होगा। आतंकवाद का सामना व समाप्ति हेतु शांति, प्रेम और अहिंसा की नींव दृढ करनी ही होगी। यदि आज आतंकवाद व साम्प्रदायिकता जैसी समस्याएं सर उठा रही हैं तो उसके मूल में यही है कि गाँधीवादी शक्तियां दुर्बल पड़ गयीं हैं।

खेद की बात है कि आज बापू का नाम लेने वाले और उनकी पूजा करने वाले लोग तो बहुत दृष्टिगत हो रहे हैं परन्तु उनकी नीतियों व शिक्षाओं का वास्तविक अनुसरण करने वाले घटते चले जा रहे हैं। गाँधी के कार्य को आगे बढाने हेतु खादी और चरखा ही पर्याप्त नहीं है वरन इस मूल भावना से जुड़ना होगा कि प्रत्येक समस्या का समाधान गाँधीवादी सिद्धांतों के आधार पर संभव है।

सत्य एवं अहिंसा का मार्ग अपनाना आवश्यक

८५ वर्षीय श्री नारायण देसाई जो लगभग २३ वर्षों तक बापू के सान्निध्य में रहे, कहते हैं कि आतंकवाद और भष्टाचार के इस दौर में गाँधी जी के बताये सत्य और अहिंसा के मार्ग को गंभीरता से समझने व अपनाने की सबसे अधिक आवश्यकता है। आज भी सत्य, अहिंसा और प्रेम प्रासंगिक हैं। इनसे ही सुखद और विकसित भविष्य की आशा की जा सकती है। लोगों को बापू के बताये इन रास्तों पर चलना अत्यधिक कठिन व चुनौती भरा लग सकता है, पर जो इस मार्ग पर चलते हैं उन्हें कोई भय नहीं सताता और वे हर प्रकार के तनावों व बीमारियों से मुक्त रहते हैं। सादा जीवन उच्च विचार रखने से झूठे लालच आपको जीवन में गिरने, झुकने या कमजोर नहीं पड़ने देते। यह भौतिक सुख-साधनों से अधिक संतोष प्रदान करने वाली जीवन पद्धति है। अपनाकर तो देखिये।

ईमानदारी और सच्चाई से ही मिलती है संतुष्टि

श्री तुषार गाँधी के शब्दों का सार कुछ इस प्रकार है कि - जीवन प्रासंगिक है तो बापू अप्रासंगिक नहीं हो सकते। यदि आज सत्य व अहिंसा की आवश्यकता है तो बापू आज भी प्रासंगिक हैं। आज की परिस्थितियों में बापू को याद करना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उनके बताये रास्तों पर चलना भी आवश्यक है। हिंसा और आतंक निरंतर बढ़ रहे हैं। परिवार, समाज, गाँव, शहर, राज्य और देश में एकता का अभाव है। रोजगार कम व मंहगाई अधिक है। भाषावाद और प्रांतवाद को लेकर झगडे हो रहे हैं। प्रकृति का शोषण हो रहा है। अमीरी-गरीबी का फासला बढ़ रहा है। गाँवों का वास्तविक विकास थमा हुआ है। ऐसे में आवश्यकता है कि हम बापू के विचारों के अनुसार चलें, तभी हमारे देश का भी विकास होगा।

हर किसी का लक्ष्य संतुष्टि है। ईमानदारी व सच्चाई के साथ काम किया जाये तो संतुष्टि मिलती है। जीवन में हार-जीत तो होती ही रहती है। ऐसा नहीं है कि मात्र लक्ष्य को प्राप्त करना ही महत्त्वपूर्ण है, बल्कि महत्त्व इसका है कि बापू के श्रेष्ठ विचारों व शिक्षाओं के अनुरूप कितना चलते हैं। उनके विचारों के साथ चलने में कष्ट नहीं है, बल्कि एक अलग आनंद व संतुष्टि की अनुभूति मिलती है।

उपरोक्त सर्व उद्धरणों का आधार लखनऊ से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र 'हिंदुस्तान' का ०२ अक्टूबर २००९ का अंक था। उनके प्रति आभार!

.... अब मैं कुछ वैयक्तिक विचार प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँ, जो मैं समझता हूँ कि अधिकांश जनों के भीतरी विचार होने चाहियें। ऐसा नहीं है कि मैं पूर्णतया अहिंसावादी व पाक-साफ़ हूँ। मेरे को भी बहुत क्रोध आता था, जब कुछ गलत होते देखता था। अति होने पर मन में कभी-कभी यह भी विचार आता था कि अमुक किसी प्रकार से मर जाये या मारा जाये या उसका कोई बड़ा नुकसान हो जाये अर्थात् दुष्ट को उसके किये की सजा मिल जाये। पर विचार कीजिये कि यदि वह कोई अपना निकट होता है, परिवार का सदस्य होता है तो हम उसके विषय में इतना कड़ाई से नहीं सोचते। तब हम मुलायम रास्ता खोजते हैं। पहले उसे हर प्रकार से बचाते हैं, उसके दोष को छुपाते हैं; फिर अगले चरण में हम अथक प्रयास कर उसे समझाते हैं कि वह दुष्टता को छोड़ दे। उसे यह ढाढ़स देते हैं कि भूतकाल को वह भूल जाये व नए सिरे से एक नया अध्याय आरंभ करे। हो सकता है कि वह हमारी बात न माने और हमारे प्रयासों के प्रत्युत्तर में हमें ही घात करे, क्षति पहुंचाए। तब पर भी हम एक सीमा तक उसका प्रतिघात सहते हैं और उसे प्रेमपूर्वक मनाते रहते हैं। अंत में या तो वह सुधर जाता है या फिर अपने कुकर्मों का फल भोगता है जैसे प्राचीनकाल में भी अतिवादियों ने भोगे थे।

आप यह भली-भांति समझ ही गए होंगे कि हम बहुत कष्ट सह कर भी उस व्यक्ति को बचाने व सुधारने का अथक प्रयास क्यों करते रहे? क्योंकि वह 'अपनों' की श्रेणी में आता था। हमारा 'अपनों' का दायरा कितना बड़ा है? यह बहुत छोटा सा ही है। क्यों? क्योंकि हम व्यापक नहीं हैं! हम व्यापक क्यों नहीं हैं? क्योंकि हम अपने आप को दूसरों के कारण असुरक्षित महसूस करते हैं। हमें लगता है कि हर वह व्यक्ति जो 'अपनों' की श्रेणी में नहीं है, स्वार्थी हो सकता है और हमें क्षति पहुंचा सकता है। यह स्वार्थ क्या है और यह कहाँ से आया? स्वार्थ यानी केवल अपने या 'अपनों' के विषय में ही विचार करना, अन्यों की परवाह न करना व उनके प्रति सशंकित रहना। यह अस्तित्व में आया है हमारी संग्रह करने एवं बेतहाशा भोग करने की वृत्ति से। हमारा संग्रह व भोग 'अपनों' तक ही सीमित होता है। 'पैसा' या 'धन' रूपी शक्ति भी एक बड़ा कारक है स्वार्थ के अस्तित्व व पोषण हेतु।

आज हम प्राकृतिक संसाधनों का जम कर दोहन कर रहे हैं। हमारा लोभ बहुत बढ़ गया है। हमारी अधिकांश गतिविधियों का केंद्र 'धन' की 'खेती' करना ही होता है। कोई भी काम करवाते या करते समय हम सतत यह विचार करते रहते हैं कि हमें कोई बेवकूफ न बनाने पाए, हमारा हर काम सस्ते में हो जाये पर हमें हमारे काम का अधिक से अधिक मूल्य मिले, मेरा माल महंगे से महंगा बिक जाये किसी प्रकार! अर्थात् अन्यों को निर्धन व स्वयं को धनी बनाने की वृत्ति बहुत बढ़ गयी है। इसीसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढती जा रही है। या कम से कम परस्पर कटुता व प्रतिस्पर्धा तो बढती ही जा रही है। अपना माल अधिक मुनाफे पर बेचने के लिए व्यापारी अब कहाँ-कहाँ नहीं चला जाता। आधुनिक यातायात संसाधनों व अन्य संचार माध्यमों ने इस वृत्ति की बड़ी मदद की है!

गाँधी जी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' पढिये। १९०९ में लिखी थी शायद उन्होंने, पर आज भी प्रासंगिक है। क्या गलत कहा था उन्होंने जो लोग भड़कते हैं। यथार्थ तो यह है कि आज कोई बेनकाब नहीं होना चाहता। सत्य का सामना करने से बड़ी तकलीफ होती है। ग्रंथों में पढेंगे, भाषण देंगे कि - सम्पूर्ण विश्व मेरा घर है, पर यथार्थ में होंगे अति सीमित। हमारा 'अपनों' का दायरा बहुत छोटा सा है, गाँधी जी का बहुत बड़ा था। गाँधी जी ने अहिंसा व प्रेम के माध्यम से इसी बात को कृत्य के स्तर पर लागू किया अर्थात् व्यापकत्व को चरितार्थ किया, तो सब लोग उन्हें अप्रासंगिक ठहराते हैं।

हम जानते हैं और हमारे वैज्ञानिक भी बराबर चेताते रहते हैं कि प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं, फिर भी हम उन संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपभोग कर रहे हैं। यहाँ तक कि अब किसी देश के विकसित होने का प्रमाण व पैमाना वहां पर हो रहे सामग्री-उपभोग पर आधारित है। कितनी हास्यास्पद बात है! सब जानते हैं; पर वही बात सत्यता व शुद्धता से गाँधी जी ने कही कि - प्रकृति के पास सब की आवश्यकताओं के लिए तो भरपूर है पर लोभ के लिए नहीं, तो सब लोग उन्हें अप्रासंगिक ठहराते हैं! रेलों, डॉक्टरों, वकीलों, मशीनों आदि को यदि बापू ने कोसा, तो उसके पीछे ठोस आध्यात्मिक कारण थे। क्योंकि तब भारतीय इतने परिपक्व नहीं थे कि इन सब विधाओं और शक्तियों का उपयोग सर्वहित में कर सकें। सच तो यह है कि तब से आज तक भारत में नैतिकता की स्थिति पहले की अपेक्षा बदतर ही हुयी है। परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इसका कारण धन व यश की पिपासा ही है। आज विशिष्ट योग्यता, सामर्थ्य व बल का प्रयोग मात्र इसी उद्देश्य से ही होता दीख रहा है।

उपरोक्त-वर्णित यह सब कार्य मनुष्य की प्राकृतिक जीवन शैली के बिलकुल विपरीत है। तभी गाँधी जी स्वराज्य पर बल देते थे। स्वराज्य माने स्व का, आत्मा का; आत्मिक राज्य, नैसर्गिक कानूनों व सिद्धांतों पर आधारित राज्य। यह बात समझनी थोडी कठिन है, परन्तु इस ब्लॉग के अन्य लेख पढ़ कर आप इसे कुछ-कुछ समझ सकते हैं। गाँधी जी ने भी प्राकृतिक रूप से जीवन जीने पर जोर दिया, यह अलग बात है कि लोग उनके मंतव्य व व्यापकत्व को ठीक से समझ नहीं पाए। आज जो समझते हैं, वे उनको योग्य सम्मान देते हैं, उन्हें सराहते हैं, उनके आदर्शों पर चलने का प्रयास करते हैं। विदेशों में उनके प्रशंसकों की संख्या बहुत बढ़ रही है। क्योंकि जो धीरे-धीरे सही अर्थों में विकसित हो रहे हैं, वे सत्य से नहीं भागते, ... और गाँधी जी के विचार कालजयी हैं और सर्वकाल उपयोगी हैं, अतः सत्य का सामना व समर्थन करने वालों को उनका दृष्टिकोण मान्य होगा ही।

एक बात और कि गाँधी जी ने स्वयं को कभी भी संत या महापुरुष घोषित नहीं किया और न ही मेरा भी ऐसा कोई आग्रह है। कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो, गलतियाँ तो होती ही हैं। फिर जब हम सीखने वाले के स्थान पर होते हैं तो हमें शुद्ध मन से केवल सत्त्व को ग्रहण करना आना चाहिए। और व्यक्ति के देह त्याग के पश्चात् उसके कुछ गलत कृत्यों को कोसते रहना मूर्खता ही है, उससे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं। संभवतः उन्होंने कई वैयक्तिक गलतियाँ की हों पर उन्होंने कोई गलत शिक्षा कभी भी नहीं दी। उनके समस्त कृत्यों पर यदि हम दृष्टिपात करें तो संभवतः अयोग्य कृत्यों का प्रतिशत योग्य की तुलना में बहुत ही कम होगा। ... ऐसे ही पूरा विश्व उनका प्रशंसक नहीं है! यदि हम सकारात्मक दृष्टिकोण रख कर निहारें तो निश्चित रूप से यह पायेंगे कि उनकी तथाकथित गलतियाँ भी उनके व्यापकत्व एवं निरपेक्ष प्रेम के गुण को ही दर्शाती हैं। इति।